Sunday, December 31, 2006

ये दुनिया ऊटपटांगा

किस्से-कहानियों में जिन लोगों ने शेखचिल्ली का नाम सुना है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह एक ऐसा कैरेक्टर है, जिसकी दुनिया पूरी तरह ऊटपटांग है। किस्से-कहानियों को छोडि़ए जनाब, अब तो वास्तविक जिंदगी में भी ऐसी तमाम बातें होती रहती हैं, जो शेखचिल्ली और उसकी ऊटपटांग दुनिया की याद दिला जाती हैं। नए साल के आने की खुशी में क्यूं न साल की कुछ ऐसी 'ऊटपटांग' घटनाओं को याद कर लिया जाए, जो अजीब होने के साथ-साथ हमारे मन को गुदगुदा भी गईं:

हिमेश रेशमिया: कंठ नहीं, नाक पर नाज

किसी का सुर मन मोह ले, तो कहते हैं कि उसके गले में सरस्वती का वास है, लेकिन हिमेश के मामले में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो क्या हिमेश की नाक में सरस्वती का वास है? लगता तो कुछ ऐसा ही है। संगीतकार से गायक बने हिमेश की नाक ने ऐसा सुरीला गाया कि इतिहास लिख दिया। इस साल उनके तीन दर्जन गाने सुपर हिट हुए, जो ऐतिहासिक है। हालत यह रही कि रफी-लता को सुनकर बड़े हुए पैरंट्स हिमेश को गालियां देते रहे और उनके बच्चे हाई वॉल्यूम पर 'झलक दिखला जा...' पर साल भर थिरकते रहे।

आनंद जिले के भलेज गांव में तो गजब ही हो गया। वहां के ग्रामीणों ने कहा कि हिमेश के गाने 'झलक दिखला जा, एक बार आ जा...' को सुनकर गांव में भूत निकल आया। इस घटना के बाद उस गांव से हिमेश के अलबमों को 'गांवबदर' कर दिया गया। कहीं-कहीं उनके इस गाने को सुनकर सांप भी निकला और खबर बन गया। वैसे, विडंबना यह है कि इस बड़बोले संगीतकार- गायक को आशा भोंसले ने इस साल थप्पड़ भी रसीद करना चाहा।

मटुक की 'जवानी' ने ली अंगड़ाई: बाबा वैलंटाइन की कुर्सी डगमगाई

प्रेम के पथ पर पटना के हिंदी के प्रफेसर मटुक नाथ इस साल कुछ ऐसे दौड़े कि उनके सामने बाबा वैलंटाइन का कद छोटा दिखने लगा। अपनी शिष्या से प्यार तो बहुतों ने किया होगा, लेकिन सब कंबल ओढ़कर ही घी पीते रहे हैं। मटुक नाथ ने जिगर दिखाया और अपनी शिष्या जूली से प्रेम की बात स्वीकार कर सरेआम मुंह पर कालिख पुतवाई, लेकिन हंसते हुए। ऊंची-ऊंची दीवारों सी इस दुनिया की रस्में भी मटुक नाथ को अपनी जूली से मिलन को नहीं रोक पाईं।

भारतीय 'लव गुरु' की इस अदा से निश्चित रूप से स्वर्ग में बैठे सेंट वैलंटाइन को अपनी कुर्सी डगमगाती नजर आई होगी, लेकिन उनके फेवर में अच्छी बात यह रही कि यह घटना इस साल १४ फरवरी के काफी बाद हुई और अगली १४ फरवरी तक मटुकनाथ शायद ही किसी को याद रहे। अगर मटुक नाथ पर यह सब वैलंटाइन डे के पहले बीता होता, तो इस साल लोग 'मटुक नाथ डे' भी देख चुके होते।

कुएं में पहुंचा प्रिंसः आसमान पर पहुंची किस्मत

साठ फीट गहरे कुएं में गिरकर बचता कौन है और बचता भी है, तो कुएं से लाखों कमाता कौन है! लेकिन कुरुक्षेत्र के एक साधन विहीन गांव में पैदा हुए पांच साल के प्रिंस की चमकती तकदीर जैसे उस ६० फीट गहरे ट्यूबवेल में दफन थी, जिसमें वह इस साल जुलाई में गिरा। दो दिन की जद्दोजहद के बाद प्रिंस को कुएं से निकाला गया, तो जैसे उस पर मेहरबानियां बरस पड़ीं। दो दिन पहले तक एक जून रोटी को तरसने वाले प्रिंस के परिवार को सरकार और लोगों से लाखों मिले, तो किसी ने प्रिंस की जिंदगी भर की पढ़ाई के खर्च का जिम्मा लिया। प्रिंस के गड्ढे में गिरने से गांव की बदहाली दुनिया भर में दिखी और सरकार के लिए कलंक बनी, तो राज्य सरकार ने छह महीने के अंदर गांव की काया पलट कर दी। किसने सोचा होगा कि कल तक गांव की गलियों में धूल फांकने वाला बच्चा दो दिन में गांव का भाग्यविधाता बन जाएगा! ऐसा प्रिंस बनने के लिए तो हर कोई गड्ढे में गिरने को तैयार हो जाएगा।

मधु कोड़ा: अकेला घोड़ा

कुछ लोगों की तकदीर लिखते वक्त भगवान अपने कलम की पूरी स्याही खत्म कर डालते हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर भी भगवान ने ऐसी ही मेहरबानी की। झारखंड के इस मोस्ट वॉन्टेड बैचलर विधायक को इस साल बीवी मिलने से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई। आश्चर्य की बात यह कि मधु निर्दलीय विधायक हैं और मुख्यमंत्री बनने के लिए भी उन्हें किसी पार्टी में शामिल नहीं होना पड़ा। यानी 'निर्दलीय पार्टी' के इस एकमात्र विधायक ने सोनिया, लालू और शिबू सोरेन जैसे घाघ राजनीतिज्ञों को पानी पिला दिया।

विडंबना देखिए कि जिस प्रजातंत्र में 'बहुमत की जय' होती है, उसी प्रजातंत्र में एक विधानसभा क्षेत्र के कुछ हजार वोट से जीता विधायक करोड़ों मतदाताओं के प्रतिनिधियों को अपनी 'उंगली' पर नचा रहा है।

राजस्थान में आई 'सूनामी': बाढ़ में डूबे ऊंट!

राजस्थान बोलते ही जो तस्वीर जेहन में उभरती है, वह है बालू और बबूल का प्रदेश। लेकिन अब ऐसी तस्वीर जेहन में आप बाढ़ को भी शामिल कर लें। जी हां, सदियों से बूंद-बूंद पानी को तरसने वाले राजस्थान ने इस साल बाढ़ का विनाशक मंजर भी देखा। इस प्रदेश के लिए यह बाढ़ किसी सूनामी से कम नहीं रही। सिर्फ बाड़मेर में १०४ लोगों की बाढ़ से मौत हो गई, ४५ हजार मवेशी मर गए, जिनमें काफी संख्या में ऊंट भी थे। दरअसल, इस 'रेगिस्तानी जहाज' ने इतना पानी जिंदगी में नहीं देखा था। १२ जिलों में आई बाढ़ ने ऐसा कहर ढाया कि लोगों को बचाने के लिए सेना को उतरना पड़ा और राजस्थान सरकार को बाढ़ रिलीफ फंड में २१८ करोड़ रुपये डालने पड़े। कौन जाने, इस उलटवांसी के बाद अब चेरापूंजी में सूखे की खबर भी आ जाए!

डेटिंग अलाउंस: इतना बाउंस!

ये पत्नियां भी अजीब होती हैं, पति न कमाए तो परेशानी, ज्यादा कमाए तो परेशानी। अब बेंगलूर की तृप्ति निगम को ही लीजिए, इस साल बेचारी की परेशानी यह रही कि उसका पति ऐसी कंपनी में काम करता है, जहां डेटिंग अलाउंस मिलता है। दरअसल, इस अलाउंस से जब तक वह अपने पति के साथ डेटिंग पर जाती थी, तब तक तो सब ठीक-ठाक था, लेकिन दिक्कत यह हो गई कि ज्यादा पैसा होने के कारण उसका पति दूसरी महिलाओं के साथ भी डेटिंग पर जाने लगा। बस क्या था, तृप्ति पहुंच गईं कोर्ट और कर डाला विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी के खिलाफ केस। उसकी बस एक ही मांग थी, कंपनी कर्मचारी को देने वाले डेटिंग अलाउंस बंद करे। तो क्या अब पत्नियों की शिकायत पर दिलफेंक पतियों की सैलरी भी बंद होगी? बड़ा सवाल है, समय का इंतजार कीजिए!

'किशन' या 'राधा' : पांडा की माया में कोर्ट की बाधा

कोर्ट ने ऐसी अनोखी सलाह शायद ही किसी को दी होगी, जैसी उसने यूपी के पूर्व आईजी डी. के. पांडा को दी। इस स्वघोषित 'दूसरी राधा' ने भगवा बाना तो पिछले साल ही पहन लिया था, लेकिन मोह-माया इस साल भी नहीं छोड़ पाए। पत्नी ने ज्यादा गुजारा भत्ता मांगा, तो पांडा पहुंच गए सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में बेंच ने उनसे सीधा सवाल किया, 'आज आप राधा हैं या कृष्ण।' पांडा सकपकाए और सीधे मुद्दे पर आए कि उनकी पेंशन बहुत कम है, इसलिए पत्नी का गुजारा भत्ता कम कर दिया जाए, लेकिन बेंच ने कोई दलील नहीं मानी। बेंच ने उन्हें सलाह दी कि वे अब राधा तो बन ही गए हैं, तो कमंडल लें और मथुरा-गोकुल में विचरण करें। उन्हें अपनी पत्नी को पहले जितना ही पैसा देना होगा।

मुंबई में पंगा: मन चंगा, तो समुद्र में गंगा

इसे कहते हैं चमत्कार को नमस्कार। १८ अगस्त की रात मुंबई अशांत था और वहां के माहिम बीच पर लोगों की भीड़ जमा थी। खारेपन की वजह से समुद्री पानी से कुल्ला तक नहीं करने वाले लोग बोतलों और बाल्टियों में समुद्री पानी भर रहे थे। कोई उसे पी रहा था, तो कोई संभालकर रख रहा था, क्योंकि समुद्री पानी के इस मीठेपन को लोग वहां स्थित मखदूम शाह की दरगाह का 'प्रताप' मान रहे थे। लोगों ने उस पानी को विदेश में रहने वाले अपने परिजनों तक पहुंचाया। गेटर मुंबई की म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन लोगों को बार-बार चेताती रही कि बिना केमिकल टेस्ट के उस पानी को कोई न पिये, लेकिन आस्था के सामने किसका तर्क चलता है! लोगों ने तब तक उस गंदे पानी को जमकर पिया, जब तक कि किसी 'केमिकल लोचे' से मीठा हुआ वह पानी फिर से खारा नहीं हो गया।

...और अंत में

पुरुष की आबरू तार-तार: महिलाओं ने किया बलात्कार

यह कुछ वैसा ही है, जैसे कोई आदमी कुत्ते को काट खाए। जी हां, इसी महीने दो कुवैती महिलाओं को वहां की अदालत ने एक पुरुष के साथ बलात्कार करने के अपराध में सात-सात साल की सजा सुनाई है। पुरुष ने कोर्ट में उन महिलाओं के खिलाफ मारपीट कर संबंध स्थापित करने का आरोप लगाया था, जो साबित हो गया। हालांकि निचली अदालत ने उन महिलाओं को १५-१५ साल की सजा सुनाई थी, लेकिन ऊपरी अदालत ने उसे सात-सात साल कर दिया।

Friday, December 29, 2006

राजनीति की बिसात

इस साल राजनीति की बिसात पर काफी कुछ हुआ। इनमें से कुछ देश के लिए बेहतर रहे, तो कुछ बदतर। कुछ ने देश व समाज को जोड़ा, तो कुछ ने तोड़ा। कुछ पार्टियों और नेताओं ने अपनी ताकत बढ़ाई, तो कुछ की घट गई। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव, आरक्षण की बात, वंदेमातरम् पर विवाद और अफजल गुरु के फांसी पर दांवपेंच जैसी कई चीजें इस साल की खास बात रही। एक जायजा साल भर के राजनीतिक परिदृश्य का:

शहीद वोट से बड़ा नहीं

ऐसा कभी पहले सुना नहीं गया। इससे पहले शायद ही किसी आतंकवादी को लेकर नेताओं में इतनी व्यापक 'सहानुभूति' रही हो, जो इस साल दिखी। जब कोर्ट ने संसद पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई, तो उस फैसले पर अमल रोकने की पैरवी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से लेकर कई केंद्रीय मंत्री तक ने की। संसद पर हुए हमले में शहीद हुए जांबाजों के परिजनों ने शौर्य पदक तक लौटा दिए, लेकिन सरकार जैसे सब कुछ 'भूल' चुकी है।

वोट के डर से...

आजादी के बाद के छह दशकों में राष्ट्रीयता की भावना कभी इतनी शर्म की चीज नहीं बनी। जिस राष्ट्रीय गीत 'वंदेमातरम्' को गा-गाकर हजारों लोग देश के नाम पर शहीद हो गए और जिसने करोड़ों लोगों के दिलों में देश को आजादी दिलाने का जोश भरा, उसी वंदेमातरम् को इस साल घोर साम्प्रदायिक गीत घोषित कर दिया गया। वोट का जोर कितना बड़ा होता है कि इस विवाद के बाद बड़े-बड़े नेताओं में भी देश की वंदना का जोश पैदा नहीं हो पाया और उनमें वंदेमातरम् गाने का साहस नहीं पैदा हो सका।

वोट की खातिर

मई में अर्जुन सिंह ने बिना अपने कैप्टन से पूछे ही बडे़ संस्थानों में ओबीसी कैटेगरी को आरक्षण देने का ऐलान कर दिया। इस मामले पर खूब राजनीति हुई। शिक्षा को सुधारने में असफल रहे अर्जुन सिंह ने समाज को जबर्दस्ती आरक्षण का झुनझुना पकड़ाया। यह सुविधा किसी ने मांगी नहीं थी। मंडल के दिन फिर से याद आ गए। समाज को बांटने वाली इस एक घोषणा से एक बार फिर छात्र आंदोलनों ने जोर पकड़ लिया। अंतत: सुप्रीम कोर्ट के आश्वासन से आंदोलन तो खत्म हो गया, लेकिन समस्या के बेहतर समाधान के लिए गठित मोइली कमिटी कुछ खास नहीं कर पाई। वोट के चक्कर में आरक्षण का विरोध तो किसी ने नहीं किया, लेकिन उसके स्वरूप को बदलने की सलाह बीजेपी और लेफ्ट की कुछ पार्टियों ने जरूर दी।

विधानसभा चुनाव

देश में हुए पांच विधानसभा चुनावों को देश की राजनीति को दिशा देने वाला माना गया। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार हुई, तो पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन की जीत। पांडिचेरी और असम में सत्ता कांग्रेस के हाथ रही। तमिलनाडु में डीएमके नीत डीपीए जीता और करुणानिधि फिर से एक बार मुख्यमंत्री बने। पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन ने 294 में 232 सीटें जीतकर तमाम गणित को पलट दिया, तो केरल में भी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट ने फिर से सत्ता हथिया ली।

कोर्ट का झटका

कोर्ट ने सरकार को इस साल खूब झटके दिए। अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकार से हज के लिए सब्सिडी बंद करने को कहा, तो सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रियों पर मुकदमा चलाने के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति लेने संबंधी बाध्यता खत्म कर दी। यानी अब बेईमान मंत्रियों का कवच खत्म हो गया और उनकी 'जेल यात्रा' आसान हुई।

दागी नेता, सब में होता

साल भर दागी सांसदों व विधायकों का मामला छाया रहा। अपने सेक्रेटरी की हत्या के जुर्म में कोयला मंत्री शिबू सोरेन को आजीवन कारावास मिला। नवजोत सिंह सिद्धू को एक पुराने मामले में सजा मिली। जेल से छूटे जयप्रकाश नारायण यादव को केंद्र में मंत्री पद मिला, तो मुलायम सिंह ने भी बाहुबली राजा भैया को जेल से छूटते ही फिर से मंत्री बना दिया। लगातार कानून को ठेंगा दिखाते सांसद सैयद शहाबुद्दीन अंतत: सलाखों के अंदर पहुंचे। जॉर्ज फर्नांडीज व जया जेटली के खिलाफ रक्षा खरीद मामले में सीबीआई ने आरोप पत्र दायर किए।

फिर से 'गरीबी हटाओ'

कांग्रेस को एक बार फिर गरीबों की याद आई। इस साल गठबंधन सरकार ने इंदिरा गांधी के प्रसिद्ध 'गरीबी हटाओ' के नारे को फिर से स्वर देने की प्लानिंग की, लेकिन जमीन पर कुछ भी दिख नहीं रहा।

बिगड़ैल छात्र राजनीति

छात्र राजनीति को दिशा देने के लिए लिंग्दोह कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन कोई उसकी सिफारिश मानने को तैयार नहीं। छात्र राजनीति की सबसे दुखद घटना यह रही कि मध्य प्रदेश के उज्जैन में छात्र नेताओं ने माधव कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. हरभजन सिंह सभरवाल की पीट-पीटकर हत्या कर दी। यूपी में छात्र नेताओं को सरकार से गनर मिलने पर लखनऊ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ने आपत्ति जताई और यूनिवर्सिटी को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया।

बेआबरू होकर...

