महिमा सफेद हाथियों की!
जमाना सफेद हाथियों का है। हमरे खयाल इस निराली दुनिया के ऊ सबसे नायाब जीव हैं औरो महिमा ऐसन देखिए कि देश में आजकल ऊ काले हाथियों से बेसी पाए जाते हैं। काले हाथी भले लुप्तप्राय हो रहे हों, लेकिन सफेद हाथियों की हस्ती मिटाए नहीं मिटती।
अपने देश में तो हालत कुछ ऐसन है कि कंपनियां पहिले सफेद हाथियों को नौकरी पर रखती है औरो फिर उन घोड़ों के बारे में सोचती है, जिनके भरोसे उनका काम धाम चलेगा। शायद इसकी वजह ई है कि उन्हें सफेद हाथी के 'हाथीत्व' पर कुछ बेसिए भरोसा होता है। वैसे, महंगे सफेद हाथियों का काम होता बहुते आसान है-बस कोड़ा फटकारते रहो... जो काम कर रहा है, उससे औरो काम करवाते रहो। सफेद हाथियों की पहचाने यही है। एक तरफ तो ऊ काम करने वालों को जेतना हो सके प्रताडि़त करते रहते हैं, दुत्कारते फटकारते रहते हैं, ताकि ऊ बेसी से बेसी काम करे, तो दूसरी तरफ काहिलों से उन्हें घनघोर सहानुभूति रहती है।
दरअसल, ऊ जानते हैं कि काम करने वालों से आप बस काम करवा सकते हैं, चमचागिरी उनके वश की बात नहीं होती, तो दूसरी तरफ काहिल बस चमचागिरी कर सकते हैं, काम करना उनके वश की बात नहीं होती। ऐसन में काहिलों को पटाकर रखना उनकी मजबूरी होती है, काहे कि उनकी मौजूदगी से सफेद हाथियों के जीवन में रस बना रहता है, उनका ईगो बूस्ट होता रहता है। सफेद हाथियों की परंपरा कभियो खतम नहीं होती, तो इसके पीछे भी अपने कारण हैं।
असली दिक्कत ई है कि अपने देश में हाथी बनने का रास्ता अभियो घोड़ों की बस्ती से ही गुजरता है। जब तक घोड़े सफेद हाथियों के अंदर दसियों साल तक काम न कर लें, ऊ हाथी बनने के काबिल नहीं माने जाते। ऐसन में जब तक कौनो घोड़ा हाथी बनने के काबिल होता है, ऊ सफेद हाथियों से एतना त्रस्त हो चुका होता है कि काला हाथी बनने के बजाय सफेद हाथी बनना ही मुनासिब समझता है। ऐसन में सफेद हाथियों की परंपरा सतत कायम रहती है।
गौर करने वाली बात इहो है कि अक्सर काहिले लोग सफेद हाथी के पोस्ट तक पहुंच पाते हैं, जबकि काबिल लोग टापते रह जाते हैं। होता ई है कि अपनी काहिली की वजह से सुस्त घोड़ों को पहिलये से पता रहता है कि सफेद हाथियों की बटरिंग ही उनकी नैया पार लगा सकती है, जबकि काबिल लोग इस मुगालते में मारे जाते हैं कि ऊ अपनी काबिलियत से हाथी बन जाएंगे।
वैसे, हाथी औरो उसमें भी सफेद हाथी पालना बड़े-बड़े लोगों का शौक होता है। आईपीएल को ही लीजिए। अरबपतियों ने अपनी अपनी टीमों के लिए एक-एक सफेद हाथी पहिलये चुन लिया औरो उनको नाम दिया गया आइकन पिलयर! माना गया कि चूंकि भारतीयों को अजीब जीवों को देखने के लिए मजमा लगाना अच्छा लगता है, इसलिए इन सफेद हाथियों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आएंगे... सब काम धाम छोड़कर स्टेडियम आएंगे।
किरकेट कंटरोल बोर्ड के सिलेक्टरों की दूरदृष्टि देखिए कि उनके सभी आइकन पिलयर एक एक कर वास्तव में सफेद हाथी साबित हो रहे हैं! अब ई तो शोध की बात है कि लोग वाकई इन्हीं सफेद हाथियों को देखने मैदान पर आ रहे हैं या फिर जो घोड़ा सब बॉल औरो बैट से बढि़या परदरशन कर रहे हैं, उनको देखने?
