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अगस्त, 2006 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ठेके पर पूरी दुनिया

जब हम स्कूल का सबक सही से नहीं निबटाते थे, तो हमरे गुरुजी कहते थे कि बचवा अपना काम ठेके पर निबटा के आया है। आज जब हम दुनिया के ई हालत देख रहा हूं, तो हमरे समझ में आने लगा है कि ठेका से उनका मतलब का होता था! आप कहेंगे कि ई हम अचानके 'ठेका राग' काहे अलापने लगा हूं? तो बात ई है कि ठेका की दो ठो बड़की खबर हमरी नींद उड़ा रही है- पहली खबर है कि दिल्ली में डिमॉलिशन ठेका पर होगा औरो दूसरी खबर है कि अब बिहार में गुरु जी ठेके पर नियुक्त होंगे। यानी एक जगह लोगों का घर-द्वार ठेके के भरोसे है, तो दूसरी जगह देश का भविष्य। लेकिन ठेके का जो परिणाम दुनिया भर में हम देख रहा हूं, उससे तो हमरी हालत खराब हो रही है। दुनिया के अमन-चैन की स्वघोषित ठेकेदारी अमेरिका के पास है। परिणाम देखिए कि पूरा विश्व अशांत है। हालत ई है कि कोतवाली करते-करते कोतवाल सनकी हो गया है। कहियो यहां बम फोड़ने की पलानिंग करता है, तो कहियो वहां। स्थिति उसकी खराब है औरो परेशान बेचारा एशियाई दिखने वाला लोग हो रहा है। सोचिए, अगर अमन-चैन की ठेकेदारी उसके पास नहीं होती, तो विश्व कितना अमन-चैन से रहता। अमन-चैन से तो बीजेपी के नेता भी

शिक्षा मतलब चुनावी घुट्टी

अपने देश में एक ठो बड़की सरकारी संस्थान है, नाम है उसका एनसीईआरटी। वैसे तो इसका काम बच्चों को शिक्षा का घुट्टी पिलाना है, लेकिन असल में सरकार इसका उपयोग चुनावी घुट्टी पिलाने के लिए करती है। यानी एनसीईआरटी का यही मतलब है...नैशनल काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल (एजुकेशन नहीं) रिसर्च एंड टरेनिंग। तभिये न सरकार इसका उपयोग बच्चा सब के भविष्य सुधारने के बदले उसका ब्रेन वॉश करने में करती है। इसकी चुनावी उपयोगिता देखिए कि सरकार बदलते ही अध्यक्ष से लेकर इसका सिलेबस तक बदल जाता है, इसमें राम-रहीम की परिभाषा बदल जाती है। एक सरकार के दौरान इसकी किताब में जिस महापुरुष को बड़का देशभक्त औरो सेक्युलर बताया जाता है, दूसरी सरकार के आते ही ऊ महापुरुष आतंकवादी औरो कम्युनल हो जाता है। इसकी किताबों पर रंग भी चढ़ता है - बीजेपी की सरकार में भगवा औरो कांगरेसी सरकार में लाल। अब ई तो रिसर्च वाली बात है कि कांगरेस में बुद्धिजीवी काहे नहीं पैदा होता है कि उसको लाल झंडे वालों से बुद्धि उधार लेनी पड़ती है। खैर कुछ हो, इसकी किताबों का रंग बदलने से हमरे यहां ऐसन जेनरेशन पैदा हो रही है, जो पूरी तरह कन्फूज है। अभी एक ठो इस्कूल में

डरने का फायदा!

