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ये दुनिया ऊटपटांगा

किस्से-कहानियों में जिन लोगों ने शेखचिल्ली का नाम सुना है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह एक ऐसा कैरेक्टर है, जिसकी दुनिया पूरी तरह ऊटपटांग है। किस्से-कहानियों को छोडि़ए जनाब, अब तो वास्तविक जिंदगी में भी ऐसी तमाम बातें होती रहती हैं, जो शेखचिल्ली और उसकी ऊटपटांग दुनिया की याद दिला जाती हैं। नए साल के आने की खुशी में क्यूं न साल की कुछ ऐसी 'ऊटपटांग' घटनाओं को याद कर लिया जाए, जो अजीब होने के साथ-साथ हमारे मन को गुदगुदा भी गईं: हिमेश रेशमिया: कंठ नहीं, नाक पर नाज किसी का सुर मन मोह ले, तो कहते हैं कि उसके गले में सरस्वती का वास है, लेकिन हिमेश के मामले में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो क्या हिमेश की नाक में सरस्वती का वास है? लगता तो कुछ ऐसा ही है। संगीतकार से गायक बने हिमेश की नाक ने ऐसा सुरीला गाया कि इतिहास लिख दिया। इस साल उनके तीन दर्जन गाने सुपर हिट हुए, जो ऐतिहासिक है। हालत यह रही कि रफी-लता को सुनकर बड़े हुए पैरंट्स हिमेश को गालियां देते रहे और उनके बच्चे हाई वॉल्यूम पर 'झलक दिखला जा...' पर साल भर थिरकते रहे। आनंद जिले के भलेज गांव में तो गजब ही हो गया। वहां के ग्रामीणो

राजनीति की बिसात

इस साल राजनीति की बिसात पर काफी कुछ हुआ। इनमें से कुछ देश के लिए बेहतर रहे, तो कुछ बदतर। कुछ ने देश व समाज को जोड़ा, तो कुछ ने तोड़ा। कुछ पार्टियों और नेताओं ने अपनी ताकत बढ़ाई, तो कुछ की घट गई। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव, आरक्षण की बात, वंदेमातरम् पर विवाद और अफजल गुरु के फांसी पर दांवपेंच जैसी कई चीजें इस साल की खास बात रही। एक जायजा साल भर के राजनीतिक परिदृश्य का: शहीद वोट से बड़ा नहीं ऐसा कभी पहले सुना नहीं गया। इससे पहले शायद ही किसी आतंकवादी को लेकर नेताओं में इतनी व्यापक 'सहानुभूति' रही हो, जो इस साल दिखी। जब कोर्ट ने संसद पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई, तो उस फैसले पर अमल रोकने की पैरवी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से लेकर कई केंद्रीय मंत्री तक ने की। संसद पर हुए हमले में शहीद हुए जांबाजों के परिजनों ने शौर्य पदक तक लौटा दिए, लेकिन सरकार जैसे सब कुछ 'भूल' चुकी है। वोट के डर से... आजादी के बाद के छह दशकों में राष्ट्रीयता की भावना कभी इतनी शर्म की चीज नहीं बनी। जिस राष्ट्रीय गीत 'वंदेमातरम्' को गा-गाकर हजारों लोग

साल का खिताबी किस्सा

साल के अंत में खिताब बांटने की परंपरा रही है। मतलब ई कि साल का सबसे बढ़िया कौन, सबसे घटिया कौन, सबसे बेसी काम लायक कौन, सबसे कम काम लायक कौन... जैसन तमाम खिताब दिसंबर में बांटा जाता है। ऐसन में हमने भी कुछ खिताब बांटने का फैसला किया, आइए उसके बारे में आपको बताता हूं। एक ठो सरकारी संगठन है 'नेशनल नॉलेज कमिशन'। इस साल का 'सबसे बड़ा मजाक' इसी संगठन के साथ हुआ। हमरे खयाल से किसी ने जमकर जब भांग पिया होगा, तभिए उसको ऐसन संगठन बनाने की 'बदमाशी' सूझी होगी। नहीं, तो आप ही बताइए न, आरक्षण के जमाने में ऐसन संगठन बनाना जनता के साथ 'मूर्ख दिवस' मनाना ही तो है। बेचारे 'ज्ञानी आदमी' सैम पित्रोदा पछता रहे होंगे कि इसका मुखिया बनकर कहां फंस गया! वैसे, हमरे एक दोस्त का कहना है कि फंस तो पराइम मिनिस्टर बनकर मनमोहन सिंह भी गए हैं औरो इस साल का 'सबसे बड़का चुटकुला' यही हो सकता है कि मनमोहन सिंह पराइम मिनिस्टर हैं। उसके अनुसार, इस पोस्ट के साथ ऐसी दुर्घटना कभियो नहीं घटी, जैसन कि इस साल घटी है। का है कि परधानमंतरी तो मनमोहन हैं, लेकिन सरकार का सारा काम हुआ सो

बीत गया साल पहेली में

एथलीट एस. शांति ने दोहा एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल जीता था, जो उससे छीन लिया गया। कहा गया कि महिलाओं की दौड़ जीतने वाली शांति महिला नहीं, पुरुष है। ई 'सत्य' जानकर बहुतों को झटका लगा, लेकिन हम पर इसका कोयो इफेक्ट नहीं हुआ। का है कि साल भर हम ऐसने झटका सहता रहा हूं। हमने जिसको जो समझा, ऊ कमबख्त ऊ निकला ही नहीं। जिसको हमने गाय समझा, ऊ बैल निकला औरो जिसको बैल समझा, ऊ गाय। अब देखिए न, पूरे साल हम ई नहीं समझ पाए कि शरद पवार कृषि मंतरी हैं कि किरकेट मंतरी। उन्हीं के गृह परदेश में विदर्भ के किसान भूखे मरते रहे, आत्महत्या करते रहे, लेकिन उन्होंने कभियो चिंता नहीं की। पैसे का भूखा बताकर ऊ जगमोहन डालमिया को साल भर साइड लाइन करने में लगे रहे, लेकिन कृषि मंतरी होने के बावजूद उन्होंने विदर्भ में खेती बरबाद करने वाले पैसे के भूखे अधिकारियों को कुछो नहीं कहा। देश की खेती को दुरुस्त करने के बदले ऊ किरकेट की अपनी पिच दुरुस्त करते रहे। हमरे समझ में इहो नहीं आया कि गिल साहब हाकी के तारणहार हैं या डुबनहार। ऊ तारणहार होते तो भारतीय हाकी अभी चमक रही होती, लेकिन चमक तो खतम ही हो रही है। इसका मतलब उनक

