आजकल दुनिया तानाशाहों से परेशान है। बुश से लेकर मुश तक औरो रामदास से लेकर बुद्धदेव दास तक, सब कहर ढा रहे हैं, लेकिन कोयो उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहा। मुशर्रफ ने अंतत: अपनी वरदी उतारिये दिया, लेकिन दुरभाग्य देखिए कि दुनिया उनका सिक्स पैक एब्स अभियो नहीं देख पाई है। हमरी दिली तमन्ना थी कि मुश का ऊ सिक्स पैक एब्स देखूं, जिनके बूते उसने कारिगल का सपना देखा था, लेकिन अफसोस कि देख नहीं पाया।
अब का है कि तानाशाह का मतलब तो ई न होता है कि मौका मिलते ही उसको सिंहासन पर से नीचे उतारिए औरो ऐसन ठोकिए कि फिर कोयो दूसरा तानाशाह पैदा न हो। लेकिन अफसोस कि मुशर्रफ के साथ ऐसन नहीं हुआ। उसने वरदी के नीचे में राष्ट्रपति का डरेस पहन लिया था। वरदी उतर गई, लेकिन शेरवानी अभियो देह पर कायम है।
मुशर्रफ ही नहीं, दुनिया में जेतना खूंखार तानाशाह होता है, सब मुशर्रफे जैसन डरपोक होता है औरो दस ठो कपड़ा पहनकर रहता है, ताकि एक-आध ठो उतरियो जाए, तो इज्जत कायम रहे। एक ठो बेचारा सद्दामे ऐसन अभागल थे कि नेस्तनाबूद हो गए, नहीं तो तानाशाह सब तो ऐसन होते हैं कि अपनी इज्जत बचाने के लिए लाखों की पैंट उतार देते हैं औरो साथ में सिर भी!
अपने रामदास भाई साहब को ही देख लीजिए। चमकती मूंछ की इज्जत न चल जाए, इसके लिए बेचारा सालों से एम्स डायरेक्टर के चमकते चांद को पूरै बंजर करने की कोशिश में लगे हुए थे औरो अंतत: मुशर्रफ जैसन ऊहो अपने मिशन में कामयाब होइए गए। आप ही बताइए, जिस स्वास्थ्य मंतरी पर सवा अरब लोगों के पेट खराब औरो बुखार ठीक कराने का भार हो, ऊ भला एक ठो हस्पताल के निदेशक से लड़ने में अपनी एनर्जी कैसे बरबाद कर सकता है?
का कहे, पेट खराब औरो बुखार ठीक कराने का भार? हां भैय्या, सरकारी हस्पतालों में इससे बड़ी बीमारी का इलाजे कहां होता है! एतना छोटकी बिमारियो का इलाज हो जाए, तो गनीमत मानिए। ऊ तो कहिए कि देश में झोला छाप 'घोड़ा डाक्टरों', हकीमों और तांतरिकों की संख्या एतना बेसी है कि ऊ बीमारी से निराश होने के बावजूदो किसी को जल्दी मरने नहीं देते। 'जो पुडि़या दे रहे हैं, ऊ लेते रहिए, जल्दिये ठीक हो जाइएगा' के आश्वासने पर ऊ लोगों को सालों जिलाए रखते हैं। नहीं तो, पराइवेट हस्पताल की तो हालत ई है कि फीस देखकर लाखों लोग रोज मर जाए!
अब जिस देश का ई हाल हो, वहां का स्वास्थ्य मंतरी अगर किसी विद्वान डाक्टर को अपने साथ मूंछ की लड़ाई में सालों व्यस्त रखे, तो उसको तानाशाहे न कहिएगा! औरो अति तो ई देखिए कि महज एक आदमी के अहं ने सरकार को 'बीच' का साबित कर दिया। नहीं तो, भला किसी संस्था के निदेशक को सबक सिखाने के लिए कहीं लोकसभा औरो राज्यसभा के बेजा इस्तेमाल की इजाजत मिलती है किसी मंतरी को?
लेकिन एतना सब के बावजूद अफसोस यही कि दुनिया मुशर्रफे जैसन भारतीय तानाशाहों का भी 'सिक्स पैक एब्स' नहीं देख पाएगी, काहे कि गठबंधन सरकार के इस युग में ब्लैक मेलर पार्टियां दैव समान होती हैं औरो सरकार उनका चरण चंपन करती है। तो भैय्या, हम जनता ही ऐसन चिरकुट हैं, जो इन तानाशाहों को झेलते रहते हैं। केतना बढि़या रहता, हमहूं नेता बन जाते!
