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अप्रैल, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कितने गिरे गीअर?

पिछले दिनों एड्स जागरूकता के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में हॉलिवुड एक्टर रिचर्ड गीअर और शिल्पा शेट्टी के चुंबन प्रकरण को यूं तो मोरल पुलिसिंग न करने के नाम पर खारिज किया जा सकता है, लेकिन गौर से देखें, तो यह यूं ही भुला देने वाली बात भी नहीं है। हालांकि खुद शिल्पा ने इतना कुछ होने के बावजूद इसका कोई खास विरोध नहीं किया और रिचर्ड की संस्कृति की बात कहकर वह इस मामले को ठंडा भी करना चाहती हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे रिचर्ड और शिल्पा के बीच का आपसी मुद्दा मानकर छोड़ देना चाहिए या भविष्य के लिए सबक के तौर पर याद रखना चाहिए? वैसे, सवाल और भी हैं। पहली बात तो यह कि क्या रिचर्ड या शिल्पा जैसी शख्सियतों से सार्वजनिक मंच पर इतनी छिछोरी हरकत की उम्मीद की जा सकती है? दूसरी बात यह है कि क्या खुले माहौल का मतलब अभी भी यही माना जाए कि पुरुष कहीं भी अपनी मनमानी के लिए स्वतंत्र हैं? और तीसरी बात यह कि खबरिया चैनल्स इस तरह के दृश्य को घंटों दिखाकर अपने को कैसे कम गुनाहगार मान सकते हैं? गौरतलब है कि कुछ ही महीनों के अंदर यह दूसरा मौका है, जब सेलिब्रिटी स्टेटस प्राप्त दो महिलाओं के साथ उनके पुरुष मित्

न्याय पर एतना गुस्सा!

उस दिन नेताजी बहुते गुस्सा में थे। लगा उनका बस चलता, तो देश से सब ठो कोर्ट-कचहरी को उखाड़ फेंकते। बोलने लगे, 'आखिर हर चीज की एक लिमिट होती है, लेकिन ई कोर्ट है कि दिनों दिन बेकाबुए होता जा रहा है। बताइए, कभियो आरक्षण में अड़ंगा लगा देता है, तो कभियो अल्पसंख्यक की परिभाषे बदल देता है। अरे भाई, आपको जो काम दिया गया है, ऊ न कीजिए, खामखा सामाजिक न्याय में टांग काहे अड़ाते हैं... आप चोरी चकारी का मामला देखिए, मियां-बीवी का झगड़ा सुलटाइए, पॉकेटमारों को सजा दीजिए..., झूठ्ठे सरकारी फैसलों में न्याय खोजते रहते हैं! न्याय किस चिडि़या का नाम है, ई हम नेता लोग से ज्यादा आप नहीं जान सकते! अपनी औकात समझिए औरो हमरी औकात पर सवालिया निशान मत लगाइए! एतना कहते कहते नेताजी का हलक सूखने लगा। हमने उन्हें बढ़िया कंपनी का कोला पिलाया, तब जाकर ऊ तनिक ठंडा हुए, लेकिन तुरंते फिर गरमा गए, 'ई कोर्ट ने जीना हराम कर दिया है। माना कि हम सिंगुर औरो नंदीग्राम में बाजार से हार गया हूं, लेकिन कोर्ट से थोड़े हार सकता हूं। हम ईंट से ईंट बजा दूंगा।' ईंट की बात सुनकर हमने नेताजी को रोका, 'लेकिन आपने गरीबों को

कांग्रेस की बत्ती गुल!

क्या कहते हैं उसे... हां 'धो डालना'। तो बीजेपी ने भी कांग्रेस को दिल्ली के एमसीडी के चुनाव में धो डाला। धोना इस सेंस में कि खुद कांग्रेस को भी अपनी ऐसी दुर्गति की आशंका नहीं थी और न ही बीजेपी को इतनी बड़ी जीत की उम्मीद! आखिर कौन यह सोच सकता था राज्य में बिना किसी कद्दावर नेतृत्व के भी बीजेपी 164 सीटें पा लेगी और कांग्रेस 69 सीट लेकर देखती रह जाएगी! वैसे, इसे लोकतंत्र का चमत्कार और विडंबना ही कहिए कि इस जीत के लिए खुद बीजेपी भी अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती! यह तो कहिए कि कांग्रेस ने दिल्ली की इतनी दुर्गति ही कर दी थी कि मजबूरन लोगों को बीजेपी को चुनना पड़ा। वरना बीजेपी कोई सुधरी पार्टी कतई नहीं है कि उसे एमसीडी की जिम्मेदारी सौंप कर जनता निश्चिंत हो जाए। तमाम लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस को सीलिंग और अवैध निर्माणों के तोड़फोड़ की सजा मिली, लेकिन यह हार की एकमात्र और सबसे बड़ी वजह कतई नहीं है। कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए जो सबसे बड़ा फैक्टर जिम्मेदार है, वह है कमर तोड़ महंगाई। दाल, चावल, सब्जियों और घरेलू चीजों के दाम हाल के महीनों में इतनी तेजी से बढ़े कि लोगों को घर का बजट देखकर

ई तो कुछ बेसिए हो गया

आपने ऊ सुना कि नहीं कि एक सर्वे में दिल्ली को 'क्वालिटी आफ लिविंग' के पैमाना पर 215 देशों में 148वां स्थान मिला है औरो इस बात पर तमाम लोग खुशियां मना रहे हैं। लोगों का तो नहीं पता, लेकिन हमरे लिए ई फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि इस खबर पर हंसूं या रोऊं। हमरे लिए ई गर्व की बात इसलिए नहीं, काहे कि हमको इसकी बुनियादे बहुत कमजोर दिखती है। सबसे पहली बात तो ई कि दिल्ली की सारी चमक-दमक दस परसेंट लोगों के बल पर है औरो अगर नब्बे परसेंट लोग बस किसी तरह जिंदगी काट रहे हों, तो आप किसी शहर को ऐसन तमगा नहीं दे सकते। दूसरी बात ई कि इन दस परसेंट लोग में से भी 'पसीने की कमाई' बहुत कम लोगों के पास है औरो उन्हीं लोगों के चलते बाकी नब्बे परसेंट दिल्ली झुग्गी बनकर रह गई है। दरअसल, भरष्टाचार की अजीब महिमा ई है कि इससे पावर औरो पैसे वाले लोगों का तो जीवनस्तर सुधरता चला जाता है, लेकिन यही सुधरता जीवनस्तर बाकियों के लिए अभिशाप बन जाता है। आखिर जोंक दूसरे जीवों का खून पीकर ही तो मोटे होते हैं। तो अगर जोंकों के भरोसे दिल्ली का लिविंग स्डैंडर्ड किसी सर्वे में हाई दिखता हो, तो हमरे खयाल से किसी