कभी गांधी परिवार के बेहद निकट रहे कुंवर नटवर सिंह इस साल उससे बेहद दूर रहे, जाहिर है कांग्रेस से भी वह दूर हो गए। तेल के खेल में उन्हें इस साल पार्टी से निलंबित कर दिया गया और कुंवर साहब ने भी कांग्रेस की ऐसी-तैसी कर देने की गर्जना की, लेकिन किया कुछ नहीं। फिलहाल बेरोजगारी में दिन कट रहे हैं।

सीडी की अमर कहानी

अमर सिंह ने अपने फोन टैपिंग और उसकी बनीं सीडीज को लेकर खूब बवाल मचाया। सीडीज में क्या था, यह तो बहुत कम लोगों को पता चला, लेकिन अमर सिंह ने इस बहाने अपने विरोधियों की खूब फजीहत की। सुर्खियों में महीने भर छाए रहे।

राजनैतिक किताबों पर बवाल

वी पी सिंह पर लिखी किताब 'मंजिल से ज्यादा सफर' किताब खूब विवादों में रही, तो 'अ कॉल टू ऑनर: इन सर्विस ऑफ इमर्जेंट इंडिया' लिखकर जसवंत सिंह ने बड़ा बखेड़ा खड़ा किया। पीएमओ में भेदिया होने का रहस्योद्घाटन करने वाली यह किताब खूब बिकी। कंधार विमान अपहरण कांड की 'हकीकत' बयान करने का दावा करने वाली यह किताब बीजेपी के लिए 'आ बैल मुझे मार' को चरितार्थ करती नजर आई।

तख्ता पलट

छोटे राज्यों में अंकों का गणित कितना खतरनाक होता है, इसका उदाहरण इस साल खूब दिखा। कर्नाटक में साल की शुरुआत में ही पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के बेटे एच डी कुमारस्वामी ने कांगेसी मुख्यमंत्री धरम सिंह का तख्ता पलट दिया।

झारखंड में भी ऐसा ही हुआ। निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को कांग्रेस, राजद व झामुमो जैसी पार्टियों ने मुख्यमंत्री बना दिया और इस तरह सालों से जमी अर्जुन मुंडा सरकार का तख्ता पलट गया।

पार्टियों का यह साल

बीजेपी: सत्ता का स्वाद एक बार चख लेने के बाद कोई भी पार्टी कितनी खोखली हो जाती है, बीजेपी इसका उदाहरण है। पूरे साल पार्टी में उठा-पटक चलती रही और कैडर आधारित पार्टी का पोल खोलती रही। उमा भारती और मदनलाल खुराना के बागी रवैये से परेशान पार्टी आलाकमान ने दोनों को सलाम-नमस्ते कहना ही उचित समझा। अप्रैल में झारखंड के वरिष्ठ बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी ने भी पार्टी छोड़ दी। कद्दावर नेता प्रमोद महाजन की मौत से भी पार्टी की धार कुंद हुई। उपचुनावों और यूपी के स्थानीय निकायों के चुनाव में कुछ सफलता मिली, लेकिन बाकी जगह प्रदर्शन बुरा रहा। कर्नाटक में जेडी एस की सत्ता को सहारा दिया।

कांग्रेस: अपने सामंती रवैये को लेकर बदनाम रही कांग्रेस ने इस साल घर के बुजुर्ग की भूमिका बखूबी निभाई और गठबंधन धर्म को शिद्दत से समझा। वामपंथियों की घुड़की से बिना भड़के पार्टी ने अपने 'भानुमति के कुनबे' के साथ सत्ता का एक और साल पार कर लिया। केरल में सत्ता जाने के बावजूद पांडिचेरी और असम में सत्ता मिली। झारखंड में उसने बीजेपी की सत्ता गायब की।

लेफ्ट फ्रंट: वामपंथी इस बार ज्यादा ईमानदार नजर आए। जो किया, खुलकर किया, भले ही उन्हें अपनी विचारधारा को तिलांजलि देनी पड़ी। अमेरिका, विदेशी निवेश, तेल का दाम, लेबर लॉ जैसे तमाम मुद्दों पर विरोध तो किया, लेकिन वाम पार्टियां जिद पर नहीं अड़ीं। सिंगुर जैसी घटना के बाद तो लोगों ने बीजेपी से भी ज्यादा बड़ी 'पूंजीपतियों की पार्टी' कहा। तमाम आशंकाओं के बावजूद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जोरदार जीत दर्ज की, तो केरल में सत्ता उसके पास आई।

जो चले गए

प्रमोद महाजन: बीजेपी के इस 'लक्ष्मण' को उनके सगे लक्ष्मण ने अपने उत्कर्ष का आनंद नहीं लेने दिया। 22 अप्रैल को उनको उनके छोटे भाई ने गोली मार दी और बारहवें दिन मौत से संघर्ष करते हुए भारतीय राजनीतिक बिसात के सबसे माहिर खिलाड़ी ने सबको अलविदा कह दिया।

कांशी राम: वर्षों से बीमार चल रहे दलितों के इस सबसे बड़े पैरोकार ने इस साल अंतिम सांस ले ली। अपनी उपस्थिति से भारतीय राजनीति और सामाजिक ढांचे को संतुलित करने वाले बसपा के इस नेता की कमी लोगों को वर्षों तक खलेगी।

इधर उधर की

नेता के पास इतना पैसा: सीबीआई का कहना था कि उसने चौटाला परिवार के 1467 करोड़ रुपये की संपत्ति का पता लगाया है। सीबीआई के छापे के दौरान तो चौटाला परिवार के दो फार्म हाउसों से 13 लाख रुपये नकद बरामद हुए।

नेता को हेलिकॉप्टर: अब तक नेताओं को सिक्कों से तौलने और सोने का ताज पहनाने की ही खबरें आती थीं, लेकिन हाल ही में कुछ अद्भुत हुआ। गुर्जर समाज ने अपने नेता सांसद अवतार सिंह भड़ाना को एक-एक रुपया चंदा कर हेलिकॉप्टर खरीदकर दिया। उम्मीद यह कि नेताजी हवाई दौरा कर तेजी से उनके हितों की पैरवी करेंगे।

बुरी विदाई: बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह को कोर्ट के एक फैसले ने गद्दी छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कोर्ट ने सरकार नहीं बनने देने के लिए उनके विरुद्ध टिप्पणी की। एक बार फिर साबित हुआ- कोर्ट है, तो देश में कानून है।

Thursday, December 28, 2006

साल का खिताबी किस्सा

साल के अंत में खिताब बांटने की परंपरा रही है। मतलब ई कि साल का सबसे बढ़िया कौन, सबसे घटिया कौन, सबसे बेसी काम लायक कौन, सबसे कम काम लायक कौन... जैसन तमाम खिताब दिसंबर में बांटा जाता है। ऐसन में हमने भी कुछ खिताब बांटने का फैसला किया, आइए उसके बारे में आपको बताता हूं।

एक ठो सरकारी संगठन है 'नेशनल नॉलेज कमिशन'। इस साल का 'सबसे बड़ा मजाक' इसी संगठन के साथ हुआ। हमरे खयाल से किसी ने जमकर जब भांग पिया होगा, तभिए उसको ऐसन संगठन बनाने की 'बदमाशी' सूझी होगी। नहीं, तो आप ही बताइए न, आरक्षण के जमाने में ऐसन संगठन बनाना जनता के साथ 'मूर्ख दिवस' मनाना ही तो है। बेचारे 'ज्ञानी आदमी' सैम पित्रोदा पछता रहे होंगे कि इसका मुखिया बनकर कहां फंस गया!

वैसे, हमरे एक दोस्त का कहना है कि फंस तो पराइम मिनिस्टर बनकर मनमोहन सिंह भी गए हैं औरो इस साल का 'सबसे बड़का चुटकुला' यही हो सकता है कि मनमोहन सिंह पराइम मिनिस्टर हैं। उसके अनुसार, इस पोस्ट के साथ ऐसी दुर्घटना कभियो नहीं घटी, जैसन कि इस साल घटी है। का है कि परधानमंतरी तो मनमोहन हैं, लेकिन सरकार का सारा काम हुआ सोनिया गांधी के कहने पर। ऐसन में मनमोहन के अभियो परधान मंतरी पद पर टिके रहने को 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मानी जा सकती है।

लेकिन, हमरे खयाल से पराइम मिनिस्टर के साथ हुए इस 'दुर्घटना' को हम बहुत बड़ा नहीं मान सकते, काहे कि हमरे खयाल से 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मुंबई के डांस बारों पर लगा प्रतिबंध है। ऊ इसलिए, काहे कि जैसे परमाणु बम फूटने के बाद विकिरण फैलता है, वैसने मुंबई में प्रतिबंध लगने के बाद वहां की बार डांसर पूरे देश में फैल गईं औरो गंध मचा रही हैं। दिल्ली से लेकर झारखंड के नेता तक उनसे अपनी महफिल सजा रहे हैं, तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के कोठा पर 'मुंबइया माल' पर लोग अपना माल लुटा रहे हैं। इससे बड़ी दुर्घटना और का हो सकती है? यानी आप कह सकते हैं कि इस साल का 'सबसे बड़ा अपराध' महाराष्ट्र के होम मिनिस्टर आर आर पाटिल ने किया है। काहे कि उन्हीं की जिद के कारण बार डांसर का ई 'विस्फोट' हुआ औरो देश परदूषित हुआ।

वैसे, इसका मतलब ई कतई नहीं है कि पाटिल को 'साल के सबसे बड़े जिद्दी' का खिताब दे दिया जाए। इस पर तो पूरा हक सौरव गंग्गुली का है। का है कि ऐसन तपस्या तो सीता जी ने राम जी को पाने के लिए भी नहीं किया था, जैसन गंग्गुली ने इस साल टीम में वापसी के लिए किया है।

अगर सबसे बड़े जिद्दी सौरव दादा हैं, तो का 'साल का सबसे बड़ा पिद्दी' ग्रेग चैपल को मान लिया जाए? आप कहें, तो हम ऐसा मान सकता हूं, काहे कि जिस आदमी को आपने चूहा मानकर निकाल दिया था, ऊ अगर शेर बनकर फिर से आप पर दहाड़ने लगे, तो नि:संदेह आप पिद्दी ही हैं! वैसे, पिद्दी होने का मतलब ई कतई नहीं है कि 'इस साल का जीरो' भी चैपल ही होंगे, काहे कि इस लाइन में किरण मोरे जैसन बहुते लोग हैं। लेकिन इस खिताब पर हमरे खयाल से सबसे पहला अधिकार सरकार का है, काहे कि साल में सबसे बेसी फजीहत उसी की हुई है। कोयो उसको पूछ नहीं रहा, सब अपनी मर्जी कर रहे हैं। आपको साल भर कभियो लगा कि इस देश में सरकारो नामक कोयो चीज है भी?

सरकार के इसी निकम्मेपन के चलते 'साल का सबसे बड़ा हीरो' का खिताब न्यायपालिका को दिया जा सकता है। काहे कि अगर इस साल कोर्ट इतना एक्टिव नहीं होता, तो इस देश का भगवाने मालिक था। कोर्ट नहीं रहता, तो नोट-वोट के चक्कर में तो नेता औरो अफसर सब इस देश को डुबाइए न देते!
तो ई है खिताबों की लिस्ट और उनके हकदारों के नाम। लेकिन अभी ई फाइनल नहीं है, काहे कि सिफारिशी लालों के इस देश में अभियो हम सिफारिश पर गौर करने को तैयार हूं।

Thursday, December 21, 2006

बीत गया साल पहेली में

एथलीट एस. शांति ने दोहा एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल जीता था, जो उससे छीन लिया गया। कहा गया कि महिलाओं की दौड़ जीतने वाली शांति महिला नहीं, पुरुष है। ई 'सत्य' जानकर बहुतों को झटका लगा, लेकिन हम पर इसका कोयो इफेक्ट नहीं हुआ। का है कि साल भर हम ऐसने झटका सहता रहा हूं। हमने जिसको जो समझा, ऊ कमबख्त ऊ निकला ही नहीं। जिसको हमने गाय समझा, ऊ बैल निकला औरो जिसको बैल समझा, ऊ गाय।

अब देखिए न, पूरे साल हम ई नहीं समझ पाए कि शरद पवार कृषि मंतरी हैं कि किरकेट मंतरी। उन्हीं के गृह परदेश में विदर्भ के किसान भूखे मरते रहे, आत्महत्या करते रहे, लेकिन उन्होंने कभियो चिंता नहीं की। पैसे का भूखा बताकर ऊ जगमोहन डालमिया को साल भर साइड लाइन करने में लगे रहे, लेकिन कृषि मंतरी होने के बावजूद उन्होंने विदर्भ में खेती बरबाद करने वाले पैसे के भूखे अधिकारियों को कुछो नहीं कहा। देश की खेती को दुरुस्त करने के बदले ऊ किरकेट की अपनी पिच दुरुस्त करते रहे।

हमरे समझ में इहो नहीं आया कि गिल साहब हाकी के तारणहार हैं या डुबनहार। ऊ तारणहार होते तो भारतीय हाकी अभी चमक रही होती, लेकिन चमक तो खतम ही हो रही है। इसका मतलब उनको डुबनहार होना चाहिए, लेकिन ऐसा भी नहीं है। काहे कि अगर ऐसा होता, तो उनको हाकी संघ से कब का बाहर कर दिया गया होता, लेकिन ऊ तो अभी भी तानाशाह बने अपनी मूंछ ऐंठ रहे हैं।

गिल जैसन मनमर्जी करने वालों की इस साल देश में कौनो कमी नहीं रही। अर्जुन बाबू को ही ले लीजिए। उन्होंने एक मिनिस्टरी का नामे बदल दिया। अब तक एचआरडी मिनिस्टरी का मतलब हम ह्यूमन रिसोर्सेज मिनिस्टरी समझते थे, लेकिन इस साल ई ह्यूमिलिएशन रिसोर्सेज मिनिस्टरी बन गया। ऐसन मिनिस्टरी, जो पढ़ाई में मेहनत करने के बदले किसी खास जातियों में पैदा होने को बेसी महत्व देता है। गरीब बचवा सब को पढ़ने के लिए टाट-पट्टी नहीं मिल रहा, इसकी चिंता अर्जुन बाबू ने साल भर नहीं की, लेकिन सम्पन्न लोगों को भी वोट की खातिर आरक्षण मिलना चाहिए, इसकी चिंता उनको बहुते रही।

ऐसने हाल रहा स्वास्थ्य मंतरी रामदास का। हमरे समझ में ई नहीं आया कि उनको स्वास्थ्य मंतरी की कुर्सी प्यारी है या एम्स के निदेशक की! हैं तो ऊ देश के स्वास्थ्य मंतरी, लेकिन साल भर एम्स के सर्वेसर्वा बनने के लिए लड़ते रहे। अब हमरे समझ में ई नहीं आया कि लोग अपना परमोशन चाहते हैं, लेकिन रामदास अपना डिमोशन काहे चाह रहे हैं? अगर एम्स से एतना ही परेम है औरो वेणुगोपाल एतना ही अयोग्य हैं, तो आप उनके साथ पोस्ट काहे नहीं बदल लेते? उन्होंने देश की आपसे बेसी सेवा की है औरो अयोग्य भी ऊ आपसे बेसी हैं, इसलिए ऊ बढि़या मंतरी साबित होंगे, इसकी पूरी गारंटी है!

वैसे, हमरे खयाल से ऐसन डिमोशन सत्ता के फेर में ही होता है। काहे कि अपना कुछ ऐसने डिमोशन इस साल लाल झंडे वालों ने भी किया। ई कहना मुश्किल रहा कि विचारधारा उनके लिए बेसी अहमियत रखती है या सत्ता। का है कि सीपीआई का मतलब भले ही 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' होता हो, लेकिन सिंगुर जैसन तमाम काम करने के बाद उसका नाम अगर 'कोलेबोरेशन आफ पराइवेट इंडस्ट्री' रख दिया जाए, तो कौनो गलत नहीं होगा! तो ऐसने कनफूजन में बीत गया हमरा साल, कहीं आपके साथ भी तो ऐसने नहीं रहा?

Thursday, December 14, 2006

सीधी बात हजम नहीं होती

समय बदलने से लोगों की मानसिकता केतना बदल जाती है, हमरे खयाल से ई रिसर्च का बहुते दिलचस्प बिषय है। एक समय था, जब किसी काम में तनियो ठो लफड़ा होता था, तो हमरी-आपकी हालत खराब हो जाती थी। लगता था, पता नहीं किसका मुंह देखकर सबेरे उठे थे कि एतना परॉबलम हो रहा है। लेकिन आज अगर बिना लफड़ा के एको घंटा बीत जाता है, तो लगता है जैसन जिंदगी का सारा रोमांचे खतम हो गया। मतलब, लोगों को अब लफड़े में बेसी आनंद मिलता है। बिना लफड़ा के लाइफ में कौनो मजा नहीं होता।

अब वर्मा जी को ही लीजिए। बेचारे कहीं से आ रहे थे। एक ठो आटो वाले से लक्ष्मीनगर छोड़ने को कहा। आटोवाला बिना किसी हील-हुज्जत के मीटर से चलने को तैयार हो गया। अब वर्मा जी की हालत खराब! ऊ आटो पर बैठ तो गए, लेकिन उनको सब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। एक झटके में अगर दिल्ली का कोयो आटोवाला मीटर से चलने को तैयार हो जाए, तो किसी अदने से आदमी को भी दाल में काला नजर आ सकता है या कहिए कि पूरी दाल काली लग सकती है। फिर वर्मा जी तो दिल्ली के नस-नस से वाकिफ ठहरे।

खैर, रास्ता भर उनके दिल में किसी अनहोनी को लेकर धुकधुकी तो लगी रही, लेकिन आटोवाले ने सुरक्षित उन्हें घर पर उतार दिया। पैसा देकर ऊ निबटे ही थे कि एक झटका उनको औरो लगा। उनको विशवास नहीं हो रहा था कि 'सर, मैं जाऊं' की जो आवाज उनके कानों में मिश्री घोल रही है, वह आटोवाले के श्रीमुख से ही निकली है! उसने चारों ओर देखा कि कोयो औरो बोल रहा होगा, लेकिन ई प्रश्न आटोवाला ही पूछ रहा था! वर्मा जी का गला भर आया, उ बस किसी तरह एतना बोल पाए, 'हां भैया, अब आप जाओ।' लेकिन दिल के अंदर अभियो तूफान मचा था, कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है।

तो ई है बिना लफड़े की दिल्ली। अगर कोयो आपसे परेम वाला व्यवहार करे, तो आपका सिक्स्थ सेंस जाग्रत हो जाता है- कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है। हमरे मकान मालिक बहुते बढि़या नेचर के हैं। हमको छोटा भाई मानते हैं, सो अक्सर साथ खाने पर बुलाते रहते हैं। उस दिन जब हमने आफिस में कहा कि आज हमारा लंच उन्हीं के यहां था, तो सबके कान खड़े हो गए। एक ने पूछा, 'तो उन्होंने कब आपको घर खाली करने को कहा है?' दूसरे ने पूछा, 'किराया बढ़ा दिया होगा औरो जोर का झटका धीरे से देने के लिए आपको लंच पर बुलाया होगा?' मतलब, सबका मानना ई था कि कि मकान मालिक औरो किरायेदार में एतना परेम हो ही नहीं सकता। मकान मालिक अगर मानवीयता दिखाने लगे, तो समझ जाइए कि कुछो गड़बड़ जरूर है।

यही स्थिति ऑफिस के बॉस के साथ रहती है। अगर बॉस ने आपको अपने केबिन में हाल-चाल पूछने भी बुला लिया, तो आपके सहकर्मियों में डुगडुगी बज जाती है- आज तो बच्चू की लग गई क्लास! जरा सोचिए, केबिन में आप दोनों जेंटलमैन की तरह बात कर रहे हैं औरो केबिन के बाहर इमेजिन किया जा रहा है कि बॉस रूपी बाघ के सामने आप बकरी की तरह घिघिया रहे होंगे।

तो ऐसन है जमाना! जैसन लोगों को देसी घी औरो शुद्ध दूध नहीं पचता, वैसने दूसरों का बढि़या व्यवहार भी उनसे जल्दी हजम नहीं होता। अगर आप सीधे हैं, तो लोग आपको या तो बेकूफ मानेंगे या फेरो घुन्ना। अब जब ऐसन है, तो कहिए भला, कोयो बढि़या इंसान काहे बनना चाहेगा? लोगों के सामने बेकूफ साबित होने से तो बढि़या है कि टशन में रहा जाए औरो सच पूछिए तो इसी टशन में लोगों का मानवीय चेहरा गायब हो रहा है! तो दोषी कौन है, हम-आप या जमाना?

Thursday, December 07, 2006

नेताओं के लिए स्पेशल जेल!

उस दिन तिहाड़ जेल के एक ठो जेलर मिल गए। बहुते परेशान थे। कहने लगे, 'यार, जिस तेजी से नेता लोग जेल भेजे जा रहे हैं, उससे तो हमरी हालत खस्ता होने वाली है। हमरे जैसन संतरी के लिए इससे बुरी स्थिति का होगी कि जिस मंतरी को आप हत्यारा मान रहे हैं, उसको भी सलाम बजा रहे हैं। अपराध करके जेल ऊ आते हैं औरो सजा एक तरह से हमको मिलती है। टन भर वजनी पप्पू जी का नखरा झेलते-झेलते हमरी हालत ऐसने खराब हो रही है, ऊपर से एक ठो 'गुरुजी' औरो आ गए। हमरी हालत तो उस 'सिद्धूइज्म' के डर से भी खराब हो रही है, जो चौबीसो घंटा चलता रहता है। अगर सरदार जी यहां आ गए, तो कौन झेल पाएगा उनको?'

उस जेलर महोदय की परेशानी देख हमहूं परेशान हो गया हूं, लेकिन हमरी परेशानी कुछ दूसरी है। उनको नेता जैसन वीआईपी कैदियों से परेशानी है, तो हमको देश की चिंता हो रही है। का है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विधायकों के लिए जेल दूसरा घर बन चुका है, तो कम से कम सौ ऐसन सांसद हैं, जो सरकार की जरा-सी ईमानदारी से कभियो जेल जा सकते हैं। अब देखिए न, अपने पप्पू औरो शहाबुद्दीन जी पहिले से जेल में हैं, तो 'स्वनामधन्य' साधु जी बाढ़ का पैसा पीकर जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन सब का साथ देने के लिए अब शिबू गुरुजी भी वहां पहुंच चुके हैं। कोर्ट ऐसने तेजी से चाबुक चलाती रही, तो आश्चर्य नहीं कि आधा संसद जेल में होगा। अब जिस देश के राष्ट्रीय प्रतिनिधि की आधी संख्या जेल में होगी, उस देश के भविष्य की बस कल्पना ही की जा सकती है!