सीधी बात हजम नहीं होती

समय बदलने से लोगों की मानसिकता केतना बदल जाती है, हमरे खयाल से ई रिसर्च का बहुते दिलचस्प बिषय है। एक समय था, जब किसी काम में तनियो ठो लफड़ा होता था, तो हमरी-आपकी हालत खराब हो जाती थी। लगता था, पता नहीं किसका मुंह देखकर सबेरे उठे थे कि एतना परॉबलम हो रहा है। लेकिन आज अगर बिना लफड़ा के एको घंटा बीत जाता है, तो लगता है जैसन जिंदगी का सारा रोमांचे खतम हो गया। मतलब, लोगों को अब लफड़े में बेसी आनंद मिलता है। बिना लफड़ा के लाइफ में कौनो मजा नहीं होता। अब वर्मा जी को ही लीजिए। बेचारे कहीं से आ रहे थे। एक ठो आटो वाले से लक्ष्मीनगर छोड़ने को कहा। आटोवाला बिना किसी हील-हुज्जत के मीटर से चलने को तैयार हो गया। अब वर्मा जी की हालत खराब! ऊ आटो पर बैठ तो गए, लेकिन उनको सब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। एक झटके में अगर दिल्ली का कोयो आटोवाला मीटर से चलने को तैयार हो जाए, तो किसी अदने से आदमी को भी दाल में काला नजर आ सकता है या कहिए कि पूरी दाल काली लग सकती है। फिर वर्मा जी तो दिल्ली के नस-नस से वाकिफ ठहरे। खैर, रास्ता भर उनके दिल में किसी अनहोनी को लेकर धुकधुकी तो लगी रही, लेकिन आटोवाले ने सुरक्षित उन्हें घर

नेताओं के लिए स्पेशल जेल!

उस दिन तिहाड़ जेल के एक ठो जेलर मिल गए। बहुते परेशान थे। कहने लगे, 'यार, जिस तेजी से नेता लोग जेल भेजे जा रहे हैं, उससे तो हमरी हालत खस्ता होने वाली है। हमरे जैसन संतरी के लिए इससे बुरी स्थिति का होगी कि जिस मंतरी को आप हत्यारा मान रहे हैं, उसको भी सलाम बजा रहे हैं। अपराध करके जेल ऊ आते हैं औरो सजा एक तरह से हमको मिलती है। टन भर वजनी पप्पू जी का नखरा झेलते-झेलते हमरी हालत ऐसने खराब हो रही है, ऊपर से एक ठो 'गुरुजी' औरो आ गए। हमरी हालत तो उस 'सिद्धूइज्म' के डर से भी खराब हो रही है, जो चौबीसो घंटा चलता रहता है। अगर सरदार जी यहां आ गए, तो कौन झेल पाएगा उनको?' उस जेलर महोदय की परेशानी देख हमहूं परेशान हो गया हूं, लेकिन हमरी परेशानी कुछ दूसरी है। उनको नेता जैसन वीआईपी कैदियों से परेशानी है, तो हमको देश की चिंता हो रही है। का है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विधायकों के लिए जेल दूसरा घर बन चुका है, तो कम से कम सौ ऐसन सांसद हैं, जो सरकार की जरा-सी ईमानदारी से कभियो जेल जा सकते हैं। अब देखिए न, अपने पप्पू औरो शहाबुद्दीन जी पहिले से जेल में हैं, तो 'स्वनामधन्य&#

चाहिए कुछ किरकेटिया जयचंद

अब हमको पूरा विशवास हो गया है कि अपने देश को कुछ किरकेटिया जयचंद की एकदम सख्त जरूरत है। यानी कुछ ऐसन किरकेटिया पिलयर औरो कोच चाहिए, जो अपनी ही टीम की लुटिया डुबो सके। सच पूछिए, तो इसी में अपने देश का भला है औरो किरकेट का भी। आप कहिएगा कि हम एतना गुस्सा में काहे हूं, तो भइया हर चीज की एक ठो लिमिट होती है, लेकिन ई मुआ किरकेट है कि इसका कोयो लिमिटे नहीं है। का जनता, का नेता, सब हाथ धो के इसी के पीछे पड़ल रहता है। देश-दुनिया जाए भांड़ में, सबको चिंता बस किरकेट की है। दक्षिण अफरीका से दू ठो मैच का हार गए, ऐसन लग रहा है जैसे पूरे देश का सिर शरम से नीचे हो गया हो। सड़क से संसद तक हंगामा मचा है। विदर्भ के किसान भूखे मर रहे हैं, फांसी लगा रहे हैं, नेता औरो जनता सब को इसकी चिंता नहीं है, लेकिन देश दू ठो मैच हार गया, इसकी उन्हें घनघोर चिंता है। लोगों के भूखे मरने औरो किसानों के फांसी पर झूलने से पूरे विश्व में नाक कट रही है, उसकी चिंता कोयो नहीं कर रहा, लेकिन दस ठो किरकेट खेलने वाले देश में नाक कट गई, इसकी बहुते चिंता है। हम तो कहते हैं कि भगवान की दया से ऐसने सब दिन हारती रहे अपनी टीम। इसी में भ

जिगर मा नहीं आग है

'ओंकारा' फिलिम का बिपाशा का ऊ गाना तो आप सुने ही होंगे-- 'बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया जिगर मा बड़ी आग है, आग है...।' ई सुनके पता नहीं आपके दिल में कुछ-कुछ होता है या नहीं, लेकिन हमरे दिल में तो भइया बहुते कुछ होता है। बिपाशा कौन से जिगर की बात कर रही है औरो उसमें केतना आग है, ई तो आपको जान अब्राहम से पूछना होगा, लेकिन भइया हमरे पास न तो बिपाशा जैसन जिगर है औरो नहिए वैसन आग। जहां तक जिगर की बात है, तो हमरे गुरुजी का कहना था कि हमरे जैसन मरियल आम आदमी में जिगर होता ही नहीं, तो उसमें आग कहां से होगी? उसके अनुसार, जिगर में आग तो गांधी, लोहिया औरो जयप्रकाश नारायण के पास थी, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश को हिला दिया। तभिए हमने डिसाइड किया था कि आखिर जिगर की आग गई कहां, ई हम ढूंढ कर रहूंगा। वैसे, ई बात तो हम मानता हूं कि अगर बीड़ी जलाने लायक आग भी हमरे जिगर में होती, तो हम एतना निकम्मा नहीं होते! निकम्मापनी में हम अपने अरब भर देशवासियों का प्रतिनिधि हूं। ऐसन जनता का प्रतिनिधि, जिनके जिगर का तो पता नहीं, लेकिन उनमें आग बिल्कुल नहीं है, ई हम दावे के साथ कह सकता हूं। अगर जिगर में

