संदेश

दिसंबर, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ये दुनिया ऊटपटांगा

किस्से-कहानियों में जिन लोगों ने शेखचिल्ली का नाम सुना है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह एक ऐसा कैरेक्टर है, जिसकी दुनिया पूरी तरह ऊटपटांग है। किस्से-कहानियों को छोडि़ए जनाब, अब तो वास्तविक जिंदगी में भी ऐसी तमाम बातें होती रहती हैं, जो शेखचिल्ली और उसकी ऊटपटांग दुनिया की याद दिला जाती हैं। नए साल के आने की खुशी में क्यूं न साल की कुछ ऐसी 'ऊटपटांग' घटनाओं को याद कर लिया जाए, जो अजीब होने के साथ-साथ हमारे मन को गुदगुदा भी गईं: हिमेश रेशमिया: कंठ नहीं, नाक पर नाज किसी का सुर मन मोह ले, तो कहते हैं कि उसके गले में सरस्वती का वास है, लेकिन हिमेश के मामले में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो क्या हिमेश की नाक में सरस्वती का वास है? लगता तो कुछ ऐसा ही है। संगीतकार से गायक बने हिमेश की नाक ने ऐसा सुरीला गाया कि इतिहास लिख दिया। इस साल उनके तीन दर्जन गाने सुपर हिट हुए, जो ऐतिहासिक है। हालत यह रही कि रफी-लता को सुनकर बड़े हुए पैरंट्स हिमेश को गालियां देते रहे और उनके बच्चे हाई वॉल्यूम पर 'झलक दिखला जा...' पर साल भर थिरकते रहे। आनंद जिले के भलेज गांव में तो गजब ही हो गया। वहां के ग्रामीणो

राजनीति की बिसात

इस साल राजनीति की बिसात पर काफी कुछ हुआ। इनमें से कुछ देश के लिए बेहतर रहे, तो कुछ बदतर। कुछ ने देश व समाज को जोड़ा, तो कुछ ने तोड़ा। कुछ पार्टियों और नेताओं ने अपनी ताकत बढ़ाई, तो कुछ की घट गई। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव, आरक्षण की बात, वंदेमातरम् पर विवाद और अफजल गुरु के फांसी पर दांवपेंच जैसी कई चीजें इस साल की खास बात रही। एक जायजा साल भर के राजनीतिक परिदृश्य का: शहीद वोट से बड़ा नहीं ऐसा कभी पहले सुना नहीं गया। इससे पहले शायद ही किसी आतंकवादी को लेकर नेताओं में इतनी व्यापक 'सहानुभूति' रही हो, जो इस साल दिखी। जब कोर्ट ने संसद पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई, तो उस फैसले पर अमल रोकने की पैरवी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से लेकर कई केंद्रीय मंत्री तक ने की। संसद पर हुए हमले में शहीद हुए जांबाजों के परिजनों ने शौर्य पदक तक लौटा दिए, लेकिन सरकार जैसे सब कुछ 'भूल' चुकी है। वोट के डर से... आजादी के बाद के छह दशकों में राष्ट्रीयता की भावना कभी इतनी शर्म की चीज नहीं बनी। जिस राष्ट्रीय गीत 'वंदेमातरम्' को गा-गाकर हजारों लोग