सो हम भी लगे कल्पना करने। कल्पना में हमें देश के महान स्वरूप का दर्शन हुआ। देश के महान जनता के दर्शन हुए। यह भी पता चला कि अपना देश एतना महान बन चुका है कि बिना एमपी-एमएलए के भी चल सकता है। अब ऐसन देश आपको कहां मिलेगा, जहां का सौ सांसद लोगों को डराने-धमकाने से लेकर हत्या कराने तक का आरोपी हो, फिर भी ऊ जनता का प्रतिनिधि हो। ऐसन जनता भी आपको कहीं नहीं मिलेगी, जो कोर्ट द्वारा हत्या का आरोपी ठहरा दिए गए नेता पर सड़े अंडे औरो टमाटर फेंकने के बजाय, उसके समर्थन में रांची से दिल्ली तक परदरशन करे। यह तो महान जनता की दरियादिली ही है कि जेल में रहने वाले नेता वर्षों अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं जाते, फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। तिहाड़ में बंद 'टन भर वजनी नेता' का तो इस मामले में गिनीज बुक रिकार्ड में नाम दर्ज हो सकता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि बिना एमपी- एमएलए के भी देश का काम चल सकता है।

लेकिन मान लीजिए कि सरकार सांसदों को जरूरी मानती ही है, तो फिर ऊ एक ठो व्यवस्था कर सकती है। चूंकि सरकार औरो जनता की दरियादिली से दागी सांसदों का बहुमत सब दिन संसद में रहेगा ही, सो काहे नहीं कानून बदल दिया जाए। संसद में ही एक जेल बना दिया जाए। तब हथकड़ियों में बंधे नेता लोग देश के सुनहरे भविष्य पर चरचा करेंगे औरो तिहाड़ जेल के जेलरों को परेशानी भी नहीं होगी। आखिर एक 'राष्ट्रीय गर्व' की इमारत को 'राष्ट्रीय शर्म' की इमारत बनाने का माद्दा हम भारतीयों में तो है ही!

Friday, December 01, 2006

चाहिए कुछ किरकेटिया जयचंद

अब हमको पूरा विशवास हो गया है कि अपने देश को कुछ किरकेटिया जयचंद की एकदम सख्त जरूरत है। यानी कुछ ऐसन किरकेटिया पिलयर औरो कोच चाहिए, जो अपनी ही टीम की लुटिया डुबो सके। सच पूछिए, तो इसी में अपने देश का भला है औरो किरकेट का भी।

आप कहिएगा कि हम एतना गुस्सा में काहे हूं, तो भइया हर चीज की एक ठो लिमिट होती है, लेकिन ई मुआ किरकेट है कि इसका कोयो लिमिटे नहीं है। का जनता, का नेता, सब हाथ धो के इसी के पीछे पड़ल रहता है। देश-दुनिया जाए भांड़ में, सबको चिंता बस किरकेट की है। दक्षिण अफरीका से दू ठो मैच का हार गए, ऐसन लग रहा है जैसे पूरे देश का सिर शरम से नीचे हो गया हो। सड़क से संसद तक हंगामा मचा है। विदर्भ के किसान भूखे मर रहे हैं, फांसी लगा रहे हैं, नेता औरो जनता सब को इसकी चिंता नहीं है, लेकिन देश दू ठो मैच हार गया, इसकी उन्हें घनघोर चिंता है। लोगों के भूखे मरने औरो किसानों के फांसी पर झूलने से पूरे विश्व में नाक कट रही है, उसकी चिंता कोयो नहीं कर रहा, लेकिन दस ठो किरकेट खेलने वाले देश में नाक कट गई, इसकी बहुते चिंता है।

हम तो कहते हैं कि भगवान की दया से ऐसने सब दिन हारती रहे अपनी टीम। इसी में भारतीय किरकेट का भला है औरो अपने देश का भी। का है कि अगर हम इसी तरह हारते रहे न, तो एक दिन जरूर ऐसन आएगा, जब लोग किरकेट के बारे में सोचना बंद कर देंगे। मतलब उन दूसरे 'दलित' खेलों को भी अपने देश में पैर फैलाने का मौका मिलेगा, जो 'सवर्ण' किरकेट के सामने बेमौत मर रहे हैं। अगर बच्चा सब तेंडुलकर औरो गंग्गुली बनने का सपना नहीं देखेगा, तो यकीन मानिए एक अरब का अपना देश ओलंपिकों में दो-तीन सौ पदक तो जीतिए लेगा। अब आप ही बताइए, किरकेट के ग्यारह ठो पिलयर के पीछे दिमाग खराब करना फायदेमंद है या फिर दो-तीन सौ एथलीटों के पीछे?

मैच हारते रहने का सबसे बड़का फायदा ई होगा कि देश के बेरोजगारों को कभियो बेरोजगारी नहीं अखरेगी। का है कि अपने देश के लोग सब घनघोर विश्लेषक किस्म के पराणी होते हैं औरो 'एक्सपर्ट कमेंट' देने में माहिर होते हैं। उनको कौनो मुद्दा दे दीजिए औरो फिर देखिए उनकी विश्लेषण क्षमता! किरकेट की ए बी सी डी ऊ भले न जानते हों, लेकिन किरकेट तो ऊ डॉन ब्रेडमैन तक को सिखा सकते हैं। ऐसन में अगर अपनी टीम हारती रहेगी, तो विश्लेषण बेसी होगा औरो विश्लेषण बेसी होगा, तो देश के बेरोजगार सब कभियो अपने को बेरोजगार महसूस नहीं करेंगे औरो सरकार से बेरोजगारी भत्ता भी नहीं मांगेंगे। मतलब देश को जीतने से बेसी फायदा किरकेट टीम के हारते रहने में है। आप ही सोचिए न, जीतने के बाद विश्लेषण की गुंजाइशे कितनी बचती है?

वैसे हारते रहने में फायदा तो भारतीय किरकेट टीम का भी है। का है कि लगातार हारते रहने से लोग किरकेट को भूल जाएंगे, जैसन हाकी को भूल गए हैं। ऐसन में किरकेटरों पर मानसिक दवाव कम होगा, जिससे ऊ बढ़िया परदरशन कर सकेंगे। अगर बढि़या नहीं खेल पाए, तभियो कोयो उनको जूता का माला तो नहिए पहनाएगा औरो नहिए उनके घर पर तोड़-फोड़ करेगा। खबर तो पढ़े ही होंगे, बेचारा गरीब पराणी मोहम्मद कैफ के घर पर लोग सब लाठी-डंडा लेकर पहुंच गए थे! आज तक कभियो धनराज पिल्लई के घर पर हाकी प्रेमियों के परदरशन की खबर सुने हैं आप? नहीं ना! तो फिर दुआ कीजिए, कुछ किरकेटिया जयचंद तो हमको मिल ही जाए!

Friday, November 24, 2006

जिगर मा नहीं आग है

'ओंकारा' फिलिम का बिपाशा का ऊ गाना तो आप सुने ही होंगे-- 'बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया जिगर मा बड़ी आग है, आग है...।' ई सुनके पता नहीं आपके दिल में कुछ-कुछ होता है या नहीं, लेकिन हमरे दिल में तो भइया बहुते कुछ होता है। बिपाशा कौन से जिगर की बात कर रही है औरो उसमें केतना आग है, ई तो आपको जान अब्राहम से पूछना होगा, लेकिन भइया हमरे पास न तो बिपाशा जैसन जिगर है औरो नहिए वैसन आग।

जहां तक जिगर की बात है, तो हमरे गुरुजी का कहना था कि हमरे जैसन मरियल आम आदमी में जिगर होता ही नहीं, तो उसमें आग कहां से होगी? उसके अनुसार, जिगर में आग तो गांधी, लोहिया औरो जयप्रकाश नारायण के पास थी, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश को हिला दिया। तभिए हमने डिसाइड किया था कि आखिर जिगर की आग गई कहां, ई हम ढूंढ कर रहूंगा।

वैसे, ई बात तो हम मानता हूं कि अगर बीड़ी जलाने लायक आग भी हमरे जिगर में होती, तो हम एतना निकम्मा नहीं होते! निकम्मापनी में हम अपने अरब भर देशवासियों का प्रतिनिधि हूं। ऐसन जनता का प्रतिनिधि, जिनके जिगर का तो पता नहीं, लेकिन उनमें आग बिल्कुल नहीं है, ई हम दावे के साथ कह सकता हूं। अगर जिगर में आग होती, तो मजाल है कि कोयो किसी को दबा के रख लेता या शोषण कर लेता। नेता हो या बाजार, जिसको देखिए वही हमको गन्ने के जैसन चूस रहा है औरो हम हैं कि चुपचाप देखते रहते हैं। हमरे निक्कमेपन की हद ई है कि अपने खेत के जिस आलू-प्याज को हमने पांच रुपये किलो बेचा था, आज उसी को ४० रुपया किलो खरीद कर खाता हूं, लेकिन विरोध में चूं शब्द नहीं बोलता, धरना-परशदन की तो बाते छोडि़ए।

हालत ई है कि सुप्रीम कोर्ट तक हमको इस निकम्मेपन के लिए धिक्कार रही है। हाल में उसने एक केस के सिलसिले में कुछ बुजुर्गों को सलाह दी कि हक थाली में परोस के नहीं मिलता है, अपना हक आपको मांगना पड़ेगा।

खैर, अपने निकम्मेपन से परेशान होकर हमने ई पता लगाने का फैसला किया कि आखिर हमरे जिगर की आग गई कहां? आखिर ऐसा का हुआ कि हम आंदोलन नहीं कर पाते?

हम पहुंचे एक ठो ज्ञानी सर्जन के पास। सर्जन ने हमको ऊपर से नीचे तक दया के भाव से देखा। फिर बोले, 'तुम्हरे इस अस्थि-पंजर का तो एक्स-रे भी नहीं हो सकता, हम जिगर कहां से ढूंढूं? तुम्हरा तो बस पोस्टमार्टम हो सकता है, अगर कहो तो ऊ कर देता हूं।'

डाक्टर ने हमारा 'पोस्टमार्टम' किया। बोले, 'तुम्हरा जिगर तो सहिए जगह पर है, लेकिन इसकी आग कहीं औरो शिफ्ट हो गई है। अब अगर तुमको अपनी आग ढूंढनी हो, तो पेट औरो उसके नीचे ढूंढना, पूरी आग वही जल रही है।' अब ई बात हमरे समझ में आ गई थी कि हम एतना निकम्मा काहे हूं। पेट औरो उसके नीचे की आग को शांत करने में हमरे जिगर की आग खतम हो गई है।

मतलब ई हुआ कि आज के नेताओं के निकम्मा होने के लिए भी यही फैक्टर जिम्मेदार है। गांधी और जयप्रकाश जैसन नेता आज नहीं हैं, तो वजह यही है कि आज के नेताओं के पेट औरो उसके नीचे की आग जिगर की आग पर भारी पड़ रही है। अब जब उन्हें इन दोनों आग से फुर्सत मिले, तब न गलत काम के विरोध के लिए आंदोलन करें। तो आग की शिफ्टिंग का पता लगाने लेने के बाद लाख टके का सवाल ई है कि पेट औरो उसके नीचे की आग को जिगर की आग पर हावी होने से कैसे बचाया जाए? इसके बारे में तनिक आप भी तो सोचिए! आखिर परजातंत्र के परजा होने के नाते तंत्र पर आपका कंटरोल तो होना ही चाहिए।

Thursday, November 16, 2006

सॉफ्ट इमेज की बेबसी

हमको अपने देश औरो अपने में बहुते समानता नजर आती है। अपना देश 'सॉफ्ट नेशन' का 'तमगा' लेकर परेशान है, तो हम 'सॉफ्ट पर्सन' का 'तमगा' लेकर परेशान हूं। हालत ई है कि आए दिन हमको कोयो न कोयो ठोकता -पीटता रहता है, लेकिन हम हूं कि इसी में गर्व महसूस करता हूं। आखिर अपने सॉफ्ट नेशन की तरह हम भी अपना करेक्टर सॉफ्ट पर्सन का जो बनाए रखना चाहता हूं। का है कि आप जिस उपाधि से विभूषित होते हैं, उसकी लाज तो आपको रखनी ही पड़ेगी न, भले ही आपकी हालत कितनी भी खराब काहे न हो जाए!

जैसे अपने देश से इतनी बड़ी आबादी संभले नहीं संभल रही है, वैसने हम से भी हमारा बच्चा सब संभले नहीं संभल रहा। परिणाम ई है कि हमरे पड़ोसियों के पौ बारह हैं औरो ऊ खुराफात कर हमको सताते रहते हैं। उस दिन हमरा पड़ोसी चंचू आ गया। जैसे चीन अरुणाचल परदेश पर अपना अधिकार जता रहा है, वैसने उसने हमारे बारहवें-चौदहवें नंबर के बच्चे पर अपना अधिकार जता दिया। कहने लगा, 'इसको होना तो हमरा बच्चा चाहिए था, लेकिन आपने जबर्दस्ती इसको अपने यहां पैदा कर लिया। देखिए, देखिए... इसकी सूरत, बिल्कुल हमरी तरह है औरो आप हैं कि इसको अपना कह रहे हैं।'

खैर, उस दिन ऊ एक को लेकर तो चला ही गया, लेकिन दूसरे को अभी भी ऊ अपने पड़ोसियों के मार्फत बहकाता है। कमबख्त बच्चा भी बदमाश है, हमसे ज्यादा ऊ अपने को चंचू के करीब पाता है। वैसे, गलती उसकी भी नहीं है, अगर उसकी सूरत देख के हमरा बाकी बच्चा उसे अपना भाई नहीं समझता औरो सौतेला व्यवहार करता है, तो ऊ भला हमसे अपने आपको कैसे जोड़ पाएगा?

इधर चंचू ने एक को कब्जा रखा है, तो उधर दूसरा बच्चा हमरे पड़ोसी चांद साहब के आधे कब्जे में है, बिल्कुल कश्मीर की तरह। उसने भी अपना ईमान-धरम बदल लिया है औरो चांद को अब्बा हूजूर बनाने पर तुला हुआ है। वैसे हम इन दोनों को ठीक तो एक दिन में कर सकता हूं, लेकिन का है कि अपनी 'सॉफ्ट पर्सन' की इमेज पर दाग नहीं लगाना चाहता। ऐसन में उनकी हर बदमाशी पर हम उनको सुधर जाने की चेतावनी देता हूं औरो फिर डरपोक चूहे की तरह अपने बिल में घुस जाता हूं, बिल्कुल अपने देश की तरह। आप ही सोचिए न, अपने देश को अगर उदार लोकतंत्र औरो सॉफ्ट नेशन की अपनी इमेज की चिंता नहीं होती, तो कश्मीर समस्या निबटाने में केतना टाइमे लगता?

पड़ोसिए नहीं, हमरी हालत तो बच्चों ने भी खराब कर रखी है। उस दिन हमरे एक बच्चे ने अपने ही भाई-बहनों पर गाड़ी चढ़ा दी। बावजूद इसके, उसका कहना है कि इसमें उसकी कोयो गलती नहीं है। अगर कोयो फुटपाथ पर खर्राटे भरना चाहेगा, तो उसको सिर पर कफन बांधकर ही सोना चाहिए। चलिए, आज तो हम शराब पीकर गाड़ी चढ़ाए, लेकिन गाड़ी जब रोड पर होती है, तो बिना ड्राइवर के शराब पिए भी वो किसी को ठोकती, तो किसी से ठुकती रहती है। अगर आज मेरे भाई-बहन मेरे गाड़ी के नीचे आकर मरे हैं, तो गलती आप की है। अगर आप उसको घर बनाकर दे नहीं सकते, तो पैदा काहे किए थे? रोड पर कोयो सोएगा, तो मरबे करेगा।

बच्चे की तो बात छोड़िए, हमरे बगीचे के गाछ-पात तक पर हमरा कंटरोल नहीं है। जैसे अपने देश ने बांग्लादेश को जनम दिया औरो अब उसके 'भूतहा' होने पर पछता रहा है, वैसने हम भी अपने कैंपस में एक पेड़ लगाकर पछता रहा हूं। उस कमबख्त को लगाया हमने, लेकिन ऊ एतना 'बड़ा' हो गया है कि फल पड़ोसियों के यहां गिराता है। हमरे यहां उसका केवल सड़ा-गला पत्ता गिरता है, अवैध बांग्लादेशी परवासियों की तरह। जैसे दिल्ली औरो बिहार जैसन राज्य इन परवासियों की चोरी-डकैती से परेशान हैं, वैसने हम भी इस पेड़ के पत्ते की सड़ांध से परेशान हूं, लेकिन कुछ नहीं कर सकता, काहे कि हम अपने साफ्ट पर्सन की इमेज को दाग लगाना नहीं चाहता। अब आप ही बताइए देश के कारण हमरी ये ये दशा हुई है या हमरे कारण देश की।

Tuesday, November 14, 2006

बच्चों का खेल नहीं है बच्चा होना

बाल दिवस पर विशेष

डियर चाचा नेहरू

मैं एक नन्हा-सा बच्चा हूं। देश का नौनिहाल, जिसके कंधों पर आपके देश का भविष्य है, लेकिन सच मानिए देश का भविष्य होते हुए भी मैंने कभी अपने को स्पेशल महसूस नहीं किया। मुझे तो खुद नहीं लगता कि मैं देश का भविष्य हूं। आखिर जिसके कंधों पर देश का भविष्य होगा, उसकी इतनी उपेक्षा कोई देश कैसे कर सकता है? कोई हमारी परवाह नहीं कर रहा, यहां तक कि हमें फोकस में रखकर कोई योजना सरकार बनाती भी है, इसकी जानकारी मुझे तो छोडि़ए, बड़ों-बड़ों को नहीं होती।

आपको शायद ही पता हो कि हमारे लिए इस देश में कुछ भी नहीं है- न ढंग का स्कूल, न किताब, न खेल का मैदान और न ही मनोरंजन के साधन। नेताजी वोट को देखकर स्कूल खुलवाते हैं, तो मास्टर जी स्कूल ही नहीं आते। स्कूली किताबें हमें नहीं, वोट को ध्यान में रखकर लिखवाई जा रही हैं। हमारे आसपास कोई खेल का मैदान, आप ऊपर स्वर्ग से देखकर भी नहीं खोज सकते, तो भला मैं कहां से खोज पाऊंगा! मनोरंजन का हाल यह है कि किताबों के बोझ से एक तो हमें इसके लिए वक्त ही नहीं मिलता और मिलता भी है, तो बड़ों के लिए बनी फिल्मों और गानों को देखकर ही संतोष करना पड़ता है। बच्चों के लिए अपने देश में फिल्में बनती ही नहीं। आखिर जब, ९५ प्रतिशत बॉलिवुड फिल्मों को 'ए' सर्टिफिकेट मिलता है, तो सोच लीजिए हमारे लिए बचता ही क्या है?