सॉफ्ट इमेज की बेबसी

हमको अपने देश औरो अपने में बहुते समानता नजर आती है। अपना देश 'सॉफ्ट नेशन' का 'तमगा' लेकर परेशान है, तो हम 'सॉफ्ट पर्सन' का 'तमगा' लेकर परेशान हूं। हालत ई है कि आए दिन हमको कोयो न कोयो ठोकता -पीटता रहता है, लेकिन हम हूं कि इसी में गर्व महसूस करता हूं। आखिर अपने सॉफ्ट नेशन की तरह हम भी अपना करेक्टर सॉफ्ट पर्सन का जो बनाए रखना चाहता हूं। का है कि आप जिस उपाधि से विभूषित होते हैं, उसकी लाज तो आपको रखनी ही पड़ेगी न, भले ही आपकी हालत कितनी भी खराब काहे न हो जाए! जैसे अपने देश से इतनी बड़ी आबादी संभले नहीं संभल रही है, वैसने हम से भी हमारा बच्चा सब संभले नहीं संभल रहा। परिणाम ई है कि हमरे पड़ोसियों के पौ बारह हैं औरो ऊ खुराफात कर हमको सताते रहते हैं। उस दिन हमरा पड़ोसी चंचू आ गया। जैसे चीन अरुणाचल परदेश पर अपना अधिकार जता रहा है, वैसने उसने हमारे बारहवें-चौदहवें नंबर के बच्चे पर अपना अधिकार जता दिया। कहने लगा, 'इसको होना तो हमरा बच्चा चाहिए था, लेकिन आपने जबर्दस्ती इसको अपने यहां पैदा कर लिया। देखिए, देखिए... इसकी सूरत, बिल्कुल हमरी तरह है औरो आप हैं कि इसक

बच्चों का खेल नहीं है बच्चा होना

बाल दिवस पर विशेष डियर चाचा नेहरू मैं एक नन्हा-सा बच्चा हूं। देश का नौनिहाल, जिसके कंधों पर आपके देश का भविष्य है, लेकिन सच मानिए देश का भविष्य होते हुए भी मैंने कभी अपने को स्पेशल महसूस नहीं किया। मुझे तो खुद नहीं लगता कि मैं देश का भविष्य हूं। आखिर जिसके कंधों पर देश का भविष्य होगा, उसकी इतनी उपेक्षा कोई देश कैसे कर सकता है? कोई हमारी परवाह नहीं कर रहा, यहां तक कि हमें फोकस में रखकर कोई योजना सरकार बनाती भी है, इसकी जानकारी मुझे तो छोडि़ए, बड़ों-बड़ों को नहीं होती। आपको शायद ही पता हो कि हमारे लिए इस देश में कुछ भी नहीं है- न ढंग का स्कूल, न किताब, न खेल का मैदान और न ही मनोरंजन के साधन। नेताजी वोट को देखकर स्कूल खुलवाते हैं, तो मास्टर जी स्कूल ही नहीं आते। स्कूली किताबें हमें नहीं, वोट को ध्यान में रखकर लिखवाई जा रही हैं। हमारे आसपास कोई खेल का मैदान, आप ऊपर स्वर्ग से देखकर भी नहीं खोज सकते, तो भला मैं कहां से खोज पाऊंगा! मनोरंजन का हाल यह है कि किताबों के बोझ से एक तो हमें इसके लिए वक्त ही नहीं मिलता और मिलता भी है, तो बड़ों के लिए बनी फिल्मों और गानों को देखकर ही संतोष करना पड़ता

बेड रूम में कानूनी डंडा

उस दिन सबेरे-सबेरे जब हमरी नींद टूटी या कहिए कि जबरदस्ती तोड़ दी गई, तो सामने दू ठो धरती पर के यमराज... माफ कीजिएगा लाठी वाले सिपाही सामने में खड़े थे। जब तक हम कुछ कहते, उन्होंने घरेलू हिंसा के जुरम में हमको गिरफतार कर लिया। उनका कहना था कि हमने रात में पास के विडियो पारलर से एडल्ट फिलिम का सीडी लाया है औरो जरूर हमने उसे अपनी धरम पत्नी को दिखाया होगा, जो नया घरेलू हिंसा कानून के तहत जुरम है। अपनी गरदन फंसी देख हमने मेमयाते हुए सफाई दी, 'लेकिन भाई साहेब ऊ सीडिया तो हम अभी तक देखबो नहीं किए हैं, तो धरम पत्नी को कहां से देखाऊंगा? वैसे भी जिस काम के लिए एडल्ट सीडी लाने की बात आप कर रहे हैं, ऊ तो टीवी मुफ्त में कर देता है... बस टीवी पर आ रहे महेश भट्ट की फिलिम का कौनो गाना देख लीजिए, वात्स्यायन का पूरा कामशास्त्र आपकी समझ में आ जाएगा! इसके लिए अलग से पैसा खर्च करने की का जरूरत है? वैसे भी अगर ऐसन कानून लागू होने लगा, तो लोग अपनी बीवी के साथ कौनो हिंदी फिलिम नहीं देख सकता, काहे कि सब में अश्लीलता भरल रहती है।' हमरी इस अनुपम 'सुपर सेवर' जानकारी पर पहिले तो सिपाही महोदय हैरान

हम नहीं सुधरेंगे!