Friday, November 30, 2007
Saturday, November 24, 2007
एकता बड़े काम की चीज
अनेकता में एकता भारत की विशेषता है, बचपन में गुरुजी ने इस पर बहुते लेख लिखवाया था। हालांकि अकल आने पर ऐसन लगा जैसे गुरुजी को देशभक्ति से मतलब कम था, ऊ अपने सरकारी होने का ऋण बेसी उतार रहे थे। हम अभियो तक ऐसने सोच रखते थे, लेकिन भगवान भला करे बंगाल सरकार का, जिसने हमरी सोच बदल कर रख दी। अब हमको फिर से अनेकता में एकता दिखने लगी है।
दरअसल, 'सेक्युलर' बंगाल सरकार ने जब से तसलीमा नसरीन को 'कम्यूनल' राजस्थान सरकार के संरक्षण में भेजा है, हम सोच में पड़ गया हूं। हमरे समझ में ई नहीं आ रहा रहा कि कॉमरेडों ने संघियों पर एतना विश्वास करना कब से शुरू कर दिया कि उसके भरोसे तसलीमा नसरीन को छोड़ दिया! ई तो भाजपाई सरकार को सेक्युलर होने का परमाण पत्र देने जैसी बात है, यानी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसन बात! मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जिस महिला को आप सालों से सुरक्षा-संरक्षा देते आ रहे हैं, एके झटका में आप उससे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं?
हमने यही बात अपने कामरेड मित्र से पूछी। ऊ बोलने लगे, 'मत जाइए, सेक्युलर औरो कम्युनल जैसन बात पर। ई सब तुच्छ बात है। असल बात तो ई है कि हमरे इस कदम से अनेकता में एकता को बढ़ावा मिला है। जो हमरे राज्य के लिए समस्या है, ऊ अगर दूसरे राज्य के लिए समस्या नहीं है, तो ऐसन आदान-परदान तो चलते रहना चाहिए। अब देखिए कि दिल्ली के उत्पाती बंदरों को मध्य परदेश जैसन राज्य सब अपने यहां शरण दे रहा है कि नहीं?'
हमने कहा कि बात तो आपकी ठीक है, लेकिन आप इहो तो देखिए कि इससे दिल्ली में बंदरों की संख्या कम नहीं हो रही है! जेतना बंदर दूसरे राज्य में भेजा जाता है, उससे बेसी यहां पैदा हो जाता है या कहीं से आ जाता है। ई ग्लोबल विलेज है, न तो आप किसी को पैदा होने से रोक सकते हैं औरो न ही किसी को अपने राज्य आने से। तो काहे नहीं आप भी दिल्ली की मुखमंतरी जैसन फैल जाते हैं? ऊ पतरकारों से कहती हैं कि बंदरों का हमरे पास कौनो इलाज नहीं है, आपके पास है, तो बताइए? अब आप ही बताइए, जनता का पैसा खाकर अगर ऊ कुछो नहीं सोच सकतीं, तो पतरकार लोग अपना खाकर केतना सोचेंगे?
तो बेहतर ई रहेगा कि आप भी खुलेआम कह दीजिए कि ई झूठो-मूठो के मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कुछो नहीं रखा है, जैसने दूसरी पारटी है, वैसने हम भी हूं। सब समस्या ही खतम हो जाएगी। देश का आदमी आपसे संरक्षण मांगने नहीं आएगा, तसलीमा जैसन विदेशी को कौन पूछे!
ऊ बोले, आप बात तो ठीक कह रहे हैं, लेकिन दिक्कत ई है कि लोकतंत्र में सीधे हाथ से घी नहीं निकलता। अगर हमहूं यही कहूंगा कि हम कांगरेस या भाजपाई जैसन हूं, तो हमको वोट के देगा? आप ई तो देखिए कि भाजपाई कांगरेस व हमरे द्वारा पैदा की गई समस्या पर राजनीति करते हैं औरो हम भाजपाई व कांगरेस द्वारा पैदा की गई समस्याओं पर! अब जब हम राजनीति में जमने के लिए एक दूसरे को एतना मदद करते हैं, तो अपनी समस्या राजस्थान के हवाले नहीं कर सकते?
सचमुच अपने देश में अनेकता में एकता है!