साल का खिताबी किस्सा

साल के अंत में खिताब बांटने की परंपरा रही है। मतलब ई कि साल का सबसे बढ़िया कौन, सबसे घटिया कौन, सबसे बेसी काम लायक कौन, सबसे कम काम लायक कौन... जैसन तमाम खिताब दिसंबर में बांटा जाता है। ऐसन में हमने भी कुछ खिताब बांटने का फैसला किया, आइए उसके बारे में आपको बताता हूं। एक ठो सरकारी संगठन है 'नेशनल नॉलेज कमिशन'। इस साल का 'सबसे बड़ा मजाक' इसी संगठन के साथ हुआ। हमरे खयाल से किसी ने जमकर जब भांग पिया होगा, तभिए उसको ऐसन संगठन बनाने की 'बदमाशी' सूझी होगी। नहीं, तो आप ही बताइए न, आरक्षण के जमाने में ऐसन संगठन बनाना जनता के साथ 'मूर्ख दिवस' मनाना ही तो है। बेचारे 'ज्ञानी आदमी' सैम पित्रोदा पछता रहे होंगे कि इसका मुखिया बनकर कहां फंस गया! वैसे, हमरे एक दोस्त का कहना है कि फंस तो पराइम मिनिस्टर बनकर मनमोहन सिंह भी गए हैं औरो इस साल का 'सबसे बड़का चुटकुला' यही हो सकता है कि मनमोहन सिंह पराइम मिनिस्टर हैं। उसके अनुसार, इस पोस्ट के साथ ऐसी दुर्घटना कभियो नहीं घटी, जैसन कि इस साल घटी है। का है कि परधानमंतरी तो मनमोहन हैं, लेकिन सरकार का सारा काम हुआ सो

बीत गया साल पहेली में

एथलीट एस. शांति ने दोहा एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल जीता था, जो उससे छीन लिया गया। कहा गया कि महिलाओं की दौड़ जीतने वाली शांति महिला नहीं, पुरुष है। ई 'सत्य' जानकर बहुतों को झटका लगा, लेकिन हम पर इसका कोयो इफेक्ट नहीं हुआ। का है कि साल भर हम ऐसने झटका सहता रहा हूं। हमने जिसको जो समझा, ऊ कमबख्त ऊ निकला ही नहीं। जिसको हमने गाय समझा, ऊ बैल निकला औरो जिसको बैल समझा, ऊ गाय। अब देखिए न, पूरे साल हम ई नहीं समझ पाए कि शरद पवार कृषि मंतरी हैं कि किरकेट मंतरी। उन्हीं के गृह परदेश में विदर्भ के किसान भूखे मरते रहे, आत्महत्या करते रहे, लेकिन उन्होंने कभियो चिंता नहीं की। पैसे का भूखा बताकर ऊ जगमोहन डालमिया को साल भर साइड लाइन करने में लगे रहे, लेकिन कृषि मंतरी होने के बावजूद उन्होंने विदर्भ में खेती बरबाद करने वाले पैसे के भूखे अधिकारियों को कुछो नहीं कहा। देश की खेती को दुरुस्त करने के बदले ऊ किरकेट की अपनी पिच दुरुस्त करते रहे। हमरे समझ में इहो नहीं आया कि गिल साहब हाकी के तारणहार हैं या डुबनहार। ऊ तारणहार होते तो भारतीय हाकी अभी चमक रही होती, लेकिन चमक तो खतम ही हो रही है। इसका मतलब उनक

सीधी बात हजम नहीं होती

समय बदलने से लोगों की मानसिकता केतना बदल जाती है, हमरे खयाल से ई रिसर्च का बहुते दिलचस्प बिषय है। एक समय था, जब किसी काम में तनियो ठो लफड़ा होता था, तो हमरी-आपकी हालत खराब हो जाती थी। लगता था, पता नहीं किसका मुंह देखकर सबेरे उठे थे कि एतना परॉबलम हो रहा है। लेकिन आज अगर बिना लफड़ा के एको घंटा बीत जाता है, तो लगता है जैसन जिंदगी का सारा रोमांचे खतम हो गया। मतलब, लोगों को अब लफड़े में बेसी आनंद मिलता है। बिना लफड़ा के लाइफ में कौनो मजा नहीं होता। अब वर्मा जी को ही लीजिए। बेचारे कहीं से आ रहे थे। एक ठो आटो वाले से लक्ष्मीनगर छोड़ने को कहा। आटोवाला बिना किसी हील-हुज्जत के मीटर से चलने को तैयार हो गया। अब वर्मा जी की हालत खराब! ऊ आटो पर बैठ तो गए, लेकिन उनको सब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। एक झटके में अगर दिल्ली का कोयो आटोवाला मीटर से चलने को तैयार हो जाए, तो किसी अदने से आदमी को भी दाल में काला नजर आ सकता है या कहिए कि पूरी दाल काली लग सकती है। फिर वर्मा जी तो दिल्ली के नस-नस से वाकिफ ठहरे। खैर, रास्ता भर उनके दिल में किसी अनहोनी को लेकर धुकधुकी तो लगी रही, लेकिन आटोवाले ने सुरक्षित उन्हें घर

नेताओं के लिए स्पेशल जेल!