ई बड़ी अजीब दुनिया है भाई। यहां खुद कोयो नहीं सुधरना चाहता, लेकिन दूसरों के सुधरने की आशा सभी को रहती है। ऐसन में अपने देश में अगर कोयो सबसे बेसी परेशान है, तो ऊ है कोर्ट। देश को सुधारने की कोशिश में उसकी कमर झुकी जा रही है औरो हम हैं कि सुधरने का नामे नहीं ले रहे। एक समस्या खतम नहीं होती कि हम दूसरी पैदा कर देते हैं। अब लगे रहे कोर्ट औरो सरकार हमें सुधारने में। अगर उन्हें हमें सुधारने में नानी न याद आ गई, तो हम भी भारत जैसे लोकतांतरिक देश के नागरिक का हुए! अगर कानून को ठेंगा दिखाने की आजादी ही न मिले, तो आप ही बताइए आजाद देश के नागरिक होने का मतलबे का रह जाएगा? अब दिल्लिये को लीजिए। हम कहते हैं कि देश की राजधानी को सुधारने के चक्कर में कोर्ट बेकारे न अपनी एनरजी लगा रहा है। शायद उसको नहीं पता है कि हम यहां न सुधरने की कसम खाए बैठे हैं। हालांकि आपको आश्चर्य हो सकता है कि हम पहिले खुद तमाम तरह की समस्या पैदा करते हैं औरो फिर जब उससे अव्यवस्था फैलने लगती है, तो हम उसके लिए परशासन से लेकर सरकार तक को कोसने लगते हैं और धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं। आश्चर्य आपको इसका भी हो सकता है कि जब कोसन

आप भी घी के दीये जलाइए

आजकल बाजार में दीवाली की चमक-धमक है। लेकिन हमरे समझ में ई नहीं आता कि ई रौनक आखिर है किसके भरोसे। कभियो लगता है कि ई चकाचौंध ओरिजिनल है, तो कभियो लगता है कि भरष्टाचार की बैसाखी के बिना बाजार चमकिए नहीं सकता। फिर जब से परधानमंतरी जी ने ई कहा है कि बिना दलाल के काम चलिए नहीं सकता, तब से हम औरो कनफूज हो गया हूं। उस दिन चौरसिया जी मिल गए। पिछली बार मिले थे, तो बहुते दुखी थे, लेकिन इस बार उनका चेहर लालू जी जैसन लाल था। कहने लगे, 'स्थिति तो बहुते खराब हो गई थी, लेकिन अब ठीक है। बताइए, सरकार की सबसे दुधारू विभाग के सामने अपनी चाय-पान की दुकान है, लेकिन बोहनी तक नहीं हो रहा था। सीलिंग के चक्कर में सब बरबाद हो गया। पबलिक का काम होता था, तो किरानी बाबू सब पबलिक से अपना 'सत्कार' हमरी दुकान पर ही करवाते थे। उनको लेन-देन के लिए सुरक्षित जगह मिल जाती थी औरो हमरी दुकान चल जाती थी। लेकिन जब कोर्ट के डर से गलत को कौन पूछे, सहियो काम नहीं हो रहा था, तो हमरी दुकान चलती कैसे? खैर, अब मामला ठीक है, साहब से लेकर चपरासी तक टंच हैं।' दरअसल, चौरसिया जी की चिंता ऐसने नहीं दूर हुई है। उनके पास ऊप

मच्छर ने किसको बनाया हिजड़ा

देश में आजकल दू तरह के जीवों का आतंक कायम है- एक तो आतंकवादी, दूसरा मच्छर। दोनों के आतंक से देश की हालत खराब है। हमको तो लगता है कि दोनों एक-दूसरे के पर्याय हो गए हैं। आप चाहें तो मच्छर को आतंकवादी कह दीजिए औरो आतंकवादी को मच्छर, काहे कि दोनों को मनमानी की पूरी छूट है औरो दोनों कहीं भी पहुंच सकते हैं- पुरानी दिल्ली की गलियों से लेकर परधान मंतरी निवास औरो संसद तक। औरो फिर दोनों किसी पर भी अटेक कर सकता है। जिस तरह डेंगू अपने घासीराम को हुआ, तो परधानमंतरी के नातियों को भी, उसी तरह आतंकियों से जेतना हम डरते हैं, ओतने परधानमंतरी। 'एक मच्छर आदमी को हिजड़ा बना देता है' ई नाना पाटेकर का परसिद्ध डायलाग है। ऐसने आप भी एक ठो डायलाग बना सकते हैं-- 'एक आतंकवादी नेताओं को हिजड़ा बना देता है।' संसद पर हमला करवाने वाले अफजल को फांसी पर लटकाने में नेता लोग जैसन नौटंकी कर रहे हैं, ऊ यही तो दिखाता है। वैसे भी मच्छर औरो आतंकियों के बीच एतना समानता है कि हर बम बिस्फोटों की तरह डेंगू के लिए भी भारत सरकार पाकिस्तान औरो आईएसआई को दोषी ठहराकर अपना पल्ला झाड़ सकती है। उस दिन अपनी प्रजाति पर गर्व

कैटरीना की स्कर्ट

लीजिए, खड़ा हो गया एक ठो औरो बवाल! कैटरीना स्कर्ट पहनकर अजमेर शरीफ दरगाह का गई, कट्टरपंथियों ने बवाल मचा दिया। कम कपड़े पर बवाल औरो उहो ऐसन देश में, जहां गरीबों को तन ढंकने के लिए पूरा कपड़ा तक नसीब नहीं होता, हमरी समझ से परे है। माना कि कैटरीना गरीब नहीं है, लेकिन देश में ऐसन करोड़ों गरीब महिला आपको मिल जाएंगी, जिनको टांग क्या, छाती ढंकने के लिए भी कपड़े नसीब नहीं होते। तो का दरगाह जाने का हक उनको नहीं है? बताइए, ई दुनिया केतना अजीब है! गरीब गरीब बनकर अपने लिए दुआ भी नहीं कर सकता। आपको किसी दरगाह या इबादतखाना में जाना है, तो पहले भीख मांगकर पूरा तन ढंकिए, तब जाकर अपनी गरीबी दूर करने के लिए आप दुआ कर सकते हैं! बहुत बढि़या! गरीब को गरीबी से चिपकाकर रखने का इससे बढि़या फर्मूला धरम के ठेकेदारों को औरो कोयो मिलियो नहीं सकता। वैसे, एक ठो बात बताऊं, ई गरीबो सब न एकदम से बदमाश होते हैं। जबर्दस्ती हमेशा गरीबी से दूर भागने की कोशिश करते रहते हैं। अब जिस अमीरी को भोगने के लिए आप पैदा ही नहीं हुए हैं, उस चीज को पाने की कोशिशे काहे करते हैं? आप तो बस फटे-चिटे बुरके में दरगाह औरो इबादतगाहों में आते

