Thursday, August 14, 2008

आजादी के नाम पर...

सभी आजाद रहना चाहते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि आजादी की सबकी परिभाषा अलग-अलग है। संभव है कि जहां से किसी की आजादी शुरू होती हो, वहां किसी के लिए इसका अंत हो रहा हो, लेकिन हम इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। हमने इतने स्वतंत्रता दिवस मना लिए, लेकिन सच यही है कि ज्यादातर लोग आज भी आजादी को गलत अर्थों में ही ले रहे हैं:

जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और सचमुच में आजादी क्या होती है, इसे शिद्दत से महसूस किया था, अगर उन चुनिंदा बचे- खुचे लोगों से आप बात करें, तो पाएंगे कि वे देश में ब्रिटिश शासन की वापसी चाहते हैं। उन्हें देश का आज का रंग-ढंग कुछ रास नहीं आ रहा। वे चाहते हैं कि जो अनुशासन अंग्रेजों के समय में था, वह फिर से देश में वापस आए। आजादी के नाम पर आज जिस तरह से सब कुछ बेलगाम है, वह उनसे सहा नहीं जाता।


वैसे, उन लोगों का दर्द समझा भी जा सकता है। आज लोग हर वह काम कर रहे हैं, जो वे करना चाहते हैं और यह सब कुछ हो रहा है आजादी के नाम पर। व्यक्तिगत आजादी के नाम पर वे दूसरों की स्वतंत्रता छीन रहे हैं, बोलने की आजादी के बहाने वे दूसरों को बोलने से रोक रहे हैं, लोकतांत्रिक तरीके से विरोध के नाम पर वे क्षेत्रवाद को हवा दे रहे हैं, धार्मिक आजादी के नाम पर आतंक को आसरा दे रहे हैं, तो राजनीतिक अधिकारों का दुरुपयोग अरबों का बैंक बैलेंस बनाने में हो रहा है। शायद यही चीज उन्हें इस बात के लिए विवश करती है कि वे अंग्रेजी हुकूमत की वकालत करें।

आजादी यानी डिप्रेशन और स्यूसाइड


आजादी का मतलब किसी एक तरह की आजादी से नहीं है, लोगों को हर तरह की आजादी चाहिए। कोई किसी नियम-कानून में बंधना ही नहीं चाहता, चाहे वे सामाजिक नियम हों या सरकारी कायदे कानून। प्रैक्टिकल स्थिति यह है कि जो मनमर्जी नहीं कर पाता, वही अपने को गुलाम समझने लगता है और फिर शुरू होती है उससे मुक्त होने की कवायद। इस कवायद में लोग बागी हो रहे हैं। वे परिवार से बगावत कर रहे हैं, समाज छोड़ रहे हैं, सरकारी कानूनों से खेल रहे हैं और यहां तक कि अपनी आजादी के सामने देश की भी परवाह नहीं करते। जो ऐसा कर रहे हैं, वे दूसरों के लिए दुश्मन बन रहे हैं, लेकिन जो ऐसा नहीं कर रहे, वे खुद अपने दुश्मन बन रहे हैं।


आजादी की चाह में इंसान दिनोंदिन कमजोर होता जा रहा है। दरअसल, जो व्यक्ति बड़ी शिद्दत से आजादी चाहता है, लेकिन उसे हासिल नहीं कर पाता, वह खुद को मिटा डालना चाहता है या अपनी मानसिकता बीमार कर बैठता है। परिणाम यह है कि आत्महत्या का आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है, तो डिप्रेशन की वजह से समाज का एक बड़ा तबका बीमार हो रहा है। आप यह कह सकते हैं कि समाज तब से ज्यादा बीमार रहने लगा है, जब से लोगों में आजादी की चाह तेजी से हिलोरें मारने लगी हैं और जब से लोगों ने आजादी को अपने जीने-मरने से जोड़ लिया है।

पर्सनल स्पेस की डिमांड

लोग जहां पहले एक-दूसरे से जुड़कर रहना चाहते थे, वहीं अब वे अलग रहना चाहते हैं। इतना अलग कि कोई यह न पूछे कि अभी क्या कर रहे हो। और इसे नाम दिया गया है कि पर्सनल स्पेस का। यह पर्सनल स्पेस आज पारिवारिक कलह की सबसे बड़ी वजह है। मियां-बीवी, पैरंट्स-बच्चे, भाई-बहन जैसे तमाम रिलेशंस पर्सनल स्पेस की बढ़ती मांग की वजह से कमजोर होते जा रहे हैं। वेस्ट ने तो पर्सनल स्पेस से होने वाली क्षति के साथ जीना सीख लिया है, लेकिन भारतीय समाज को इसने बिखेर कर रख दिया है।

इस पर्सनल स्पेस ने लोगों में एक किस्म की उच्छृंखलता पैदा की है, जिससे तलाक की संख्या बढ़ रही है और विवाह संस्था छिन्न- भिन्न हो रही है, तो बड़े-बूढ़ों को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल रही। बच्चे अब बूढ़े पैरंट्स को अपने साथ रखना नहीं चाहते, क्योंकि वे बच्चों की पर्सनल स्पेस का खयाल नहीं करते। जाहिर है, इस पर्सनल किस्म की आजादी ने देश के सामने एक बड़ी चुनौती रख दी है और यह चुनौती है अनाथ बच्चों व बूढ़ों को सहारा देने के लिए जल्दी से जल्दी एक राष्ट्रीय नीति पर काम शुरू करने की। यही नहीं, तलाक की बढ़ती संख्या ने तलाक कानून को और लचर बनाने की जरूरत भी पैदा की है।

कमजोर कर रही है आजादी

एक आजाद मुल्क हर तरह से मजबूत होता है, लेकिन सभी यह मान रहे हैं कि हम लगातार कमजोर हो रहे हैं। देश की छवि आजाद देश से ज्यादा एक सॉफ्ट नेशन की हो गई है। यही वजह है कि लोग मनमौजी हो रहे हैं। हम सिर्फ अधिकारों की बात करते हैं, कर्त्तव्यों की परवाह नहीं करते। हम यह नहीं देखते कि हमारी आजादी से दूसरों की आजादी कितनी छिन रही है। आज मदरसे, चर्च और तमाम हिंदू संगठन कट्टरपंथ को बढ़ावा देने में लगे हैं और यह सब हो रहा है धार्मिक आजादी के नाम पर। देश अपनी ही आबादी के भार से दबा जा रहा है, लेकिन धर्म की आड़ में लोग फैमिली प्लानिंग से तौबा कर रहे हैं। पोलियो वैक्सीनेशन अभियान भी इसी कथित आजादी के नाम पर फ्लॉप हो रहे हैं। जाहिर है, लोग अपने और अपने विश्वास की आजादी के सामने देश व समाज की चिंता बिल्कुल नहीं कर रहे।