दरअसल, 'सेक्युलर' बंगाल सरकार ने जब से तसलीमा नसरीन को 'कम्यूनल' राजस्थान सरकार के संरक्षण में भेजा है, हम सोच में पड़ गया हूं। हमरे समझ में ई नहीं आ रहा रहा कि कॉमरेडों ने संघियों पर एतना विश्वास करना कब से शुरू कर दिया कि उसके भरोसे तसलीमा नसरीन को छोड़ दिया! ई तो भाजपाई सरकार को सेक्युलर होने का परमाण पत्र देने जैसी बात है, यानी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसन बात! मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जिस महिला को आप सालों से सुरक्षा-संरक्षा देते आ रहे हैं, एके झटका में आप उससे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं?
हमने यही बात अपने कामरेड मित्र से पूछी। ऊ बोलने लगे, 'मत जाइए, सेक्युलर औरो कम्युनल जैसन बात पर। ई सब तुच्छ बात है। असल बात तो ई है कि हमरे इस कदम से अनेकता में एकता को बढ़ावा मिला है। जो हमरे राज्य के लिए समस्या है, ऊ अगर दूसरे राज्य के लिए समस्या नहीं है, तो ऐसन आदान-परदान तो चलते रहना चाहिए। अब देखिए कि दिल्ली के उत्पाती बंदरों को मध्य परदेश जैसन राज्य सब अपने यहां शरण दे रहा है कि नहीं?'
हमने कहा कि बात तो आपकी ठीक है, लेकिन आप इहो तो देखिए कि इससे दिल्ली में बंदरों की संख्या कम नहीं हो रही है! जेतना बंदर दूसरे राज्य में भेजा जाता है, उससे बेसी यहां पैदा हो जाता है या कहीं से आ जाता है। ई ग्लोबल विलेज है, न तो आप किसी को पैदा होने से रोक सकते हैं औरो न ही किसी को अपने राज्य आने से। तो काहे नहीं आप भी दिल्ली की मुखमंतरी जैसन फैल जाते हैं? ऊ पतरकारों से कहती हैं कि बंदरों का हमरे पास कौनो इलाज नहीं है, आपके पास है, तो बताइए? अब आप ही बताइए, जनता का पैसा खाकर अगर ऊ कुछो नहीं सोच सकतीं, तो पतरकार लोग अपना खाकर केतना सोचेंगे?
तो बेहतर ई रहेगा कि आप भी खुलेआम कह दीजिए कि ई झूठो-मूठो के मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कुछो नहीं रखा है, जैसने दूसरी पारटी है, वैसने हम भी हूं। सब समस्या ही खतम हो जाएगी। देश का आदमी आपसे संरक्षण मांगने नहीं आएगा, तसलीमा जैसन विदेशी को कौन पूछे!
ऊ बोले, आप बात तो ठीक कह रहे हैं, लेकिन दिक्कत ई है कि लोकतंत्र में सीधे हाथ से घी नहीं निकलता। अगर हमहूं यही कहूंगा कि हम कांगरेस या भाजपाई जैसन हूं, तो हमको वोट के देगा? आप ई तो देखिए कि भाजपाई कांगरेस व हमरे द्वारा पैदा की गई समस्या पर राजनीति करते हैं औरो हम भाजपाई व कांगरेस द्वारा पैदा की गई समस्याओं पर! अब जब हम राजनीति में जमने के लिए एक दूसरे को एतना मदद करते हैं, तो अपनी समस्या राजस्थान के हवाले नहीं कर सकते?
सचमुच अपने देश में अनेकता में एकता है!