बहुते पछताया रावण

हर साल हो रही अपनी बेइज्जती से इन दिनों रावण बहुते परेशान है। दशहरा और रावण दहन जैसे आयोजनों की दिनोंदिन बढ़ती भीड़ ने उसको कुछ बेसिए परेशान कर दिया है। उसके समझ में ई नहीं आ रहा कि जिस दुनिया के गली-मोहल्ला में रावणों की भरमार है, ऊ त्रेता युग के रावण को अब तक काहे जला रहा है। उसका कहना है कि जलाना ही है, तो यहां सदेह मौजूद कुछ रावणों में से एक-दू ठो को जला दें। इससे कुछ रावणो कम हो जाएगा औरो रावण दहन का कार्यक्रमो सार्थक हो जाएगा। खैर, रावण ने फैसला किया कि दिल्ली भरमण कर ऊ अपनी दुर्दशा अपनी आंखों से देखेगा। कुंभकरण, मेघनाद को साथ लेकर रावण निकल पड़ा दिल्ली भरमण पर। दिल्ली घुसते ही उसे दिल्ली की अट्टालिकाएं दिखीं। रावण ने कहा, 'देखो जरा इन्हें, हमने तो वरदान में सोने की लंका पाई थी, लेकिन इनमें से बेसी रक्तपान के बाद बनी महलें हैं। ईमानदारी से कमाकर तो कोइयो बस अपना पेट ही भर सकता है, अट्टालिकाएं खड़ी नहीं कर सकता। क्या हमारी लंका से ज्यादा अनाचार नहीं है यहां? अगर ये सदाचारी होते, फिर तो दिल्ली झोपडि़यों की बस्ती होती। ये हमसे खुशकिस्मत हैं कि इन्हें मारने वाला कोई राम नहीं मिल

विवादों की बरसी

इसे आप विवादों की बरसी कह सकते हैं। जी हां, अगर साल दर साल ऑस्कर में भारतीय फिल्मों को भेजने के मौके पर इसी तरह से विवाद खड़ा हो रहा है, तो इसे बरसी कहना जरा भी गलत नहीं है। दरअसल, ऑस्कर में भारतीय फिल्म को भेजे जाने के मुद्दे पर एक बार फिर से विवाद खड़ा हो गया है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' की यूनिवर्सल अपील के दीवानों को 'रंग दे बसंती' को ऑस्कर के लिए भेजना जरा भी गले नहीं उतर रहा। तो क्या अवॉर्ड और नॉमिनेशन जैसे मुद्दे विवादित होने के लिए ही होते हैं या फिर 'रंग दे बसंती' वाकई 'लगे रहो मुन्नाभाई' के सामने बौनी है? दरअसल, यह बेजा विवाद भी नहीं है। कहीं तो कुछ गड़बड़ है। पिछले साल को ही लें। तमाम फिल्म समारोहों में 'ब्लैक' ही छाई रही, लेकिन ऑस्कर के लिए भेजा गया 'पहेली' को, जबकि 'ब्लैक' की शानदार मेकिंग और बहुतायत में इंग्लिश के डायलॉग ऑस्कर के जजों को जल्दी समझ में आने वाली चीजें थीं। फिर यह दो घंटे की ही फिल्म थी और इसमें गाने भी नहीं थे, जो ऑस्कर के पैमाने के बिल्कुल मुफीद थी। बावजूद इसके, 'पहेली' को ऑस्कर में भेजने के पीछे त

मलाइका बाई का नाच

उस दिन हम कहीं जा रहे थे, पीछे से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी--कहां जा रयेला है मामू? हम सन्न थे। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार परोफेसर साहेब टपोरी बोली पर कैसे उतर आए? इससे पहिले कि हम कुछो बोलते, परोफेसर साहेब सफाई देने लगे-- हैरान काहे होते हो? सब समय की माया है, ऊ किसी भी चीज की जनम कुंडली बदल सकता है। इसीलिए हम कहता हूं कि कभियो किसी को मरल-गुजरल मत समझिए। आज जो पिद्दी है, संभव है कि कल ऊ पहलवान बन जाए। आज आप जिस चीज से घृणा कर रहे हैं, संभव है कल उसी को आप माथे पर उठाए फिरें। तभिये तो कभियो असभ्य लोगों की बोली समझी जाने वाली टपोरी को आज इंटलेकचुअल लोग भी बोलने में शरम महसूस नहीं करते। समय कैसन-कैसन बदलाव लाता है, ऊ हम तुमको बताता हूं। एक जमाने में पैसा लेकर परब-त्योहार में नाचने-गाने वाले खाली नचनिया होते थे, लेकिन आज लोग उनको सेलिब्रिटी मानते हैं। उनकी झलक भर देखने को लोग बेचैन रहते हैं। मलाइका अरोड़ा पैसा लेकर आपकी जनम दिन की पार्टी में नाच सकती हैं औरो आप गर्व से सीना तान कह सकते हैं कि मलाइका ने आपके जनम दिन पर 'परफॉर्म' किया। आज से १५-२० साल पहले ऐसन होता, तो आप कहते-

हिंदी का नक्कारखाना

आज हिंदी दिवस था। ऐसन में हिंदी को 'याद' करने के लिए हर बरिस की तरह इस बार भी जलसे का आयोजन हुआ। ऊंची मंच पर हिंदी के सभी 'तारणहार' गर्दन टाने औरो छाती फुलाए विराजमान थे। अध्यक्ष महोदय की कुर्सी स्वाभाविक रूप से एक ठो नाम वाले सिंह जी के लिए समर्पित थी। उनके आते ही कार्यवाही शुरू हुई। हाव-भाव से चम्मच कवि लग रहे एक सज्जन ने आकर सुर में कुछ गाना शुरू किया। सबने सोचा गणेश या सरस्वती वंदना गा रहा होगा, लेकिन उसके हृदय की बीसियों फुट गहराइयों से निकले स्वर बस अध्यक्ष जी के गुणगान के लिए थे। भाव यह था कि अध्यक्ष जी हैं, इसीलिए हिंदी है। ऊ इहो भूल गए कि कार्यक्रम हिंदी दिवस पर है, न कि अध्यक्ष जी के जनम दिवस या फिर उनके हजारवें चंद दरशन पर। खैर, जब गिनती के अध्यक्ष-विरोधियों ने हंगामा शुरू किया, तो गुणगान रोक वह मंच से नीचे उतर आए। अब बारी थी, साउथ से पधारे कवि बालकृष्णन की। वह शुरू हुए-- हिंदी बहुत अच्छा भाषा है और हम चाहते है कि यह भारत भर का भाषा बने...। अभी ऊ अपना लाइन पूरा भी नहीं कर पाए थे कि लगे लोग हंसने और फब्तियां कसने- किसने बुला लिया इसे..., हिंदी की रेड़ मार रहा