खोखला हुआ सरकारी तंत्र

आजादी का गलत अर्थ कितना गलत होता है, इसे हम अपने देश के सरकारी तंत्र के ढहने के रूप में देख सकते हैं। सरकारी कर्मचारियों ने इतनी ज्यादा आजादी ले ली कि देश का सारा सिस्टम ही बिखर गया। कर्मचारियों की मनमौजी की वजह से जनता के पैसे से बनीं तमाम सरकारी कंपनियों का दीवाला निकल गया, तो कुछ कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गईं और बिकने भी लगीं। प्राइवेट हाथों में अब वही कंपनियां मुनाफे की फसल काट रही हैं।

Monday, May 12, 2008

महिमा सफेद हाथियों की!

जमाना सफेद हाथियों का है। हमरे खयाल इस निराली दुनिया के ऊ सबसे नायाब जीव हैं औरो महिमा ऐसन देखिए कि देश में आजकल ऊ काले हाथियों से बेसी पाए जाते हैं। काले हाथी भले लुप्तप्राय हो रहे हों, लेकिन सफेद हाथियों की हस्ती मिटाए नहीं मिटती।

अपने देश में तो हालत कुछ ऐसन है कि कंपनियां पहिले सफेद हाथियों को नौकरी पर रखती है औरो फिर उन घोड़ों के बारे में सोचती है, जिनके भरोसे उनका काम धाम चलेगा। शायद इसकी वजह ई है कि उन्हें सफेद हाथी के 'हाथीत्व' पर कुछ बेसिए भरोसा होता है। वैसे, महंगे सफेद हाथियों का काम होता बहुते आसान है-बस कोड़ा फटकारते रहो... जो काम कर रहा है, उससे औरो काम करवाते रहो। सफेद हाथियों की पहचाने यही है। एक तरफ तो ऊ काम करने वालों को जेतना हो सके प्रताडि़त करते रहते हैं, दुत्कारते फटकारते रहते हैं, ताकि ऊ बेसी से बेसी काम करे, तो दूसरी तरफ काहिलों से उन्हें घनघोर सहानुभूति रहती है।

दरअसल, ऊ जानते हैं कि काम करने वालों से आप बस काम करवा सकते हैं, चमचागिरी उनके वश की बात नहीं होती, तो दूसरी तरफ काहिल बस चमचागिरी कर सकते हैं, काम करना उनके वश की बात नहीं होती। ऐसन में काहिलों को पटाकर रखना उनकी मजबूरी होती है, काहे कि उनकी मौजूदगी से सफेद हाथियों के जीवन में रस बना रहता है, उनका ईगो बूस्ट होता रहता है। सफेद हाथियों की परंपरा कभियो खतम नहीं होती, तो इसके पीछे भी अपने कारण हैं।

असली दिक्कत ई है कि अपने देश में हाथी बनने का रास्ता अभियो घोड़ों की बस्ती से ही गुजरता है। जब तक घोड़े सफेद हाथियों के अंदर दसियों साल तक काम न कर लें, ऊ हाथी बनने के काबिल नहीं माने जाते। ऐसन में जब तक कौनो घोड़ा हाथी बनने के काबिल होता है, ऊ सफेद हाथियों से एतना त्रस्त हो चुका होता है कि काला हाथी बनने के बजाय सफेद हाथी बनना ही मुनासिब समझता है। ऐसन में सफेद हाथियों की परंपरा सतत कायम रहती है।

गौर करने वाली बात इहो है कि अक्सर काहिले लोग सफेद हाथी के पोस्ट तक पहुंच पाते हैं, जबकि काबिल लोग टापते रह जाते हैं। होता ई है कि अपनी काहिली की वजह से सुस्त घोड़ों को पहिलये से पता रहता है कि सफेद हाथियों की बटरिंग ही उनकी नैया पार लगा सकती है, जबकि काबिल लोग इस मुगालते में मारे जाते हैं कि ऊ अपनी काबिलियत से हाथी बन जाएंगे।

वैसे, हाथी औरो उसमें भी सफेद हाथी पालना बड़े-बड़े लोगों का शौक होता है। आईपीएल को ही लीजिए। अरबपतियों ने अपनी अपनी टीमों के लिए एक-एक सफेद हाथी पहिलये चुन लिया औरो उनको नाम दिया गया आइकन पिलयर! माना गया कि चूंकि भारतीयों को अजीब जीवों को देखने के लिए मजमा लगाना अच्छा लगता है, इसलिए इन सफेद हाथियों को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आएंगे... सब काम धाम छोड़कर स्टेडियम आएंगे।

किरकेट कंटरोल बोर्ड के सिलेक्टरों की दूरदृष्टि देखिए कि उनके सभी आइकन पिलयर एक एक कर वास्तव में सफेद हाथी साबित हो रहे हैं! अब ई तो शोध की बात है कि लोग वाकई इन्हीं सफेद हाथियों को देखने मैदान पर आ रहे हैं या फिर जो घोड़ा सब बॉल औरो बैट से बढि़या परदरशन कर रहे हैं, उनको देखने?

बहरहाल, जब तक देश में 'सरकारी संस्कृति' कायम है, फैदा इसी में है कि आप भी सफेद हाथियों की जय जयकार करते रहिए! अस्तित्व बचा रहेगा तो कभियो न कभी आप भी सफ़ेद हाथी बनकर दुनिया से मौज ले सकेंगे.