सच मानिए, बच्चा होना बच्चों का खेल नहीं है। आप भी अगर अभी बच्चा बन जाएं, तो आपकी हालत खराब हो जाएगी। अगर आप मेरी दिनचर्या सुनेंगे, तो यकीन मानिए आपका दिल दहल जाएगा। मुझे रोज पांच बजे सुबह उठना पड़ता है। तैयार होकर जब मैं स्कूल के लिए निकलता हूं, तो मेरी पीठ पर किताबों का बोझ होता है और सिर पर पढ़ाई का। मुझे अपने बैग में जितनी किताबें रोज ढोनी पड़ती हैं, उतनी किताबें आपने जिंदगी भर नहीं ढोई होंगी। स्कूल पहुंचते ही मेरी 'क्लास' शुरू हो जाती है। मम्मी-पापा को फुर्सत नहीं है, ऐसे में रोज किसी न किसी विषय का मेरा होमवर्क छूट जाता है। जिस मास्टर जी से मैं ट्यूशन पढ़ता हूं, वह घोर प्रफेशनल हैं। स्कूल में जो मेरी 'क्लास' ली जाएगी, उन्हें उसकी चिंता नहीं रहती। वह एक घंटे का पैसा लेते हैं और इतने व्यावसायिक हैं कि मेरे पास ६१वें मिनट नहीं ठहरते, चाहे मेरा होम वर्क पूरा हुआ हो या नहीं। स्कूल में पूरे आठ सब्जेक्ट पढ़ने के बाद बस यूं समझिए कि मेरा भेजा 'फ्राई' हो जाता है। कहां नन्हीं-सी जान और कहां इतने सारे काम! हालत यह होती है कि स्कूल में प्लेग्राउंड में जाने की मेरी हिम्मत नहीं होती और मैं घर आ जाता हूं। तब मम्मी ड्यूटी पर होती हैं। ऐसे में खाना मुझे खुद निकालना पड़ता है या फिर मैं नौकरानी के भरोसे रहता हूं।

इसके बाद मेरी इच्छा खेलने की होती है, लेकिन खेल का मैदान हमारे आसपास है ही नहीं। जो पार्क आसपास थे भी, उनमें किसी ने तबेला बना लिया है और मेरे बदले भैंस के बच्चे उनमें दौड़ लगाते हैं। बाईं तरफ वाले पार्क को तो तलवार साहब निगम पार्षद ने अपने घर में मिला लिया है। ऐसे में मैं घर में ही सिमटकर रह जाता हूं। पचास गज में बने घर में आखिर आप कितनी उछल-कूद मचा सकते हैं? बेड, सोफा, फ्रिज और वॉशिंग मशीन जैसी चीजों को रखने के बाद जो जगह घर में है, उसमें भी हमें संभलकर खेलना पड़ता है, क्योंकि घर में टूटने-फूटने वाली चीजें भी हैं मम्मी की। गली में खेलो, तो शर्मा अंकल की डांट पड़ती है। सही भी है, उनके गमले टूटते हैं या शीशे की खिड़कियां बर्बाद होती हैं, तो वह डांटेंगे ही। अब आप समझ गए होंगे कि देश में ओलिंपिक जीतने वाला कोई खिलाड़ी क्यों नहीं पैदा होता!

ऐसे में मैं टीवी देखता रहता हूं, लेकिन सिर्फ कार्टून चैनल आप कितना देखेंगे? क्या है कि बाकी चैनल्स मम्मी ने लॉक कर रखे हैं, कहती हैं कि फिल्म और गानों में सिर्फ सेक्स और हिंसा होती है, जिसे देखना मेरे बाल-मन के लिए सही नहीं है। अब आप ही बताइए मनोरंजन के लिए मैं कहां जाऊं? विडियो गेम बचता है, लेकिन एक काउंसिलर की सलाह पर पापा ने उसे भी बंद करवा दिया, क्योंकि वह भी बच्चों की 'सेहत' के लिए ठीक नहीं। ऐसे में अब मैं और छोटू यूं ही उठा-पटक करते रहते हैं और इसके लिए मम्मी-पापा की डांट व मार खाते रहते हैं। वैसे, सही बताऊं, मेरे कई दोस्त टीवी, विडियो और इंटरनेट देख-देखकर अब बच्चे नहीं रहे। उन्हें वे सारी चीजें पता हो गई हैं, जो बड़ों को ही पता होनी चाहिए। इससे उनकी मानसिक उलझनें बढ़ गई हैं। लेकिन आप ही बताइए, इसमें उनकी क्या गलती है?
बच्चों को बच्चा बनाए रखना तो परिवार, समाज और देश का ही काम है न, लेकिन ये तो कुछ करते नहीं। अब देखिए न, वह रामू था न, मेरा नौकर। उसके पापा ने उसे दूसरी क्लास में ही स्कूल से निकाल लिया, क्योंकि उसके पांच छोटे भाई-बहनों को वह ठीक से नहीं खिला पाते थे। रामू कमाकर उन्हें पैसा भेजता था, लेकिन अभी जो चाइल्ड लेबर लॉ आया है न, उसके डर से मेरे पापा ने उसे नौकरी से निकाल दिया। सुनते हैं कि अब वह चांदनी चौक पर भीख मांगता है और अपने भाई-बहनों को पालने में अपने पापा की मदद करता है। बताइए, ऐसे किसी कानून का क्या मतलब है? उसकी पढ़ाई-लिखाई और पेट भरने की व्यवस्था तो सरकार ने की नहीं, लेकिन भीख मांगने की व्यवस्था जरूर कर दी।

सरकार होती ही ऐसी है। उन्होंने हमारा मजाक बना रखा है। वह हमें इतना कन्फ्यूज करती है कि पूछो मत। सरकार बदलती है, तो राम और रहीम की परिभाषा बदल जाती है। दुविधा ऐसी है कि किताब पढ़कर मैं अभी तक यह डिसाइड नहीं कर पाया हूं कि १८५७ का आंदोलन विदोह था या फिर क्रांति? क्या आपके समय में भी ऐसा ही होता था?

परेशानी यह है कि हमारी इतनी परेशानियों के बावजूद हम बच्चों से परिवार, समाज और देश सबको उम्मीदें हैं। हमारे परिवारवाले चाहते हैं कि हम बच्चे एक ही दिन में आसमान के सारे तारे तोड़ लाएं, तो समाज चाहता है कि बच्चों में बचपना बरकरार रहे और देश, उसकी तो पूछिए ही मत। वह तो अपनी तरफ से बिना कोई सुविधा दिए ही हमारे कंधों पर अपना भविष्य सौंप रहा है।

एक कलाम चाचा हैं, लेकिन मजबूरी में वह बस सपने दिखाते हैं, उनको हकीकत में बदलने के लिए उन्हें सरकार से सपोर्ट ही नहीं मिलती। आप तो सरकार चलाते थे, इसलिए आपने हमारे लिए इतना कुछ किया भी, लेकिन वह तो राष्ट्रपति हैं, इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। क्या एक और प्राइम मिनिस्टर हमें आपके जैसा नहीं मिल सकता?

आपका
नन्हा दोस्त

Thursday, November 09, 2006

बेड रूम में कानूनी डंडा

उस दिन सबेरे-सबेरे जब हमरी नींद टूटी या कहिए कि जबरदस्ती तोड़ दी गई, तो सामने दू ठो धरती पर के यमराज... माफ कीजिएगा लाठी वाले सिपाही सामने में खड़े थे। जब तक हम कुछ कहते, उन्होंने घरेलू हिंसा के जुरम में हमको गिरफतार कर लिया। उनका कहना था कि हमने रात में पास के विडियो पारलर से एडल्ट फिलिम का सीडी लाया है औरो जरूर हमने उसे अपनी धरम पत्नी को दिखाया होगा, जो नया घरेलू हिंसा कानून के तहत जुरम है।

अपनी गरदन फंसी देख हमने मेमयाते हुए सफाई दी, 'लेकिन भाई साहेब ऊ सीडिया तो हम अभी तक देखबो नहीं किए हैं, तो धरम पत्नी को कहां से देखाऊंगा? वैसे भी जिस काम के लिए एडल्ट सीडी लाने की बात आप कर रहे हैं, ऊ तो टीवी मुफ्त में कर देता है... बस टीवी पर आ रहे महेश भट्ट की फिलिम का कौनो गाना देख लीजिए, वात्स्यायन का पूरा कामशास्त्र आपकी समझ में आ जाएगा! इसके लिए अलग से पैसा खर्च करने की का जरूरत है? वैसे भी अगर ऐसन कानून लागू होने लगा, तो लोग अपनी बीवी के साथ कौनो हिंदी फिलिम नहीं देख सकता, काहे कि सब में अश्लीलता भरल रहती है।'

हमरी इस अनुपम 'सुपर सेवर' जानकारी पर पहिले तो सिपाही महोदय हैरान हुए, लेकिन फिर ताव खा गए, 'हमीं को सिखाते हो? ये हैं समाज सेविका शारदा जी, इन्होंने तुम्हारे घर से कल झगड़े की आवाज सुनी थी औरो रात में तुमने सीडी भी लाया, यानी इनका ई शक पक्का हो गया है कि तुम अपनी बीवी पर जुलम करते हो। पुलिस चोरी होता देख कान में तेल डाल कर सो सकती है, लेकिन नारी पर अन्याय ... ना... बरदाश्त नहीं होता। सीधे थाने चलो, अब ई फैसला कोर्ट में होगा कि तुम केतना दूध के धुले हो। वैसे, कोर्ट में तुमको पैरवी के लिए वकील की जरूरत पड़ेगी, सो ई वर्मा साहेब को हम साथ लेता आया हूं। ई सस्ते में तुम्हरी पैरवी कर देंगे... इसको जेतना देगो, ईमान से उसका बीस परसेंट हमको दे देना। इन पर हमको विशवास नहीं है, इसलिए कमिशन हम तुम्ही से लूंगा।'

अब हमरी हालत खराब। हाय भगवान! ई कैसन जुलम है? स्टोव फटने और दहेज प्रताड़ना को रोकने के दूसरे कानून कम थे कि 'गिद्धों' से नुचवाने के लिए एक ठो औरो नया कानून ले आए! हमरे समझ में इहो नहीं आ रहा कि पहले से जो कानून हैं, ऊ तो लागू हो नहीं रहा, फिर 'दलालों' की जेब गरम करवाने वाला एक ठो औरो कानून की जरूरत का थी? अब तो जेतना पैसा सिपाही कमाएगा, उससे चौगुना वकील वसूलेगा औरो निरदोष होने पर भी भले मानस की समाज में नाक कटेगी सो अलग! बेचारा पतियों को कम से कम एतना समय तो दीजिए कि ऊ अपनी सफाई पेश कर सकें। आखिर भारतीय पतियों औरो सद्दाम हुसैन में एतना तो फरक किया ही जाना चाहिए।

तो का अब मियां-बीवी के बेड रूम में सरकारी चौकीदार ड्यूटी करेगा? हम ई सोच ही रहे थे कि मोबाइल बज उठा। शीतल बाबू दूसरी तरफ से लानत भेज रहे थे- ई आपने का कर दिया? चैनलों पर आप ही की खबर चल रही है। हमने टीवी आन किया- सबसे तेज, सबसे स्लो, सबसे सच्चा, सबसे झूठा, सबके जैसा, सबसे अलग जैसन तमाम चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज में हम ही थे। किसी चैनल पर एंकर चीख रहा था-- इस अत्याचारी पति के घर की खिड़की सबसे पहले हमने आपको दिखाई, दूसरे चैनल पर रिपोर्टर बता रहा था--इस राक्षस पति के घर का दरवाजा सबसे पहले हमने आपको दिखाई। बीच-बीच में विज्ञापन चल रहे थे--आप भी अपने पति से परेशान हैं, तो खट्टर वकील से मिलें... पारिवारिक कलह है, तो बाबा कालू तांतरिक से मिले, शर्तिया फायदा, नहीं तो पैसा वापस...। एक चैनल पर तीन बार तलाक लेकर चौथी शादी करने वाली एक 'विरांगना' एक्सपर्ट के रूप में मौजूद थी औरो अपने चौथे पति की प्रशंसा कर रही थी।

आखिरकार, पुलिस ने हमें गाड़ी में घसीट ही लिया। दूर कहीं शारदा जी की शिष्या सब नारा लगा रही थी, 'फूल नहीं, चिंगारी हैं, हम भारत की...' औरो वकील साहेब हमें सांत्वना दे रहे थे-- बस एक बरिस जेल औरो २५ हजार जुरमाने न देना है, ई तो सोचो, इसी बहाने बीवी से छुटकारा मिल जाएगा।

Thursday, November 02, 2006

हम नहीं सुधरेंगे!

ई बड़ी अजीब दुनिया है भाई। यहां खुद कोयो नहीं सुधरना चाहता, लेकिन दूसरों के सुधरने की आशा सभी को रहती है। ऐसन में अपने देश में अगर कोयो सबसे बेसी परेशान है, तो ऊ है कोर्ट। देश को सुधारने की कोशिश में उसकी कमर झुकी जा रही है औरो हम हैं कि सुधरने का नामे नहीं ले रहे। एक समस्या खतम नहीं होती कि हम दूसरी पैदा कर देते हैं। अब लगे रहे कोर्ट औरो सरकार हमें सुधारने में। अगर उन्हें हमें सुधारने में नानी न याद आ गई, तो हम भी भारत जैसे लोकतांतरिक देश के नागरिक का हुए! अगर कानून को ठेंगा दिखाने की आजादी ही न मिले, तो आप ही बताइए आजाद देश के नागरिक होने का मतलबे का रह जाएगा?

अब दिल्लिये को लीजिए। हम कहते हैं कि देश की राजधानी को सुधारने के चक्कर में कोर्ट बेकारे न अपनी एनरजी लगा रहा है। शायद उसको नहीं पता है कि हम यहां न सुधरने की कसम खाए बैठे हैं। हालांकि आपको आश्चर्य हो सकता है कि हम पहिले खुद तमाम तरह की समस्या पैदा करते हैं औरो फिर जब उससे अव्यवस्था फैलने लगती है, तो हम उसके लिए परशासन से लेकर सरकार तक को कोसने लगते हैं और धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं।

आश्चर्य आपको इसका भी हो सकता है कि जब कोसने के बाद सरकार औरो कोर्ट हमें परेशानियों से निजात दिलाने लगते हैं, तो हमें फिर से परेशानी होने लगती है औरो हम फिर से धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं। लेकिन हमरे खयाल से आपको एतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर आप सचमुच एतना आश्चर्यचकित हैं, तो हमरे खयाल से आप बहुते बुड़बक हैं औरो आपको लोकतांतरिक देश के अपने 'अधिकारों' का ज्ञान नहीं है।

वैसे, हम ही नहीं, दिल्ली में आजकल सब सब को सुधारने में लगा हुआ है। तीन दिन से दिल्ली बंद के चलते लोगों की हालत खराब है औरो व्यापारी लोग सरकार को सुधर जाने की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन खुद नहीं सुधर रहे। खुद उन्होंने जहां जगह मिली, दुकान खोल ली। तब लोगों की असुविधा की उन्होंने चिंता नहीं की, लेकिन अब जब कोर्ट लोगों की असुविधा दूर करने लगी है, तो व्यापारियों को असुविधा होने लगी है। वे खुद नहीं सुधरेंगे, कानूनों को तोड़ेंगे, लेकिन सरकार औरो कोर्ट को सुधरने की धमकी जरूर देंगे।

आश्चर्य की बात इहो है कि खुद जनता भी एक-दूसरे को सुधरने को कह रही है। सीलिंग की आग रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों ने लगाई, काहे कि उन्हें कालोनियों के अंदर दुकानों से बहुते परेशानी होती है। पूरा जगह दुकानों ने घेर ली है औरो लोगों का चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है। हालांकि इन्हीं रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लोगों ने अपनी कालोनियों में अतिक्रमण कर एक फुट भी जगह खाली नहीं छोड़ी है, रोड तक को अपने घर में मिला चुके हैं, लेकिन अपनी गलती उन्हें दिखती नहीं। उन्हें तो बस दुकानदारों की गलती दिखती है औरो ऊ उन्हें सुधारना चाहते हैं। अपना अतिक्रमण उन्हें जायज लगता है, लेकिन दुकानदारों का अतिक्रमण नाजायज!

आश्चर्य की बात ई है कि रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लिए कष्ट का कारण बने इन दुकानदारों को भी दूसरों से कष्ट होता है! तभी तो दुकानों के सामने पटरी पर अतिक्रमण कर सामान बेचने वालों को हटाने के लिए ऊ कोर्ट तक दौड़ लगाते रहते हैं। खुद लोगों को परेशान कर रहे हैं, तो कुछ नहीं, लेकिन उन्हें परेशान करने वाला कोयो नहीं होना चाहिए।

वैसे, हमरे खयाल से तो यही लोग हैं एक 'बेहतर' लोकतांतरिक देश के 'सच्चे' नागरिक, काहे कि वोट इनकी मुट्ठी में है। हम तो कहते हैं कि अगर अपने स्वार्थों के सामने आप दूसरों की चिंता करते हैं, तो लानत है आप पर। इससे बढि़या तो आप सतयुगे में न पैदा हुए होते, जब संतों की यह बात मानी जाती थी- - खुद सुधरो, जग सुधरेगा।

Wednesday, October 18, 2006

आप भी घी के दीये जलाइए

आजकल बाजार में दीवाली की चमक-धमक है। लेकिन हमरे समझ में ई नहीं आता कि ई रौनक आखिर है किसके भरोसे। कभियो लगता है कि ई चकाचौंध ओरिजिनल है, तो कभियो लगता है कि भरष्टाचार की बैसाखी के बिना बाजार चमकिए नहीं सकता। फिर जब से परधानमंतरी जी ने ई कहा है कि बिना दलाल के काम चलिए नहीं सकता, तब से हम औरो कनफूज हो गया हूं।

उस दिन चौरसिया जी मिल गए। पिछली बार मिले थे, तो बहुते दुखी थे, लेकिन इस बार उनका चेहर लालू जी जैसन लाल था। कहने लगे, 'स्थिति तो बहुते खराब हो गई थी, लेकिन अब ठीक है। बताइए, सरकार की सबसे दुधारू विभाग के सामने अपनी चाय-पान की दुकान है, लेकिन बोहनी तक नहीं हो रहा था। सीलिंग के चक्कर में सब बरबाद हो गया। पबलिक का काम होता था, तो किरानी बाबू सब पबलिक से अपना 'सत्कार' हमरी दुकान पर ही करवाते थे। उनको लेन-देन के लिए सुरक्षित जगह मिल जाती थी औरो हमरी दुकान चल जाती थी। लेकिन जब कोर्ट के डर से गलत को कौन पूछे, सहियो काम नहीं हो रहा था, तो हमरी दुकान चलती कैसे? खैर, अब मामला ठीक है, साहब से लेकर चपरासी तक टंच हैं।'

दरअसल, चौरसिया जी की चिंता ऐसने नहीं दूर हुई है। उनके पास ऊपर से बूंद-बूंद चू कर जो पैसा पहुंचा है, उसके लिए ऊ मंतरी जी की धरमपत्नी के आभारी हैं। उन्हीं की किरपा से तो चौरसिया जी के पास पैसा आया है। हुआ ऐसन कि ऐन दीवाली के मौके पर हाथ सूखा देख मंतरी जी की धरमपत्नी ने उनको बहुते हड़काया। आखिर जब ऊ पैसा लाएंगे नहीं, तो घर में दीवाली मनेगी कैसे? वेतन-भत्ता से तो बस भात-दाल चल सकता है।

घर की लक्ष्मी के हड़काए मंतरी जी ने अपने सचिव को हड़काया-- अगर 'जजमानों' से पैसा लाओगे नहीं, तो अपनी इज्जत का तो फलूदे न बन जाएगा। दीवाली जैसन परब पर एतना पैसा नहीं है कि किसी को एक डिब्बा मिठाइयो दे सकें।

मंतरी जी से हड़के सचिव ने अपने निचले अफसरों को हड़काया। उन अफसरों ने अपने निचले मातहतों को हड़काया, उन मातहतों ने अपने करमचारियों को हड़काया औरो इस तरह पैसा लाने की बात कलमघिस्सू बाबूओं तक पहुंची। सावन में स्वाति की बूंद का इंतजार कर रहे सीपि रूपी उन बाबूओं ने अपने दलालों को हड़काया-- खड़े-खड़े चौरसिया से पान खाते रहते हो, 'यजमानों' को पकड़कर लाओ तो हमहूं पान खाएं। बढि़या से दीवाली मनाना है, मुन्ना को पटाखे देने हैं, बीवी के लिए जेवर लाने हैं औरो अपने लिए कपडे़ खरीदने हैं, सो पैसे के लिए रिस्क तो लेना ही पड़ेगा।

फिर का था? दलालों ने 'यजमानों' को समझाना शुरू किया कि सीलिंग के लिए मंतरी जी कानून ला रहे हैं, किसी का मकान-दुकान टूटेगा नहीं, बस पकिया कागज बनवा लो। उनका समझाना काम आया औरो 'यजमान' आने लगे। इससे चौरसिया जी की दुकान पर भीड़ जुटने लगी औरो तिजोरी भरने लगी। जब बटुआ में पैसा हो, तो किसी का भी चेहरा लालू जी जैसन लाल हो सकता है।

लोग कहते हैं कि लक्ष्मी चंचला है, लेकिन हमको लगता है कि लक्ष्मी नदी है-- जब तक बहती रहती है, सब सुखी रहता है, चौरसिया जी से लेकर मंतरी जी तक, यानी बाजार से सरकार तक। तो आप भी इस नदी में हाथ धोइए औरो दीवाली पर घी के दीये जलाइए। हमरी शुभकामनाओं के संग-संग अब तो परधानमंतरियो जी का आशीर्वाद आपके साथ है!

