'ओंकारा' फिलिम का बिपाशा का ऊ गाना तो आप सुने ही होंगे-- 'बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया जिगर मा बड़ी आग है, आग है...।' ई सुनके पता नहीं आपके दिल में कुछ-कुछ होता है या नहीं, लेकिन हमरे दिल में तो भइया बहुते कुछ होता है। बिपाशा कौन से जिगर की बात कर रही है औरो उसमें केतना आग है, ई तो आपको जान अब्राहम से पूछना होगा, लेकिन भइया हमरे पास न तो बिपाशा जैसन जिगर है औरो नहिए वैसन आग।
जहां तक जिगर की बात है, तो हमरे गुरुजी का कहना था कि हमरे जैसन मरियल आम आदमी में जिगर होता ही नहीं, तो उसमें आग कहां से होगी? उसके अनुसार, जिगर में आग तो गांधी, लोहिया औरो जयप्रकाश नारायण के पास थी, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश को हिला दिया। तभिए हमने डिसाइड किया था कि आखिर जिगर की आग गई कहां, ई हम ढूंढ कर रहूंगा।
वैसे, ई बात तो हम मानता हूं कि अगर बीड़ी जलाने लायक आग भी हमरे जिगर में होती, तो हम एतना निकम्मा नहीं होते! निकम्मापनी में हम अपने अरब भर देशवासियों का प्रतिनिधि हूं। ऐसन जनता का प्रतिनिधि, जिनके जिगर का तो पता नहीं, लेकिन उनमें आग बिल्कुल नहीं है, ई हम दावे के साथ कह सकता हूं। अगर जिगर में आग होती, तो मजाल है कि कोयो किसी को दबा के रख लेता या शोषण कर लेता। नेता हो या बाजार, जिसको देखिए वही हमको गन्ने के जैसन चूस रहा है औरो हम हैं कि चुपचाप देखते रहते हैं। हमरे निक्कमेपन की हद ई है कि अपने खेत के जिस आलू-प्याज को हमने पांच रुपये किलो बेचा था, आज उसी को ४० रुपया किलो खरीद कर खाता हूं, लेकिन विरोध में चूं शब्द नहीं बोलता, धरना-परशदन की तो बाते छोडि़ए।
हालत ई है कि सुप्रीम कोर्ट तक हमको इस निकम्मेपन के लिए धिक्कार रही है। हाल में उसने एक केस के सिलसिले में कुछ बुजुर्गों को सलाह दी कि हक थाली में परोस के नहीं मिलता है, अपना हक आपको मांगना पड़ेगा।
खैर, अपने निकम्मेपन से परेशान होकर हमने ई पता लगाने का फैसला किया कि आखिर हमरे जिगर की आग गई कहां? आखिर ऐसा का हुआ कि हम आंदोलन नहीं कर पाते?
हम पहुंचे एक ठो ज्ञानी सर्जन के पास। सर्जन ने हमको ऊपर से नीचे तक दया के भाव से देखा। फिर बोले, 'तुम्हरे इस अस्थि-पंजर का तो एक्स-रे भी नहीं हो सकता, हम जिगर कहां से ढूंढूं? तुम्हरा तो बस पोस्टमार्टम हो सकता है, अगर कहो तो ऊ कर देता हूं।'
डाक्टर ने हमारा 'पोस्टमार्टम' किया। बोले, 'तुम्हरा जिगर तो सहिए जगह पर है, लेकिन इसकी आग कहीं औरो शिफ्ट हो गई है। अब अगर तुमको अपनी आग ढूंढनी हो, तो पेट औरो उसके नीचे ढूंढना, पूरी आग वही जल रही है।' अब ई बात हमरे समझ में आ गई थी कि हम एतना निकम्मा काहे हूं। पेट औरो उसके नीचे की आग को शांत करने में हमरे जिगर की आग खतम हो गई है।
मतलब ई हुआ कि आज के नेताओं के निकम्मा होने के लिए भी यही फैक्टर जिम्मेदार है। गांधी और जयप्रकाश जैसन नेता आज नहीं हैं, तो वजह यही है कि आज के नेताओं के पेट औरो उसके नीचे की आग जिगर की आग पर भारी पड़ रही है। अब जब उन्हें इन दोनों आग से फुर्सत मिले, तब न गलत काम के विरोध के लिए आंदोलन करें। तो आग की शिफ्टिंग का पता लगाने लेने के बाद लाख टके का सवाल ई है कि पेट औरो उसके नीचे की आग को जिगर की आग पर हावी होने से कैसे बचाया जाए? इसके बारे में तनिक आप भी तो सोचिए! आखिर परजातंत्र के परजा होने के नाते तंत्र पर आपका कंटरोल तो होना ही चाहिए।
Friday, November 24, 2006
Thursday, November 16, 2006
सॉफ्ट इमेज की बेबसी
हमको अपने देश औरो अपने में बहुते समानता नजर आती है। अपना देश 'सॉफ्ट नेशन' का 'तमगा' लेकर परेशान है, तो हम 'सॉफ्ट पर्सन' का 'तमगा' लेकर परेशान हूं। हालत ई है कि आए दिन हमको कोयो न कोयो ठोकता -पीटता रहता है, लेकिन हम हूं कि इसी में गर्व महसूस करता हूं। आखिर अपने सॉफ्ट नेशन की तरह हम भी अपना करेक्टर सॉफ्ट पर्सन का जो बनाए रखना चाहता हूं। का है कि आप जिस उपाधि से विभूषित होते हैं, उसकी लाज तो आपको रखनी ही पड़ेगी न, भले ही आपकी हालत कितनी भी खराब काहे न हो जाए!