Saturday, May 03, 2008

बहुते जालिम है दुनिया

दुनिया बहुते जालिम है। आप कुछो नहीं कीजिए, तो उसको पिराबलम, कुछो करने लगिए, तभियो पिराबलम! आखिर दुनिया को चाहिए का, कोयो नहीं जानता। औरो जब तक जानने की स्थिति में होता है, बरबाद हो चुका होता है।

जब तक आम भारतीयों को दोनों टैम रोटी-नून नहीं मिलता था, गरीब देश कह-कहके पश्चिमी देशों ने उसके नाक में दम कर रख था। अब जाके स्थिति सुधरी औरो कुछ लोग भरपेट खाना खाने लगे, तो अब फिर से अमेरिका के पेट में दरद की शिकायत हो गई है। अब अमेरिकी विदेश मंतरी कहने लगी हैं कि भारतीय एतना भुक्खड़ हैं कि टन का टन अन्न चट कर जाते हैं। ऊ एतना खाते हैं कि दुनिया से अन्न खतम होने लगा है। गनीमत है, अभी तक अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में भारतीयों को एक शाम उपवास पर रखने का बिल नहीं पास करवाया है। का पता एक दिन ऐसनो दिन देखना पड़े, आखिर ऊ महाशक्ति है भाई।

हालांकि, गनीमत तो इहो है कि अभी तक उनको भारत में आदमियों के पैदावार पर बेसी आपत्ति नहीं है! जिस दिन उसको आपत्ति हो जाएगी, यकीन मानिए भारत सरकार उसके आदेश का वैसने खयाल रखेगी जैसन उसने चीनी ओलिंपिक मशाल का रखा। एक दिन में सबकी नसबंदी हो जाएगी औरो अरब तक जनसंख्या पहुंचा देने वाला 'भारतीय कुटीर उद्योग' पूरी तरह बंद हो जाएगा!

वैसे, भारत की गरीबी का मजाक उड़ाने में अमेरिकिए आगे नहीं है। अभिये कुछ दिन पहिले एक ठो केंद्रीय मंतरी ने कहा कि चूंकि उत्तर भारतीय भी अब गेहूं खाने लगे हैं, इसलिए देश में अन्न की कमी हो गई है। अब बताइए, उत्तर भारतीयों को रोटी खाना बंद कर देना चाहिए?

दुनिया के सताए लोग और भी हैं। बेचारे हरभजन सिंह को ही लीजिए। दुनिया ने बेचारे को कहीं का नहीं छोड़ा। पहले तो दुनिया उसको झाड़ पर चढ़ाती रही कि बोलर को एग्रेसिव होबे करना चाहिए, उसे साइमंड्स की ऐसी तैसी करनी ही चाहिए। औरो ऑस्ट्रेलिया में बहादुरी दिखाने के बाद जब उस बेचारे ने आईपीएल में श्रीशांत को लपड़ा दिया, तो उसकी 'बहादुरी' को दाद देने वाला कोयो नहीं था। आज सब उसके एग्रेसन की आलोचना कर रहे हैं। बेचारा भज्जी!

कुछ ऐसने हाल किया है दुनिया ने करीना कपूर का भी। जब तक ऊ शाहिद कपूर के साथ थी, बेचारी को दुनिया ने चैन से जीने नहीं दिया। लोग कहते थे कि चालाक करीना एक 'मासूम' का शोषण कर रही है। बेचारी ने जब उस 'बाल शोषण' से तौबा करनी चाही, तो सहारे के लिए कंधा भी तलाशा। अब कोयो हमउमर वैसन मिलेगा नहीं, तो बुड्ढे हो रहे सैफ का ही सहारा ढूंढ लिया। अब दुनिया को फिर से करीना से ऐतराज है- नैन मटक्का भी कर रही है तो तलाकशुदा दो बच्चे के बाप से। अब दुनिया करीना से पूछ रही है कि सैफ में आखिर उसको मिला का?

हालत तो खराब लोगों की ऑफिस की दुनिया भी कर रही है। कान्फिडेंस नहीं है... काम नहीं कर सकते... जैसन ताना सुनते सुनते बंदा जब अपने में ओवर कान्फिडेंस पैदा कर लेता है, तो बाकियों को लगता है कि ई तो कुछ बेसिए उड़ रहा है। फिर लगते हैं सब उसका पर कतरने, ताकि ऊ उड़िए न पाए। बेचारे चौबे, जो छब्बे बनने का दावेदार होता है, दुनिया उसे दूबे बनाकर ही छोड़ती है!

अब आप ही बताइए दुनिया से निबटा कैसे जाए? दुनिया के कहे पर झाड़ पर चढ़ा जाए या फिर झाड़ के नीचे बैठ के दुनिया देखी जाए?

Saturday, April 26, 2008

काश! हम सठियाये होते

पहले हम बुढ़ापे से डरते थे, लेकिन अब बूढे़ होने को बेकरार हूं। दिल करता है, कल के बजाए आज बूढ़ा हो जाऊं, तो एक अदद ढंग की हसीना हमको भी मिल जाए।

नहीं, हम बेवकूफ नहीं हूं। बूढ़ा हम इसलिए होना चाहता हूं, काहे कि बुढ़ापा अब बुढ़ापा रह नहीं गया है। जीवन के चौथेपन में अब एतना मौज आने लगी है कि वानप्रस्थ की बात अब किसी के दिमागे में नहीं घुसती। विश्वास न हो, तो दुनिया देख लीजिए। लोग जेतना बूढे़ होते जा रहे हैं, जवानी उनमें ओतने हिलोरें मारती जा रही है।

' साठा पर पाठा' बहुत पहिले से हम सुनते आया हूं, लेकिन ई कहावत कभियो ओतना सच होते दिखा नहीं, जेतना अब दिख रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति सर्कोजी से लेकर रूस के राष्ट्रपति पुतिन औरो पके बालों वाले सलमान रुश्दी तक, साठवां वसंत देखने जा रहे तमाम लोगों को ऐसन ऐसन हसीना मिल रही है कि जवान लोग के जीभ में पानी आ रहा है। अब हमरी समझ में ई नहीं आ रहा कि कमियां जवान लोगों में हैं या फिर दुनिया भर की लड़कियों की च्वाइस बदल गई है?

लोग कहते हैं कि बात दोनों हुई हैं। जवान लोग पैसा बनाने के चक्कर में ऐसन बिजी हैं कि उनके दिल में रोमांस का सब ठो कुएं सूख गया है, तो पैसा कमाते-कमाते बूढ़े हो चुके लोग जब ठंडा होने लगे हैं, तो उनमें रोमांस का घड़ा फिर से छलकने लगा है। ऐसन में आप ही बताइए, लड़कियों के पास बूढ़ों के बाल काले करवाने के अलावा औरो कौनो चारा बचता है का?

वैसे, लड़कियां भी कम उदार नहीं हुई हैं। अभिए कुछ दिन पहले करीना को देखकर हमको महसूस हुआ कि लड़कियों की सोच में केतना का फरक आ गया है। सैफ के दो-तीन बच्चों के साथ ऊ ऐसन मगन थीं, जैसे ऊ अपने ही बच्चे हों। कुछ दशक पहले तक सौतेली मां का मतलब यमराज होता था, लेकिन अब दूसरे का बच्चा भी अगर पति के तरफ से गिफ्ट में मिल मिल जाए, तो लड़कियां उनसे मां कहलवाने में गुरेज नहीं करतीं। अब चाहे ऊ बच्चा अपनी ही उमर का काहे नहीं हो।

हालांकि चाहे कुछो कहिए बुढ़ापे में दम तो होबे करता है। औरो ई दम ऐसन नहीं है कि उनमें अभिए आया है। ई हमेशा से रहा है। अंतर बस ई है कि बूढ़ा रोमांस पहले लोक लाज के भय से घूंघट नहीं निकालता था, लेकिन अब जमाने के हिसाब से ऊ बेशरम हो गया है!