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Wednesday, November 14, 2007
गर नाम नहीं, नंबरों से मिले पहचान
नाम बिना किसी का काम नहीं चलता। यही वजह है कि लोग अपने बच्चों से लेकर डॉगी और यहां तक कि गाय-भैंस को भी एक नाम देते हैं। ऐसे में क्या यह संभव है कि अपने देश में लोगों को नाम के बजाय नंबरों से पहचान जाए? दरअसल, एक मोबाइल सर्विस प्रवाइडर कंपनी के एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि दो जातियों के झगड़े के बाद सरपंच फैसला करता है कि नाम की वजह से समाज में वैमनस्यता बढ़ती है, इसलिए गांव में अब सब अपने-अपने मोबाइल नंबरों से जाना जाएगा। यानी जिसका जो मोबाइल नंबर होगा, उसका नाम भी वही होगा। हालांकि विज्ञापन में इस आइडिया को हिट करार दिया जाता है, लेकिन प्रैक्टिकल लाइफ में भी यह आइडिया क्या उतना ही हिट हो सकता है? अधिकतर लोगों की राय में यह नामुमकिन है।
दरअसल, तमाम लोगों का मानना है कि भारत में नाम समस्या पैदा नहीं करता, समस्या की जड़ टाइटल है, जो यह शो करता है कि कोई किस कास्ट का है। जाति के खांचे में बंटे हिंदू और मुस्लिम दोनों में टाइटल ही सब कुछ है। समाजशास्त्री गीता दुबे कहती हैं, 'दरअसल, देश में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर चोट कर उसे ढहा देना इतना आसान भी नहीं है। दलित, मुस्लिम और ईसाइयों की समाज में मौजूदगी इस बात की तस्दीक करती है कि भारत में धर्म बदलने से लोगों की सामाजिक हैसियत में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ठीक उसी तरह जिस तरह चुटकुले का छेदी लाल अपने नाम से परेशान होकर ईसाई धर्म तो स्वीकार कर लेता है, लेकिन वहां भी 'मिस्टर होल' ही नाम पाता है। ऐसे में संभव है कि लोगों के पास नंबर के बाद अपने टाइटल लगाने की भी मजबूरी हो, मसलन 9888888888 सिंह या 9888888888 मिश्रा या 9888888888 पासवान।'
जाहिर है, अगर देश में ऐसा कानून भी बन जाए कि हर व्यक्ति अपने मोबाइल नंबर से पहचाना जाएगा, तो भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं आने वाला। ऐसे में संभव है कि समाज के लोग इस बात पर अड़ जाएं कि अगड़े की पहचान एक खास सीरीज के नंबर से ही होगी, तो दलित की पहचान एक अलग खास सीरीज के नंबरों से। ब्राह्माणों की जिद रहेगी कि उन्हें एक खास सीरीज का ही नंबर चाहिए, तो क्षत्रिय अपने लिए कोई फड़कता हुआ सीरीज ही चाहेंगे। इसी तरह दलित एकता की जिद एक ही सीरीज के लिए हो सकती है, तो यादवों की जिद एक खास अलग सीरीज के लिए। जाहिर है, ऐसे में न सिर्फ जाति की पहचान छिपाना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि ईजी सीरीज के नंबर पाने के लिए भी जातीय झगड़े खूब होंगे। आखिरकार जातीय पहचान अभी भी अपने देश में तमाम लोगों के लिए गर्व की बात तो है ही।
फिर सबसे बड़ा खतरा तो दिल्ली विधानसभा के पूर्व ठेकेदार अशोक मल्होत्रा जैसे लोगों से होगा, जो फैंसी नंबर पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कितने की भी बोली लगा सकते हैं। हालांकि इसमें सबसे अधिक बल्ले-बल्ले मोबाइल प्रवाइडर कंपनियों की होगी। अभी अगर एक फैंसी नंबर के एवज में उन्हें लाखों रुपये मिल रहे हैं, तो ऐसी व्यवस्था लागू होने के बाद ऐसे नंबरों के लिए उन्हें करोड़ों मिलेंगे।
पब्लिक रिलेशंस के काम से जुड़े सुनील सिंह एक और बड़ी समस्या की तरफ ध्यान खींचते हैं। वह कहते हैं, 'बड़े बिजनेसमैन, लीडर या मार्केटिंग से जुड़े लोग एक से ज्यादा मोबाइल फोन रखते हैं। इनमें से एक नंबर ऐसा होता है, जिसकी जानकारी सिर्फ नजदीकी लोगों को होती है, जबकि दूसरे नंबर्स बाकियों के लिए होते हैं। जाहिर है, ऐसे में एक ही लोग के दस नाम होंगे। कोई उसे 9810 वाले सीरीज के नाम से बुलाएगा, तो कोई 9811 सीरीज वाले नाम से। संभव है किसी के लिए उसका नाम 9868 सीरीज वाला हो। फिर ऐसा भी होगा कि मोबाइल कनेक्शन बदलने पर एयरटेल रखने वाले बंदे का नाम वोडाफोन की सीरीज में बदल जाएगा और वोडाफोन का आइडिया में। जाहिर है, यह बेहद फनी सिचुएशन क्रिएट करेगा।'