Thursday, October 12, 2006

मच्छर ने किसको बनाया हिजड़ा

देश में आजकल दू तरह के जीवों का आतंक कायम है- एक तो आतंकवादी, दूसरा मच्छर। दोनों के आतंक से देश की हालत खराब है। हमको तो लगता है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। आप चाहें तो मच्छर को आतंकवादी कह दीजिए औरो आतंकवादी को मच्छर, काहे कि दोनों को मनमानी की पूरी छूट है औरो दोनों कहीं भी पहुंच सकते हैं- पुरानी दिल्ली की गलियों से लेकर परधान मंतरी निवास औरो संसद तक। औरो फिर दोनों किसी पर भी अटेक कर सकता है। जिस तरह डेंगू अपने घासीराम को हुआ, तो परधानमंतरी के नातियों को भी, उसी तरह आतंकियों से जेतना हम डरते हैं, ओतने परधानमंतरी।

'एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है' ई नाना पाटेकर का परसिद्ध डायलाग है। ऐसने आप भी एक ठो डायलाग बना सकते हैं-- 'एक आतंकवादी नेताओं को हिजड़ा बना देता है।' संसद पर हमला करवाने वाले अफजल को फांसी पर लटकाने में नेता लोग जैसन नौटंकी कर रहे हैं, ऊ यही तो दिखाता है। वैसे भी मच्छर औरो आतंकियों के बीच एतना समानता है कि हर बम बिस्फोटों की तरह डेंगू के लिए भी भारत सरकार पाकिस्तान औरो आईएसआई को दोषी ठहराकर अपना पल्ला झाड़ सकती है।

उस दिन अपनी प्रजाति पर गर्व करने वाला एक ठो मच्छर हमको मिला। उसने अपने औरो आतंकवादियों में जो समानता हमको बताई, उ हम आपको बताता हूं- -

दिल्ली पुलिस आतंकवादियों से डरती है, तो हमसे भी उनकी कंपकंपी छूटती है। आतंकवादियों के डर से बुलेट प्रूव जैकेट पहनने वाला जवान सब आजकल हमसे बचने के लिए मच्छर भगाने वाला क्रीम लगा रहा है। सच पूछिए, तो हम तालिबान जैसन आतंकियों का सबसे बड़का दोस्त साबित हो सकता हूं। कभियो तालिबान ने अफगानिस्तान में ड्रेस कोड लागू था, आजकल दिल्ली में हमने ड्रेस कोड लागू कर दिया है। बस ई समझ लीजिए कि मनचलों का हमने दिन खराब कर दिया है। का है कि दिल्ली की सुंदरियों का फंडा है- - कपड़े ऐसा पहनो, जो तन को ढंकने के बजाय उसको उघारे बेसी। लेकिन हमारे डर से आजकल इस फंडे से बालाओं ने तौबा कर ली है औरो पैर से सिर तक ढंककर निकलती हैं। कम कपड़ा पहनने वालियों के पास भी मनचले जा नहीं सकते, काहे कि वहां से मच्छर भगाने वाली क्रीम की बदबू आती है। अब आप समझ गए होंगे कि महीना भर से दिल्ली में एको ठो छेड़छाड़ की घटना काहे नहीं हुई है। ई मामला कुछ-कुछ वैसने है, जैसे आवारा भंवरा फूल तक तो पहुंचे, लेकिन उससे आ रही बदबू से ऊ बेदम हो जाए।

आश्चर्य की बात तो ई है कि अपने अस्तित्व को लेकर भी हम दोनों की सोच एके तरह की है। हम सोचता हूं कि जब तक एमसीडी औरो मेडिकल डिपाटमेंट में भरष्ट लोगों का बोलबाला है, हमारा कोयो कुछो नहीं बिगाड़ सकता, तो उधर आतंकवादियो सब निश्चिंत है कि जब तक भरष्टाचार, धरम औरो वोट का बोलबाला है, उनका कोयो कुछो नहीं बिगाड़ सकता। अब देखिए न, संसद पर हुए हमले में छह ठो जवान शहीद हो गए थे, लेकिन उनको का मिला? नेता सब को बचाने के चक्कर में ऊ बेचारे 'भूत' बन गए औरो हमला करवाने वाला अफजल हो गया 'हीरो'! हम तो कहते हैं कि ऊ लोग बुड़बक थे, इसलिए मर गए। अरे भइया, अगर आप भारत के सिपाही हैं, तो आपको पहिले ई तो पता कर ही लेना चाहिए न कि जिन आतंकवादियों के सामने आप छाती तानने जा रहे हैं, ऊ कश्मीरी औरो अल्पसंख्यक तो नहीं हैं। अगर ऐसा हो, तो संसद पर एटैक होने पर भी चुपचाप कोने में छिप जाइए, मरने दीजिए नेताओं को। आपका का जाएगा?

बहरहाल, हमको तो ई लगता है कि सरकार बेकारे आतंकवाद से लड़ने पर संसाधन लुटा रही है। हमरे खयाल से सरकार को बजाय आतंकवाद से सीधे लड़ने के, पहिले हम पर प्रयोग करना चाहिए। अगर ऊ हम पर कंटरोल कर लेती है, तो यकीन मानिए आतंकवादियों पर भी ऊ कंटरोल कर लेगी। अगर ऊ हम पर कंटरोल नहीं कर पाती, तो आतंकवाद पर कंटरोल करने की बात तो मुंगेरीलाल के हसीन सपनों जैसा है। अरे भइया, जब हम बिना धरम, जाति औरो वोट के हैं, तभियो सरकार से कंटरोल नहीं हो रहे, तो भला आतंकवादी कहां से कंटरोल होंगे, उनको तो इन सबका सहारा है!

Thursday, October 05, 2006

कैटरीना की स्कर्ट

लीजिए, खड़ा हो गया एक ठो औरो बवाल! कैटरीना स्कर्ट पहनकर अजमेर शरीफ दरगाह का गई, कट्टरपंथियों ने बवाल मचा दिया। कम कपड़े पर बवाल औरो उहो ऐसन देश में, जहां गरीबों को तन ढंकने के लिए पूरा कपड़ा तक नसीब नहीं होता, हमरी समझ से परे है। माना कि कैटरीना गरीब नहीं है, लेकिन देश में ऐसन करोड़ों गरीब महिला आपको मिल जाएंगी, जिनको टांग क्या, छाती ढंकने के लिए भी कपड़े नसीब नहीं होते। तो का दरगाह जाने का हक उनको नहीं है?

बताइए, ई दुनिया केतना अजीब है! गरीब गरीब बनकर अपने लिए दुआ भी नहीं कर सकता। आपको किसी दरगाह या इबादतखाना में जाना है, तो पहले भीख मांगकर पूरा तन ढंकिए, तब जाकर अपनी गरीबी दूर करने के लिए आप दुआ कर सकते हैं! बहुत बढि़या! गरीब को गरीबी से चिपकाकर रखने का इससे बढि़या फर्मूला धरम के ठेकेदारों को औरो कोयो मिलियो नहीं सकता। वैसे, एक ठो बात बताऊं, ई गरीबो सब न एकदम से बदमाश होते हैं। जबर्दस्ती हमेशा गरीबी से दूर भागने की कोशिश करते रहते हैं। अब जिस अमीरी को भोगने के लिए आप पैदा ही नहीं हुए हैं, उस चीज को पाने की कोशिशे काहे करते हैं? आप तो बस फटे-चिटे बुरके में दरगाह औरो इबादतगाहों में आते रहिए औरो मुश्किल से कमाई अपनी अठन्नी-चवन्नी दान पेटी में गिराते रहिए, ताकि धरम के ठेकेदार रईसी कर सकें औरो आपके लिए इबादतगाहों को महफूज रख सकें। तभिये न आप वहां आकर मत्था टेकेंगे औरो अपनी गरीबी दूर होने की आशा करेंगे।

वैसे, ई रिसर्च वाली बात है कि खुले देह में महिलाओं के इबादतगाहों में जाने से परॉबलम किसको है, भगवान औरो पीर को या फिर धरम के ठेकेदारों को? एक ठो मौलवी साहेब मिले, कहने लगे, 'महिलाओं का पूरा तन ढंककर रखना, धर्मशास्त्रों की शिक्षा है।' लेकिन ऊ ई नहीं बता पाए कि तन ढंका कैसे जाए! तन ढंकने के लिए कपड़ा चाहिए औरो कपड़ा आता पैसे से है। जब पैसा होगा ही नहीं, तो तन कहां से ढंका जाएगा? जब आप महिलाओं को पढ़ने-लिखने नहीं देंगे, उनको बाहर की दुनिया देखने नहीं देंगे, नौकरी-चाकरी नहीं करने देंगे, तो पैसा आएगा कहां से? ऊपर से तुर्रा ई कि आप फैमिली पलानिंग भी नहीं कराने देते हैं। घर का अकेला मर्द दर्जन के हिसाब से बच्चा तो पैदा कर सकता है, लेकिन सबका तन नहीं ढंक सकता। औरो जब बच्चे उघाड़ देह घूमेंगे, तो मांएं अपने तन पर कपडे़ कहां से लाएंगी?

सो, जब आप महिलाओं को एतने सारे बंधनों में बांधकर रखते हैं, तो फिर पीर-फकीर या भगवान के पास कम कपड़ों में जाने से उनको काहे रोकते हैं? रोकना ही है, तो अपने मन को रोकिए। श्रद्धालुओं औरो भक्तों के पैसों से खुद स्वर्ग का सुख भोगने के बजाए, अगर आपने दरगाह के बाहर ऐसी महिलाओं के लिए बुर्के की मुफ्त व्यवस्था की होती, जिनके पास कपड़े नहीं हैं या कम हैं, तो कैटरीनो आपसे मांगा हुआ बुर्का पहनकर चादर चढ़ाने जाती। फिर न आप दुखी हुए होते औरो नहिए आपका धरमशास्त्र। वैसे, महिलाओं को एतने सारे बंधनों में बांधकर रखना आपकी मजबूरियो है। का है कि आप कभियो उदार हो नहीं सकते औरो बिना बंधनों के आप महिलाओं को कैटरीना बनने से रोक भी नहीं सकते।

बहरहाल, अपना सिर धुनने और चिढ़ने से बचने के लिए आपका रचा बंधनों का यह संसार आपके लिए कारगर तो है, लेकिन का आपको ई पता है कि ईरानी मूल की एक मुस्लिम महिला महज हवाखोरी के लिए अंतरिक्ष गई थी?

Friday, September 29, 2006

बहुते पछताया रावण

हर साल हो रही अपनी बेइज्जती से इन दिनों रावण बहुते परेशान है। दशहरा और रावण दहन जैसे आयोजनों की दिनोंदिन बढ़ती भीड़ ने उसको कुछ बेसिए परेशान कर दिया है। उसके समझ में ई नहीं आ रहा कि जिस दुनिया के गली-मोहल्ला में रावणों की भरमार है, ऊ त्रेता युग के रावण को अब तक काहे जला रहा है। उसका कहना है कि जलाना ही है, तो यहां सदेह मौजूद कुछ रावणों में से एक-दू ठो को जला दें। इससे कुछ रावणो कम हो जाएगा औरो रावण दहन का कार्यक्रमो सार्थक हो जाएगा।

खैर, रावण ने फैसला किया कि दिल्ली भरमण कर ऊ अपनी दुर्दशा अपनी आंखों से देखेगा। कुंभकरण, मेघनाद को साथ लेकर रावण निकल पड़ा दिल्ली भरमण पर। दिल्ली घुसते ही उसे दिल्ली की अट्टालिकाएं दिखीं। रावण ने कहा, 'देखो जरा इन्हें, हमने तो वरदान में सोने की लंका पाई थी, लेकिन इनमें से बेसी रक्तपान के बाद बनी महलें हैं। ईमानदारी से कमाकर तो कोइयो बस अपना पेट ही भर सकता है, अट्टालिकाएं खड़ी नहीं कर सकता। क्या हमारी लंका से ज्यादा अनाचार नहीं है यहां? अगर ये सदाचारी होते, फिर तो दिल्ली झोपडि़यों की बस्ती होती। ये हमसे खुशकिस्मत हैं कि इन्हें मारने वाला कोई राम नहीं मिल रहा है। वरना इनकी दशा भी हमारी तरह ही होती।'

'लेकिन फिर इतने अनाचारी-दुराचारी होने के बाद भी हर साल वे हमें क्यों जलाते हैं?' मेघनाथ ने आश्चर्यचकित हो रावण से सवाल किया।

रावण ने गुरु गंभीर वाणी में कहा, 'बेटा, यह कलियुगी फिलासफी है। हर कोई समस्या के लिए दूसरों को ही दोषी ठहराता है।'

रावण आकाश मार्ग में कुछो औरो आगे आया। उसको गोल आकृति वाली एक ठो भव्य इमारत दिखी। रावण ने कहा, 'यह यहां की संसद है, अपनी राजसभा जैसी। यहां तुम्हें ढेरों विभीषण मिलेंगे। अपना विभीषण तो राम की पार्टी में मिल गया, लेकिन यहां का विभीषण 'डबल क्रॉस' करता है औरो हर सरकार में मंत्री पद पा जाता है, चाहे सत्ता एनडीए की हो या यूपीए की। इन्हें देखकर तो हमको पछतावा होता है कि बेकार हमने विभीषण को लात मारकर भगा दिया था। ऊ तो इनसे ज्यादा स्वामीभक्त औरो ईमानदार था।'

हम तो राक्षस थे। अनाचार अपना धरम था लेकिन यहां के लोग सब तो नेता बनते ही अनाचार के लिए हैं। ऊ पैसा लेकर प्रश्न पूछते हैं औरो संसद निधि का पैसा डकार जाते हैं। हिंसक प्रवृत्ति के ऊ इतने हैं कि संसदो में कुश्ती करने से बाज नहीं आते।

रावण तनि ठो औरो आगे बढ़ा। एक मैडम अपने चम्मचों के साथ रावण का एक विशाल पुतला जला रही थीं। रावण ने कुंभकरण से कहा, 'वत्स, इनकी पार्टी और सहयोगी पार्टियों में तुम्हारे जैसे बत्तीसों कुंभकरण हैं जो आदमी से लेकर सड़क तक खा जाते हैं औरो डकार भी नहीं मारते। तुम्हारे डकार से तो दुनिया हिलती थी औरो लोग समझ जाते थे कि तुमने ढेर सारे प्राणियों को खाकर अनाचार किया है। औरो ऊ देखो बूढ़े बाबा को, जब तक सत्ता में थे कुछ रावण औरो कुंभकरण उनके भी सहयोगी थे, लेकिन मुखौटे का कमाल देखो कि तब उन पर कार्रवाई करने में उनका हाथ कंपकंपाता था, लेकिन हमरे पुतले को जलाने में उनके हाथ पूरे सधे हुए हैं। अब तुम्हीं बताओ हमें जलाकर ये क्या पाएंगे?' मेघनाथ ने उसे साजिस बताया, 'हमें जलाकर ई लोग हमरी आड़ में अपनी जनता को आसानी से उल्लू बना लेते हैं।'

रावण ने कहा, 'जनता खुदे उल्लू बनती है, तभिये तो हर साल हमें जलाने की इन्हें जरूरत पड़ती है। जलाना ही है तो कुछ जिन्दा रावणों को जलाएं। दू-चार साल में हमको जलाने की जरूरते नहीं पड़ेगा।'

Wednesday, September 27, 2006

विवादों की बरसी

इसे आप विवादों की बरसी कह सकते हैं। जी हां, अगर साल दर साल ऑस्कर में भारतीय फिल्मों को भेजने के मौके पर इसी तरह से विवाद खड़ा हो रहा है, तो इसे बरसी कहना जरा भी गलत नहीं है। दरअसल, ऑस्कर में भारतीय फिल्म को भेजे जाने के मुद्दे पर एक बार फिर से विवाद खड़ा हो गया है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' की यूनिवर्सल अपील के दीवानों को 'रंग दे बसंती' को ऑस्कर के लिए भेजना जरा भी गले नहीं उतर रहा। तो क्या अवॉर्ड और नॉमिनेशन जैसे मुद्दे विवादित होने के लिए ही होते हैं या फिर 'रंग दे बसंती' वाकई 'लगे रहो मुन्नाभाई' के सामने बौनी है?

दरअसल, यह बेजा विवाद भी नहीं है। कहीं तो कुछ गड़बड़ है। पिछले साल को ही लें। तमाम फिल्म समारोहों में 'ब्लैक' ही छाई रही, लेकिन ऑस्कर के लिए भेजा गया 'पहेली' को, जबकि 'ब्लैक' की शानदार मेकिंग और बहुतायत में इंग्लिश के डायलॉग ऑस्कर के जजों को जल्दी समझ में आने वाली चीजें थीं। फिर यह दो घंटे की ही फिल्म थी और इसमें गाने भी नहीं थे, जो ऑस्कर के पैमाने के बिल्कुल मुफीद थी। बावजूद इसके, 'पहेली' को ऑस्कर में भेजने के पीछे तर्क यह था कि इसमें भारतीयता है, यह भारतीय समाज का चित्रण है और ऑस्कर में एंट्री के लिए यह होना जरूरी है। अब हम अगर इसी तर्क की कसौटी पर 'रंग दे बसंती' को कसें, तो ऑस्कर के लिए उसे चुनने पर सवालिया निशान लग ही जाता है।

फिल्म की प्रकृति की बात करें, तो दोनों ही फिल्में एक जैसी हैं। एक भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं की लड़ाई है, तो दूसरा गांधीवादी विचारधारा पर चलने की एक युवा की पहल। लेकिन अगर यूनिवर्सल अपील की बात करें, तो निस्संदेह मुन्नाभाई की गांधीगिरी डीजे के बसंती रंग पर भारी पड़ती है। भारतीय फिल्मों के प्लॉट को समझ से बाहर बताने वाले ऑस्कर के जजों के लिए गांधी व गांधीवाद कोई अनजाना प्लॉट नहीं होता और यह चीज ऑस्कर जीतने में हमें मदद कर सकती थी।

अव्वल तो यह कि ऑस्कर का आकर्षण ही हमारे लिए फिजूल की चीज है। इस बात से शायद ही कोई सहमत हो कि भारतीय फिल्मों को विश्व स्तर पर बेहतरीन फिल्म का दर्जा पाने के लिए ऑस्कर जैसे किसी मोहर की जरूरत भी है। फिर इस मरीचिका के पीछे भागने से पहले हमें इस हकीकत को भी स्वीकार करना होगा कि ऑस्कर अवॉर्ड पाने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है, उन्हें पूरा करने के बाद वह भारतीय फिल्म रह ही नहीं जाएगी। और जब वह भारतीय फिल्म रह ही नहीं जाएगी, तो फिर ऑस्कर पाने की जिद क्यों? अगर भारतीय स्टाइल में बनी फिल्म को ऑस्कर नहीं मिलता, तो हमारे लिए वह बेकार की चीज ही तो है। अपनी हुनर पर हम तभी इतराएं न, जब ऑरिजिनल फॉर्म में उसे स्वीकार किया जाए। अगर हम किसी अवॉर्ड को पाने के लिए अपना मूल स्वरूप ही खो दें, तो वह अवॉर्ड किस काम का?