बुढ़ापा हमेशा से खतरनाक रहा है, इसका एक ठो बानगी देखिए। बीस साल पहले हमरी एक परिचिता की टीचर अपनी शिष्याओं को नसीहत कुछ ऐसे देती थीं- अगर तुम बस से कहीं जा रही हो औरो बस में तुम्हें कौनो सीट किसी पुरुष के साथ शेयर करनी पड़े, तो बूढे़ आदमी के साथ बैठने के बजाय जवान पुरुष के साथ बैठना, ऊ कम खतरनाक होते हैं! तो ई था बीस साल पहले बूढ़ों का आतंक! अब तो तभियो मामला सेफ है, काहे कि ई आतंक परेम में बदल गया है! सही पूछिए, तो इसीलिए हम सठियाना चाहता हूं!

Saturday, April 05, 2008

किरकेटिया कनफूजन

शाहरुख खान औरो अक्षय कुमार आजकल फिलिम से बेसी किरकेट में घुसकर चरचा बटोर रहे हैं। शाहरुख के हाथ में गेंद औरो अक्षय के हाथ में बल्ला... लोग कनफूजिया रहे हैं- कल तक तो पर्दे पर महाशय नचनिया बने घूम रहे थे, किरकेटर कब बन गए? अभी तक किसी टीम में खेलते तो नहीं देखा...।

लोग हैरान हैं, तो किरकेटो कम हैरान नहीं है। ऊ ई तो जानता है कि आजकल दुनिया में कोयो अपना काम कर खुश नहीं रहता, इसलिए दूसरों की फटी में टांग अड़ाता रहता है। लेकिन दिक्कत ई है कि लोग अब उसकी फटी में भी टांग अड़ाने लगे हैं। उसको अपना स्टेटस कम होता नजर आने लगा है। कहां तो लोग उसे भारत का धरम कहते थे औरो किरकेटरों को भगवान, तो कहां स्थिति ई है कि अपना जादू कायम रखने के लिए उसे अब बालिवुडिया 'देवी-देवताओं' की मदद लेनी पड़ रही है। उसके अपने किरकेटिया भगवान तो गाय-भैंस बनकर कब के नीलामी में सरेआम बिक गए!

किरकेट का आगे का होगा, ई सोचकर हमरे मिसिर जी भी परेशान हैं। उनको पता है कि चीजांे का ऐसन घालमेल बहुते खराब होता है। घालमेल की वजह से ही ऊ अक्सर मनमोहन सिंह को भूलकर सोनिया गांधी को परधान मंतरी कह देते हैं, तो शरद पवार को किरकेट मंतरी। अर्जुन सिंह को ऊ मानव संसाधन मंतरी नहीं, बल्कि आरक्षण मंतरी के रूप में जानते हैं, तो रामदास को स्वास्थ्य मंतरी के बजाय एम्स मंतरी औरो तम्बाकू निरोध मंतरी के रूप में।

ऐसन में उनको लग रहा है कि कुछ साल बाद किरकेट भी उनको कुछो दूसरे चीज बुझाएगा। काहे कि आईपीएल औरो आईसीएल में उनको किरकेट के अलावा सब कुछ होता दिख रहा है। पैसा कमाने के लिए दर्शकों को फाइव स्टार सुविधा देने की बात हो रही है। लोग अब अय्याशी करते हुए मैदान में किरकेट मैच देख सकेंगे। पैवेलियन में शराब परोसी जाएगी औरो का पता बाद में शबाब परोसने की भी बात तै हो जाए! आखिर आईपीएल पर अरबों का दांव लगाने वालों को अपना पैसो तो वसूलना है। वैसे, दर्शकों के मुंह में शबाब तो कब की लग चुकी है। पहिले चौका-छक्का लगता था, तो लोग बाउंड्री के पार बॉल पर नजर दौड़ाते थे, अब इधर बॉल बाउंडरी पार करता है औरो उधर कुछ अधनंगी बालाएं एक कोने में मंच पर विचित्र-सी भाव भंगिमा में नाचने लगती हैं। लोग बॉल को छोड़ बालाओं को देखने लगता है। यानी, चौके-छक्के की औकात कम हो गई, बाउंड्री पर नाचने वालीं फिरंगन बालाओं की बढ़ गई। वैसे, मिसिर जी की समझ में इहो नहीं आता कि मैच जब भारत में हो रहा है, तो बाउंड्री पर थिरकने वाली नचनियां फिरंगन काहे होती हैं?

मिसिर जी तो डेड शियोर हैं कि अगर ऐसने चलता रहा, तो जल्दिये किरकेटो का अस्तित्व हॉकिए जैसन ढूंढने से नहीं मिलेगा। काहे कि आईपीएल का मसाला उसको कहीं का नहीं छोड़ेगा। दर्शकों को स्टेडियम तक खींचने के लिए शाहरुख व माल्या जैसन लोग कुछो कर सकते हैं औरो गियानी लोग कह गए हैं कि किसी भी चीज की अति ठीक नहीं!

Wednesday, April 02, 2008

स्वर्ग जाना के चाहता है?

छठे वेतन आयोग की सिफारिश आने से बाबू सब कुछ बेसिए खुश हो गए हैं। बड़का-बड़का झोला सिलाकर अब उनको इंतजार है, तो बस सरकार के वेतन आयोग की सिफारिश मान लेने का। हालांकि हमरे समझ में ई नहीं आ रहा कि जब जिंदगी का फटफटिया घूस वाले पेटरोल से मजा में चलिए रहा है, तो एतना सैलरी का ऊ करेंगे का?

एक ठो बाबू मिल गए, 'हमने अपनी इस 'चिंता' से उनको अवगत कराया।'

ऊ बिगड़ गए, 'आपके पेट में कुछ बेसिए दरद हो रहा है। पैसा सरकार का है औरो जेब हमारी है, जब हम दोनों को कौनो आपत्ति नहीं है, तो आप काहे चिंता में दुबले हो रहे हैं?'