बहरहाल, जब तक देश में 'सरकारी संस्कृति' कायम है, फैदा इसी में है कि आप भी सफेद हाथियों की जय जयकार करते रहिए! अस्तित्व बचा रहेगा तो कभियो न कभी आप भी सफ़ेद हाथी बनकर दुनिया से मौज ले सकेंगे.
अपने देश में तो हालत कुछ ऐसन है कि कंपनियां पहिले सफेद हाथियों को नौकरी पर रखती है औरो फिर उन घोड़ों के बारे में सोचती है, जिनके भरोसे उनका काम धाम चलेगा। शायद इसकी वजह ई है कि उन्हें सफेद हाथी के 'हाथीत्व' पर कुछ बेसिए भरोसा होता है। वैसे, महंगे सफेद हाथियों का काम होता बहुते आसान है-बस कोड़ा फटकारते रहो... जो काम कर रहा है, उससे औरो काम करवाते रहो। सफेद हाथियों की पहचाने यही है। एक तरफ तो ऊ काम करने वालों को जेतना हो सके प्रताडि़त करते रहते हैं, दुत्कारते फटकारते रहते हैं, ताकि ऊ बेसी से बेसी काम करे, तो दूसरी तरफ काहिलों से उन्हें घनघोर सहानुभूति रहती है।
दरअसल, ऊ जानते हैं कि काम करने वालों से आप बस काम करवा सकते हैं, चमचागिरी उनके वश की बात नहीं होती, तो दूसरी तरफ काहिल बस चमचागिरी कर सकते हैं, काम करना उनके वश की बात नहीं होती। ऐसन में काहिलों को पटाकर रखना उनकी मजबूरी होती है, काहे कि उनकी मौजूदगी से सफेद हाथियों के जीवन में रस बना रहता है, उनका ईगो बूस्ट होता रहता है। सफेद हाथियों की परंपरा कभियो खतम नहीं होती, तो इसके पीछे भी अपने कारण हैं।
असली दिक्कत ई है कि अपने देश में हाथी बनने का रास्ता अभियो घोड़ों की बस्ती से ही गुजरता है। जब तक घोड़े सफेद हाथियों के अंदर दसियों साल तक काम न कर लें, ऊ हाथी बनने के काबिल नहीं माने जाते। ऐसन में जब तक कौनो घोड़ा हाथी बनने के काबिल होता है, ऊ सफेद हाथियों से एतना त्रस्त हो चुका होता है कि काला हाथी बनने के बजाय सफेद हाथी बनना ही मुनासिब समझता है। ऐसन में सफेद हाथियों की परंपरा सतत कायम रहती है।
गौर करने वाली बात इहो है कि अक्सर काहिले लोग सफेद हाथी के पोस्ट तक पहुंच पाते हैं, जबकि काबिल लोग टापते रह जाते हैं। होता ई है कि अपनी काहिली की वजह से सुस्त घोड़ों को पहिलये से पता रहता है कि सफेद हाथियों की बटरिंग ही उनकी नैया पार लगा सकती है, जबकि काबिल लोग इस मुगालते में मारे जाते हैं कि ऊ अपनी काबिलियत से हाथी बन जाएंगे।
वैसे, हाथी औरो उसमें भी सफेद हाथी पालना बड़े-बड़े लोगों का शौक होता है। आईपीएल को ही लीजिए। अरबपतियों ने अपनी अपनी टीमों के लिए एक-एक सफेद हाथी पहिलये चुन लिया औरो उनको नाम दिया गया आइकन पिलयर! माना गया कि चूंकि भारतीयों को अजीब जीवों को देखने के लिए मजमा लगाना अच्छा लगता है, इसलिए इन सफेद हाथियों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आएंगे... सब काम धाम छोड़कर स्टेडियम आएंगे।
किरकेट कंटरोल बोर्ड के सिलेक्टरों की दूरदृष्टि देखिए कि उनके सभी आइकन पिलयर एक एक कर वास्तव में सफेद हाथी साबित हो रहे हैं! अब ई तो शोध की बात है कि लोग वाकई इन्हीं सफेद हाथियों को देखने मैदान पर आ रहे हैं या फिर जो घोड़ा सब बॉल औरो बैट से बढि़या परदरशन कर रहे हैं, उनको देखने?
बहरहाल, जब तक देश में 'सरकारी संस्कृति' कायम है, फैदा इसी में है कि आप भी सफेद हाथियों की जय जयकार करते रहिए! अस्तित्व बचा रहेगा तो कभियो न कभी आप भी सफ़ेद हाथी बनकर दुनिया से मौज ले सकेंगे.
टिप्पणियाँ
बहुत कम लिखा जा रहा है आजकल. :)
cheers
-shital