फिर ऐसा भी संभव है कि किसी राज्य में राजनीति बदलने के साथ ही करोड़ों लोगों के नाम बदल दिए जाएं। उसी तरह, जिस तरह कि मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने जाति के लोगों को पुलिस बल में भर्ती कराने के मुद्दे पर मायावती ने हजारों पुलिसवालों की नौकरी छीन ली। जरा कल्पना कीजिए कि अगर मुलायम ने स्वजातीय वोट पाने के लिए अपने जाति को कोई फैंसी सीरीज के नंबर वाले नाम अलॉट कर दिए, तो मुलायम के सत्ता से हटने के बाद उन करोड़ों लोगों के नाम का क्या होगा? संभव है कि मायावती सत्ता में आते ही मुलायम के निर्णय को पलटकर दलितों को फैंसी नंबर की सीरीज अलॉट कर दें और 9800 सीरीज वाले समुदाय का नाम बदलकर 9808 वाले सीरीज का हो जाए।
मुलायम और मायावती ही क्यों, जाति के नाम पर राजनीति करने वाली देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा कर सकती हैं। पता चला कि वोक्कालिंगा समुदाय की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी ने सत्ता संभालते ही कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के सभी वीवीआईपी सीरीज छिनकर अपने समुदाय के लोगों को दे दिए और अगली बार जब लिंगायत समुदाय की नुमाइंदगी वाली सरकार बनी, तो उसने भी बदला ले लिया और वीवीआईपी सीरीज वाले लोगों के नाम बदल गए। अब ऐसे में तो बदलते रहिए साल दर साल नाम, जितनी बार सरकार गिरेगी-बनेगी, उतनी बार लोगों के नाम बदल जाएंगे। संभव है, इस तरह साम्प्रदायिक झगड़े भी बढ़े। अपने को सेक्युलर साबित करने के लिए तमाम ऊटपटांग हरकतें करने वाली राजनीतिक पार्टियां तब इस बात के लिए अड़ सकती हैं या फिर आंदोलन कर सकती हैं कि अल्पसंख्यकों को ऐसे नंबर वाले नाम दिए जाएं, जिससे उनकी पुख्ता राष्ट्रीय पहचान बन सके । जाहिर है, इससे देश का भला होने वाला नहीं है।
बहरहाल, निष्कर्ष यही है कि बात घूम-फिरकर अगर फिर से वहीं पहुंच जाए, जहां से शुरू हुई थी, तो ऐसी किसी कसरत का क्या फायदा!
दरअसल, तमाम लोगों का मानना है कि भारत में नाम समस्या पैदा नहीं करता, समस्या की जड़ टाइटल है, जो यह शो करता है कि कोई किस कास्ट का है। जाति के खांचे में बंटे हिंदू और मुस्लिम दोनों में टाइटल ही सब कुछ है। समाजशास्त्री गीता दुबे कहती हैं, 'दरअसल, देश में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर चोट कर उसे ढहा देना इतना आसान भी नहीं है। दलित, मुस्लिम और ईसाइयों की समाज में मौजूदगी इस बात की तस्दीक करती है कि भारत में धर्म बदलने से लोगों की सामाजिक हैसियत में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ठीक उसी तरह जिस तरह चुटकुले का छेदी लाल अपने नाम से परेशान होकर ईसाई धर्म तो स्वीकार कर लेता है, लेकिन वहां भी 'मिस्टर होल' ही नाम पाता है। ऐसे में संभव है कि लोगों के पास नंबर के बाद अपने टाइटल लगाने की भी मजबूरी हो, मसलन 9888888888 सिंह या 9888888888 मिश्रा या 9888888888 पासवान।'