जैसे अपने देश से इतनी बड़ी आबादी संभले नहीं संभल रही है, वैसने हम से भी हमारा बच्चा सब संभले नहीं संभल रहा। परिणाम ई है कि हमरे पड़ोसियों के पौ बारह हैं औरो ऊ खुराफात कर हमको सताते रहते हैं। उस दिन हमरा पड़ोसी चंचू आ गया। जैसे चीन अरुणाचल परदेश पर अपना अधिकार जता रहा है, वैसने उसने हमारे बारहवें-चौदहवें नंबर के बच्चे पर अपना अधिकार जता दिया। कहने लगा, 'इसको होना तो हमरा बच्चा चाहिए था, लेकिन आपने जबर्दस्ती इसको अपने यहां पैदा कर लिया। देखिए, देखिए... इसकी सूरत, बिल्कुल हमरी तरह है औरो आप हैं कि इसको अपना कह रहे हैं।'
खैर, उस दिन ऊ एक को लेकर तो चला ही गया, लेकिन दूसरे को अभी भी ऊ अपने पड़ोसियों के मार्फत बहकाता है। कमबख्त बच्चा भी बदमाश है, हमसे ज्यादा ऊ अपने को चंचू के करीब पाता है। वैसे, गलती उसकी भी नहीं है, अगर उसकी सूरत देख के हमरा बाकी बच्चा उसे अपना भाई नहीं समझता औरो सौतेला व्यवहार करता है, तो ऊ भला हमसे अपने आपको कैसे जोड़ पाएगा?
इधर चंचू ने एक को कब्जा रखा है, तो उधर दूसरा बच्चा हमरे पड़ोसी चांद साहब के आधे कब्जे में है, बिल्कुल कश्मीर की तरह। उसने भी अपना ईमान-धरम बदल लिया है औरो चांद को अब्बा हूजूर बनाने पर तुला हुआ है। वैसे हम इन दोनों को ठीक तो एक दिन में कर सकता हूं, लेकिन का है कि अपनी 'सॉफ्ट पर्सन' की इमेज पर दाग नहीं लगाना चाहता। ऐसन में उनकी हर बदमाशी पर हम उनको सुधर जाने की चेतावनी देता हूं औरो फिर डरपोक चूहे की तरह अपने बिल में घुस जाता हूं, बिल्कुल अपने देश की तरह। आप ही सोचिए न, अपने देश को अगर उदार लोकतंत्र औरो सॉफ्ट नेशन की अपनी इमेज की चिंता नहीं होती, तो कश्मीर समस्या निबटाने में केतना टाइमे लगता?
पड़ोसिए नहीं, हमरी हालत तो बच्चों ने भी खराब कर रखी है। उस दिन हमरे एक बच्चे ने अपने ही भाई-बहनों पर गाड़ी चढ़ा दी। बावजूद इसके, उसका कहना है कि इसमें उसकी कोयो गलती नहीं है। अगर कोयो फुटपाथ पर खर्राटे भरना चाहेगा, तो उसको सिर पर कफन बांधकर ही सोना चाहिए। चलिए, आज तो हम शराब पीकर गाड़ी चढ़ाए, लेकिन गाड़ी जब रोड पर होती है, तो बिना ड्राइवर के शराब पिए भी वो किसी को ठोकती, तो किसी से ठुकती रहती है। अगर आज मेरे भाई-बहन मेरे गाड़ी के नीचे आकर मरे हैं, तो गलती आप की है। अगर आप उसको घर बनाकर दे नहीं सकते, तो पैदा काहे किए थे? रोड पर कोयो सोएगा, तो मरबे करेगा।
बच्चे की तो बात छोड़िए, हमरे बगीचे के गाछ-पात तक पर हमरा कंटरोल नहीं है। जैसे अपने देश ने बांग्लादेश को जनम दिया औरो अब उसके 'भूतहा' होने पर पछता रहा है, वैसने हम भी अपने कैंपस में एक पेड़ लगाकर पछता रहा हूं। उस कमबख्त को लगाया हमने, लेकिन ऊ एतना 'बड़ा' हो गया है कि फल पड़ोसियों के यहां गिराता है। हमरे यहां उसका केवल सड़ा-गला पत्ता गिरता है, अवैध बांग्लादेशी परवासियों की तरह। जैसे दिल्ली औरो बिहार जैसन राज्य इन परवासियों की चोरी-डकैती से परेशान हैं, वैसने हम भी इस पेड़ के पत्ते की सड़ांध से परेशान हूं, लेकिन कुछ नहीं कर सकता, काहे कि हम अपने साफ्ट पर्सन की इमेज को दाग लगाना नहीं चाहता। अब आप ही बताइए देश के कारण हमरी ये ये दशा हुई है या हमरे कारण देश की।
जैसे अपने देश से इतनी बड़ी आबादी संभले नहीं संभल रही है, वैसने हम से भी हमारा बच्चा सब संभले नहीं संभल रहा। परिणाम ई है कि हमरे पड़ोसियों के पौ बारह हैं औरो ऊ खुराफात कर हमको सताते रहते हैं। उस दिन हमरा पड़ोसी चंचू आ गया। जैसे चीन अरुणाचल परदेश पर अपना अधिकार जता रहा है, वैसने उसने हमारे बारहवें-चौदहवें नंबर के बच्चे पर अपना अधिकार जता दिया। कहने लगा, 'इसको होना तो हमरा बच्चा चाहिए था, लेकिन आपने जबर्दस्ती इसको अपने यहां पैदा कर लिया। देखिए, देखिए... इसकी सूरत, बिल्कुल हमरी तरह है औरो आप हैं कि इसको अपना कह रहे हैं।'
खैर, उस दिन ऊ एक को लेकर तो चला ही गया, लेकिन दूसरे को अभी भी ऊ अपने पड़ोसियों के मार्फत बहकाता है। कमबख्त बच्चा भी बदमाश है, हमसे ज्यादा ऊ अपने को चंचू के करीब पाता है। वैसे, गलती उसकी भी नहीं है, अगर उसकी सूरत देख के हमरा बाकी बच्चा उसे अपना भाई नहीं समझता औरो सौतेला व्यवहार करता है, तो ऊ भला हमसे अपने आपको कैसे जोड़ पाएगा?