Thursday, September 21, 2006

मलाइका बाई का नाच

उस दिन हम कहीं जा रहे थे, पीछे से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी--कहां जा रयेला है मामू? हम सन्न थे। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार परोफेसर साहेब टपोरी बोली पर कैसे उतर आए? इससे पहिले कि हम कुछो बोलते, परोफेसर साहेब सफाई देने लगे-- हैरान काहे होते हो? सब समय की माया है, ऊ किसी भी चीज की जनम कुंडली बदल सकता है। इसीलिए हम कहता हूं कि कभियो किसी को मरल-गुजरल मत समझिए। आज जो पिद्दी है, संभव है कि कल ऊ पहलवान बन जाए। आज आप जिस चीज से घृणा कर रहे हैं, संभव है कल उसी को आप माथे पर उठाए फिरें। तभिये तो कभियो असभ्य लोगों की बोली समझी जाने वाली टपोरी को आज इंटलेकचुअल लोग भी बोलने में शरम महसूस नहीं करते।

समय कैसन-कैसन बदलाव लाता है, ऊ हम तुमको बताता हूं। एक जमाने में पैसा लेकर परब-त्योहार में नाचने-गाने वाले खाली नचनिया होते थे, लेकिन आज लोग उनको सेलिब्रिटी मानते हैं। उनकी झलक भर देखने को लोग बेचैन रहते हैं। मलाइका अरोड़ा पैसा लेकर आपकी जनम दिन की पार्टी में नाच सकती हैं औरो आप गर्व से सीना तान कह सकते हैं कि मलाइका ने आपके जनम दिन पर 'परफॉर्म' किया। आज से १५-२० साल पहले ऐसन होता, तो आप कहते-- हमरे जनम दिन पर मलाइका बाई का नाच है। जरूर देखने आना। जमाना का बदला कि हम वाक्य तक बदल देते हैं, गालियो तब आशीरवाद लगने लगता है! मामला 'अपमार्केट' हो, तो मलाइका को हम मलाइका बाई कैसे कह सकते हैं भाई!

ऐसने देखिए कि जब तक समाजसेवा में ग्लैमर नहीं आया था, एनजीओ को कोयो पूछबे नहीं करता था। समाजसेवियों को तब सिरफिरा दिमाग वाला माना जाता था--एकदम अर्द्धपागल आदमी। ऐसन आदमी, जो भीख मांगकर लोगों की भलाई करना चाहता है या जो समाजसेवा में भिखमंगा बनना चाहता है। लेकिन जैसने पैसा वाला औरो उनकी गलैमरस बीवियां समाजसेवी का चोला पहनने लगे, एनजीओ शान की 'दुकानदारी' हो गई। इसमें अब आप अवार्ड, शान औरो शोहरत खरीद-बेच सकते हैं औरो हां, इज्जत भी। हालत ई है कि मठ से बेसी अब जोगी हो गया है। ऐसन में समाजसेवा की 'भूख' मिटाने के लिए कोयो कौआ हांकने को मुद्दा बनाता है, तो कोयो पूरे परदेश को अवैध संबंधों के जाल में फंसा दिखा देता है। समाजसेवा के फैशनेबल बनने का जलवा ऐसन देखिए कि गलैमरस हीरोइनो सब अब भूखे-नंगे लोगों के बीच बैठकर फोटुआ खिंचाने में शरमाती नहीं औरो उनको 'प्रेरित' करने के लिए 'कॉन्सेशन रेट' पर एनजीओ को उपलब्ध हो जाती हैं।

कुछ ऐसने हाल अब पतरकारिता का हो गया है। कभियो पतरकारिता का पेशा समाज के 'मरे' हुए लोगों के लिए रिजर्व हो गया था। तब कंधे पर झोला लटकाए चप्पल चटकाते खद्दरधारी को देखते ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे। बेचारे समाज के पहरूओं को ब्याह करने के लिए ढंग की लड़की तक नसीब नहीं होती थी। लेकिन आज इसमें पैसा औरो गलैमर सब कुछ है। समाज की ऐसन सभी लड़कियां, जो अपने को सुंदर मानती हैं, लेकिन हीरोइन नहीं बन पाती हैं, माइक थामे किलो के भाव चैनलों में पहुंच जाती हैं। समय है, 'सोलह दूनी आठ' जानने के बावजूद इन इंस्टेंट पतरकारों की जय-जयकार हो रही है!

तो भइया, निष्कर्ष ई है कि आप जैसन हैं, उसी में मस्त रहिए। अपनी भाषा, रीति-रिवाज औरो संस्कृति को कभियो कमतर मत समझिए। बोले तो बिंदास बोलने का, बिंदास रहने का।

Thursday, September 14, 2006

हिंदी का नक्कारखाना

आज हिंदी दिवस था। ऐसन में हिंदी को 'याद' करने के लिए हर बरिस की तरह इस बार भी जलसे का आयोजन हुआ। ऊंची मंच पर हिंदी के सभी 'तारणहार' गर्दन टाने औरो छाती फुलाए विराजमान थे। अध्यक्ष महोदय की कुर्सी स्वाभाविक रूप से एक ठो नाम वाले सिंह जी के लिए समर्पित थी। उनके आते ही कार्यवाही शुरू हुई।

हाव-भाव से चम्मच कवि लग रहे एक सज्जन ने आकर सुर में कुछ गाना शुरू किया। सबने सोचा गणेश या सरस्वती वंदना गा रहा होगा, लेकिन उसके हृदय की बीसियों फुट गहराइयों से निकले स्वर बस अध्यक्ष जी के गुणगान के लिए थे। भाव यह था कि अध्यक्ष जी हैं, इसीलिए हिंदी है। ऊ इहो भूल गए कि कार्यक्रम हिंदी दिवस पर है, न कि अध्यक्ष जी के जनम दिवस या फिर उनके हजारवें चंद दरशन पर। खैर, जब गिनती के अध्यक्ष-विरोधियों ने हंगामा शुरू किया, तो गुणगान रोक वह मंच से नीचे उतर आए।

अब बारी थी, साउथ से पधारे कवि बालकृष्णन की। वह शुरू हुए-- हिंदी बहुत अच्छा भाषा है और हम चाहते है कि यह भारत भर का भाषा बने...। अभी ऊ अपना लाइन पूरा भी नहीं कर पाए थे कि लगे लोग हंसने और फब्तियां कसने- किसने बुला लिया इसे..., हिंदी की रेड़ मार रहा है...। बेचारे अधपके आम की तरह मुंह लटकाए अपनी कुर्सी से लटक गए।

अभी बालकृष्णन बाबू फिर कभियो हिंदी नहीं बोलने का कसम ले ही रहे थे कि श्रृंगार रस के कवि औरो कथाकार मिसिर जी को मंच से आमंत्रण मिला। आगे जो ऊ तूफान खड़ा करने जा रहे थे, उसको भांप उन्होंने अपनी धोती को बढि़या से बांधा, सारे गिरह दुबारा- तिबारा चेक किए औरो फिर मंच पर शहीदी भाव लिए जा पहुंचे। माइक कसकर थामे ऊ बोलने लगे- - हिंदी का बंटाधार हिंदी के मठाधीशों ने ही किया है, उसके स्वयंभू ठेकेदारों ने ही किया है। साल भर इसका हाल कोयो नहीं पूछता, लेकिन इस 'बरसी' का इंतजार हर कोयो करता है। हिंदी की स्थिति भारतीय हाकी टीम की तरह है। वहां हाकी के उत्थान की ठेकेदारी गिल साहेब की मूंछों के भरोसे है, तो यहां बड़े-बड़े नामवर लोग 'इज्म' के भरोसे इसका 'कल्याण' कर रहे हैं। हाकी का 'उत्थान' तो विश्व कप में आप देख ही रहे हैं औरो हिंदी...। मिसिर जी परोक्ष रूप से अपनी अलंकारिक भाषा में श्रोताओं को जो समझाने की कोशिश कर रहे थे, ऊ अब तक मठाधीशों के चेलबा सब के समझ में आ चुका था। आका पर शाब्दिक हमला होता देख, चेलबा सब ने मिसिर जी पर दैहिक हमला बोला। किसी ने उनकी धोती खोल दी, तो किसी ने चोटी, लेकिन मिसिर जी निश्चिंत थे। आखिर उन्होंने सारे गिरह इसी आघात की आशंका में तो कसे थे! हमलों में बीच जारी रहे-- हम आरोप लगाते हैं कि हिंदी का पाठके नहीं है, लेकिन हम पाठकों को देते का हैं? जनवादिता के नाम पर अपनी मानसिक कुंठा औरो चेलाही के नाम पर एक ही 'इज्म' से प्रेरित कहानी-कविता। अगर साहित्य का मतलब गरीबी का चित्रण औरो किसी जाति औरो धर्म के विरुद्ध भड़ास निकालना ही है, तो लोग साहित्य पढ़ेगा काहे?

बालकृष्णन बाबू की हिंदी पर आप लोग हंस रहे हैं। लेकिन ऐसने हंसते रहिएगा, तो भैया काहे कोयो हिंदी बोलेगा? किसने हिंदी बोलने की ठेकेदारी ली है? ऊ तमिल बोलेगा, तेलुगु बोलेगा, कन्नड़ बोलेगा, बहुत परेशान कीजिएगा, तो इंग्लिश बोलेगा औरो आपकी बोलती बंद कर देगा। अरे, हिंदी का भाव बढ़ाना है, तो हिंदी की ठेकेदारी खतम कीजिए..., हिंदी बोलने की कोशिश करने वालों का स्वागत कीजिए...। इंग्लिश से प्रेरणा लीजिए, दुनिया भर में बत्तीस तरह से इंग्लिश बोला जाता है, लेकिन ऊ इंग्लिश ही है, कोयो किसी पर हंसता नहीं...।

अब तक मिसिर जी को मंच पर से घसीट लिया गया था। एक चम्मच खड़ा हुआ, सभी मठाधीशों से मिसिर जी की गुस्ताखी के लिए माफी मांगी औरो फिर सर्वसम्मति से फैसला किया गया कि मिसिर जी को कहीं छपने नहीं दिया जाएगा। आज से इनका हुक्का-पानी बंद। तब तो ऊ जलसा खतम हो गया था, लेकिन अभियो आपको हजारो मिसिर जी हिंदी के नक्कारखाने में 'किकयाते' मिल जाएंगे। संभव है, उनमें से एक आप भी हों।

Friday, September 08, 2006

सब्र का फल कड़वा होता है

कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है, लेकिन हमको लगता है कि अब इस कहावत में बदलाव की जरूरत है। का है कि सब्र का फल मीठा होबे करेगा, आज के समय में इसकी कोयो गारंटी नहीं ले सकता।

अब देखिए न अपने बंगाल टाइगर को। टीम में सलेक्ट होने के इंतजार में बेचारे टाइगर महाराज बूढ़े हुए जा रहे हैं, लेकिन न तो ग्रेट चप्पल को ऊ पहन पा रहे हैं औरो नहिए मोरे का किरण कहीं उनको दिख रहा है। न उनको विदा होने के लिए कहा जाता है औरो न ही रखा जाता है। ऊ तो बस आश्वासन पर जिंदा हैं, जो कभियो चयन समिति से मिलता है, तो कभियो किरकेट बोर्ड से। हमको तो लगता है कि पैड-ग्लब्स पहनकर सिलेक्शन के दिन बुलावे का इंतजार करते-करते गंगुल्ली महाराज जब सो जाते होंगे, तो सपने में भी उनको सब्र से डर लगता होगा।

हालांकि ई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि निकम्मा के नाम पर खिलाडि़यों को टीम से बाहर एतना इंतजार कराने वाला किरकेट बोर्ड गुरु गरेग को एतना सब्र के साथ कैसे ढो रहा है! बोर्ड को लगता है कि सब्र से काम लीजिए, गरेग हमको विश्व कप जिताएंगे। जबकि विश्व कप के लिए युवा टीम तैयार कराने के नाम पर ऊ जिस तरह से खिलाडि़यों को अंदर-बाहर कर रहे हैं, उससे तो हमको नहीं लगता कि कभियो भारत की 'टीम' बनियो पाएगी? जिस तरह से ऊ महाशय काम कर रहे हैं, उससे तो लगता है कि जब तक 'ढंग' की भारतीय टीम बनेगी, तब तक सब 'योग्य' खिलाड़ी एक-एक कर बूढ़े हो जाएंगे। अब देखिए न, गंग्गुली को बाहर बिठाकर गरेग 'युवा टीम' बना रहे हैं, लेकिन साल बीत गया अभी तक ऊ एको ठो युवा तीसमार खां नहीं ढूंढ पाए। ऐसने चलता रहा, तो चप्पल बनाते रहें विश्व विजेता टीम और मिलता रहा भारतीय किरकेट को सब्र का मीठा फल!

सही बताऊं, तो गंग्गुली जी की याद हमको इसलिए आई है, काहे कि आजकल हमारा औरो उनका दर्द एके जैसा है। उनका दर्द दिल्लीवाले से बेहतर कोयो नहीं जान सकता। सब्र का फल केतना कड़वा होता है, ई कोयो हमसे पूछे। तोड़फोड़ को लेकर पिछले साल भर से हमरी हालत खराब है। रात की नींद औरो दिन की चैन छिन गई है। अरे भइया, अतिक्रमण रखना है, तो रखो औरो तोड़ना है, तो तोड़ दो। हमको गंग्गुली काहे बनाए हुए हो?

हमरे नेता लोग हैं, रोज आकर कहेंगे- बस कुछ दिन औरो सब्र कीजिए, सब ठीक-ठाक हो जाएगा। उनका भरोसा दिलाने का अंदाज कुछ ऐसन होता है कि आपको लगेगा, जैसे अगर आप संसदो भवन पर अतिक्रमण कर लेंगे, तो ऊ कानून बनाकर उसको लीगल कर देंगे, लेकिन होता कुछो नहीं। साल भर सब्र करने का परिणाम ई है कि पूरी दिल्ली एक बेर फिर सील हो रही है।

हमको तो लगता है कि जैसे हम बस सब्र करने के लिए ही अभिशप्त हैं। घर से बाहर तक सब्र, सब्र और बस सब्र...। घर में जगह पर कुछ भी मिल नहीं रहा, इसके लिए गुस्सा करो तो सब्र करने की सीख मिलेगी। ऑफिस जाने के लिए रोड पर निकलो, तो आगे वाला सीख देगा- सब्र कर यार, अभी साइड देता हूं। उसे का पता कि लेट पहुंचने पर ऑफिस में बॉस कैसे ऐसी-तैसी करेगा? ऑफिस पहुंचो, तो वहां का आलम गीता मय होता है- काम किए जा, फल की चिंता मत कर। सब्र कर। भगवान चाहेंगे, तो तुम्हारी भी सैलरी बढ़ेगी, पोस्ट बढ़ेगा। अब एतना सब्र कर-कर के तो हम भी गंग्गुली जैसे बूढ़ा हो जाऊंगा औरो जब बूढ़ा हो जाऊंगा, तो आप ही कहिए सब्र करके ही का करूंगा?

Monday, September 04, 2006

भंवर में गुरुजी

हर साल ५ सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन तमाम अन्य 'दिवसों' की तरह लगता है यह भी बस रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है। वजह, कहते हैं कि न तो अब 'वैसे' गुरु इस दुनिया में रहे और न ही 'वैसे' चेले। बदल जाने का आरोप गुरु और चेले दोनों पर है, लेकिन दोनों ही इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। सवाल है कि असलियत क्या है?

दरअसल, पूरे परिदृश्य को देखें, तो लगता है जैसे गुरु को इसके लिए जितना गुनहगार माना जाता है, उतना वे हैं नहीं। गुरु अगर आज 'टीचर' बन गए हैं, तो इसके पीछे कई वजहें हैं और बिना उन वजहों की पड़ताल के उन्हें गुनहगार ठहराना जायज नहीं। हम गौर करें, तो पाएंगे कि टीचर का यह बाना गुरुओं ने मजबूरी में भी धारण किया है! और इसके लिए उन्हें जिन चीजों ने सबसे ज्यादा मजबूर किया है, वे हैं- आज का विकट भौतिकवाद, अनुशासन की छड़ी को रोकती कानून की तलवार, निरीह मानव की बनती उनकी छवि और खुद बच्चों के पैरंट्स का खराब रवैया।

बेशक 'टीचर युग' की शुरुआत से पहले कम पैसा पाने के बावजूद लोग गुरुजी बनना चाहते थे। तब शिक्षक के पेशे को अपनाने के लिए जो चीज लोगों को सबसे ज्यादा प्रेरित करती थी, वह थी इस पेशे को मिलने वाला अथाह सम्मान और चेलों के कुछ बन जाने पर मिलने वाली बड़ी आत्मसंतुष्टि। वजह और भी कई थीं- - तब अपने यहां इतना भौतिकवाद नहीं था, दुनिया की सभी चीजें हम अपने घर में इकट्ठी नहीं कर लेना चाहते थे। तब पैसा व पावर ही दुनिया में सम्मान नहीं दिलाते थे, लोग पेशे की पवित्रता को देखते थे और इसीलिए प्रधानमंत्री व करोड़पति भी शिक्षक के सामने नतमस्तक रहते थे। उनके पास पैसा व पावर नहीं था फिर भी वे आज की तरह 'निरीह प्राणी' नहीं समझे जाते थे। जाहिर है, अगर सामाजिक सम्मान पाने के लिए आपके पास धन का होना अनिवार्य हो, तो आप हर हाल में बस पैसा कमाना चाहेंगे और सच मानिए इसी 'जरूरत' ने 'गुरु' को 'टीचर' बना दिया।

लोग कहते हैं, शिक्षक अब अपने कर्त्तव्य को लेकर उदासीन हो गए हैं। वाकई में ऐसा हुआ है, जानते हैं क्यों? वह इसलिए क्योंकि वे आज दुधारी तलवार पर चल रहे हैं। कोई भी साइड सेफ नहीं। पैरंट्स को अच्छे बच्चे भी चाहिए, लेकिन उसके लिए गुरुजी की छड़ी नहीं चाहिए। बच्चे बिना अनुशासित हुए पढ़ नहीं सकते और बच्चों में अनुशासन बिना डांट-डपट और छड़ी के भय से आ नहीं सकता। अब इस विकट स्थिति में गुरुजी क्या करें? उदासीन होना उनकी मजबूरी है। वे तो बस किसी तरह नौकरी का एक-एक दिन काट लेना चाहते हैं।

अनुशासनहीनता का आलम यह है कि नेता बनने के लिए शिष्य गुरुओं की छाती की हड्डी तोड़ देते हैं, उन्हें मौत के मुंह में पहुंचा देते हैं और वह भी महाकालेश्वर की उस नगरी में जहां गुरु-शिष्य परंपरा ने सदियां गुजारी हैं। आखिर जब चेले इतने अनुशासनहीन हों और कानून व पैरंट्स के भय से आप उन्हें डांट भी नहीं सकें, तो कोई भी गुरु क्या कर सकता है? वह अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन ही हो सकता है और इसीलिए हो रहा है। उदासीनता की एक बड़ी वजह, उन्हें मिलने वाला पैसा भी है। सरकारी कर्मचारियों में सबसे कम पैसा उन्हें ही मिलता है, तनख्वाह के मामले में वह बस चपरासी से ऊपर है और क्लर्क के बराबर। लेकिन क्लर्कों की ऊपरी आमदनी उनकी तनख्वाह से कई गुना ज्यादा होती है। सरकारी स्कूलों का मामला तो तब भी ठीक है, लेकिन प्राइवेट टीचर तो बस रामभरोसे हैं। उनसे दस्तखत करवाया जाता है १० हजार रुपये पगार के पेपर पर, तो मिलते हैं महज चार हजार। सरकार के यहां कोई ऐसा कानून नहीं, जो शिक्षा माफियाओं से उन्हें रहम दिला सके। जाहिर है, 'मजबूर' और 'लाचार' उन्हें इसी समाज और व्यवस्था ने बनाया है। और अपनी इसी छवि या स्थिति से निकलने के लिए 'गुरुजी' अब 'टीचर' बन गए हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन हो गए हैं। लेकिन उनकी यह उदासीनता हमारे लिए ठीक नहीं, क्योंकि नौनिहालों को जिम्मेदार नागरिक बस वहीं बना सकते हैं।

तो क्या टीचर फिर से गुरु बन सकता है? शायद नहीं, क्योंकि माया और राम में से हम एक ही पा सकते हैं और आज के समय में माया के सामने राम कहीं नहीं ठहरते!

Thursday, August 31, 2006

ठेके पर पूरी दुनिया

जब हम स्कूल का सबक सही से नहीं निबटाते थे, तो हमरे गुरुजी कहते थे कि बचवा अपना काम ठेके पर निबटा के आया है। आज जब हम दुनिया के ई हालत देख रहा हूं, तो हमरे समझ में आने लगा है कि ठेका से उनका मतलब का होता था!