जाहिर है, अगर देश में ऐसा कानून भी बन जाए कि हर व्यक्ति अपने मोबाइल नंबर से पहचाना जाएगा, तो भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं आने वाला। ऐसे में संभव है कि समाज के लोग इस बात पर अड़ जाएं कि अगड़े की पहचान एक खास सीरीज के नंबर से ही होगी, तो दलित की पहचान एक अलग खास सीरीज के नंबरों से। ब्राह्माणों की जिद रहेगी कि उन्हें एक खास सीरीज का ही नंबर चाहिए, तो क्षत्रिय अपने लिए कोई फड़कता हुआ सीरीज ही चाहेंगे। इसी तरह दलित एकता की जिद एक ही सीरीज के लिए हो सकती है, तो यादवों की जिद एक खास अलग सीरीज के लिए। जाहिर है, ऐसे में न सिर्फ जाति की पहचान छिपाना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि ईजी सीरीज के नंबर पाने के लिए भी जातीय झगड़े खूब होंगे। आखिरकार जातीय पहचान अभी भी अपने देश में तमाम लोगों के लिए गर्व की बात तो है ही।
फिर सबसे बड़ा खतरा तो दिल्ली विधानसभा के पूर्व ठेकेदार अशोक मल्होत्रा जैसे लोगों से होगा, जो फैंसी नंबर पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कितने की भी बोली लगा सकते हैं। हालांकि इसमें सबसे अधिक बल्ले-बल्ले मोबाइल प्रवाइडर कंपनियों की होगी। अभी अगर एक फैंसी नंबर के एवज में उन्हें लाखों रुपये मिल रहे हैं, तो ऐसी व्यवस्था लागू होने के बाद ऐसे नंबरों के लिए उन्हें करोड़ों मिलेंगे।
पब्लिक रिलेशंस के काम से जुड़े सुनील सिंह एक और बड़ी समस्या की तरफ ध्यान खींचते हैं। वह कहते हैं, 'बड़े बिजनेसमैन, लीडर या मार्केटिंग से जुड़े लोग एक से ज्यादा मोबाइल फोन रखते हैं। इनमें से एक नंबर ऐसा होता है, जिसकी जानकारी सिर्फ नजदीकी लोगों को होती है, जबकि दूसरे नंबर्स बाकियों के लिए होते हैं। जाहिर है, ऐसे में एक ही लोग के दस नाम होंगे। कोई उसे 9810 वाले सीरीज के नाम से बुलाएगा, तो कोई 9811 सीरीज वाले नाम से। संभव है किसी के लिए उसका नाम 9868 सीरीज वाला हो। फिर ऐसा भी होगा कि मोबाइल कनेक्शन बदलने पर एयरटेल रखने वाले बंदे का नाम वोडाफोन की सीरीज में बदल जाएगा और वोडाफोन का आइडिया में। जाहिर है, यह बेहद फनी सिचुएशन क्रिएट करेगा।'
फिर ऐसा भी संभव है कि किसी राज्य में राजनीति बदलने के साथ ही करोड़ों लोगों के नाम बदल दिए जाएं। उसी तरह, जिस तरह कि मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने जाति के लोगों को पुलिस बल में भर्ती कराने के मुद्दे पर मायावती ने हजारों पुलिसवालों की नौकरी छीन ली। जरा कल्पना कीजिए कि अगर मुलायम ने स्वजातीय वोट पाने के लिए अपने जाति को कोई फैंसी सीरीज के नंबर वाले नाम अलॉट कर दिए, तो मुलायम के सत्ता से हटने के बाद उन करोड़ों लोगों के नाम का क्या होगा? संभव है कि मायावती सत्ता में आते ही मुलायम के निर्णय को पलटकर दलितों को फैंसी नंबर की सीरीज अलॉट कर दें और 9800 सीरीज वाले समुदाय का नाम बदलकर 9808 वाले सीरीज का हो जाए।
मुलायम और मायावती ही क्यों, जाति के नाम पर राजनीति करने वाली देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा कर सकती हैं। पता चला कि वोक्कालिंगा समुदाय की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी ने सत्ता संभालते ही कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के सभी वीवीआईपी सीरीज छिनकर अपने समुदाय के लोगों को दे दिए और अगली बार जब लिंगायत समुदाय की नुमाइंदगी वाली सरकार बनी, तो उसने भी बदला ले लिया और वीवीआईपी सीरीज वाले लोगों के नाम बदल गए। अब ऐसे में तो बदलते रहिए साल दर साल नाम, जितनी बार सरकार गिरेगी-बनेगी, उतनी बार लोगों के नाम बदल जाएंगे। संभव है, इस तरह साम्प्रदायिक झगड़े भी बढ़े। अपने को सेक्युलर साबित करने के लिए तमाम ऊटपटांग हरकतें करने वाली राजनीतिक पार्टियां तब इस बात के लिए अड़ सकती हैं या फिर आंदोलन कर सकती हैं कि अल्पसंख्यकों को ऐसे नंबर वाले नाम दिए जाएं, जिससे उनकी पुख्ता राष्ट्रीय पहचान बन सके । जाहिर है, इससे देश का भला होने वाला नहीं है।
बहरहाल, निष्कर्ष यही है कि बात घूम-फिरकर अगर फिर से वहीं पहुंच जाए, जहां से शुरू हुई थी, तो ऐसी किसी कसरत का क्या फायदा!