इधर चंचू ने एक को कब्जा रखा है, तो उधर दूसरा बच्चा हमरे पड़ोसी चांद साहब के आधे कब्जे में है, बिल्कुल कश्मीर की तरह। उसने भी अपना ईमान-धरम बदल लिया है औरो चांद को अब्बा हूजूर बनाने पर तुला हुआ है। वैसे हम इन दोनों को ठीक तो एक दिन में कर सकता हूं, लेकिन का है कि अपनी 'सॉफ्ट पर्सन' की इमेज पर दाग नहीं लगाना चाहता। ऐसन में उनकी हर बदमाशी पर हम उनको सुधर जाने की चेतावनी देता हूं औरो फिर डरपोक चूहे की तरह अपने बिल में घुस जाता हूं, बिल्कुल अपने देश की तरह। आप ही सोचिए न, अपने देश को अगर उदार लोकतंत्र औरो सॉफ्ट नेशन की अपनी इमेज की चिंता नहीं होती, तो कश्मीर समस्या निबटाने में केतना टाइमे लगता?
पड़ोसिए नहीं, हमरी हालत तो बच्चों ने भी खराब कर रखी है। उस दिन हमरे एक बच्चे ने अपने ही भाई-बहनों पर गाड़ी चढ़ा दी। बावजूद इसके, उसका कहना है कि इसमें उसकी कोयो गलती नहीं है। अगर कोयो फुटपाथ पर खर्राटे भरना चाहेगा, तो उसको सिर पर कफन बांधकर ही सोना चाहिए। चलिए, आज तो हम शराब पीकर गाड़ी चढ़ाए, लेकिन गाड़ी जब रोड पर होती है, तो बिना ड्राइवर के शराब पिए भी वो किसी को ठोकती, तो किसी से ठुकती रहती है। अगर आज मेरे भाई-बहन मेरे गाड़ी के नीचे आकर मरे हैं, तो गलती आप की है। अगर आप उसको घर बनाकर दे नहीं सकते, तो पैदा काहे किए थे? रोड पर कोयो सोएगा, तो मरबे करेगा।
बच्चे की तो बात छोड़िए, हमरे बगीचे के गाछ-पात तक पर हमरा कंटरोल नहीं है। जैसे अपने देश ने बांग्लादेश को जनम दिया औरो अब उसके 'भूतहा' होने पर पछता रहा है, वैसने हम भी अपने कैंपस में एक पेड़ लगाकर पछता रहा हूं। उस कमबख्त को लगाया हमने, लेकिन ऊ एतना 'बड़ा' हो गया है कि फल पड़ोसियों के यहां गिराता है। हमरे यहां उसका केवल सड़ा-गला पत्ता गिरता है, अवैध बांग्लादेशी परवासियों की तरह। जैसे दिल्ली औरो बिहार जैसन राज्य इन परवासियों की चोरी-डकैती से परेशान हैं, वैसने हम भी इस पेड़ के पत्ते की सड़ांध से परेशान हूं, लेकिन कुछ नहीं कर सकता, काहे कि हम अपने साफ्ट पर्सन की इमेज को दाग लगाना नहीं चाहता। अब आप ही बताइए देश के कारण हमरी ये ये दशा हुई है या हमरे कारण देश की।
Tuesday, November 14, 2006
बच्चों का खेल नहीं है बच्चा होना
बाल दिवस पर विशेष
डियर चाचा नेहरू
मैं एक नन्हा-सा बच्चा हूं। देश का नौनिहाल, जिसके कंधों पर आपके देश का भविष्य है, लेकिन सच मानिए देश का भविष्य होते हुए भी मैंने कभी अपने को स्पेशल महसूस नहीं किया। मुझे तो खुद नहीं लगता कि मैं देश का भविष्य हूं। आखिर जिसके कंधों पर देश का भविष्य होगा, उसकी इतनी उपेक्षा कोई देश कैसे कर सकता है? कोई हमारी परवाह नहीं कर रहा, यहां तक कि हमें फोकस में रखकर कोई योजना सरकार बनाती भी है, इसकी जानकारी मुझे तो छोडि़ए, बड़ों-बड़ों को नहीं होती।
आपको शायद ही पता हो कि हमारे लिए इस देश में कुछ भी नहीं है- न ढंग का स्कूल, न किताब, न खेल का मैदान और न ही मनोरंजन के साधन। नेताजी वोट को देखकर स्कूल खुलवाते हैं, तो मास्टर जी स्कूल ही नहीं आते। स्कूली किताबें हमें नहीं, वोट को ध्यान में रखकर लिखवाई जा रही हैं। हमारे आसपास कोई खेल का मैदान, आप ऊपर स्वर्ग से देखकर भी नहीं खोज सकते, तो भला मैं कहां से खोज पाऊंगा! मनोरंजन का हाल यह है कि किताबों के बोझ से एक तो हमें इसके लिए वक्त ही नहीं मिलता और मिलता भी है, तो बड़ों के लिए बनी फिल्मों और गानों को देखकर ही संतोष करना पड़ता है। बच्चों के लिए अपने देश में फिल्में बनती ही नहीं। आखिर जब, ९५ प्रतिशत बॉलिवुड फिल्मों को 'ए' सर्टिफिकेट मिलता है, तो सोच लीजिए हमारे लिए बचता ही क्या है?