आप कहेंगे कि ई हम अचानके 'ठेका राग' काहे अलापने लगा हूं? तो बात ई है कि ठेका की दो ठो बड़की खबर हमरी नींद उड़ा रही है- पहली खबर है कि दिल्ली में डिमॉलिशन ठेका पर होगा औरो दूसरी खबर है कि अब बिहार में गुरु जी ठेके पर नियुक्त होंगे। यानी एक जगह लोगों का घर-द्वार ठेके के भरोसे है, तो दूसरी जगह देश का भविष्य। लेकिन ठेके का जो परिणाम दुनिया भर में हम देख रहा हूं, उससे तो हमरी हालत खराब हो रही है।

दुनिया के अमन-चैन की स्वघोषित ठेकेदारी अमेरिका के पास है। परिणाम देखिए कि पूरा विश्व अशांत है। हालत ई है कि कोतवाली करते-करते कोतवाल सनकी हो गया है। कहियो यहां बम फोड़ने की पलानिंग करता है, तो कहियो वहां। स्थिति उसकी खराब है औरो परेशान बेचारा एशियाई दिखने वाला लोग हो रहा है। सोचिए, अगर अमन-चैन की ठेकेदारी उसके पास नहीं होती, तो विश्व कितना अमन-चैन से रहता।

अमन-चैन से तो बीजेपी के नेता भी रहते, लेकिन दिक्कत ई है कि बीजेपी की ठेकेदारी संघ के पास है। परिणाम देखिए कि बीजेपी की सत्ता पूरे देश से जा रही है, तो लालकृष्ण आडवाणी जैसन नेता कुर्सी से।
दिल्ली में अवैध निरमाण को तोड़ने की ठेकेदारी पराइवेट हाथों में है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव खूबसूरती के ठेके पर है। हर फील्ड में इस विश्वविद्यालय के पढ़ल- लिखल धुरंधरों ने नाम कमाया है, चाहे ऊ नेतागिरी का खेल हो या फिर खेल का नेतागिरी। लेकिन अब आलम ई है कि यहां नेतागिरी खूबसूरती को ठेके पर दे दी गई है। अगर आपका (कृपया लड़की पढें) चेहरा हीरोइन जैसा है, तो छात्र संघ चुनाव लड़ने का टिकट पक्का। अब ई तो गहन जांच-पड़ताल करने वाली बात है कि नेता की खूबसूरती से कैंपस का सब परॉबलम कैसे दूर हो जाता है! हम तो कहते हैं कि अगर ई नुस्खा एतने कारगर है, तो देश की परधानमंतरी औरो राष्ट्रपतियो की कुर्सी खूबसूरती को ठेके पर दे देना चाहिए। का पता ऐश्वर्या भारत की सब समस्या चुटकी बजाते हल कर ले?

वैसे, ठेके से सबसे बुरी स्थिति तो खुदे भारत सरकार की है। सरकार कोयो निरणये नहीं ले पाती है या फिर ऐसन कहिए कि उसको ऐसा करने ही नहीं दिया जाता है। ऐसन तो ठेके व्यवस्था में संभव है न कि सरकार से बाहर का व्यक्ति सरकारी निरणय को प्रभावित करे। अब देखिए न, हर चीज को हैंडल दस जनपथे न करता है-- चाहे ऊ डीजल-पेटरोल की कीमत कम करने का मामला हो या फिर 'सूचना के अधिकार' कानून में परिवर्तन का। अब हमरे समझ में ई नहीं आ रहा कि मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने सरकार चलाने के लिए ठेका पर रखा है या फिर सोनिया जी के पास खुदे सरकार चलाने का ठेका है!

ठेके पर सरकार चलने का परिणाम ई है कि आजकल देश की सब समस्या कोर्ट हल कर रही है। फिर चाहे बात शहर की नालियों को साफ करवाने की हो या दिल्ली में अवैध निरमाण पर रोक लगवाने की। न, ई हम कहियो नहीं कहेंगे कि देश चलाने का काम कोर्ट को ठेके पर दे दिया गया है, काहे कि उसका काम एकदम टंच होता है।

चिंता तो हमको इस बात का है कि बिहार में चार हजार रुपैया पर ठेकाके गुरुजी सब अगर चेलबा सब को दो जोड़ दो चार पढ़ाने के बजाय पांच पढ़ाएंगे, तो उनका कोयो का बिगाड़ लेगा? ठेका का काम आखिर ठेके जैसे न होता है!

Thursday, August 24, 2006

शिक्षा मतलब चुनावी घुट्टी

अपने देश में एक ठो बड़की सरकारी संस्थान है, नाम है उसका एनसीईआरटी। वैसे तो इसका काम बच्चों को शिक्षा का घुट्टी पिलाना है, लेकिन असल में सरकार इसका उपयोग चुनावी घुट्टी पिलाने के लिए करती है। यानी एनसीईआरटी का यही मतलब है...नैशनल काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल (एजुकेशन नहीं) रिसर्च एंड टरेनिंग। तभिये न सरकार इसका उपयोग बच्चा सब के भविष्य सुधारने के बदले उसका ब्रेन वॉश करने में करती है।

इसकी चुनावी उपयोगिता देखिए कि सरकार बदलते ही अध्यक्ष से लेकर इसका सिलेबस तक बदल जाता है, इसमें राम-रहीम की परिभाषा बदल जाती है। एक सरकार के दौरान इसकी किताब में जिस महापुरुष को बड़का देशभक्त औरो सेक्युलर बताया जाता है, दूसरी सरकार के आते ही ऊ महापुरुष आतंकवादी औरो कम्युनल हो जाता है। इसकी किताबों पर रंग भी चढ़ता है - बीजेपी की सरकार में भगवा औरो कांगरेसी सरकार में लाल। अब ई तो रिसर्च वाली बात है कि कांगरेस में बुद्धिजीवी काहे नहीं पैदा होता है कि उसको लाल झंडे वालों से बुद्धि उधार लेनी पड़ती है।

खैर कुछ हो, इसकी किताबों का रंग बदलने से हमरे यहां ऐसन जेनरेशन पैदा हो रही है, जो पूरी तरह कन्फूज है। अभी एक ठो इस्कूल में गए थे। एक ठो बच्चा से पूछे - भगत सिंह का नाम जानते हो? उसने कहा - नाम तो सुना है। मैंने पूछा कौन थे? कहने लगा एक क्लास में पढ़ा था कि उ स्वतंत्रता सेनानी थे, लेकिन दूसरी में पढ़ा कि उन्होंने देश के लिए कुछो नहीं किया था। अब उस समय हम पैदा तो हुए नहीं थे, इसलिए सही-सही कुछो बता नहीं सकते आपको!

हमने दूसरे से पूछा - बाबरी मस्जिद का नाम सुने हो? उसने कहा, 'हां पहली क्लास में पढ़े थे कि उ एक ठो 'ढांचा' था, जिसको 'वीर राष्ट्र भक्तों' ने तोड़कर 'पुण्य' कमाया, लेकिन दूसरी क्लास में पढ़े कि उ एक ठो मस्जिद था, जिसको कुछ 'सिरफिरे कम्युनल' लोगों ने तोड़ दिया। अब हमसे ई मत पूछिएगा कि उसको 'शौर्य दिवस' कहते हैं कि 'काला दिवस', का है कि न तो हम बनाते समय उसके पास थे औरो न ही तोड़ते समय।

अब हमरे समझ में आने लगा था कि पूरा देश कन्फूज काहे है! दरअसल, बात जब चुनाव की हो तो सरकार के लिए कन्फूजन सबसे बढि़या चीज होती है। तभिये न नेता सब ने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के मुद्दा पर टीवी चैनल वाले को कन्फूज कर दिया। अब उन नेताओं का कहना है कि जानते तो हम सब कुछ थे, लेकिन इसलिए उत्तर नहीं दिए कि हम सेक्युलर पार्टी से हैं औरो इसलिए अपने मुंह से 'वंदे मातरम्' नहीं निकाल सकते, जबकि जो नेता राष्ट्र गान 'जन, गण, मन...' को नहीं बता पाए थे, उनका कहना है कि जब तक उनकी पार्टी यह निरणय नहीं ले लेती है कि ई गीत राष्ट्र भक्ति का गीत है या अंगरेजों की चरण वंदना, तब तक उ ऐसन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे।

अब जब ऊपर से नीचे तक एतना कन्फूजन हो, तो हमरे खयाल से एनसीईआरटी का फुल फॉर्म ऐसे समझा जाना चाहिए .. जब कांगरेसी सरकार हो, तो इसको पढि़ए नैशनल कांगरेस एंड कम्युनिस्ट काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल रिसर्च एंड टरेनिंग औरो जब बीजेपी की सरकार हो, तो पढि़ए नॉन कांगरेस एंड कम्युनिस्ट काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल रिसर्च एंड टरेनिंग!!

Friday, August 18, 2006

डरने का फायदा!

स्वतंत्रता दिवस के दिन जब लाल किला से हमरे परधानमंतरी अपनी कमजोर आवाज में पाकिस्तान को सुधर जाने की 'कड़क' चेतावनी दे रहे थे, तब मारे डर के हम अपने घर में दुबके हुए थे। यहां तक कि हम तभियो बाहर नहीं निकले, जबकि पूरी दुनिया पतंग उड़ाने के लिए अपनी छतों पर चढ़ आई। का है कि सुबह में हमको बस में फिट बम का खतरा सताता रहा, तो दिन में पतंग में फिट बम का। कमबख्त बम नहीं हो गया, टैक्स हो गया- कहीं न कहीं से सिर पर गिरेगा ही!

खैर, चैन से हम बैठ नहीं पाए। मन ने कोसा, 'तुम जैसे 'नौजवान' पर ही तो देश को नाज है। कम से कम देश की खातिर को झंडा फहराने निकलो।' अभी साहस बांधकर हम घर से निकलबे किए थे कि पता चला डर के मारे परधानमंतरी जी अपनी 'शाही' बीएमडब्ल्यू कार छोड़कर 'टुच्चा' टाटा सफारी में झंडा फहराने लाल किला पहुंचे। फिर तो मत पूछिए, सारा साहस न जाने कहां घुस गया। आखिर जिस आदमी की सुरक्षा में पूरा फोर्स लगा हो, जब ऊ अपनी कार में चलने का साहस नहीं कर पाता, तो हमरे जैसन गरीब की औकात का है?

मैंने इस डर को निकलाने का एक रास्ता सोचा कि सरकार को नौजवानों को मिलिटरी टरेनिंग देनी चाहिए, इससे उनका डर कम हो जाएगा। लेकिन इससे हमको संतुष्टि नहीं मिली। अब देखिए न भारतीय किरकेटया टीम को। अभी श्रीलंका जाने से पहले पूरी टीम सेना के हवाले थी, ताकि उनमें कुछ साहस-वाहस आए। भज्जी से लेकर तेंडुलकर तक का पेपर में फौजी डरेस में बड़का-बड़का फोटुआ छपा, लेकिन का हुआ? २२ गज लंबा पीच के ई शेर सब एकदम कमजोर मेमना निकला! डर के मारे कोलंबो में १५ अगस्त पर तिरंगा फहराने एको ठो नहीं जा सका, जबकि होटल से भारतीय दूतावास मात्र सौ मीटर दूर है। अब आप ही बताइए ऐसन मिलिटरी टरेनिंग का कौनो फायदा है?

फिर हमरे मन में आया कि हर मोहल्ला में एक-एक ठो थाना खोल दिया जाए, तो लोगों का डर कम हो जाएगा। लेकिन इससे भी हमरे मन का डर दूर नहीं हुआ। का है कि डर के मारे खुदे दिल्ली पुलिस की हालत खस्ता हो रही है, तो उ दूसरे की सुरक्षा कैसी करेगी? आतंकियों के बम का डर उसको एतना सता रहा है कि आईटीओ वाले पुलिस हेडक्वॉर्टर के खिड़की तक को प्लाईवुड से आजकल सील किया जा रहा है।

खैर, एतना कुछ सोचते-सोचते हम लाल किला नहीं गए, लेकिन इसका घाटा परधानमंतरी को गया। का है कि डर के मारे में हम लाल किला उनका भाषण सुनने जा नहीं सके औरो बिजली कटौती के कारण टीवी पर उनका भाषण आया नहीं। भाषण नहीं सुनने से उनकी एको ठो 'स्वर्णिम' योजना की जानकारी हमको हो नहीं पाई औरो अब आगे हो भी नहीं पाएगी, काहे कि हमको पूरा विशवास है कि उनमें से एक ठो को लागू तो होना है नहीं। अब आप ही बताइए, अगले २६ जनवरी तक हम उनकी पार्टी को काहे भोट काहे देंगे?

लेकिन आप आश्चर्य करेंगे कि उन दिन आतंकवादियों से एतना डरने औरो बिजली के नहीं रहने के बावजूद हम अपने को भाग्यशाली समझता हूं। का है कि अगर हम डरते नहीं या फिर बिजली जाती नहीं, तो परधानमंतरी जी के भाषण से तनिये देर के लिए सही, हम उल्लू तो बन ही न जाते! अब तो झूठे आश्वासनों से हम सरपट बच गया हूं। जय हो बिजली महरानी की! जय हो आतंकवादी महराज की!!

Monday, August 14, 2006

आजादी बोले तो...

'मंगल पांडे' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और रिजेक्ट कर दिया। 'रंग दे बसंती' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और सर आंखों पर बिठा लिया। पहली फिल्म देशभक्ति का नाम लेकर रिलीज हुई, लेकिन फ्लॉप रही, दूसरी फिल्म आम मसाला फिल्म कहकर रिलीज हुई और देशभक्ति पर आधारित फिल्म का दर्जा पा गई। सवाल है, आखिर क्यों मंगल पांडे जैसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर आधारित फिल्म को लोगों ने ठुकरा दिया, लेकिन एक साथी की मौत से नाराज कुछ दोस्तों के हथियार उठा लेने की कहानी का समर्थन किया?

वास्तव में इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। दरअसल, जहां देशों की सीमाएं दिनोंदिन कमजोर हो रही हों और लोग देश से ज्यादा ग्लोबल हलचलों या फिर आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे हों, वहां देशभक्ति का मतलब बदलना कोई बड़ी बात भी नहीं है। शायद यही वजह है कि बंदे मातरम् का नारा लगाने से ज्यादा जरूरी अब लोगों को यह लग रहा है कि वे प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए जंतर-मंतर पर आवाज बुलंद करें। उन्हें यह महसूस होने लगा है कि उनकी आजादी को विदेशी शक्तियों से ज्यादा खतरा अपने समाज में मौजूद असामाजिक तत्त्वों से है और शायद यही वजह है कि वे जंग खा रहे सिस्टम से लड़ने वालों का समर्थन कर रहे हैं। फिर चाहे वह कोई फिल्मी नायक हो या जेसिका लाल का पिता।

वैसे, इसमें कोई शंका नहीं कि आज हम आम भारतीय जिन समस्याओं से गुजर रहे हैं, उनके लिए खुद हम भी कम दोषी नहीं हैं। अगर हमने पिछले छह दशकों में आजादी को सही अर्थों में लिया होता और उसका सही मूल्य समझा होता, तो शायद हम आज जिस स्टैंडर्ड की आजादी भोग रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा आजाद होते। अपनी आजादी के लिए अभी भी हम अधिकार तो ढूंढते हैं, लेकिन कर्त्तव्यों की परवाह नहीं करते और यही वजह है कि आखिरकार अधिकार भी धीरे-धीरे हमारे हाथों से जा रहा है।
क्या यह सच नहीं है कि हम सैद्धांतिक रूप से जितने आजाद हैं, प्रैक्टिकल में दिनोंदिन हमारी आजादी उतनी कम हो रही है? प्राइवेटाइजेशन के इस युग में हमारी परेशानियां चाहे जितनी घटी हों, लेकिन यह भी सच है कि हमारी तमाम तरह की दिक्कतें बढ़ रही हैं और इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार भी हैं।
इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है। कभी दिल्ली में बिजली देने का काम सरकारी विभाग का था। हम जनता में से ही कोई वहां अधिकारी था, तो कोई कर्मचारी और कोई उपभोक्ता। हम सब ने मिलकर उस विभाग का बेड़ा गर्क कर दिया। उपभोक्ता ने बिजली चोरी की, कांटा फंसाया, मीटर धीमा कराया और भी तमाम वे काम किए, जो गैरकानूनी हो सकते थे। अधिकारियों व कर्मचारियों ने भी इस खेल में खूब हाथ बंटाया और महलें खड़ी कीं। सबने वर्षों क्या, दशकों तक इस स्थिति का लाभ उठाया, लेकिन आज स्थिति क्या है? स्थिति यह है कि बिजली प्राइवेट हाथों में हैं और हमारे तमाम विरोधों के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीटर हमारा खून जला रहा है। हम उस पर सुपरफास्ट होने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन सरकार भी इस स्थिति में नहीं है कि हमें उससे निजात दिला सके। उस पर तुर्रा यह कि बिजली भी हमेशा नहीं रहती। जिन लोगों ने कभी बिजली चोरी के पैसे से महल खड़े किए, वे आज बल्ब जलाने के लिए इन्वर्टर खरीद रहे हैं। जब तक बिजली सरकारी थी, गरीबों की बस्ती भी जगमगाती थी, लेकिन आज चोरी के नाम पर वहां रोज सोलह घंटे लाइट काट ली जाती है और कोई विरोध भी नहीं कर पाता!

जाहिर है, एक सरकारी विभाग को हमने ही बंद करवा दिया और प्रैक्टिकली आज हमारे पास इतनी भी आजादी नहीं है कि हम प्राइवेट बिजली कंपनियों के गलत कदमों का विरोध कर सके।

तो आज के दिन की मांग है कि हम अपने अधिकार के साथ अपने कर्त्तव्यों को भी देखें। शायद तभी हम अपनी आजादी को कायम भी रख पाएंगे।

Thursday, August 10, 2006

अथ श्री लंगोट कथा

अभी पटना वाले पोरफेसर साहेब मटुकनाथ बाबू की रास चरचा से हम निपटबो नहीं किए थे कि गवैया उदित बाबू पटना में दू ठो मेहरारू के बीच सैंडबिच बन गए। हमरे मित्र सब कहते हैं कि दोनों मामला ढीली लंगोटी का है। मतलब ढीले करेक्टर का है। एक की लंगोटी शिष्या के कारण ढीली हुई या ई कहिए कि शिष्या ने ढीली कर दी, तो दूसरे की एक ठो बिमान बाला ने। अब हम कन्फूजन में हूं कि इन सूरमाओं को हम ढीली लंगोटी वाला मानूं या कि मजबूत लंगोटी वाला। का है कि ऐसन पंगा दोए आदमी ले सकता है- एक तो उ, जिसकी लंगोटी एतना टाइट हो कि दुनिया लाख कोशिश कर ले, लेकिन खिसका नहीं पाए औरो दूसरा उ, जिसको लंगोटी खिसकने का डरे नहीं हो।

खैर, हम कन्फूजन दूर करने पहुंचे पोरफेसर साहेब के पास। छिड़ गई लंगोट चरचा। कहने लगे, 'काहे का लंगोट। हमको का नटवर बाबू समझते हैं कि गलत कामो करेंगे औरो लंगोट की भी चिंता करेंगे! हम तो उसको उसी दिन धारण करना छोड़ दिए, जिस दिन अपना दिल बीवी से हटकर जूली पर आ गया। वैसे, जहां तक कमजोर लंगोटी की बात है, तो ई तो उन पोरफेसरों का है, जो क्लास से लेकर पीएचडी तक में शिष्याओं को टॉप कराते रहते हैं औरो दुनिया को पते नहीं चलता। आपको का लगता है, ई 'परोपकार' मुफ्त में होता है। अरे, उ कमजोर लंगोटी के हैं, तब न कंबल ओढ़कर घी पीते हैं। इससे तो बेसी बढ़िया है कि हमरे जैसे लंगोट उतार के चलो, खिसकने का कोयो खतरे नहीं बचेगा!'