Saturday, November 03, 2007
पावर से लैस बनाम पावरलेस
ऐसे तो दुनिया में हर चीज की अपनी-अपनी महिमा है, लेकिन जेतना महिमा पावर में है, ओतना किसी में नहीं। अपने देश के नेताओं और विद्वानों ने अपने वोट बैंक औरो दिमाग के हिसाब से चाहे समाज को जेतना टुकड़ा में बांट रखा हो, लेकिन हमरे खयाल से समाज में दूए तरह के लोग हैं- एक ऊ जो पावर से लैस हैं औरो दूसरा ऊ जो पावरलेस हैं।
पावर से लैस लोग जब चाहे, तब अपनी जिंदगी में उजाला बिखेर लेते हैं, लेकिन पावरलेस लोगों के लिए दिन भी राते जैसन होता है-- एकदम काला काला। पावर से लैस लोग जब चाहे, तब खबरों में छा सकते हैं-- चोरी करते पकड़ा गए तभियो, चोर को पकड़ लाए तभियो, लेकिन पावरलेस लोग चोर बनने पर ही खबरों में आते हैं, चोर पकड़ने पर कभियो नहीं। अगर पावरलेस लोगों ने चोर को पकड़कर रगड़ दिया, तो हल्ला मच जाता है--कानून को हाथ में ले लिया... कानून का शासन खतम कर दिया। यानी अगर आप पावरलेस हैं, तो लुट जाना आपका कर्त्तव्य है। पावरलेस आदमियों को चोरों से खुद को बचाने का कौनो राइट नहीं होता। तभियो नहीं, जबकि मरल पुलिस व्यवस्था का अघोषित नारा है 'अपने सामान की रक्षा स्वयं करे'। मतलब साफ है, जो पावर से लैस हैं, ऊ कमिशन खाकर चोरों को चोरी करने देते हैं औरो जो पावरलेस हैं, ऊ घूस देकर भी चोरी की रिपोर्ट नहीं लिखवा पाते!
हालांकि मिसिर जी का कहना है कि पावरलेस आदमी भगवान के भरोसे सुरक्षित रहता है, तो पावर से लैस आदमी अपने द्वारा तैयार किए गए भस्मासुरों के भरोसे। यानी पावर से लैस आदमी तभिये तक सुरक्षित है, जब तक कि उनके द्वारा तैयार भस्मासुर ने उस पर हाथ रखकर भसम नहीं कर डाला। वैसने जैसन अमेरिका तभिये तक सुरक्षित था, जब तक कि उसके अन्न औरो हथियार पर पले तालिबानों ने उसी पर हमला नहीं बोल दिया। तालिबानों ने जैसने उसके सिर पर हाथ रखा, ऊ असुरिक्षत हो गया! पता नहीं आपको का लगता है, लेकिन हमको मिसिर जी के बात में बहुते दम नजर आता है, काहे कि कुछ ऐसने दिल्लियो में हो रहा है।
दिल्ली में 'बिजली मीटर का रीडिंग लेना है' के बहाने घर में घुसकर चोरों ने हजारों लोगों को दिनदहाड़े लूट लिया, उनकी कहीं कौनो सुनवाई नहीं हुई। लेकिन एक दिन जैसने बिजली कंपनी के करमचारी के नाम एक आदमी दिल्ली के बिजली मंतरी के घर घुसा, मंतरी जी की हालत खराब हो गई। अब सरकार ने ऐसन आदमियों को घरों में घुसने से रोकने के लिए बिजली कंपनी से कहा है कि ऊ करमचारियों को आई कार्ड दे। ऐसन में आप भी शायद यही कहेंगे- काश! कि ऊ भला मानस बिजली मंतरी के घर में दू-चार साल पहले घुसा होता, दिल्ली में बहुतों लोग दिन-दहाड़े लुटने से बच गए होते। तो ई है, पावरलेस औरो पावर से लैस लोगों में अंतर।
ऐसने दिल्ली में बंदर बारहो महीना आतंक फैलाते हैं, लेकिन सरकार कुछो नहीं करती। सुप्रीम कोर्ट कड़ा आदेश देता है, तभियो नहीं। बंदर बकोटते रहे लोगों को, एमसीडी को का मतलब! हां, बंदर पकड़ने औरो भगाने के नाम एमसीडी लाखों का बिल हर महीने बनाती जरूर है। ऐसन में एमसीडी के इस पाले-पोसे 'तालिबानों' ने एक दिन हद ही कर दी। वे भस्मासुर बन गए औरो एक ठो पार्षद जी को छत पर से ऐसन गिराया कि ऊ खुदा के प्यारे हो गए। बस आ गई इन मूढ़मति बंदरों की शामत, अब एमसीडी वाले बंदरों को दिल्ली क्या, पृथ्वी पर से खदेड़ देने की कसम खा रहे हैं। मतलब एक पावर से लैस आदमी की मौत ने ऊ कमाल कर दिया, जो हजारों पावरलेस आदमियो की मौत नहीं कर सकी! ई है पावर!