सच मानिए, बच्चा होना बच्चों का खेल नहीं है। आप भी अगर अभी बच्चा बन जाएं, तो आपकी हालत खराब हो जाएगी। अगर आप मेरी दिनचर्या सुनेंगे, तो यकीन मानिए आपका दिल दहल जाएगा। मुझे रोज पांच बजे सुबह उठना पड़ता है। तैयार होकर जब मैं स्कूल के लिए निकलता हूं, तो मेरी पीठ पर किताबों का बोझ होता है और सिर पर पढ़ाई का। मुझे अपने बैग में जितनी किताबें रोज ढोनी पड़ती हैं, उतनी किताबें आपने जिंदगी भर नहीं ढोई होंगी। स्कूल पहुंचते ही मेरी 'क्लास' शुरू हो जाती है। मम्मी-पापा को फुर्सत नहीं है, ऐसे में रोज किसी न किसी विषय का मेरा होमवर्क छूट जाता है। जिस मास्टर जी से मैं ट्यूशन पढ़ता हूं, वह घोर प्रफेशनल हैं। स्कूल में जो मेरी 'क्लास' ली जाएगी, उन्हें उसकी चिंता नहीं रहती। वह एक घंटे का पैसा लेते हैं और इतने व्यावसायिक हैं कि मेरे पास ६१वें मिनट नहीं ठहरते, चाहे मेरा होम वर्क पूरा हुआ हो या नहीं। स्कूल में पूरे आठ सब्जेक्ट पढ़ने के बाद बस यूं समझिए कि मेरा भेजा 'फ्राई' हो जाता है। कहां नन्हीं-सी जान और कहां इतने सारे काम! हालत यह होती है कि स्कूल में प्लेग्राउंड में जाने की मेरी हिम्मत नहीं होती और मैं घर आ जाता हूं। तब मम्मी ड्यूटी पर होती हैं। ऐसे में खाना मुझे खुद निकालना पड़ता है या फिर मैं नौकरानी के भरोसे रहता हूं।
इसके बाद मेरी इच्छा खेलने की होती है, लेकिन खेल का मैदान हमारे आसपास है ही नहीं। जो पार्क आसपास थे भी, उनमें किसी ने तबेला बना लिया है और मेरे बदले भैंस के बच्चे उनमें दौड़ लगाते हैं। बाईं तरफ वाले पार्क को तो तलवार साहब निगम पार्षद ने अपने घर में मिला लिया है। ऐसे में मैं घर में ही सिमटकर रह जाता हूं। पचास गज में बने घर में आखिर आप कितनी उछल-कूद मचा सकते हैं? बेड, सोफा, फ्रिज और वॉशिंग मशीन जैसी चीजों को रखने के बाद जो जगह घर में है, उसमें भी हमें संभलकर खेलना पड़ता है, क्योंकि घर में टूटने-फूटने वाली चीजें भी हैं मम्मी की। गली में खेलो, तो शर्मा अंकल की डांट पड़ती है। सही भी है, उनके गमले टूटते हैं या शीशे की खिड़कियां बर्बाद होती हैं, तो वह डांटेंगे ही। अब आप समझ गए होंगे कि देश में ओलिंपिक जीतने वाला कोई खिलाड़ी क्यों नहीं पैदा होता!
ऐसे में मैं टीवी देखता रहता हूं, लेकिन सिर्फ कार्टून चैनल आप कितना देखेंगे? क्या है कि बाकी चैनल्स मम्मी ने लॉक कर रखे हैं, कहती हैं कि फिल्म और गानों में सिर्फ सेक्स और हिंसा होती है, जिसे देखना मेरे बाल-मन के लिए सही नहीं है। अब आप ही बताइए मनोरंजन के लिए मैं कहां जाऊं? विडियो गेम बचता है, लेकिन एक काउंसिलर की सलाह पर पापा ने उसे भी बंद करवा दिया, क्योंकि वह भी बच्चों की 'सेहत' के लिए ठीक नहीं। ऐसे में अब मैं और छोटू यूं ही उठा-पटक करते रहते हैं और इसके लिए मम्मी-पापा की डांट व मार खाते रहते हैं। वैसे, सही बताऊं, मेरे कई दोस्त टीवी, विडियो और इंटरनेट देख-देखकर अब बच्चे नहीं रहे। उन्हें वे सारी चीजें पता हो गई हैं, जो बड़ों को ही पता होनी चाहिए। इससे उनकी मानसिक उलझनें बढ़ गई हैं। लेकिन आप ही बताइए, इसमें उनकी क्या गलती है?
