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एक हमहीं चिरकुट हैं भैय्या

आजकल दुनिया तानाशाहों से परेशान है। बुश से लेकर मुश तक औरो रामदास से लेकर बुद्धदेव दास तक, सब कहर ढा रहे हैं, लेकिन कोयो उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहा। मुशर्रफ ने अंतत: अपनी वरदी उतारिये दिया, लेकिन दुरभाग्य देखिए कि दुनिया उनका सिक्स पैक एब्स अभियो नहीं देख पाई है। हमरी दिली तमन्ना थी कि मुश का ऊ सिक्स पैक एब्स देखूं, जिनके बूते उसने कारिगल का सपना देखा था, लेकिन अफसोस कि देख नहीं पाया। अब का है कि तानाशाह का मतलब तो ई न होता है कि मौका मिलते ही उसको सिंहासन पर से नीचे उतारिए औरो ऐसन ठोकिए कि फिर कोयो दूसरा तानाशाह पैदा न हो। लेकिन अफसोस कि मुशर्रफ के साथ ऐसन नहीं हुआ। उसने वरदी के नीचे में राष्ट्रपति का डरेस पहन लिया था। वरदी उतर गई, लेकिन शेरवानी अभियो देह पर कायम है। मुशर्रफ ही नहीं, दुनिया में जेतना खूंखार तानाशाह होता है, सब मुशर्रफे जैसन डरपोक होता है औरो दस ठो कपड़ा पहनकर रहता है, ताकि एक-आध ठो उतरियो जाए, तो इज्जत कायम रहे। एक ठो बेचारा सद्दामे ऐसन अभागल थे कि नेस्तनाबूद हो गए, नहीं तो तानाशाह सब तो ऐसन होते हैं कि अपनी इज्जत बचाने के लिए लाखों की पैंट उतार देते हैं औरो साथ में

एकता बड़े काम की चीज

अनेकता में एकता भारत की विशेषता है, बचपन में गुरुजी ने इस पर बहुते लेख लिखवाया था। हालांकि अकल आने पर ऐसन लगा जैसे गुरुजी को देशभक्ति से मतलब कम था, ऊ अपने सरकारी होने का ऋण बेसी उतार रहे थे। हम अभियो तक ऐसने सोच रखते थे, लेकिन भगवान भला करे बंगाल सरकार का, जिसने हमरी सोच बदल कर रख दी। अब हमको फिर से अनेकता में एकता दिखने लगी है। दरअसल, 'सेक्युलर' बंगाल सरकार ने जब से तसलीमा नसरीन को 'कम्यूनल' राजस्थान सरकार के संरक्षण में भेजा है, हम सोच में पड़ गया हूं। हमरे समझ में ई नहीं आ रहा रहा कि कॉमरेडों ने संघियों पर एतना विश्वास करना कब से शुरू कर दिया कि उसके भरोसे तसलीमा नसरीन को छोड़ दिया! ई तो भाजपाई सरकार को सेक्युलर होने का परमाण पत्र देने जैसी बात है, यानी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसन बात! मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जिस महिला को आप सालों से सुरक्षा-संरक्षा देते आ रहे हैं, एके झटका में आप उससे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं? हमने यही बात अपने कामरेड मित्र से पूछी। ऊ बोलने लगे, 'मत जाइए, सेक्युलर औरो कम्युनल जैसन बात पर। ई सब तुच्छ बात है। असल बात तो

गर नाम नहीं, नंबरों से मिले पहचान

नाम बिना किसी का काम नहीं चलता। यही वजह है कि लोग अपने बच्चों से लेकर डॉगी और यहां तक कि गाय-भैंस को भी एक नाम देते हैं। ऐसे में क्या यह संभव है कि अपने देश में लोगों को नाम के बजाय नंबरों से पहचान जाए? दरअसल, एक मोबाइल सर्विस प्रवाइडर कंपनी के एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि दो जातियों के झगड़े के बाद सरपंच फैसला करता है कि नाम की वजह से समाज में वैमनस्यता बढ़ती है, इसलिए गांव में अब सब अपने-अपने मोबाइल नंबरों से जाना जाएगा। यानी जिसका जो मोबाइल नंबर होगा, उसका नाम भी वही होगा। हालांकि विज्ञापन में इस आइडिया को हिट करार दिया जाता है, लेकिन प्रैक्टिकल लाइफ में भी यह आइडिया क्या उतना ही हिट हो सकता है? अधिकतर लोगों की राय में यह नामुमकिन है। दरअसल, तमाम लोगों का मानना है कि भारत में नाम समस्या पैदा नहीं करता, समस्या की जड़ टाइटल है, जो यह शो करता है कि कोई किस कास्ट का है। जाति के खांचे में बंटे हिंदू और मुस्लिम दोनों में टाइटल ही सब कुछ है। समाजशास्त्री गीता दुबे कहती हैं, 'दरअसल, देश में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर चोट कर उसे ढहा देना इतना आसान भी नहीं है। दलित, मुस्लिम

पावर से लैस बनाम पावरलेस

ऐसे तो दुनिया में हर चीज की अपनी-अपनी महिमा है, लेकिन जेतना महिमा पावर में है, ओतना किसी में नहीं। अपने देश के नेताओं और विद्वानों ने अपने वोट बैंक औरो दिमाग के हिसाब से चाहे समाज को जेतना टुकड़ा में बांट रखा हो, लेकिन हमरे खयाल से समाज में दूए तरह के लोग हैं- एक ऊ जो पावर से लैस हैं औरो दूसरा ऊ जो पावरलेस हैं। पावर से लैस लोग जब चाहे, तब अपनी जिंदगी में उजाला बिखेर लेते हैं, लेकिन पावरलेस लोगों के लिए दिन भी राते जैसन होता है-- एकदम काला काला। पावर से लैस लोग जब चाहे, तब खबरों में छा सकते हैं-- चोरी करते पकड़ा गए तभियो, चोर को पकड़ लाए तभियो, लेकिन पावरलेस लोग चोर बनने पर ही खबरों में आते हैं, चोर पकड़ने पर कभियो नहीं। अगर पावरलेस लोगों ने चोर को पकड़कर रगड़ दिया, तो हल्ला मच जाता है--कानून को हाथ में ले लिया... कानून का शासन खतम कर दिया। यानी अगर आप पावरलेस हैं, तो लुट जाना आपका कर्त्तव्य है। पावरलेस आदमियों को चोरों से खुद को बचाने का कौनो राइट नहीं होता। तभियो नहीं, जबकि मरल पुलिस व्यवस्था का अघोषित नारा है 'अपने सामान की रक्षा स्वयं करे'। मतलब साफ है, जो पावर से लैस हैं, ऊ