हमने कहा, 'जेब आपकी है औरो पैसा सरकार का है, ई बात सही है, लेकिन एक ठो बात बताइए, सरकार पैसा का अपने पिताजी के यहां से लाएगी? जब हमरे ही टैक्स से सरकार की गाड़ी चलनी है, तो आपके जेब में जाने वाला पैसबो तो हमरे होगा न।'

ऊ बोले, 'ऊ तो हमरे जेब में जाने वाला पैसा हर हाल में आपका ही होता है-चाहे सरकार से हमें सैलरी मिले या आपसे घूस कमाएं। वैसे, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि हमरी सैलरी बढ़ गई तो चमड़ी आप ही की बचेगी-घूस लेते समय आप पर दो-चार रुपये का रहम कर जाऊंगा। सैलरी नहीं बढ़ी, तो घूस औरो कमिशन दोनों का रेट बढ़ा दूंगा - आखिर आप जनता के ही भरोसे तो अपना बचवा विलायती स्कूल में पढ़ रहा, मेहरारू रोज पारलर जाती है, टॉमी मीट खाता है।'

बात-बेबात ऑफिस में मिठाई मंगा घर आकर खाने वाले ऊ बेचारे चीनी के परभाव में इतना कहते कहते हांफने लगे थे। थोड़ा पानी पिया, तो बेचारे का बलड परेशर जगह पर आया। अब बारी सरकार की थी, 'जिस घीया को गांव में हमरी भैंस नहीं खाती है, दिल्ली में ऊ 40 टका किलो बिक रही है, साल भर पहले ऊ चार रुपये किलो बिक रही थी। वेतन आयोग तो सरकारी प्रायश्चित है- मुनाफाखोरों पर ऊ अंकुश नहीं लगा सकती, इसलिए हमरी सैलरी बढ़ा रही है। इस सरकारी मौसम में, सरकार को पता है कि महंगाई से हम मरेंगे, तो सरकारो को मार देंगे। वेतन आयोग तो सरकारी बाजीगरी है - बाजार को मनमानी करने दो, जनता को वेतन वृद्धि का झुनझुना पकड़ा दो!

हमने कहा, 'एतना कमा कर कहां जाइएगा? बेईमानी-शैतानी की कमाई से तो नरक मिलती है। ईमानदारी का खाइए, लोक के साथ-साथ परलोक भी सुधरेगा?'

ऊ बोले, 'स्वर्ग जाना के चाहता है? आपकी सलाह में दम तो है, लेकिन दिक्कत ई है कि अकेले स्वर्ग में जाकर हम करूंगा का? आजकल लोग एतना पाप कर रहे हैं कि मरने के बाद किसी न किसी मामले में भगवान उनको नरक में डालकर ही दम लेंगे। अब जब तमाम यार औरो परिजन नरक में ही जाने वाले हों, तो अकेला स्वर्ग में किसी का मन कैसे लगेगा? इसलिए हम तो वैसे भी नरक में ही जाना चाहूंगा।'

अब जब ऐसन 'महारथियों' की आत्मा सर्वव्यापी हो, तभी समझ में आता है कि अंगरेज़ की हस्ती मिटा देने वाले देश में बाबूओं की हस्ती कभियो काहे नहीं मिटती है!

Saturday, March 15, 2008

हाकी की लुटिया

हाकी की लुटिया डूब गई, लोग बहुते निराश हुए। पूरे देश में बस एके ठो आदमी है, जो तनियो ठो परेशान नहीं हुआ औरो ऊ हैं हाकी महासंघ के अध्यक्ष गिल साहब। हमने सोचा, चलो मातम की इस बेला में गिल साहब से हाकी के बारे में बतिया लिया जाए। हम पहुंचे गिल साहब के पास।

हमने कहा, 'बधाई हो, आपने ऊ कर दिखाया, जो 80 साल में कोयो नहीं कर सका था?' ऊ बोले, 'धन्यवाद, चलिए इसी बहाने आप लोगों को हाकी की याद तो आई। हम हाकीवाले धन्य हो गए।'
इससे पहले कि हम दूसरा सवाल पूछते, ऊ हमहीं से पूछ बैठे, 'तो का आप अपने अखबार में सबसे निकम्मे हैं?'

मैं सकपका गया, 'आप ई काहे पूछ रहे हैं?' ऊ बोले, 'जो पतरकार अपने को बहुते काबिल समझता है, ऊ तो किरकेट कवर करने के लिए जुगाड़ लगाता है, संपादक की सेवा करता है। संपादक भी तो निकम्मों को ही हाकी कवर करने में लगाते हैं!'

हमने झेंप मिटाई, 'आप तो जिसके पीछे लगते हैं, उसी को मिटा डालते हैं। पहले पंजाब से आतंक खतम किया औरो अब देश से हाकी को। आपने अपनी काबिलियत से पंजाब में आतंकवादियों का सफाया किया था या फिर बस आपकी 'मिटाने' की आदत की वजह से ऐसा हो गया?'

ऊ बोले, 'कहना मोश्किल है। ई तो आप उन लोगों से पूछिए, जिन्होंने हमरी परतिभा देखकर मुझे हाकी का ठेकेदार बनाया था!' हमने कहा, 'कोयो आपको इस ठेकेदारी से हटाता काहे नहीं है?' इसके लिए टैम किसके पास है? पब्लिक को किरकेट देखने से फुरसत नहीं मिल रहा, तो नेता किरकेटरों को सम्मानित करने में बिजी है। मीडिया ने कृषि मंतरी शरद पवार को किरकेट मंतरी बनाकर रख दिया है, लेकिन गिल कौन है, आप में से बहुते पतरकारों को पतो नहीं होगा। बच्चा सब एक मिनट में बता देगा कि किरकेटिया आईपीएल में कितनी टीमें खेलेंगी, लेकिन देश में इंडियन प्रीमियर हाकी लीग जैसन चीज भी है, ई कोयो नहीं बता पाएगा! अब आप ही बताइए, एतना उपेक्षित खेल का मुखिया बनना कम साहस की बात है? अगर आज यही खेल किरकेट जैसन हिट होता, तो हमरे जैसन बूड्ढे को तो लोग कभिये का कुर्सी से लुढ़का चुके होते। आप तो हमको धन्यवाद दीजिए कि एतना फेमस आदमी होकर भी हम हाकी से चिपका हुआ हूं, बीसीसीआई अध्यक्ष बनने की कोशिश नहीं कर रहा। अब बूढ़ा हो गया हूं, हाकी स्टिक इसी समय तो सहारे के काम आती है।

हमने कहा, 'खेल मंतरी तक कह रहे हैं कि ऊ हाकी के बारे में कुछो नहीं बोलना चाहते?'