बच्चों को बच्चा बनाए रखना तो परिवार, समाज और देश का ही काम है न, लेकिन ये तो कुछ करते नहीं। अब देखिए न, वह रामू था न, मेरा नौकर। उसके पापा ने उसे दूसरी क्लास में ही स्कूल से निकाल लिया, क्योंकि उसके पांच छोटे भाई-बहनों को वह ठीक से नहीं खिला पाते थे। रामू कमाकर उन्हें पैसा भेजता था, लेकिन अभी जो चाइल्ड लेबर लॉ आया है न, उसके डर से मेरे पापा ने उसे नौकरी से निकाल दिया। सुनते हैं कि अब वह चांदनी चौक पर भीख मांगता है और अपने भाई-बहनों को पालने में अपने पापा की मदद करता है। बताइए, ऐसे किसी कानून का क्या मतलब है? उसकी पढ़ाई-लिखाई और पेट भरने की व्यवस्था तो सरकार ने की नहीं, लेकिन भीख मांगने की व्यवस्था जरूर कर दी।
सरकार होती ही ऐसी है। उन्होंने हमारा मजाक बना रखा है। वह हमें इतना कन्फ्यूज करती है कि पूछो मत। सरकार बदलती है, तो राम और रहीम की परिभाषा बदल जाती है। दुविधा ऐसी है कि किताब पढ़कर मैं अभी तक यह डिसाइड नहीं कर पाया हूं कि १८५७ का आंदोलन विदोह था या फिर क्रांति? क्या आपके समय में भी ऐसा ही होता था?
परेशानी यह है कि हमारी इतनी परेशानियों के बावजूद हम बच्चों से परिवार, समाज और देश सबको उम्मीदें हैं। हमारे परिवारवाले चाहते हैं कि हम बच्चे एक ही दिन में आसमान के सारे तारे तोड़ लाएं, तो समाज चाहता है कि बच्चों में बचपना बरकरार रहे और देश, उसकी तो पूछिए ही मत। वह तो अपनी तरफ से बिना कोई सुविधा दिए ही हमारे कंधों पर अपना भविष्य सौंप रहा है।
एक कलाम चाचा हैं, लेकिन मजबूरी में वह बस सपने दिखाते हैं, उनको हकीकत में बदलने के लिए उन्हें सरकार से सपोर्ट ही नहीं मिलती। आप तो सरकार चलाते थे, इसलिए आपने हमारे लिए इतना कुछ किया भी, लेकिन वह तो राष्ट्रपति हैं, इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। क्या एक और प्राइम मिनिस्टर हमें आपके जैसा नहीं मिल सकता?
आपका
नन्हा दोस्त
Thursday, November 09, 2006
बेड रूम में कानूनी डंडा
उस दिन सबेरे-सबेरे जब हमरी नींद टूटी या कहिए कि जबरदस्ती तोड़ दी गई, तो सामने दू ठो धरती पर के यमराज... माफ कीजिएगा लाठी वाले सिपाही सामने में खड़े थे। जब तक हम कुछ कहते, उन्होंने घरेलू हिंसा के जुरम में हमको गिरफतार कर लिया। उनका कहना था कि हमने रात में पास के विडियो पारलर से एडल्ट फिलिम का सीडी लाया है औरो जरूर हमने उसे अपनी धरम पत्नी को दिखाया होगा, जो नया घरेलू हिंसा कानून के तहत जुरम है।
अपनी गरदन फंसी देख हमने मेमयाते हुए सफाई दी, 'लेकिन भाई साहेब ऊ सीडिया तो हम अभी तक देखबो नहीं किए हैं, तो धरम पत्नी को कहां से देखाऊंगा? वैसे भी जिस काम के लिए एडल्ट सीडी लाने की बात आप कर रहे हैं, ऊ तो टीवी मुफ्त में कर देता है... बस टीवी पर आ रहे महेश भट्ट की फिलिम का कौनो गाना देख लीजिए, वात्स्यायन का पूरा कामशास्त्र आपकी समझ में आ जाएगा! इसके लिए अलग से पैसा खर्च करने की का जरूरत है? वैसे भी अगर ऐसन कानून लागू होने लगा, तो लोग अपनी बीवी के साथ कौनो हिंदी फिलिम नहीं देख सकता, काहे कि सब में अश्लीलता भरल रहती है।'
हमरी इस अनुपम 'सुपर सेवर' जानकारी पर पहिले तो सिपाही महोदय हैरान हुए, लेकिन फिर ताव खा गए, 'हमीं को सिखाते हो? ये हैं समाज सेविका शारदा जी, इन्होंने तुम्हारे घर से कल झगड़े की आवाज सुनी थी औरो रात में तुमने सीडी भी लाया, यानी इनका ई शक पक्का हो गया है कि तुम अपनी बीवी पर जुलम करते हो। पुलिस चोरी होता देख कान में तेल डाल कर सो सकती है, लेकिन नारी पर अन्याय ... ना... बरदाश्त नहीं होता। सीधे थाने चलो, अब ई फैसला कोर्ट में होगा कि तुम केतना दूध के धुले हो। वैसे, कोर्ट में तुमको पैरवी के लिए वकील की जरूरत पड़ेगी, सो ई वर्मा साहेब को हम साथ लेता आया हूं। ई सस्ते में तुम्हरी पैरवी कर देंगे... इसको जेतना देगो, ईमान से उसका बीस परसेंट हमको दे देना। इन पर हमको विशवास नहीं है, इसलिए कमिशन हम तुम्ही से लूंगा।'