पावर से लैस लोग जब चाहे, तब अपनी जिंदगी में उजाला बिखेर लेते हैं, लेकिन पावरलेस लोगों के लिए दिन भी राते जैसन होता है-- एकदम काला काला। पावर से लैस लोग जब चाहे, तब खबरों में छा सकते हैं-- चोरी करते पकड़ा गए तभियो, चोर को पकड़ लाए तभियो, लेकिन पावरलेस लोग चोर बनने पर ही खबरों में आते हैं, चोर पकड़ने पर कभियो नहीं। अगर पावरलेस लोगों ने चोर को पकड़कर रगड़ दिया, तो हल्ला मच जाता है--कानून को हाथ में ले लिया... कानून का शासन खतम कर दिया। यानी अगर आप पावरलेस हैं, तो लुट जाना आपका कर्त्तव्य है। पावरलेस आदमियों को चोरों से खुद को बचाने का कौनो राइट नहीं होता। तभियो नहीं, जबकि मरल पुलिस व्यवस्था का अघोषित नारा है 'अपने सामान की रक्षा स्वयं करे'। मतलब साफ है, जो पावर से लैस हैं, ऊ कमिशन खाकर चोरों को चोरी करने देते हैं औरो जो पावरलेस हैं, ऊ घूस देकर भी चोरी की रिपोर्ट नहीं लिखवा पाते!
हालांकि मिसिर जी का कहना है कि पावरलेस आदमी भगवान के भरोसे सुरक्षित रहता है, तो पावर से लैस आदमी अपने द्वारा तैयार किए गए भस्मासुरों के भरोसे। यानी पावर से लैस आदमी तभिये तक सुरक्षित है, जब तक कि उनके द्वारा तैयार भस्मासुर ने उस पर हाथ रखकर भसम नहीं कर डाला। वैसने जैसन अमेरिका तभिये तक सुरक्षित था, जब तक कि उसके अन्न औरो हथियार पर पले तालिबानों ने उसी पर हमला नहीं बोल दिया। तालिबानों ने जैसने उसके सिर पर हाथ रखा, ऊ असुरिक्षत हो गया! पता नहीं आपको का लगता है, लेकिन हमको मिसिर जी के बात में बहुते दम नजर आता है, काहे कि कुछ ऐसने दिल्लियो में हो रहा है।
दिल्ली में 'बिजली मीटर का रीडिंग लेना है' के बहाने घर में घुसकर चोरों ने हजारों लोगों को दिनदहाड़े लूट लिया, उनकी कहीं कौनो सुनवाई नहीं हुई। लेकिन एक दिन जैसने बिजली कंपनी के करमचारी के नाम एक आदमी दिल्ली के बिजली मंतरी के घर घुसा, मंतरी जी की हालत खराब हो गई। अब सरकार ने ऐसन आदमियों को घरों में घुसने से रोकने के लिए बिजली कंपनी से कहा है कि ऊ करमचारियों को आई कार्ड दे। ऐसन में आप भी शायद यही कहेंगे- काश! कि ऊ भला मानस बिजली मंतरी के घर में दू-चार साल पहले घुसा होता, दिल्ली में बहुतों लोग दिन-दहाड़े लुटने से बच गए होते। तो ई है, पावरलेस औरो पावर से लैस लोगों में अंतर।
ऐसने दिल्ली में बंदर बारहो महीना आतंक फैलाते हैं, लेकिन सरकार कुछो नहीं करती। सुप्रीम कोर्ट कड़ा आदेश देता है, तभियो नहीं। बंदर बकोटते रहे लोगों को, एमसीडी को का मतलब! हां, बंदर पकड़ने औरो भगाने के नाम एमसीडी लाखों का बिल हर महीने बनाती जरूर है। ऐसन में एमसीडी के इस पाले-पोसे 'तालिबानों' ने एक दिन हद ही कर दी। वे भस्मासुर बन गए औरो एक ठो पार्षद जी को छत पर से ऐसन गिराया कि ऊ खुदा के प्यारे हो गए। बस आ गई इन मूढ़मति बंदरों की शामत, अब एमसीडी वाले बंदरों को दिल्ली क्या, पृथ्वी पर से खदेड़ देने की कसम खा रहे हैं। मतलब एक पावर से लैस आदमी की मौत ने ऊ कमाल कर दिया, जो हजारों पावरलेस आदमियो की मौत नहीं कर सकी! ई है पावर!
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