उस दिन तिहाड़ जेल के एक ठो जेलर मिल गए। बहुते परेशान थे। कहने लगे, 'यार, जिस तेजी से नेता लोग जेल भेजे जा रहे हैं, उससे तो हमरी हालत खस्ता होने वाली है। हमरे जैसन संतरी के लिए इससे बुरी स्थिति का होगी कि जिस मंतरी को आप हत्यारा मान रहे हैं, उसको भी सलाम बजा रहे हैं। अपराध करके जेल ऊ आते हैं औरो सजा एक तरह से हमको मिलती है। टन भर वजनी पप्पू जी का नखरा झेलते-झेलते हमरी हालत ऐसने खराब हो रही है, ऊपर से एक ठो 'गुरुजी' औरो आ गए। हमरी हालत तो उस 'सिद्धूइज्म' के डर से भी खराब हो रही है, जो चौबीसो घंटा चलता रहता है। अगर सरदार जी यहां आ गए, तो कौन झेल पाएगा उनको?' उस जेलर महोदय की परेशानी देख हमहूं परेशान हो गया हूं, लेकिन हमरी परेशानी कुछ दूसरी है। उनको नेता जैसन वीआईपी कैदियों से परेशानी है, तो हमको देश की चिंता हो रही है। का है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विधायकों के लिए जेल दूसरा घर बन चुका है, तो कम से कम सौ ऐसन सांसद हैं, जो सरकार की जरा-सी ईमानदारी से कभियो जेल जा सकते हैं। अब देखिए न, अपने पप्पू औरो शहाबुद्दीन जी पहिले से जेल में हैं, तो 'स्वनामधन्य&#

चाहिए कुछ किरकेटिया जयचंद

अब हमको पूरा विशवास हो गया है कि अपने देश को कुछ किरकेटिया जयचंद की एकदम सख्त जरूरत है। यानी कुछ ऐसन किरकेटिया पिलयर औरो कोच चाहिए, जो अपनी ही टीम की लुटिया डुबो सके। सच पूछिए, तो इसी में अपने देश का भला है औरो किरकेट का भी। आप कहिएगा कि हम एतना गुस्सा में काहे हूं, तो भइया हर चीज की एक ठो लिमिट होती है, लेकिन ई मुआ किरकेट है कि इसका कोयो लिमिटे नहीं है। का जनता, का नेता, सब हाथ धो के इसी के पीछे पड़ल रहता है। देश-दुनिया जाए भांड़ में, सबको चिंता बस किरकेट की है। दक्षिण अफरीका से दू ठो मैच का हार गए, ऐसन लग रहा है जैसे पूरे देश का सिर शरम से नीचे हो गया हो। सड़क से संसद तक हंगामा मचा है। विदर्भ के किसान भूखे मर रहे हैं, फांसी लगा रहे हैं, नेता औरो जनता सब को इसकी चिंता नहीं है, लेकिन देश दू ठो मैच हार गया, इसकी उन्हें घनघोर चिंता है। लोगों के भूखे मरने औरो किसानों के फांसी पर झूलने से पूरे विश्व में नाक कट रही है, उसकी चिंता कोयो नहीं कर रहा, लेकिन दस ठो किरकेट खेलने वाले देश में नाक कट गई, इसकी बहुते चिंता है। हम तो कहते हैं कि भगवान की दया से ऐसने सब दिन हारती रहे अपनी टीम। इसी में भ