अब हमरी हालत खराब। हाय भगवान! ई कैसन जुलम है? स्टोव फटने और दहेज प्रताड़ना को रोकने के दूसरे कानून कम थे कि 'गिद्धों' से नुचवाने के लिए एक ठो औरो नया कानून ले आए! हमरे समझ में इहो नहीं आ रहा कि पहले से जो कानून हैं, ऊ तो लागू हो नहीं रहा, फिर 'दलालों' की जेब गरम करवाने वाला एक ठो औरो कानून की जरूरत का थी? अब तो जेतना पैसा सिपाही कमाएगा, उससे चौगुना वकील वसूलेगा औरो निरदोष होने पर भी भले मानस की समाज में नाक कटेगी सो अलग! बेचारा पतियों को कम से कम एतना समय तो दीजिए कि ऊ अपनी सफाई पेश कर सकें। आखिर भारतीय पतियों औरो सद्दाम हुसैन में एतना तो फरक किया ही जाना चाहिए।
तो का अब मियां-बीवी के बेड रूम में सरकारी चौकीदार ड्यूटी करेगा? हम ई सोच ही रहे थे कि मोबाइल बज उठा। शीतल बाबू दूसरी तरफ से लानत भेज रहे थे- ई आपने का कर दिया? चैनलों पर आप ही की खबर चल रही है। हमने टीवी आन किया- सबसे तेज, सबसे स्लो, सबसे सच्चा, सबसे झूठा, सबके जैसा, सबसे अलग जैसन तमाम चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में हम ही थे। किसी चैनल पर एंकर चीख रहा था-- इस अत्याचारी पति के घर की खिड़की सबसे पहले हमने आपको दिखाई, दूसरे चैनल पर रिपोर्टर बता रहा था--इस राक्षस पति के घर का दरवाजा सबसे पहले हमने आपको दिखाई। बीच-बीच में विज्ञापन चल रहे थे--आप भी अपने पति से परेशान हैं, तो खट्टर वकील से मिलें... पारिवारिक कलह है, तो बाबा कालू तांतरिक से मिले, शर्तिया फायदा, नहीं तो पैसा वापस...। एक चैनल पर तीन बार तलाक लेकर चौथी शादी करने वाली एक 'विरांगना' एक्सपर्ट के रूप में मौजूद थी औरो अपने चौथे पति की प्रशंसा कर रही थी।
आखिरकार, पुलिस ने हमें गाड़ी में घसीट ही लिया। दूर कहीं शारदा जी की शिष्या सब नारा लगा रही थी, 'फूल नहीं, चिंगारी हैं, हम भारत की...' औरो वकील साहेब हमें सांत्वना दे रहे थे-- बस एक बरिस जेल औरो २५ हजार जुरमाने न देना है, ई तो सोचो, इसी बहाने बीवी से छुटकारा मिल जाएगा।
अपनी गरदन फंसी देख हमने मेमयाते हुए सफाई दी, 'लेकिन भाई साहेब ऊ सीडिया तो हम अभी तक देखबो नहीं किए हैं, तो धरम पत्नी को कहां से देखाऊंगा? वैसे भी जिस काम के लिए एडल्ट सीडी लाने की बात आप कर रहे हैं, ऊ तो टीवी मुफ्त में कर देता है... बस टीवी पर आ रहे महेश भट्ट की फिलिम का कौनो गाना देख लीजिए, वात्स्यायन का पूरा कामशास्त्र आपकी समझ में आ जाएगा! इसके लिए अलग से पैसा खर्च करने की का जरूरत है? वैसे भी अगर ऐसन कानून लागू होने लगा, तो लोग अपनी बीवी के साथ कौनो हिंदी फिलिम नहीं देख सकता, काहे कि सब में अश्लीलता भरल रहती है।'
हमरी इस अनुपम 'सुपर सेवर' जानकारी पर पहिले तो सिपाही महोदय हैरान हुए, लेकिन फिर ताव खा गए, 'हमीं को सिखाते हो? ये हैं समाज सेविका शारदा जी, इन्होंने तुम्हारे घर से कल झगड़े की आवाज सुनी थी औरो रात में तुमने सीडी भी लाया, यानी इनका ई शक पक्का हो गया है कि तुम अपनी बीवी पर जुलम करते हो। पुलिस चोरी होता देख कान में तेल डाल कर सो सकती है, लेकिन नारी पर अन्याय ... ना... बरदाश्त नहीं होता। सीधे थाने चलो, अब ई फैसला कोर्ट में होगा कि तुम केतना दूध के धुले हो। वैसे, कोर्ट में तुमको पैरवी के लिए वकील की जरूरत पड़ेगी, सो ई वर्मा साहेब को हम साथ लेता आया हूं। ई सस्ते में तुम्हरी पैरवी कर देंगे... इसको जेतना देगो, ईमान से उसका बीस परसेंट हमको दे देना। इन पर हमको विशवास नहीं है, इसलिए कमिशन हम तुम्ही से लूंगा।'
अब हमरी हालत खराब। हाय भगवान! ई कैसन जुलम है? स्टोव फटने और दहेज प्रताड़ना को रोकने के दूसरे कानून कम थे कि 'गिद्धों' से नुचवाने के लिए एक ठो औरो नया कानून ले आए! हमरे समझ में इहो नहीं आ रहा कि पहले से जो कानून हैं, ऊ तो लागू हो नहीं रहा, फिर 'दलालों' की जेब गरम करवाने वाला एक ठो औरो कानून की जरूरत का थी? अब तो जेतना पैसा सिपाही कमाएगा, उससे चौगुना वकील वसूलेगा औरो निरदोष होने पर भी भले मानस की समाज में नाक कटेगी सो अलग! बेचारा पतियों को कम से कम एतना समय तो दीजिए कि ऊ अपनी सफाई पेश कर सकें। आखिर भारतीय पतियों औरो सद्दाम हुसैन में एतना तो फरक किया ही जाना चाहिए।
