भंवर में गुरुजी

हर साल ५ सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन तमाम अन्य 'दिवसों' की तरह लगता है यह भी बस रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है। वजह, कहते हैं कि न तो अब 'वैसे' गुरु इस दुनिया में रहे और न ही 'वैसे' चेले। बदल जाने का आरोप गुरु और चेले दोनों पर है, लेकिन दोनों ही इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। सवाल है कि असलियत क्या है?

दरअसल, पूरे परिदृश्य को देखें, तो लगता है जैसे गुरु को इसके लिए जितना गुनहगार माना जाता है, उतना वे हैं नहीं। गुरु अगर आज 'टीचर' बन गए हैं, तो इसके पीछे कई वजहें हैं और बिना उन वजहों की पड़ताल के उन्हें गुनहगार ठहराना जायज नहीं। हम गौर करें, तो पाएंगे कि टीचर का यह बाना गुरुओं ने मजबूरी में भी धारण किया है! और इसके लिए उन्हें जिन चीजों ने सबसे ज्यादा मजबूर किया है, वे हैं- आज का विकट भौतिकवाद, अनुशासन की छड़ी को रोकती कानून की तलवार, निरीह मानव की बनती उनकी छवि और खुद बच्चों के पैरंट्स का खराब रवैया।

बेशक 'टीचर युग' की शुरुआत से पहले कम पैसा पाने के बावजूद लोग गुरुजी बनना चाहते थे। तब शिक्षक के पेशे को अपनाने के लिए जो चीज लोगों को सबसे ज्यादा प्रेरित करती थी, वह थी इस पेशे को मिलने वाला अथाह सम्मान और चेलों के कुछ बन जाने पर मिलने वाली बड़ी आत्मसंतुष्टि। वजह और भी कई थीं- - तब अपने यहां इतना भौतिकवाद नहीं था, दुनिया की सभी चीजें हम अपने घर में इकट्ठी नहीं कर लेना चाहते थे। तब पैसा व पावर ही दुनिया में सम्मान नहीं दिलाते थे, लोग पेशे की पवित्रता को देखते थे और इसीलिए प्रधानमंत्री व करोड़पति भी शिक्षक के सामने नतमस्तक रहते थे। उनके पास पैसा व पावर नहीं था फिर भी वे आज की तरह 'निरीह प्राणी' नहीं समझे जाते थे। जाहिर है, अगर सामाजिक सम्मान पाने के लिए आपके पास धन का होना अनिवार्य हो, तो आप हर हाल में बस पैसा कमाना चाहेंगे और सच मानिए इसी 'जरूरत' ने 'गुरु' को 'टीचर' बना दिया।

लोग कहते हैं, शिक्षक अब अपने कर्त्तव्य को लेकर उदासीन हो गए हैं। वाकई में ऐसा हुआ है, जानते हैं क्यों? वह इसलिए क्योंकि वे आज दुधारी तलवार पर चल रहे हैं। कोई भी साइड सेफ नहीं। पैरंट्स को अच्छे बच्चे भी चाहिए, लेकिन उसके लिए गुरुजी की छड़ी नहीं चाहिए। बच्चे बिना अनुशासित हुए पढ़ नहीं सकते और बच्चों में अनुशासन बिना डांट-डपट और छड़ी के भय से आ नहीं सकता। अब इस विकट स्थिति में गुरुजी क्या करें? उदासीन होना उनकी मजबूरी है। वे तो बस किसी तरह नौकरी का एक-एक दिन काट लेना चाहते हैं।

अनुशासनहीनता का आलम यह है कि नेता बनने के लिए शिष्य गुरुओं की छाती की हड्डी तोड़ देते हैं, उन्हें मौत के मुंह में पहुंचा देते हैं और वह भी महाकालेश्वर की उस नगरी में जहां गुरु-शिष्य परंपरा ने सदियां गुजारी हैं। आखिर जब चेले इतने अनुशासनहीन हों और कानून व पैरंट्स के भय से आप उन्हें डांट भी नहीं सकें, तो कोई भी गुरु क्या कर सकता है? वह अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन ही हो सकता है और इसीलिए हो रहा है। उदासीनता की एक बड़ी वजह, उन्हें मिलने वाला पैसा भी है। सरकारी कर्मचारियों में सबसे कम पैसा उन्हें ही मिलता है, तनख्वाह के मामले में वह बस चपरासी से ऊपर है और क्लर्क के बराबर। लेकिन क्लर्कों की ऊपरी आमदनी उनकी तनख्वाह से कई गुना ज्यादा होती है। सरकारी स्कूलों का मामला तो तब भी ठीक है, लेकिन प्राइवेट टीचर तो बस रामभरोसे हैं। उनसे दस्तखत करवाया जाता है १० हजार रुपये पगार के पेपर पर, तो मिलते हैं महज चार हजार। सरकार के यहां कोई ऐसा कानून नहीं, जो शिक्षा माफियाओं से उन्हें रहम दिला सके। जाहिर है, 'मजबूर' और 'लाचार' उन्हें इसी समाज और व्यवस्था ने बनाया है। और अपनी इसी छवि या स्थिति से निकलने के लिए 'गुरुजी' अब 'टीचर' बन गए हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन हो गए हैं। लेकिन उनकी यह उदासीनता हमारे लिए ठीक नहीं, क्योंकि नौनिहालों को जिम्मेदार नागरिक बस वहीं बना सकते हैं।

तो क्या टीचर फिर से गुरु बन सकता है? शायद नहीं, क्योंकि माया और राम में से हम एक ही पा सकते हैं और आज के समय में माया के सामने राम कहीं नहीं ठहरते!

टिप्पणियाँ

रत्ना ने कहा…
आज की दशा का सही चित्रण किया है।

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

अकेला गण, एतना विरोधी तंत्र

महिलाओं के सखा बनें पुरुष

आजादी के नाम पर...