स्वतंत्रता दिवस के दिन जब लाल किला से हमरे परधानमंतरी अपनी कमजोर आवाज में पाकिस्तान को सुधर जाने की 'कड़क' चेतावनी दे रहे थे, तब मारे डर के हम अपने घर में दुबके हुए थे। यहां तक कि हम तभियो बाहर नहीं निकले, जबकि पूरी दुनिया पतंग उड़ाने के लिए अपनी छतों पर चढ़ आई। का है कि सुबह में हमको बस में फिट बम का खतरा सताता रहा, तो दिन में पतंग में फिट बम का। कमबख्त बम नहीं हो गया, टैक्स हो गया- कहीं न कहीं से सिर पर गिरेगा ही! खैर, चैन से हम बैठ नहीं पाए। मन ने कोसा, 'तुम जैसे 'नौजवान' पर ही तो देश को नाज है। कम से कम देश की खातिर को झंडा फहराने निकलो।' अभी साहस बांधकर हम घर से निकलबे किए थे कि पता चला डर के मारे परधानमंतरी जी अपनी 'शाही' बीएमडब्ल्यू कार छोड़कर 'टुच्चा' टाटा सफारी में झंडा फहराने लाल किला पहुंचे। फिर तो मत पूछिए, सारा साहस न जाने कहां घुस गया। आखिर जिस आदमी की सुरक्षा में पूरा फोर्स लगा हो, जब ऊ अपनी कार में चलने का साहस नहीं कर पाता, तो हमरे जैसन गरीब की औकात का है? मैंने इस डर को निकलाने का एक रास्ता सोचा कि सरकार को नौजवानों को मिलिटरी ट

आजादी बोले तो...

'मंगल पांडे' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और रिजेक्ट कर दिया। 'रंग दे बसंती' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और सर आंखों पर बिठा लिया। पहली फिल्म देशभक्ति का नाम लेकर रिलीज हुई, लेकिन फ्लॉप रही, दूसरी फिल्म आम मसाला फिल्म कहकर रिलीज हुई और देशभक्ति पर आधारित फिल्म का दर्जा पा गई। सवाल है, आखिर क्यों मंगल पांडे जैसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर आधारित फिल्म को लोगों ने ठुकरा दिया, लेकिन एक साथी की मौत से नाराज कुछ दोस्तों के हथियार उठा लेने की कहानी का समर्थन किया? वास्तव में इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। दरअसल, जहां देशों की सीमाएं दिनोंदिन कमजोर हो रही हों और लोग देश से ज्यादा ग्लोबल हलचलों या फिर आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे हों, वहां देशभक्ति का मतलब बदलना कोई बड़ी बात भी नहीं है। शायद यही वजह है कि बंदे मातरम् का नारा लगाने से ज्यादा जरूरी अब लोगों को यह लग रहा है कि वे प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए जंतर-मंतर पर आवाज बुलंद करें। उन्हें यह महसूस होने लगा है कि उनकी आजादी को विदेशी शक्तियों से ज्यादा खतरा अपने समाज में मौजूद अस

अथ श्री लंगोट कथा

अभी पटना वाले पोरफेसर साहेब मटुकनाथ बाबू की रास चरचा से हम निपटबो नहीं किए थे कि गवैया उदित बाबू पटना में दू ठो मेहरारू के बीच सैंडबिच बन गए। हमरे मित्र सब कहते हैं कि दोनों मामला ढीली लंगोटी का है। मतलब ढीले करेक्टर का है। एक की लंगोटी शिष्या के कारण ढीली हुई या ई कहिए कि शिष्या ने ढीली कर दी, तो दूसरे की एक ठो बिमान बाला ने। अब हम कन्फूजन में हूं कि इन सूरमाओं को हम ढीली लंगोटी वाला मानूं या कि मजबूत लंगोटी वाला। का है कि ऐसन पंगा दोए आदमी ले सकता है- एक तो उ, जिसकी लंगोटी एतना टाइट हो कि दुनिया लाख कोशिश कर ले, लेकिन खिसका नहीं पाए औरो दूसरा उ, जिसको लंगोटी खिसकने का डरे नहीं हो। खैर, हम कन्फूजन दूर करने पहुंचे पोरफेसर साहेब के पास। छिड़ गई लंगोट चरचा। कहने लगे, 'काहे का लंगोट। हमको का नटवर बाबू समझते हैं कि गलत कामो करेंगे औरो लंगोट की भी चिंता करेंगे! हम तो उसको उसी दिन धारण करना छोड़ दिए, जिस दिन अपना दिल बीवी से हटकर जूली पर आ गया। वैसे, जहां तक कमजोर लंगोटी की बात है, तो ई तो उन पोरफेसरों का है, जो क्लास से लेकर पीएचडी तक में शिष्याओं को टॉप कराते रहते हैं औरो दुनिया को पते