बजट, यानी बदसूरत नगर वधू

आजकल जहां देखिए, वहां बजट की नौटंकी चल रही है, लेकिन हमको इसमें कोयो मजा नहीं आता। अब बजट हमको ऐसन पियक्कड़ आदमी लगने लगा है, जो साल में एक दिन सरकार नामक दारु पीकर टुल्ल हो जाता है औरो चौराहे पर खड़े होकर ई साबित करने में एड़ी-चोटी लगा देता है कि वही देश का भगवान है, भाग्य विधाता है। अब का है कि दारु पी लेने के बाद होश तो रहता नहीं, सो ऊ भूल जाता है कि देश में बाजार नामक दारुओ मौजूद है, जिसका नशा उससे बहुते बेसी है। तभिये तो देश एक दिन बजट की सुनता है औरो बाकी 364 दिन बाजार की ताल पर नाचता रहता है।

वैसे, आप चाहें तो बजट को नगर वधू भी कह सकते हैं। मतलब ऐसन सुंदरी, जिसको आप बस देख सकते हैं, भोग नहीं सकते। अक्सर इस नगर वधू की शकल ठीक नहीं होती, सो वित्त मंत्री बत्तीस ठो क्रीम-पाउडर लगाकर इसको चमकाते हैं औरो फिर संसद में पेश कर देते हैं। लेकिन दिक्कत ई है कि जल्दिये इसका मेकअप धुल जाता है औरो सरकार की पोल-पट्टी खुल जाती है। सबसे बड़ी बात तो ई कि इस सुंदरी की महफिल में अब गरीबों की कोई चरचा नहीं होती, अगर होती भी है, तो गरीब स्टेज से एतना दूर होते हैं कि उन्हें कोई तृप्ति नहीं मिलती। उन्होंने सुंदरी को देखकर 'आह' कहा या 'वाह', इस पर भी कोयो गौर नहीं करता।

हमरे खयाल से बजट अब हिस्ट्री है। ऊ दिन बीत गया, जब देश में इसका साल भर राज चलता था। अब तो बजट में जो चीज सस्ती दिखती है, बजट के दूसरे ही दिन ऊ महंगी हो जाती है। आखिर देश पर बाजार का राज जो है! आप ही देखिए न, रिलायंस ने चाहा तो भिखमंगे के हाथों में भी मोबाइल पहुंच गया, उसने चाहा हो स्टॉक मार्केट में भी कमाल हो गया। ऊ चाहे तो डीजल- पेट्रोल दो रुपये लीटर हो जाए, ऊ चाहे तो आलू सेब से भी महंगा बिकने लगे। सरकार के चाहने से अब का होता है? रिजर्व बैंक अब साल में पांच बार रिपो औरो रिवर्स रिपो रेट में बदलाव करता है, सरकार बनाती रहे साल में एक बार बजट, उसको कौन पूछने जाता है!

वैसे, बजट मिस्ट्री भी है। इसको समझना मुश्किल है। बजट से का बदला कुछो पता नहीं चलता! सर्विस टैक्स घटता है, तो सेल्स टैक्स बढ़ जाता है, मतलब दाम वहीं का वहीं! एक तरफ तो ऊ ई दिखाता है कि ऊ सबके लिए बेसी पैसे का जुगाड़ कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ इहो परावधान करता है कि लोगों के पास बेसी पैसा न पहुंच जाए। उसको बेसी पैसा से होने वाले मुद्रास्फीति का डर सताता है, काहे कि उससे इससे महंगाई बढ़ती है। अब उसको ई कौन समझाए कि मुद्रास्फीति लोगों के पास बेसी पैसा होने से नहीं, बल्कि सौ में से दस आदमी के पास पैसा जमा होने से बढ़ती है। अगर पैसा बाकी 90 के पास भी पहुंच जाए, तो मुद्रास्फीति होगी ही नहीं, लेकिन बजट इस जमाखोरी की चिंता कहां करता है? उसको तो चिंता बस ई रहती है कि किसी तरह सरकारी खजाने में पैसा आता रहे, ताकि बाबूओं और अफसरों का पेट पलता रहे।

लोग चकाचक देश की कामना करता है, लेकिन बजट बीमारी की। सरकारी अस्पताल हो या गड्ढे वाली सड़क, शिक्षा हो या खेती, बजट इनको मजबूत बनाने के बारे में नहीं सोचता, बल्कि वेंटिलेटर पर लटका देना बेसी मुनासिब समझता है, ताकि ये बस किसी तरह जिंदा रहे औरो इनके इलाज के नाम पर चंदा (टैक्स) उगाही होती रहे। लेकिन पब्लिक को इसकी दोहरी मार झेलनी पड़ती है, ऊ सरकारी अस्पतालों में जाकर मरना नहीं चाहती औरो पराइवेट अस्पताल में जाकर जान बचाने में उनका दम निकल जाता है।
ऐसन में हमको तो बजट का एकमात्र मतलब 'चंदा' उगाही लगता है, लेकिन सवाल ई है कि इसके लिए एतना नौटंकी काहे हो? अपने देश में तो ऐसे भी गुप्त दान की परंपरा रही है!

टिप्पणियाँ

Rajeev (राजीव) ने कहा…
बिहारी बाबू,
बहुत सुन्दर और वही प्रतीक्षित और बेबाक लहज़ा।


एक बात आपकी चिट्ठी में अखर रही है सर्विस टैक्स घटता है, तो सेल्स टैक्स बढ़ जाता है। कौनो कर नहीं घटता यहाँ पर।

चिट्ठी तो व्यंग्य है, ठीक है - परंतु सर्विस टैक्स को तो सरकार ने उत्तम दोहन स्रोत मान लिया है। यह ठीक है कि सेवा परक उद्योगों की बढ़ोत्तरी हो रही है और सीमित कर उचित है। यह विचारने के कि कम कर परंतु अधिक करदाता के स्थान पर सरकार तो इस टैक्स की दर ही बारंबार बढ़ाने पर सोचती है। 5% -> 10% ->12.24% -> ????
बेनामी ने कहा…
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