गिल साहब दहाड़े, 'ऊ बोलेंगे किस मुंह से? बोलेगा तो ऊ, जिसने कभियो हाकी के लिए कुछो किया हो। हाकी राष्ट्रीय खेल है, लेकिन केतना हाकी स्टेडियम है देश में? अब लोग गली में स्टिक घुमाकर तो हाकी खिलाड़ी बन नहीं सकते। सरकार गली-मोहल्ले में सेज खड़ी कर रही है, दिल्ली जैसन जगह में निलामी में जमीन बेच रही है, लेकिन स्टेडियम के लिए उसके पास जमीन नहीं है। अब या तो सरकार अपने जमीन बेचकर खजाने में अरबों जमा कर ले या फिर हाकी की सुध ले ले। जिस हाकी के लिए आप मरे जा रहे हैं, लोग तो उस पर फिलिम बनाकर करोड़ों कमाते हैं औरो फिर आईपीएल की एक ठो टीम खरीद लेते हैं! बढ़िया होगा आप भी हाकी के बारे में कुछो मत बोलिए, किरकेट पर लिखिएगा, तो लोगों में पहचान बनेगी, जिसकी आपको सख्त जरूरत है।

गिल साहब की सलाह ने हमको सोचने पर विवश कर दिया है. सोचता हूँ इससे पहले कि हमरी हालत गिल जैसी हो, हमको पवार बनने की कोशिश कर लेनी चाहिए. आप का सोचते हैं?

Saturday, March 01, 2008

नेताजी का बजट

देश को बजट मिल गया। सत्ता में बैठे नेताजी सब खुश हैं, उनके दोनों मंतरियों ने एकदम धांसू इलेक्शन वाला बजट पेश किया है, तो विपक्षी नेताओं की परेशानी ई है कि बजट का पोस्टमार्टम कर ऊ जनता को जो उसका सड़ा-गला पार्ट दिखा रहे हैं, उसको देखकर जनता को हार्ट अटैक नहीं हो रहा।

एक ठो विपक्षी नेताजी मिले, बोले, 'पब्लिक निकम्मी हो गई है। लालू ने सब्जबाग दिखा दिया, ऊ खुश हो गई... चिदंबरम ने ख्वाब दिखाया, ऊ खुश हो गई। हमरी तो कोयो सुनबे नहीं करता है। हम कह रहा हूं कि ई बोगस बजट है, इससे लोगों का भला नहीं होगा, लेकिन पब्लिक है कि समझने को तैयार नहीं है। हमने जनता से आह्वान किया कि बजट के विरोध में धरना-परदरशन करने चलिए, लेकिन पब्लिक की बदमाशी देखिए कि विरोध परदरशन में हमरे दस ठो चमचा को छोड़कर कोयो नहीं आया। अब मरे जनता, हमरे बाप का का जा रहा है, अपनी लाइफ तो सेटल है।'

हम जनताजी के पास पहुंचे। जनता का कहना था कि जब यही विपक्षी नेताजी सत्ता में थे, तो इन्होंने बजट में हमरा खून चूस लिया था। बजट बना-बनाकर पांच साल में इन्होंने हमको कंगाल बना दिया, तो हमने इन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। अब हमरे देह में एतना ताकते नहीं बचा है कि हम इनके विपक्षी बन जाने पर इनके साथ धरना-परदरशन कर सकूं। वैसे हमरी तो नियति यही है। चुसना तो हमको है ही, अब चाहे ये नेताजी चूसें या इनके विरोधी।

हमने सोचा रेल मंतरी जी से ही किलियर पूछ लिया जाए। हमने कहा, 'आपने तो ऐसन गुड़-गोबर किया है कि समझ में आपका बजट अइबे नहीं किया, लेकिन एक बात हम दावे के साथ कह सकता हूं कि जो व्यक्ति आपकी टरेन में दस दिन लगातार सफर कर ले, उसको बत्तीस ठो रोग हो जाएगा। किराया घटाने के बदले आप अपनी टरेन में सुविधाएं काहे नहीं ठीक कराते?'

मंतरी जी बोले, 'आपको ऐसन का परेशानी हो गई?'

हमने कहा, 'आपकी टरेन का खाना और पखाना दोनों खराब होता है। लोग इनमें से कौनो एक काम कर ले, तो दूसरा काम करने लायक नहीं बचता! खाना एतना खराब होता है कि खाया नहीं जाता, इसलिए सुबह निकालने को कुछो बचता ही नहीं है। औरो दुर्भाग्य से अगर सुबह टायलेट चले जाएं, तो गंदगी से मन ऐसन खराब होता है कि दिन भर खाना खाया नहीं जाता। दोनों ही स्थिति में लोग बीमार पड़ते हैं। जो बीमार नहीं पड़ते हैं, उन्हें लूट लिया जाता है, तनिक सुरक्षो बेवस्था दुरुस्त कर लीजिए। किराया भले दो टका बढ़ा दीजिए, लेकिन सुविधा तो दे दीजिए।'

मंतरी जी बोले, 'आपको दिक्कत है, तो आप पैदले चलिए, लेकिन हमको पढ़ाइए मत। देश को जेतना सुधरना था, गांधी जी के टैम में ही सुधर लिया। अब तो हमको भोट चाहिए औरो जनता किराया कम करने पर भोट देती है, सो हम कर रहा हूं। वैसे भी आपकी शिकायत अब रहेगी नहीं। वित्त मंतरी जी ने जैसन बजट पेश किया है, उसकी हकीकत आपको एक-आध हफ्ते में ही पता चल जाएगी। तब आप एक तो खाने नहीं खाएंगे औरो खाएंगे भी तो एतना कम कि टरेन में टायलेट जाने की जरूरते नहीं पड़ेगी। औरो सुरक्षा के बारे में तो आप तब न सोचेंगे, जब जेब में पैसा होगा। जिस दिन जनता रोटी-दाल और टैक्स से पैसा बचा लेगी, हमरी रेल में सुरक्षो बेबस्था मजबूत हो जाएगी।

अब हम वित्त मंतरी के पास जाने का सोच रहा हूं, लेकिन दिक्कत ई है कि जब एक ठो भदेस मंतरी ने हमको ऐसन उल्लू बना दिया, तो चिदंबरम तो पढ़ल-लिखल आदमी है!

Friday, February 22, 2008

एक एक कर सब बिक गए!