सब्र का फल कड़वा होता है

कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है, लेकिन हमको लगता है कि अब इस कहावत में बदलाव की जरूरत है। का है कि सब्र का फल मीठा होबे करेगा, आज के समय में इसकी कोयो गारंटी नहीं ले सकता। अब देखिए न अपने बंगाल टाइगर को। टीम में सलेक्ट होने के इंतजार में बेचारे टाइगर महाराज बूढ़े हुए जा रहे हैं, लेकिन न तो ग्रेट चप्पल को ऊ पहन पा रहे हैं औरो नहिए मोरे का किरण कहीं उनको दिख रहा है। न उनको विदा होने के लिए कहा जाता है औरो न ही रखा जाता है। ऊ तो बस आश्वासन पर जिंदा हैं, जो कभियो चयन समिति से मिलता है, तो कभियो किरकेट बोर्ड से। हमको तो लगता है कि पैड-ग्लब्स पहनकर सिलेक्शन के दिन बुलावे का इंतजार करते-करते गंगुल्ली महाराज जब सो जाते होंगे, तो सपने में भी उनको सब्र से डर लगता होगा। हालांकि ई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि निकम्मा के नाम पर खिलाडि़यों को टीम से बाहर एतना इंतजार कराने वाला किरकेट बोर्ड गुरु गरेग को एतना सब्र के साथ कैसे ढो रहा है! बोर्ड को लगता है कि सब्र से काम लीजिए, गरेग हमको विश्व कप जिताएंगे। जबकि विश्व कप के लिए युवा टीम तैयार कराने के नाम पर ऊ जिस तरह से खिलाडि़यों को अंदर-बाहर कर रहे

भंवर में गुरुजी

हर साल ५ सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन तमाम अन्य 'दिवसों' की तरह लगता है यह भी बस रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है। वजह, कहते हैं कि न तो अब 'वैसे' गुरु इस दुनिया में रहे और न ही 'वैसे' चेले। बदल जाने का आरोप गुरु और चेले दोनों पर है, लेकिन दोनों ही इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। सवाल है कि असलियत क्या है? दरअसल, पूरे परिदृश्य को देखें, तो लगता है जैसे गुरु को इसके लिए जितना गुनहगार माना जाता है, उतना वे हैं नहीं। गुरु अगर आज 'टीचर' बन गए हैं, तो इसके पीछे कई वजहें हैं और बिना उन वजहों की पड़ताल के उन्हें गुनहगार ठहराना जायज नहीं। हम गौर करें, तो पाएंगे कि टीचर का यह बाना गुरुओं ने मजबूरी में भी धारण किया है! और इसके लिए उन्हें जिन चीजों ने सबसे ज्यादा मजबूर किया है, वे हैं- आज का विकट भौतिकवाद, अनुशासन की छड़ी को रोकती कानून की तलवार, निरीह मानव की बनती उनकी छवि और खुद बच्चों के पैरंट्स का खराब रवैया। बेशक 'टीचर युग' की शुरुआत से पहले कम पैसा पाने के बावजूद लोग गुरुजी बनना चाहते थे। तब शिक्षक के पेशे को अपनाने क

ठेके पर पूरी दुनिया

जब हम स्कूल का सबक सही से नहीं निबटाते थे, तो हमरे गुरुजी कहते थे कि बचवा अपना काम ठेके पर निबटा के आया है। आज जब हम दुनिया के ई हालत देख रहा हूं, तो हमरे समझ में आने लगा है कि ठेका से उनका मतलब का होता था! आप कहेंगे कि ई हम अचानके 'ठेका राग' काहे अलापने लगा हूं? तो बात ई है कि ठेका की दो ठो बड़की खबर हमरी नींद उड़ा रही है- पहली खबर है कि दिल्ली में डिमॉलिशन ठेका पर होगा औरो दूसरी खबर है कि अब बिहार में गुरु जी ठेके पर नियुक्त होंगे। यानी एक जगह लोगों का घर-द्वार ठेके के भरोसे है, तो दूसरी जगह देश का भविष्य। लेकिन ठेके का जो परिणाम दुनिया भर में हम देख रहा हूं, उससे तो हमरी हालत खराब हो रही है। दुनिया के अमन-चैन की स्वघोषित ठेकेदारी अमेरिका के पास है। परिणाम देखिए कि पूरा विश्व अशांत है। हालत ई है कि कोतवाली करते-करते कोतवाल सनकी हो गया है। कहियो यहां बम फोड़ने की पलानिंग करता है, तो कहियो वहां। स्थिति उसकी खराब है औरो परेशान बेचारा एशियाई दिखने वाला लोग हो रहा है। सोचिए, अगर अमन-चैन की ठेकेदारी उसके पास नहीं होती, तो विश्व कितना अमन-चैन से रहता। अमन-चैन से तो बीजेपी के नेता भी

शिक्षा मतलब चुनावी घुट्टी

अपने देश में एक ठो बड़की सरकारी संस्थान है, नाम है उसका एनसीईआरटी। वैसे तो इसका काम बच्चों को शिक्षा का घुट्टी पिलाना है, लेकिन असल में सरकार इसका उपयोग चुनावी घुट्टी पिलाने के लिए करती है। यानी एनसीईआरटी का यही मतलब है...नैशनल काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल (एजुकेशन नहीं) रिसर्च एंड टरेनिंग। तभिये न सरकार इसका उपयोग बच्चा सब के भविष्य सुधारने के बदले उसका ब्रेन वॉश करने में करती है। इसकी चुनावी उपयोगिता देखिए कि सरकार बदलते ही अध्यक्ष से लेकर इसका सिलेबस तक बदल जाता है, इसमें राम-रहीम की परिभाषा बदल जाती है। एक सरकार के दौरान इसकी किताब में जिस महापुरुष को बड़का देशभक्त औरो सेक्युलर बताया जाता है, दूसरी सरकार के आते ही ऊ महापुरुष आतंकवादी औरो कम्युनल हो जाता है। इसकी किताबों पर रंग भी चढ़ता है - बीजेपी की सरकार में भगवा औरो कांगरेसी सरकार में लाल। अब ई तो रिसर्च वाली बात है कि कांगरेस में बुद्धिजीवी काहे नहीं पैदा होता है कि उसको लाल झंडे वालों से बुद्धि उधार लेनी पड़ती है। खैर कुछ हो, इसकी किताबों का रंग बदलने से हमरे यहां ऐसन जेनरेशन पैदा हो रही है, जो पूरी तरह कन्फूज है। अभी एक ठो इस्कूल में

डरने का फायदा!