पोरफेसर साहेब ऐसे तन जाएंगे, इसका अंदाजा हमको नहीं था। का है कि लंगोट खिंचाई में पतरकार से कोयो जीत जाए, ऐसा होता नहीं है, लेकिन उनकी मजबूत लंगोट ने हमरी हालत पस्त कर दी। एतना पस्त कि हम गवैया बाबू की लंगोटी का हाल जानने लायक भी नहीं बचे। बचते-बचते हम रोड पर पहुंचे, तो पहलवानी लंगोट पहने नटवर बाबू देह को तेल पिला रहे थे। उनकी लंगोट देख हमने सोचा कि कुछ चरचा इन्हीं से कर लूं, लेकिन उ अपने ही धुन में थे। ताल ठोंकते बोले- किसकी लंगोट कमजोर है, ई तो हमको नहीं पता, लेकिन जिस कांगेस ने हमको इस लंगोट में रोड पर खड़ा किया है, उसकी लंगोट हम जरूर ढीली कर देंगे। हम मटुकनाथ थोड़े ही हैं कि लोग हमरे मुंह में कालिख पोत दे औरो हम कुछ नहीं कहें।

शूरवीरता वाला उनका बयान सुनकर हमको अपने जस्सो बाबू याद आ गए। का है कि उन्होंने भी किताब छापकर अपनी लंगोट मजबूत दिखाई थी, लेकिन अमेरिकी जासूस की बात पर सरदार जी ऐसन खंभ ठोककर खड़े हो गए कि दूए दिन में जस्सो बाबू की लंगोट खिसकने लगी। उ तो भला हो पाठक जी की रिपोर्ट और उसको लीक करने वालों की कि ऐन मौका पर जस्सो बाबू की लंगोट पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ गई, नहीं तो दूसरे मटुकनाथ तो वही होने वाले थे।

खैर, अब बारी इस लंगोट कथा के निष्कर्ष की। हमरे खयाल से अक्सर जो जेतना मजबूत लंगोट के दिखता है, ओतना होता नहीं। इसलिए अगली बार जब आपको कोयो अपनी मजबूत लंगोट दिखा के डराए, तो डरने से पहले एक बार उसको खींचने की कोशिश जरूर कीजिएगा। का पता, उनकी हालत भी जस्सो बाबू औरो नटवर बाबू जैसी हो!

Friday, July 28, 2006

करे कोई, भरे कोई!

लीजिए एक ठो औरो वेतन आयोग गठित हो गया। मतलब निकम्मों-नाकारों को बिना मांगे एक ठो औरो पुरस्कार मिल गया। नसीब इसी को न कहते हैं-- काम-धाम कुछो नहीं औरो तनखा है कि रोज बढ़ता जाता है। जिन बाबूओं और अफसरों के कारण देश दिनों दिन गड्ढे में जा रहा है, उनका तनखा काहे रोज बढ़ता रहता है, ई बात हमरे समझ में आज तक नहीं आई! ई तो कमाकर दो टका नहीं देते सरकार को, उलटे सरकार को कमाकर इनका पेट भरना पड़ता है। अब असली परोबलम ई है कि सरकार तो कमाएगी हमीं-आप से न। सो एक बेर फेर तैयार हो जाइए महंगाई औरो टैक्स के तगड़ा झटका सहने के लिए। ई तो बड़का अन्याय है! किसी की करनी का फल कोयो और काहे भुगते भाई?

वैसे, एक बात बताऊं बास्तव में आज की दुनिया में हर जगह यही हो रहा है-- करता कोई है, भुगतता कोई और है। अब आतंकबादिये सब को देख लीजिए न। इनको जो पाल-पोस रहा है, ऊ तो मौजे न कर रहा है, मर तो बेचारी असहाय जनता रही है। पिछले दिनों अपने नेता जी भड़क गए, काहे कि दुनिया जिसको आतंकबादी कहती है, ऊ उनकी 'सिमी' डार्लिंग है। ऊ नेता जी को बोरा में भरके वोट देती है औरो विदेशी से आयातित नोट भी। अब ऐसन डार्लिंग पर अगर आप उंगली उठाइएगा, तो नेताजी भड़कवे न करेंगे!

और तो और अपने लाल झंडा वाले भाइयों को ही देख लीजिए। नक्सली सब जब सीधा-सादा आदिवासियों को मारते हैं, तो इन भाइयों के लिए उ 'हक की लड़ाई' होता है। लेकिन जब वही आदिवासी सब अपनी रक्षा में हथियार उठाता है, तो कामरेड सब की आंखों से एतना बड़का- बड़का आंसू गिरता है। उ बैठ के रोते रहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार जनता को हथियार देकर अन्याय कर रही है। का है कि राजनीति को चमकती है कामरेडों की, भुगतती बेचारी जनता है।

दिक्कत ई है कि नेताजी की करनी की वजह से आप बम-बारूद से मरिए या जरिए, उससे उनको कौनौ फरक नहीं पड़ता है? उनको कुरसी जिस चीज से मिलेगी, ऊ उसको पियार करेंगे ही। आप मनाते रहिए मैय्यत, नेताजी को काहे फरक पड़ने लगा?

हमको तो हंसी आती है कि अपने परधान मंतरी जी मुशर्रफ से दाउद औरो मसूद अजहर मांग रहे हैं। अरे भइया, जब अपना देसी आतंकबादी सब मंतरी औरो मुखमंतरी सब के संरक्षण में छुट्टा घूम रहे हैं, जो बेचारे मुशर्रफ जी से आप बिदेशी आतंकबादी काहे मांग रहे हैं? आप कहते हैं कि पाकिस्तान में आतंकबादियों को परशिक्षण मिलता है, मुशर्रफ उसको खतम करे, लेकिन आप खुद गली-गली में मौजूद 'आतंकी पाठशाला' पर तो कोयो अंकुश लगा नहीं पा रहे। ऐसे में मुशर्रफ को किस मुंह से अंकुश लगाने को कहते हैं? पहले आप देसी मुशर्रफों औरो मसूद अजहरों से तो निबटिये, फिर सीमा पार कीजिए!

हमरे जैसन जनता के लिए तो यही बहुत है कि बम-बारूद के बीच सड़क पर निकलने के लिए हमको बहादुर मान लिया गया। अब ई मानने के लिए कहां कोयो तैयार होता है कि हम इसलिए बाहर निकले, काहे कि पेट की आग बम-बारूद से बेसी विस्फोटक होती है औरो बेसी घातक भी! सो भैया अंदर की बात तो यही है कि बारूद के बीच काम पर जाना मजबूरी है, बहादुरी नहीं। आश्चर्य देखिए कि यहां भी करता कोई और भुगतता कोई और है- - भूख तो पेट को लगती है, लेकिन उसको शांत करने के चक्कर में बेचारा मारा पूरा देह जाता है।

Thursday, July 20, 2006

दुनिया है गोल

दुनिया गोल है, ई बात अब हमहूं दावे के साथ कह सकता हूं। जी नहीं, हम आपको जोगराफिया नहीं पढ़ा रहा हूं। हमरे कहने का मतलब तो बस ई है कि दुनिया में आप कहीं भी जाइए, स्थिति एके जैसी है। अगर चावल का एक दाना देखकर उसके पकने का अंदाजा चल सकता है, तो हम ई कह सकता हूं कि खाली हमरे लिए ही नहीं, दुनिया के हर देश के लोगों के लिए घर की मुरगी दाल बराबर होती है, अपनी स्थिति से कोई खुश नहीं रहता, जाम हर जगह लगता है औरो भरष्टाचार के शिकार सिरफ हमहीं नहीं, दूसरे देश के लोग भी हैं। हमको तो लगता है कि मरने के बाद स्वर्ग पहुंचने वाले लोग भी निश्चित रूप से अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं रहते होंगे।

का है कि अभी हम मलेशिया गए थे। चकाचक मलेशिया देखने के बाद हम ई सोचियो नहीं सकते कि पेट्रो डालर, पाम आयल औरो रबर से ठनाठन नगदी कमाने वाली जनता अपनी स्थिति से नाखुशो हो सकती है, लेकिन हकीकत यही है। एतना पैसा होने के बावजूद लोग औरो पैसा कमाने का साधन नहीं जुटाने के लिए सरकार को कोसते रहते हैं, तो मलेशिया की जिस खूबसूरती को देखने के लिए पूरी दुनिया से लोग आते हैं, वहीं की जनता उसे निहारना नहीं चाहती। हालत ई है कि झोला उठाकर दूसरे देश की सैर को जाने वालों में मलेशियाई लोगों का नंबर विश्व में दूसरा है। तो जनाब, घर की मुरगी को दाल सिरफ हमी नहीं समझते, दुनिया के दूसरे लोग भी समझते हैं।

घर की मुरगी दाल बराबर वाली बात का एक ठो बड़ा दिलचस्प वाकिया है। हमरे साथ एक ठो बंगाली बाबू भी मलेशियन सरकार के मेहमान थे। दिल्ली में पलेन पर चढ़ते ही उनका तकिया कलाम बन गया- - एनीथिंग बट इंडियन! मतलब कुछो चलेगा, लेकिन इंडियन नहीं। उनको हिंदी गाना नहीं सुनना, भारतीय खाना नहीं खाना, मलेशिया की भारतीय बस्तियों में नहीं जाना। उस महाशय को भारत जितना नरक जगह लगता था, विदेश उतना ही स्वर्ग। लेकिन संयोग देखिए कि इससे पहले कि बेचारे मलेशियाई खूबसूरती को देखते हुए अपने देश को बढि़या से कोस पाते, एक मलेशियाई ने उनका पानी उतार दिया। बाबू मोशाय को तब बड़ा झटका लगा, जब उनको मिले पहले ही मलेशियाई व्यक्ति ने उन्हें बताया कि कश्मीर, ऊटी औरो मसूरी बहुते खूबसूरत जगह है औरो ऊ छुट्टी बीताने के लिए सपरिवार यहां आता रहता है। अब जिस व्यक्ति के लिए दुनिया में दोए ठो स्वर्ग हो-कोलकाता और पेरिस, उसके लिए तो ई हजार वाट का झटका जैसा था।

हम एक ठो औरो निष्कर्ष पर पहुंचा हूं औरो उ ई कि सरकार प्राय: सहिए होती है, खोट बेसी जनते में होता है। मतलब सब परोबलम की जड़ जनता की सोच ही है। अगर दिल्ली के लोगों की सोशल स्टेटस बढ़ाने की चिंता ने यहां की सड़कों को कार से पाट दिया है औरो जाम आम हो गया है, तो मलेशिया में भी इसी ठसक के लिए हर कोयो अपनी कार से चलना चाहता है। परिणाम ई है कि वहां रोज हाई वे पर दस किलोमीटर लंबा जाम लगता है औरो सरकार इसका कोयो साल्यूशन नहीं निकाल पा रही। सरकार इधर साल में दो फीट रोड चौड़ा करती है और चार फ्लाईओवर बनाती है, तो उधर कारों की संख्या दस हजार बढ़ जाती है। अब सरकार सड़क को 'हनुमानजी' तो बना नहीं सकती कि टरैफिक के 'सुरसा' जेतना बड़ा मुंह फैलाए, सड़क ओतना बड़ा हो जाए!

खैर, विकास की सड़क तलाशते हुए पहुंच हम गए भरष्टाचार को तलाशने। आखिर खांटी भारतीय औरो उहो में खांटी बिहारी जो ठहरे! चकाचक मामले में भी खोट तलाशना तो अपना धरम है। सो गगनचुम्बी इमारत, चकाचक रोड, अरबों के तमाम पराइवेट प्रोजेक्ट्स देखकर तो एक बारगी लगा जैसे वाकई रामराज है, लेकिन इससे पहले कि हम निश्चिंत होते, एक दिन सवेरे पेपर पढ़कर चौंक पड़े, मलेशियन एयरवेज का एक ठो बड़का स्कैम सुर्खियों में था। बात औरो बहुते है, लेकिन निष्कर्ष एके है- - इस दुनिया में हर जगह स्थिति एके है, फर्क बस उन्नीस-बीस का है।

Wednesday, June 21, 2006

भविष्य का बेड़ा गर्क

आजकल सब कुछ भविष्य के भरोसे ही हो रहा है। जिससे मिलिए, वही आपको भविष्य के लिए चिंतित दिखेगा। कोयो भविष्य की चिंता बेचकर कमा रहा है, तो कोयो भविष्य की चिंता खरीदकर गंवा रहा है। लेकिन इस सब के बीच गड़बड़ ई है कि भविष्य के फेर में सब अपना बेड़ा गर्क करवा रहा है।

अब दिल्लिये को लीजिए। यहां के लोग सब भविष्य से बहुते डरते हैं। भविष्य की चिंता उनकी जेब काट रही है। यहां जमीन है नहीं, लेकिन बिल्डर सब कागज पर घर बनाकर खूब बेच रहा है औरो लोग सब खरीदियो रहा है! यहां आपको ऐसन-ऐसन कालोनी मिलेगी, जहां पीने के लिए पानी औरो रोशनी के लिए बिजली नहीं है, लेकिन घर का दाम सुनिएगा, तो गश आ जाएगा! घर देखने जाइए, तो बिल्डर आपको पहले ठंडा पिलाएगा, फिर बताएगा कि कैसे दो साल में इसका दाम दुगुना होने वाला है। दूर का ढोल सबको सुहाना लगता है, सो बिल्डर का बताया भविष्य का सपना आपको एतना मीठा लगेगा कि जेब खाली करके या बैंक से लोन लेके या फिर दोस्तों से गाली खाके भी आप उस भविष्य को खरीद ही लीजिएगा। लेकिन आपको झटका लगेगा तब, जब वहां आपको मुफ्त में रहने वाला किराएदार भी नहीं मिलेगा!

भविष्य की इस चिंता ने कैसन बेड़ा गर्क किया है, इसका उदाहरण डीडीए के इंजीनियर हैं। बेचारों ने लोगों को भविष्य बेचकर खूब पैसा कमाया। जेतना डीडीए की कालोनी उ बसा नहीं पाए, उससे बेसी पराइवेट कालोनी बसने दी। बेटा-बेटा का भविष्य एकदम झक्कास हो औरो खुद आलीशान घर में रहे, इस फेर में बेचारों ने डीडीए का भट्ठा बैठा दिया, लेकिन बेचारे ई भूल गए कि वर्तमान ने पर भविष्य का पिलर खड़ा होता है। अब डीडीए के पास काम है ये नहीं है। जब काम नहीं होगा, तो इंजीनियर को रखकर सरकार का चटनी बनाएगी? सो जल्दिये नौकरी छूटने के भय से बेचारा सब की अब हालत खराब हो गई है। अब पता नहीं इसको भविष्य का आबाद होना कहा जाए या बर्बाद होना?

दिक्कत इहो है कि लोग भविष्य के लिए नाक के सीध में सोचते हैं, उसके दाएं-बाएं नहीं। बजट के बाद कार महंगी हो जाएगी, इसकी चिंता में फरवरी में ही लोग कार खरीद लेते हैं, लेकिन पार्किंग के लिए पड़ोसी के बीच सालों भर झगड़ा होगा, इसकी चिंता कोयो नहीं करता। कुछ साल बाद बाल-बच्चे होंगे, परिवार बड़ा हो जाएगा, इसलिए लोग बड़ी गाड़ी खरीदते हैं, लेकिन उ पेटरोल बेसी पीएगी औरो पार्किंग के लिए बेसी जगह छेकेगी, इसकी चिंता कोयो नहीं करता।

वैसे, आप कह सकते हैं कि भविष्य बेड़ा गर्क भी इसलिए करवाता है काहे कि भविष्य की चिंता क्षणभंगुर होती है। अब देखिए न, जब तक किसी के पास गाड़ी खरीदने लायक पैसा नहीं होता, सड़क पर गाडि़यों की संख्या को उ भविष्य के परयावरण और परिवहन व्यवस्था के लिए नुकसानदेह मानता है। लेकिन गाड़ी खरीदने लायक पैसा होते ही उसे अपने भविष्य की चिंता सताने लगती है औरो नई गाड़ी की चमक में जाम की चिंता खतम हो जाती है। अब आप ही बताइए, जब तक ई मानसिकता रहेगी, बेड़ा गर्क तो होगा ही, चाहे उ आपका हो या किसी और का!

'सेल' में सरकार

लीजिए, दिल्ली सरकार अब पियोर व्यापारी हो गई है। का है कि जैसे दुकानदार सब होली-दीवाली पर सेल लगाता है न, वैसने दिल्ली सरकारो अब सेल लगाने लगी है। पहले चीजों का दाम ८० परसेंट बढ़ाकर स्टीकर चिपका दीजिए औरो फिर बड़का बैनर पर अप टू ७० परसेंट सेल लिखकर टांग दीजिए। जनता खुश! केतना सस्ता चीज मिल रहा। अब गिरहकट ने कैसे जेब काट लिया ई पता किसको चलता है!

तो भइया दिल्ली सरकार ने भी तेल के खेल में व्यापारी वाला बुद्धि लगाया। उसको पता था कि पेटरोल-डीजल का दाम बढ़ते ही लोग हाय-हाय करेंगे, सो ऐसा करो कि दाम एतना बढ़ा दो कि जब लोग हाय-हाय करने लगेंगे, तो थोड़ा दाम घटाकर वाहवाही लूट सको। अब सरकार का धंधा देखिए कि पेटरोल का चार टका दाम बढ़ा के ६७ पैसा का सेल लगा दिया, तो डीजल का दो टका दाम बढ़ा के २२ पैसा का सेल लगा दिया। और अब उ सीना तान रही है कि देखो, हम जनता का केतना चिंता करते हैं।

वैसे, इस सरकारी रवैया के लिए जनतो कम दोषी नहीं है। अब का है कि तनिये ठो छूट देख के आप समान लूटने के लिए टूट पडि़एगा, तो आपको कोयो बेकूफ बना सकता है। हमको तो इस तेल में दोसरे खेल नजर आता है। हमरे खयाल से सरकार ने अब पेटरोल कंपनी को छोड़कर पेटरोल पंप मालिक सब से दोस्ती कर ली है। तभी तो दाम घटा के ऐसा रखा है कि पेटरोल पंप मालिक को फायदा हो। अब का है कि आप जाइएगा एक लीटर पेटरोल भराने, जिसका दाम आपको देना पड़ेगा ४६ टका ८४ पैसा। आप इसके लिए काउंटर पर ४७ टका दीजिएगा, तो आप ही बताइए कि आपको १६ पैसा लौटा के कौन देगा? अगर दिन भर में हजार लीटर पेटरोल बिकता है, तो तनि पेटरोल पंप मालिक के फायदा का हिसाब लगा के देखिए। एैसने हाल डीजल का है, जिसका दाम ३२ टका २५ पैसा रखा गया है। अब आप जब जाइएगा पेटरोल भराने, तो पंप मालिक आपको ७५ पैसा लौटाने के लिए २५ पैसा तो अपने घर में बनाएगा नहीं। मतलब आपको कम से कम २५ पैसा औरो बेसी से बेसी ७५ पैसा के घाटे की तो पूरी गैरंटी है। अब आप लगा लीजिए, पूरा हिसाब औरो दाद दीजिए सरकारी व्यापार बुद्धि को!

वैसे, सही बताऊं, तो हमको सरकार दिनोंदिन एकदम खांटी व्यापारी बनती नजर आ रही है। पिछले दिनों हमने पढ़ा कि सात दिन के अंदर हाउस टैक्स जमा कीजिए औरो १५ परसेंट का आकर्षक छूट पाइए। अब इसको भले सरकारी अफसर टैक्स जमा करने के लिए प्रोत्साहन का तरीका मानता हो, लेकिन हमको तो ई पियोर सेल लगता है। अरे भाई, एक तो कानून ही नहीं बनाइए औरो अगर बनाते हैं, तो उसका पालन करवाइए। उसमें काहे का छूट। जब तेल कमपनी सब को आप घाटा में नहीं भेजना चाहते, जनता को तेल के नाम पर सब्सिडी नहीं देना चाहते, तो टैक्स में सब्सिडी काहे का। हमरे खयाल से तो जनता से सब टैक्स वसूलिए औरो पैसा को तेल-पूल के घाटा से बाहर आने में लगाइए। लेकिन जनता को प्लीज जनता को ठगिए मत। का है कि हाउस टैक्स का उनको पांच टका छोड़कर आप उससे ३५ टका किलो परवल खरीदवाते हैं तो लानत है आप पर।