तो का अब मियां-बीवी के बेड रूम में सरकारी चौकीदार ड्यूटी करेगा? हम ई सोच ही रहे थे कि मोबाइल बज उठा। शीतल बाबू दूसरी तरफ से लानत भेज रहे थे- ई आपने का कर दिया? चैनलों पर आप ही की खबर चल रही है। हमने टीवी आन किया- सबसे तेज, सबसे स्लो, सबसे सच्चा, सबसे झूठा, सबके जैसा, सबसे अलग जैसन तमाम चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में हम ही थे। किसी चैनल पर एंकर चीख रहा था-- इस अत्याचारी पति के घर की खिड़की सबसे पहले हमने आपको दिखाई, दूसरे चैनल पर रिपोर्टर बता रहा था--इस राक्षस पति के घर का दरवाजा सबसे पहले हमने आपको दिखाई। बीच-बीच में विज्ञापन चल रहे थे--आप भी अपने पति से परेशान हैं, तो खट्टर वकील से मिलें... पारिवारिक कलह है, तो बाबा कालू तांतरिक से मिले, शर्तिया फायदा, नहीं तो पैसा वापस...। एक चैनल पर तीन बार तलाक लेकर चौथी शादी करने वाली एक 'विरांगना' एक्सपर्ट के रूप में मौजूद थी औरो अपने चौथे पति की प्रशंसा कर रही थी।
आखिरकार, पुलिस ने हमें गाड़ी में घसीट ही लिया। दूर कहीं शारदा जी की शिष्या सब नारा लगा रही थी, 'फूल नहीं, चिंगारी हैं, हम भारत की...' औरो वकील साहेब हमें सांत्वना दे रहे थे-- बस एक बरिस जेल औरो २५ हजार जुरमाने न देना है, ई तो सोचो, इसी बहाने बीवी से छुटकारा मिल जाएगा।
Thursday, November 02, 2006
हम नहीं सुधरेंगे!
ई बड़ी अजीब दुनिया है भाई। यहां खुद कोयो नहीं सुधरना चाहता, लेकिन दूसरों के सुधरने की आशा सभी को रहती है। ऐसन में अपने देश में अगर कोयो सबसे बेसी परेशान है, तो ऊ है कोर्ट। देश को सुधारने की कोशिश में उसकी कमर झुकी जा रही है औरो हम हैं कि सुधरने का नामे नहीं ले रहे। एक समस्या खतम नहीं होती कि हम दूसरी पैदा कर देते हैं। अब लगे रहे कोर्ट औरो सरकार हमें सुधारने में। अगर उन्हें हमें सुधारने में नानी न याद आ गई, तो हम भी भारत जैसे लोकतांतरिक देश के नागरिक का हुए! अगर कानून को ठेंगा दिखाने की आजादी ही न मिले, तो आप ही बताइए आजाद देश के नागरिक होने का मतलबे का रह जाएगा?
अब दिल्लिये को लीजिए। हम कहते हैं कि देश की राजधानी को सुधारने के चक्कर में कोर्ट बेकारे न अपनी एनरजी लगा रहा है। शायद उसको नहीं पता है कि हम यहां न सुधरने की कसम खाए बैठे हैं। हालांकि आपको आश्चर्य हो सकता है कि हम पहिले खुद तमाम तरह की समस्या पैदा करते हैं औरो फिर जब उससे अव्यवस्था फैलने लगती है, तो हम उसके लिए परशासन से लेकर सरकार तक को कोसने लगते हैं और धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं।
आश्चर्य आपको इसका भी हो सकता है कि जब कोसने के बाद सरकार औरो कोर्ट हमें परेशानियों से निजात दिलाने लगते हैं, तो हमें फिर से परेशानी होने लगती है औरो हम फिर से धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं। लेकिन हमरे खयाल से आपको एतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर आप सचमुच एतना आश्चर्यचकित हैं, तो हमरे खयाल से आप बहुते बुड़बक हैं औरो आपको लोकतांतरिक देश के अपने 'अधिकारों' का ज्ञान नहीं है।
वैसे, हम ही नहीं, दिल्ली में आजकल सब सब को सुधारने में लगा हुआ है। तीन दिन से दिल्ली बंद के चलते लोगों की हालत खराब है औरो व्यापारी लोग सरकार को सुधर जाने की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन खुद नहीं सुधर रहे। खुद उन्होंने जहां जगह मिली, दुकान खोल ली। तब लोगों की असुविधा की उन्होंने चिंता नहीं की, लेकिन अब जब कोर्ट लोगों की असुविधा दूर करने लगी है, तो व्यापारियों को असुविधा होने लगी है। वे खुद नहीं सुधरेंगे, कानूनों को तोड़ेंगे, लेकिन सरकार औरो कोर्ट को सुधरने की धमकी जरूर देंगे।
आश्चर्य की बात इहो है कि खुद जनता भी एक-दूसरे को सुधरने को कह रही है। सीलिंग की आग रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों ने लगाई, काहे कि उन्हें कालोनियों के अंदर दुकानों से बहुते परेशानी होती है। पूरा जगह दुकानों ने घेर ली है औरो लोगों का चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है। हालांकि इन्हीं रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लोगों ने अपनी कालोनियों में अतिक्रमण कर एक फुट भी जगह खाली नहीं छोड़ी है, रोड तक को अपने घर में मिला चुके हैं, लेकिन अपनी गलती उन्हें दिखती नहीं। उन्हें तो बस दुकानदारों की गलती दिखती है औरो ऊ उन्हें सुधारना चाहते हैं। अपना अतिक्रमण उन्हें जायज लगता है, लेकिन दुकानदारों का अतिक्रमण नाजायज!