स्वतंत्रता दिवस के दिन जब लाल किला से हमरे परधानमंतरी अपनी कमजोर आवाज में पाकिस्तान को सुधर जाने की 'कड़क' चेतावनी दे रहे थे, तब मारे डर के हम अपने घर में दुबके हुए थे। यहां तक कि हम तभियो बाहर नहीं निकले, जबकि पूरी दुनिया पतंग उड़ाने के लिए अपनी छतों पर चढ़ आई। का है कि सुबह में हमको बस में फिट बम का खतरा सताता रहा, तो दिन में पतंग में फिट बम का। कमबख्त बम नहीं हो गया, टैक्स हो गया- कहीं न कहीं से सिर पर गिरेगा ही! खैर, चैन से हम बैठ नहीं पाए। मन ने कोसा, 'तुम जैसे 'नौजवान' पर ही तो देश को नाज है। कम से कम देश की खातिर को झंडा फहराने निकलो।' अभी साहस बांधकर हम घर से निकलबे किए थे कि पता चला डर के मारे परधानमंतरी जी अपनी 'शाही' बीएमडब्ल्यू कार छोड़कर 'टुच्चा' टाटा सफारी में झंडा फहराने लाल किला पहुंचे। फिर तो मत पूछिए, सारा साहस न जाने कहां घुस गया। आखिर जिस आदमी की सुरक्षा में पूरा फोर्स लगा हो, जब ऊ अपनी कार में चलने का साहस नहीं कर पाता, तो हमरे जैसन गरीब की औकात का है? मैंने इस डर को निकलाने का एक रास्ता सोचा कि सरकार को नौजवानों को मिलिटरी ट

आजादी बोले तो...

'मंगल पांडे' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और रिजेक्ट कर दिया। 'रंग दे बसंती' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और सर आंखों पर बिठा लिया। पहली फिल्म देशभक्ति का नाम लेकर रिलीज हुई, लेकिन फ्लॉप रही, दूसरी फिल्म आम मसाला फिल्म कहकर रिलीज हुई और देशभक्ति पर आधारित फिल्म का दर्जा पा गई। सवाल है, आखिर क्यों मंगल पांडे जैसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर आधारित फिल्म को लोगों ने ठुकरा दिया, लेकिन एक साथी की मौत से नाराज कुछ दोस्तों के हथियार उठा लेने की कहानी का समर्थन किया? वास्तव में इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। दरअसल, जहां देशों की सीमाएं दिनोंदिन कमजोर हो रही हों और लोग देश से ज्यादा ग्लोबल हलचलों या फिर आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे हों, वहां देशभक्ति का मतलब बदलना कोई बड़ी बात भी नहीं है। शायद यही वजह है कि बंदे मातरम् का नारा लगाने से ज्यादा जरूरी अब लोगों को यह लग रहा है कि वे प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए जंतर-मंतर पर आवाज बुलंद करें। उन्हें यह महसूस होने लगा है कि उनकी आजादी को विदेशी शक्तियों से ज्यादा खतरा अपने समाज में मौजूद अस

अथ श्री लंगोट कथा

अभी पटना वाले पोरफेसर साहेब मटुकनाथ बाबू की रास चरचा से हम निपटबो नहीं किए थे कि गवैया उदित बाबू पटना में दू ठो मेहरारू के बीच सैंडबिच बन गए। हमरे मित्र सब कहते हैं कि दोनों मामला ढीली लंगोटी का है। मतलब ढीले करेक्टर का है। एक की लंगोटी शिष्या के कारण ढीली हुई या ई कहिए कि शिष्या ने ढीली कर दी, तो दूसरे की एक ठो बिमान बाला ने। अब हम कन्फूजन में हूं कि इन सूरमाओं को हम ढीली लंगोटी वाला मानूं या कि मजबूत लंगोटी वाला। का है कि ऐसन पंगा दोए आदमी ले सकता है- एक तो उ, जिसकी लंगोटी एतना टाइट हो कि दुनिया लाख कोशिश कर ले, लेकिन खिसका नहीं पाए औरो दूसरा उ, जिसको लंगोटी खिसकने का डरे नहीं हो। खैर, हम कन्फूजन दूर करने पहुंचे पोरफेसर साहेब के पास। छिड़ गई लंगोट चरचा। कहने लगे, 'काहे का लंगोट। हमको का नटवर बाबू समझते हैं कि गलत कामो करेंगे औरो लंगोट की भी चिंता करेंगे! हम तो उसको उसी दिन धारण करना छोड़ दिए, जिस दिन अपना दिल बीवी से हटकर जूली पर आ गया। वैसे, जहां तक कमजोर लंगोटी की बात है, तो ई तो उन पोरफेसरों का है, जो क्लास से लेकर पीएचडी तक में शिष्याओं को टॉप कराते रहते हैं औरो दुनिया को पते

करे कोई, भरे कोई!