लीजिए, सब बिक गए। का तेंडुलकर, का धोनी, का जयसूर्या, का पॉन्टिंग...सबकी औकात दो टके की हो गई। सरे बाजार सब नीलाम हो गए। कोयो शाहरुख का करमचारी बन गया, तो कोयो प्रीति जिंटा का गुलाम, कोयो विजय माल्या के बोतल में बंद हो गया, तो कोयो रिलायंस के राजस्व का हिस्सा बन गया। जो जेतना बड़ा तीसमार खां था, ओ ओतना महंगा बिका, तो सचिन के साथ 'गेम' हो गया। इस बेचारे 'भगवान' की औकात धोनी तो छोडि़ए, साइमंड्स से भी कम हो गई।

इस नीलामी में सबसे बेसी दुख हमको बेचारे हरभजन सिंह को लेकर हुआ। बेचारे ने जिस मंकी को 'मंकी' कहा औरो जिसके कारण मीडिया को देश का सम्मान दांव पर 'लगने' लगा था, उस साइमंड्स की कीमत भज्जी से बेसी लगाई गई। कहां भज्जी मात्र 3.40 करोड़ में बिके, तो कहां आस्ट्रेलियाई किरकेटर साइमंड्स 5.40 करोड़ में! अब हमको ई नहीं पता कि किरकेटिया कमाई में देश का सम्मान कहां चला गया?

वैसे, हमरे समझ में इहो नहीं आ रहा कि साइमंड्स का सोचकर खेलने आ रहे हैं? अगर तेंडुलकर औरो हरभजन जैसन लोग उनको गंवार लगते हैं, तो यहां तो उनको गंवारों की टोली मिलेगी। हालांकि हमको अभियो शक है कि साइमंड्स के खेल की सही कीमत लगाई गई है। सही पूछिए, तो साइमंड्स की इतनी महंगी शापिंग कर हैदराबाद ने साबित कर दिया है कि गालियां बहुते महंगी बिकती हैं... विवादों में पैसा होता है। हैदराबाद की मानें, तो अपनी कीमत बढ़ाने के लिए खिलाडि़यों को विवादों में फंसना चाहिए ... किसी को गरियाइए या किसी से गाली खाइए... दुनिया भर के लोग आपको जानेंगे औरो किरकेटिया हाट में आपकी कीमत बढ़ जाएगी। ई किरकेट नहीं, गालियों की जीत है मान्यवर!

जीत तो वैसे भी आईपीएल में हमको किरकेट की होती नहीं दिख रही। पैसा के इस खेल में अब किरकेट बचेगा कहां? किरकेट गया भाड़ में, रन औरो विकेट नहीं, सबको इससे पैसा बनाना है। जिन लोगों ने टीम औरो खिलाड़ियों को खरीदने के लिए अरबों की बोली लगाई है, ऊ इससे खरबों कमाने का सपना पालकर बैठे हुए हैं। खिलाड़ी खरीदने में बटुआ खाली कर उन लोगों ने बड़का-बड़का झोला सिलाया है पैसा समेटने के लिए। इसलिए असली खेल तो अब शुरू होगा।

पैसा कमाना है, तो टीमों के मालिकों को अब मेहनत करनी होगी। उन्हें किरकेट परेमियो को स्टेडियम तक आने के लिए लुभाना होगा। मतलब साफ है, सिरफ किरकेट से कुछो नहीं होगा, कुछ मसाला भी भरने होंगे, नौटंकी करनी होगी... उसमें इमोशन, डरामा डालना होगा। यानी किरकेटिया बंदरों का नाच दिखाने के लिए शाहरुख जैसन टीमों के मालिक अब मदारी बनेंगे। कोलकाता में मैच का परचार कुछ ऐसन किया जाएगा- स्टेडियम आने वाले सभी दर्शकों को शाहरुख की झप्पी मिलेगी, तो मोहाली में परचार किया जाएगा- स्टेडियम आने वाले दर्शकों को प्रीति जिंटा की पप्पी मिलेगी। उधर, विजय माल्या 'ऊ ला ला...' गाने के लिए अपने कैलंडर वाली बिकनी बालाओं को बुलाएंगे, उसे चीयर लीडर बनाएंगे, तो मुकेश अंबानी टिकट खरीदने वालों को रिलायंस पेटरोलियम का शेयर मुफ्त में देंगे।

शार्ट कट में कहें, तो आईपीएल में एतना कुछ होगा कि किरकेट का कुछ नहीं होगा! बाकी का तो भगवान मालिक है !!!

Monday, February 18, 2008

जो दुनिया लूटे, महबूबा उसे लूटे

ई गजब का रिवाज है। जो व्यक्ति दुनिया को लूटता है या फिर जिसको दुनिया नहीं लूट पाती, ऊ 'बेचारे' महबूबा के हाथों बुरी तरह लुटते हैं औरो अजीब देखिए कि लुट-लुटकर भी खुश रहते हैं। यानी महबूबा दुनिया की सबसे बड़ी लुटेरिन होती हैं या फिर आप इहो कह सकते हैं कि ऊ 'भाइयों' की 'भाई' होती हैं। इसलिए भैय्या, हम तो यही कहेंगे कि बढ़िया तो ई होगा कि आप दुनिये मत लूटिए औरो लूटना ही है, तो महबूबा मत 'पालिए'। पाप ही करना है, तो अपने लिए कीजिए न, हाड़-मांस के एक लोथड़े के लिए पाप काहे करना!

लुटेरों को महबूबा कैसे लूटती है, इसका बहुते उदाहरण है। 'डी' कंपनी से दुनिया थर्राती है। मुंबई से लेकर दुबई तक लोग दाऊद इबराहिम के नाम से कांपते हैं औरो हफ्ता चुका-चुकाकर दिन काटते हैं। उसी 'बेचारे' दाऊद का जेतना माल उसकी महबूबा मंदाकिनी ने उड़ाया, ओतना किसी ने नहीं! दाऊदे का चेलबा है अबू सलेम। गुरु गुड़ है, तो चेला भी प्यार-मोहब्बत के फेर में फंसकर कम चीनी नहीं बना। मोनिका बेदी के प्यार के कोल्हू में बेचारे की इतनी पेराई हुई कि कट्टा के बल पर कमाया करोड़ों रुपैया कब उसकी जेब से खिसक गया, बेचारे को पते नहीं चला!