आश्चर्य की बात ई है कि रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लिए कष्ट का कारण बने इन दुकानदारों को भी दूसरों से कष्ट होता है! तभी तो दुकानों के सामने पटरी पर अतिक्रमण कर सामान बेचने वालों को हटाने के लिए ऊ कोर्ट तक दौड़ लगाते रहते हैं। खुद लोगों को परेशान कर रहे हैं, तो कुछ नहीं, लेकिन उन्हें परेशान करने वाला कोयो नहीं होना चाहिए।
वैसे, हमरे खयाल से तो यही लोग हैं एक 'बेहतर' लोकतांतरिक देश के 'सच्चे' नागरिक, काहे कि वोट इनकी मुट्ठी में है। हम तो कहते हैं कि अगर अपने स्वार्थों के सामने आप दूसरों की चिंता करते हैं, तो लानत है आप पर। इससे बढि़या तो आप सतयुगे में न पैदा हुए होते, जब संतों की यह बात मानी जाती थी- - खुद सुधरो, जग सुधरेगा।
अब दिल्लिये को लीजिए। हम कहते हैं कि देश की राजधानी को सुधारने के चक्कर में कोर्ट बेकारे न अपनी एनरजी लगा रहा है। शायद उसको नहीं पता है कि हम यहां न सुधरने की कसम खाए बैठे हैं। हालांकि आपको आश्चर्य हो सकता है कि हम पहिले खुद तमाम तरह की समस्या पैदा करते हैं औरो फिर जब उससे अव्यवस्था फैलने लगती है, तो हम उसके लिए परशासन से लेकर सरकार तक को कोसने लगते हैं और धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं।
आश्चर्य आपको इसका भी हो सकता है कि जब कोसने के बाद सरकार औरो कोर्ट हमें परेशानियों से निजात दिलाने लगते हैं, तो हमें फिर से परेशानी होने लगती है औरो हम फिर से धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं। लेकिन हमरे खयाल से आपको एतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर आप सचमुच एतना आश्चर्यचकित हैं, तो हमरे खयाल से आप बहुते बुड़बक हैं औरो आपको लोकतांतरिक देश के अपने 'अधिकारों' का ज्ञान नहीं है।
वैसे, हम ही नहीं, दिल्ली में आजकल सब सब को सुधारने में लगा हुआ है। तीन दिन से दिल्ली बंद के चलते लोगों की हालत खराब है औरो व्यापारी लोग सरकार को सुधर जाने की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन खुद नहीं सुधर रहे। खुद उन्होंने जहां जगह मिली, दुकान खोल ली। तब लोगों की असुविधा की उन्होंने चिंता नहीं की, लेकिन अब जब कोर्ट लोगों की असुविधा दूर करने लगी है, तो व्यापारियों को असुविधा होने लगी है। वे खुद नहीं सुधरेंगे, कानूनों को तोड़ेंगे, लेकिन सरकार औरो कोर्ट को सुधरने की धमकी जरूर देंगे।
आश्चर्य की बात इहो है कि खुद जनता भी एक-दूसरे को सुधरने को कह रही है। सीलिंग की आग रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों ने लगाई, काहे कि उन्हें कालोनियों के अंदर दुकानों से बहुते परेशानी होती है। पूरा जगह दुकानों ने घेर ली है औरो लोगों का चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है। हालांकि इन्हीं रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लोगों ने अपनी कालोनियों में अतिक्रमण कर एक फुट भी जगह खाली नहीं छोड़ी है, रोड तक को अपने घर में मिला चुके हैं, लेकिन अपनी गलती उन्हें दिखती नहीं। उन्हें तो बस दुकानदारों की गलती दिखती है औरो ऊ उन्हें सुधारना चाहते हैं। अपना अतिक्रमण उन्हें जायज लगता है, लेकिन दुकानदारों का अतिक्रमण नाजायज!
आश्चर्य की बात ई है कि रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लिए कष्ट का कारण बने इन दुकानदारों को भी दूसरों से कष्ट होता है! तभी तो दुकानों के सामने पटरी पर अतिक्रमण कर सामान बेचने वालों को हटाने के लिए ऊ कोर्ट तक दौड़ लगाते रहते हैं। खुद लोगों को परेशान कर रहे हैं, तो कुछ नहीं, लेकिन उन्हें परेशान करने वाला कोयो नहीं होना चाहिए।
वैसे, हमरे खयाल से तो यही लोग हैं एक 'बेहतर' लोकतांतरिक देश के 'सच्चे' नागरिक, काहे कि वोट इनकी मुट्ठी में है। हम तो कहते हैं कि अगर अपने स्वार्थों के सामने आप दूसरों की चिंता करते हैं, तो लानत है आप पर। इससे बढि़या तो आप सतयुगे में न पैदा हुए होते, जब संतों की यह बात मानी जाती थी- - खुद सुधरो, जग सुधरेगा।
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