लीजिए एक ठो औरो वेतन आयोग गठित हो गया। मतलब निकम्मों-नाकारों को बिना मांगे एक ठो औरो पुरस्कार मिल गया। नसीब इसी को न कहते हैं-- काम-धाम कुछो नहीं औरो तनखा है कि रोज बढ़ता जाता है। जिन बाबूओं और अफसरों के कारण देश दिनों दिन गड्ढे में जा रहा है, उनका तनखा काहे रोज बढ़ता रहता है, ई बात हमरे समझ में आज तक नहीं आई! ई तो कमाकर दो टका नहीं देते सरकार को, उलटे सरकार को कमाकर इनका पेट भरना पड़ता है। अब असली परोबलम ई है कि सरकार तो कमाएगी हमीं-आप से न। सो एक बेर फेर तैयार हो जाइए महंगाई औरो टैक्स के तगड़ा झटका सहने के लिए। ई तो बड़का अन्याय है! किसी की करनी का फल कोयो और काहे भुगते भाई? वैसे, एक बात बताऊं बास्तव में आज की दुनिया में हर जगह यही हो रहा है-- करता कोई है, भुगतता कोई और है। अब आतंकबादिये सब को देख लीजिए न। इनको जो पाल-पोस रहा है, ऊ तो मौजे न कर रहा है, मर तो बेचारी असहाय जनता रही है। पिछले दिनों अपने नेता जी भड़क गए, काहे कि दुनिया जिसको आतंकबादी कहती है, ऊ उनकी 'सिमी' डार्लिंग है। ऊ नेता जी को बोरा में भरके वोट देती है औरो विदेशी से आयातित नोट भी। अब ऐसन डार्लिंग पर अगर आप उ

दुनिया है गोल

दुनिया गोल है, ई बात अब हमहूं दावे के साथ कह सकता हूं। जी नहीं, हम आपको जोगराफिया नहीं पढ़ा रहा हूं। हमरे कहने का मतलब तो बस ई है कि दुनिया में आप कहीं भी जाइए, स्थिति एके जैसी है। अगर चावल का एक दाना देखकर उसके पकने का अंदाजा चल सकता है, तो हम ई कह सकता हूं कि खाली हमरे लिए ही नहीं, दुनिया के हर देश के लोगों के लिए घर की मुरगी दाल बराबर होती है, अपनी स्थिति से कोई खुश नहीं रहता, जाम हर जगह लगता है औरो भरष्टाचार के शिकार सिरफ हमहीं नहीं, दूसरे देश के लोग भी हैं। हमको तो लगता है कि मरने के बाद स्वर्ग पहुंचने वाले लोग भी निश्चित रूप से अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं रहते होंगे। का है कि अभी हम मलेशिया गए थे। चकाचक मलेशिया देखने के बाद हम ई सोचियो नहीं सकते कि पेट्रो डालर, पाम आयल औरो रबर से ठनाठन नगदी कमाने वाली जनता अपनी स्थिति से नाखुशो हो सकती है, लेकिन हकीकत यही है। एतना पैसा होने के बावजूद लोग औरो पैसा कमाने का साधन नहीं जुटाने के लिए सरकार को कोसते रहते हैं, तो मलेशिया की जिस खूबसूरती को देखने के लिए पूरी दुनिया से लोग आते हैं, वहीं की जनता उसे निहारना नहीं चाहती। हालत ई है कि झोला उठ

भविष्य का बेड़ा गर्क

आजकल सब कुछ भविष्य के भरोसे ही हो रहा है। जिससे मिलिए, वही आपको भविष्य के लिए चिंतित दिखेगा। कोयो भविष्य की चिंता बेचकर कमा रहा है, तो कोयो भविष्य की चिंता खरीदकर गंवा रहा है। लेकिन इस सब के बीच गड़बड़ ई है कि भविष्य के फेर में सब अपना बेड़ा गर्क करवा रहा है। अब दिल्लिये को लीजिए। यहां के लोग सब भविष्य से बहुते डरते हैं। भविष्य की चिंता उनकी जेब काट रही है। यहां जमीन है नहीं, लेकिन बिल्डर सब कागज पर घर बनाकर खूब बेच रहा है औरो लोग सब खरीदियो रहा है! यहां आपको ऐसन-ऐसन कालोनी मिलेगी, जहां पीने के लिए पानी औरो रोशनी के लिए बिजली नहीं है, लेकिन घर का दाम सुनिएगा, तो गश आ जाएगा! घर देखने जाइए, तो बिल्डर आपको पहले ठंडा पिलाएगा, फिर बताएगा कि कैसे दो साल में इसका दाम दुगुना होने वाला है। दूर का ढोल सबको सुहाना लगता है, सो बिल्डर का बताया भविष्य का सपना आपको एतना मीठा लगेगा कि जेब खाली करके या बैंक से लोन लेके या फिर दोस्तों से गाली खाके भी आप उस भविष्य को खरीद ही लीजिएगा। लेकिन आपको झटका लगेगा तब, जब वहां आपको मुफ्त में रहने वाला किराएदार भी नहीं मिलेगा! भविष्य की इस चिंता ने कैसन बेड़ा गर्क

'सेल' में सरकार

लीजिए, दिल्ली सरकार अब पियोर व्यापारी हो गई है। का है कि जैसे दुकानदार सब होली-दीवाली पर सेल लगाता है न, वैसने दिल्ली सरकारो अब सेल लगाने लगी है। पहले चीजों का दाम ८० परसेंट बढ़ाकर स्टीकर चिपका दीजिए औरो फिर बड़का बैनर पर अप टू ७० परसेंट सेल लिखकर टांग दीजिए। जनता खुश! केतना सस्ता चीज मिल रहा। अब गिरहकट ने कैसे जेब काट लिया ई पता किसको चलता है! तो भइया दिल्ली सरकार ने भी तेल के खेल में व्यापारी वाला बुद्धि लगाया। उसको पता था कि पेटरोल-डीजल का दाम बढ़ते ही लोग हाय-हाय करेंगे, सो ऐसा करो कि दाम एतना बढ़ा दो कि जब लोग हाय-हाय करने लगेंगे, तो थोड़ा दाम घटाकर वाहवाही लूट सको। अब सरकार का धंधा देखिए कि पेटरोल का चार टका दाम बढ़ा के ६७ पैसा का सेल लगा दिया, तो डीजल का दो टका दाम बढ़ा के २२ पैसा का सेल लगा दिया। और अब उ सीना तान रही है कि देखो, हम जनता का केतना चिंता करते हैं। वैसे, इस सरकारी रवैया के लिए जनतो कम दोषी नहीं है। अब का है कि तनिये ठो छूट देख के आप समान लूटने के लिए टूट पडि़एगा, तो आपको कोयो बेकूफ बना सकता है। हमको तो इस तेल में दोसरे खेल नजर आता है। हमरे खयाल से सरकार ने अब पेटरो