अब्दुल करीम तेलगी ने एतना नकली स्टाम्प छापा कि सरकार के खजाने का तेल निकल गया। अजीब देखिए कि सरकारी खजाने को जमकर लूटने वाले इस लुटेरे के दिल को दो कौड़ी की एक बार बाला ने लूट लिया। औरो ऐसन लूटा कि एक दिन में तेलगी ने उस हुस्न पर 90 लाख रुपये निसार कर दिए औरो ऊ भी नकद में। प्यार-व्यार में जब लोग पड़ते हैं, तो कहते हैं कि किसी ने उसका दिल जीत लिया।

परभात जी की बात मानें, तो दिल उसके पास होता है, जो संवेदनशील होते हैं औरो यही वजह है कि क्रिएटिव लोग, मतलब कवि, कलाकार, साहित्यकार इश्क-विश्क के चक्कर में बेसी पड़ते हैं। लेकिन हम तो दावे के साथ कहता हूं कि ऐसा बिल्कुल नहीं है। संवेदनशीलता का इश्क से कौनो चक्कर है ही नहीं। आप ही कहिए, अगर ऐसा होता, तो सैकड़ों लोगों की किडनी लूटकर बेच देने वाले जल्लाद अमित कुमार की आधा दर्जन महबूबा होती? आपको का लगता है कि अमित कुमार का दिल देखकर किसी महिला ने उसे अपना दिल दिया होगा? कतई नहीं। विश्वास कीजिए, दिल नहीं उन महबूबाओं ने जिगर गिना होगा! उन महिलाओं ने देखा होगा कि उसने केतना लोगों का जिगर काटकर केतना पैसा जुटाया है, जिसको लूटा जा सके। लुटेरों की नियति देखिए कि मासूमों का जिगर लूटकर और बेचकर अमित कुमार ने जो करोड़ों कमाया, महबूबाओं ने उसमें से लाखों उड़ाया!

वैसे, ऐसन भी नहीं है कि लुटेरों की ही महबूबा बनती है, सच तो ई है कि महबूबा पुरुषों को लुटेरा बनाती भी है। दिल्ली में हर साल सैकड़ों ऐसन शोहदे पकड़े जाते हैं, जो महबूबा को खुश करने के लिए दूसरों को लूटते हैं। वे लड़कियों को पटाने के लिए पॉकेटमारी से लेकर झपटमारी तक करते हैं औरो महंगा गिफ्ट देकर खुश रखते हैं। वैसे, महबूबा ही नहीं, पत्नियां भी लोगों को लुटेरा बनाती हैं। आखिर सरकारी बाबू औरो साहब लोग पत्नियों के लिए ऐशो आराम की चीज जुटाने के चक्कर में ही तो घूस लेते हैं, भ्रष्ट बनते हैं, मंतरी-संतरी के साथ मिलकर घोटाला करते हैं।

तो का पुरुषों को लुटेरा बनाने में महिलाओं का हाथ है? पता नहीं... कह नहीं सकता, आखिर शादीशुदा आदमी हूं भाई!

Friday, February 15, 2008

दारू के फेर में किडनी

आजकल हर जगह किडनी का शोर है। कोयो किडनी बेचने वालों को गरिया रहा है, तो कोयो किडनी खरीदने वालों को। कोयो किडनी दान की वकालत कर रहा है, तो कोयो कानून आसान करने की बात, लेकिन दिक्कत ई है कि असली समस्या पर किसी का ध्याने नहीं जा रहा।

दरअसल, किडनी सुनकर भले ही आपको अपना जिगर या जिगर का टुकड़ा याद आता हो, लेकिन हमरी स्थिति ई है कि किडनी का नाम सुनते ही हमको दारू की याद आती है औरो किडनी खराब होने की बात सुनकर दारूबाज की। दिलचस्प बात इहो कि दारू या दारूबाज याद आते ही हमको गांधीजी याद आ जाते हैं औरो जब गांधीजी याद आते हैं, तो याद आ जाती है अपने देश की सरकार।

हमरे खयाल से किडनी चोरी कांडों के लिए सबसे बेसी जिम्मेदार सरकार ही है। काहे कि अपना रेभेन्यू बढ़ाने के लिए सरकार जमकर दारू बेचती है औरो उसके बेचे गए दारू को पी-पीकर ही लोग अपना किडनी खराब कर लेते हैं। जैसे जैसे सरकार की तिजोरी भरती जाती है, किडनी खराब लोगों की संख्या भी देश में बढ़ती जाती है। अब सरकार या तो दारू बेच ले या फिर किडनी चोरों से समाज को बचा ले!

अभिये गांधी जयंती पर दिल्ली सरकार ने एक ठो विज्ञापन निकाला कि गांधी जी दारू के खिलाफ थे, इसलिए जनता से अपील है कि ऊ दारू छोड़ दे। ई वही दिल्ली सरकार है, जो रोज इस जुगाड़ में लगी रहती है कि उसके राज्य में दारू बेसी बिके, ताकि रेभेन्यू बेसी आए। इसके लिए उसने केतना कुछ नहीं किया- ऊ चाहती है कि दारू पीने की न्यूनतम आयु घटा दी जाए, ताकि राज्य में दारूबाजों की संख्या बढ़ सके। तर्क ई है कि जब भोट डालने की उमर 18 साल है, तो मुंह में दारू लगाने की उमर बेसी काहे हो? ऊ चाहती है कि दिल्ली के बारों में बालाएं दारू परोसें, ताकि लोग बहक-बहककर दारू पीएं औरो दारू की बिक्री में इजाफा हो। कोशिश तो इहो हो रही है कि परचून की दुकान तक पर बियर जैसी चीज बेचने की इजाजत मिले। अब आप ही बताइए, ऐसन सरकार को गांधी जी के नाम पर ढोंग करने की जरूरत का है?

सच बात तो ई है कि जे जेतना पैसे वाला होता है, ऊ ओतना दारू पीता है औरो उसका किडनी भी ओतने बेसी खराब होता है। अब जब किडनी खराब हो जाता है, तो पैसा वाला लोग बाजार में थैली लेकर निकल पड़ते हैं, काहे कि पैसा कमाने के चक्कर में उसका कोई नाते-रिश्तेदार तो बचता नहीं, जो उसके लिए अपना किडनी दान कर सके! अब जब पैसा वाला बाजार में थैली लेकर उतरेगा, तो बेईमान को कौन पूछे, नीयत तो ईमानदारों की भी डोलबे करेगी। औरो जब नीयत डोल गई, तो किडनी चोरी में टाइमे केतना लगता है। आप भरती हुए पेट दरद के इलाज के लिए औरो डाक्टर ने आपकी किडनी निकालकर बेच दी।

अब दिक्कत बस ई है कि किडनी गरीबों की ही जाती है, चाहे दारू पीकर जाए या फिर दारू पीने वालों के चक्कर में। अमीर तो तभियो लाखों खरच कर किडनी लगा लेगा, बेचारे गरीबों की एतना औकात कहां!