आजादी बोले तो...

'मंगल पांडे' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और रिजेक्ट कर दिया। 'रंग दे बसंती' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और सर आंखों पर बिठा लिया। पहली फिल्म देशभक्ति का नाम लेकर रिलीज हुई, लेकिन फ्लॉप रही, दूसरी फिल्म आम मसाला फिल्म कहकर रिलीज हुई और देशभक्ति पर आधारित फिल्म का दर्जा पा गई। सवाल है, आखिर क्यों मंगल पांडे जैसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर आधारित फिल्म को लोगों ने ठुकरा दिया, लेकिन एक साथी की मौत से नाराज कुछ दोस्तों के हथियार उठा लेने की कहानी का समर्थन किया?

वास्तव में इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। दरअसल, जहां देशों की सीमाएं दिनोंदिन कमजोर हो रही हों और लोग देश से ज्यादा ग्लोबल हलचलों या फिर आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे हों, वहां देशभक्ति का मतलब बदलना कोई बड़ी बात भी नहीं है। शायद यही वजह है कि बंदे मातरम् का नारा लगाने से ज्यादा जरूरी अब लोगों को यह लग रहा है कि वे प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए जंतर-मंतर पर आवाज बुलंद करें। उन्हें यह महसूस होने लगा है कि उनकी आजादी को विदेशी शक्तियों से ज्यादा खतरा अपने समाज में मौजूद असामाजिक तत्त्वों से है और शायद यही वजह है कि वे जंग खा रहे सिस्टम से लड़ने वालों का समर्थन कर रहे हैं। फिर चाहे वह कोई फिल्मी नायक हो या जेसिका लाल का पिता।

वैसे, इसमें कोई शंका नहीं कि आज हम आम भारतीय जिन समस्याओं से गुजर रहे हैं, उनके लिए खुद हम भी कम दोषी नहीं हैं। अगर हमने पिछले छह दशकों में आजादी को सही अर्थों में लिया होता और उसका सही मूल्य समझा होता, तो शायद हम आज जिस स्टैंडर्ड की आजादी भोग रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा आजाद होते। अपनी आजादी के लिए अभी भी हम अधिकार तो ढूंढते हैं, लेकिन कर्त्तव्यों की परवाह नहीं करते और यही वजह है कि आखिरकार अधिकार भी धीरे-धीरे हमारे हाथों से जा रहा है।
क्या यह सच नहीं है कि हम सैद्धांतिक रूप से जितने आजाद हैं, प्रैक्टिकल में दिनोंदिन हमारी आजादी उतनी कम हो रही है? प्राइवेटाइजेशन के इस युग में हमारी परेशानियां चाहे जितनी घटी हों, लेकिन यह भी सच है कि हमारी तमाम तरह की दिक्कतें बढ़ रही हैं और इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार भी हैं।
इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है। कभी दिल्ली में बिजली देने का काम सरकारी विभाग का था। हम जनता में से ही कोई वहां अधिकारी था, तो कोई कर्मचारी और कोई उपभोक्ता। हम सब ने मिलकर उस विभाग का बेड़ा गर्क कर दिया। उपभोक्ता ने बिजली चोरी की, कांटा फंसाया, मीटर धीमा कराया और भी तमाम वे काम किए, जो गैरकानूनी हो सकते थे। अधिकारियों व कर्मचारियों ने भी इस खेल में खूब हाथ बंटाया और महलें खड़ी कीं। सबने वर्षों क्या, दशकों तक इस स्थिति का लाभ उठाया, लेकिन आज स्थिति क्या है? स्थिति यह है कि बिजली प्राइवेट हाथों में हैं और हमारे तमाम विरोधों के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीटर हमारा खून जला रहा है। हम उस पर सुपरफास्ट होने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन सरकार भी इस स्थिति में नहीं है कि हमें उससे निजात दिला सके। उस पर तुर्रा यह कि बिजली भी हमेशा नहीं रहती। जिन लोगों ने कभी बिजली चोरी के पैसे से महल खड़े किए, वे आज बल्ब जलाने के लिए इन्वर्टर खरीद रहे हैं। जब तक बिजली सरकारी थी, गरीबों की बस्ती भी जगमगाती थी, लेकिन आज चोरी के नाम पर वहां रोज सोलह घंटे लाइट काट ली जाती है और कोई विरोध भी नहीं कर पाता!

जाहिर है, एक सरकारी विभाग को हमने ही बंद करवा दिया और प्रैक्टिकली आज हमारे पास इतनी भी आजादी नहीं है कि हम प्राइवेट बिजली कंपनियों के गलत कदमों का विरोध कर सके।

तो आज के दिन की मांग है कि हम अपने अधिकार के साथ अपने कर्त्तव्यों को भी देखें। शायद तभी हम अपनी आजादी को कायम भी रख पाएंगे।

टिप्पणियाँ

रवि रतलामी ने कहा…
आपने सही विवेचना की है. मप्रविमं में भी यही हुआ. बढ़िया प्रोफ़ेशनली मैनेज्ड लाभ वाली कंपनी को मुफ़्त बिजली बांटने का सरकारी आदेश देकर इसे दीवालिया बना दिया और अब मुफ़्त तो क्या बिजली ही बांटने के लिए बिजली नहीं है!
बेनामी ने कहा…
भैये मुफ्त में मिले की किंमत नहीं होती, इस लिए कोई भी वस्तु मुफ्त नहीं मिलनी चाहिए. हमारे यहाँ बिजली महंगी हैं पर एक पल के लिए जाती नहीं और बीना यु पी एस के कमप्युटर चलाते हैं. बिल देख दील जलता हैं पर समझदारी से उपयोग करना सिख लिया हैं.
Udan Tashtari ने कहा…
सही फ़रमाया.मुफ़्त की चींजों को बिल्कुल इज्जत नही है.हमेशा दुरुपयोग होता है और उस पर भी कोई अहसान तक नही मानता.

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