Tuesday, April 17, 2007

कितने गिरे गीअर?

पिछले दिनों एड्स जागरूकता के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में हॉलिवुड एक्टर रिचर्ड गीअर और शिल्पा शेट्टी के चुंबन प्रकरण को यूं तो मोरल पुलिसिंग न करने के नाम पर खारिज किया जा सकता है, लेकिन गौर से देखें, तो यह यूं ही भुला देने वाली बात भी नहीं है। हालांकि खुद शिल्पा ने इतना कुछ होने के बावजूद इसका कोई खास विरोध नहीं किया और रिचर्ड की संस्कृति की बात कहकर वह इस मामले को ठंडा भी करना चाहती हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे रिचर्ड और शिल्पा के बीच का आपसी मुद्दा मानकर छोड़ देना चाहिए या भविष्य के लिए सबक के तौर पर याद रखना चाहिए?

वैसे, सवाल और भी हैं। पहली बात तो यह कि क्या रिचर्ड या शिल्पा जैसी शख्सियतों से सार्वजनिक मंच पर इतनी छिछोरी हरकत की उम्मीद की जा सकती है? दूसरी बात यह है कि क्या खुले माहौल का मतलब अभी भी यही माना जाए कि पुरुष कहीं भी अपनी मनमानी के लिए स्वतंत्र हैं? और तीसरी बात यह कि खबरिया चैनल्स इस तरह के दृश्य को घंटों दिखाकर अपने को कैसे कम गुनाहगार मान सकते हैं?

गौरतलब है कि कुछ ही महीनों के अंदर यह दूसरा मौका है, जब सेलिब्रिटी स्टेटस प्राप्त दो महिलाओं के साथ उनके पुरुष मित्रों ने सरेआम इस तरह की शर्मनाक हरकत की है और खबरिया चैनलों की 'कृपा' से करोड़ों लोगों का 'मनोरंजन' हुआ है। बहुत दिन नहीं हुए, जब सिंगर मीका ने राखी सावंत को अपने बर्थडे पार्टी में जबर्दस्ती किस किया था और उसके विरोध में राखी सावंत थाने चली गई थी। हालांकि राखी के इस विरोध का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला और बात आई-गई हो गई। वैसे, यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि मीका के बात वहीं खत्म नहीं हो गई थी। उन्होंने 'चोरी और सीनाजोरी' के अंदाज में उस प्रकरण पर एक गाना ही गा डाला 'भाई तूने पप्पी क्यों ली...' और आश्चर्य की बात यह कि उनके इस गाने का कोई विरोध भी नहीं हुआ। कहां तो सभ्य समाज में जीने का तकाजा यह था कि मीका शर्मिंदगी से कभी सिर न उठा पाते और कहां हुआ यह कि मीका खुद भी इस प्रकरण से मौज ले रहे हैं व दूसरे का भी मनोरंजन कर रहे हैं।

हालांकि राखी-मीका प्रकरण से रिचर्ड -शिल्पा प्रकरण की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन इन दोनों घटनाओं और खबरिया चैनलों का इन पर 'मौज' लेने के अंदाज को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि ऐसे प्रकरण आगे भी बहुतायत में हमें देखने को मिले, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। चलिए एक बार को यह मान भी लिया जाए कि रिचर्ड की संस्कृति में ऐसी हरकतें गलत नहीं हैं, लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि भारतीय संस्कृति क्या है? आखिर रिचर्ड सामाजिक कार्यों के सिलसिले में सालों से भारत आते रहे हैं। वैसे भी सार्वजनिक मंच पर किसी पुरुष द्वारा महिला को इस तरह बलपूर्वक चूमने को कोई भी सभ्य समाज मान्यता नहीं दे सकता, फिर चाहे वह मीका हो या फिर रिचर्ड गिअर। अपनी पर्सनल लाइफ में आप कुछ भी हो सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थान की अपनी जो गरिमा होती है, उसका खयाल हर किसी को रखना ही चाहिए।

Thursday, April 12, 2007

न्याय पर एतना गुस्सा!

उस दिन नेताजी बहुते गुस्सा में थे। लगा उनका बस चलता, तो देश से सब ठो कोर्ट-कचहरी को उखाड़ फेंकते। बोलने लगे, 'आखिर हर चीज की एक लिमिट होती है, लेकिन ई कोर्ट है कि दिनों दिन बेकाबुए होता जा रहा है। बताइए, कभियो आरक्षण में अड़ंगा लगा देता है, तो कभियो अल्पसंख्यक की परिभाषे बदल देता है। अरे भाई, आपको जो काम दिया गया है, ऊ न कीजिए, खामखा सामाजिक न्याय में टांग काहे अड़ाते हैं... आप चोरी चकारी का मामला देखिए, मियां-बीवी का झगड़ा सुलटाइए, पॉकेटमारों को सजा दीजिए..., झूठ्ठे सरकारी फैसलों में न्याय खोजते रहते हैं! न्याय किस चिडि़या का नाम है, ई हम नेता लोग से ज्यादा आप नहीं जान सकते! अपनी औकात समझिए औरो हमरी औकात पर सवालिया निशान मत लगाइए!

एतना कहते कहते नेताजी का हलक सूखने लगा। हमने उन्हें बढ़िया कंपनी का कोला पिलाया, तब जाकर ऊ तनिक ठंडा हुए, लेकिन तुरंते फिर गरमा गए, 'ई कोर्ट ने जीना हराम कर दिया है। माना कि हम सिंगुर औरो नंदीग्राम में बाजार से हार गया हूं, लेकिन कोर्ट से थोड़े हार सकता हूं। हम ईंट से ईंट बजा दूंगा।'

ईंट की बात सुनकर हमने नेताजी को रोका, 'लेकिन आपने गरीबों को जिस तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, उससे तो आपको बजाने के लिए ईंट भी नहीं मिलेगी। ईंट भट्ठे पर गरीब मर रहे हैं, लेकिन आप तो कुछो नहीं करते?'

नेताजी तनिक नरमाए, 'ई किसने कहा कि हम गरीबों के लिए कुछ नहीं करते? बस बिजनेसमैनों को हम परेशान नहीं करना चाहता हूं, काहे कि ऊ देश में कारखाना लगा रहे हैं, सेज बना रहे हैं, लेकिन मजदूरों की मदद के लिए हमरे पास अभियो बहुत हथियार है। हम मजदूरों की दिहाड़ी भले नहीं बढ़वा सकता हूं, लेकिन हम ईंट भट्ठा पर जाऊंगा औरो बहुसंख्यकों की दिहाड़ी से एक रुपया कटवाकर अल्पसंख्यकों को दिलवाऊंगा। अल्पसंख्यक का स्टेटस उससे कोयो नहीं छीन सकता। ऐसने हम वहां ओबीसी के लिए साढे़ 27 परतिशत आरक्षणो लागू करवाऊंगा।'

हमने कहा, 'लेकिन जिन मजदूरों से आप एक रुपया काटेंगे, उनमें तो ओबीसी भी होंगे?'
नेताजी फिर संभले, 'हां, होंगे, लेकिन हमरे लिए अल्पसंख्यकों की बेहतरी औरो अगड़ों को आसमान से नीचे उतारना पहली चिंता है। अगड़ों ने सदियों से मलाई खाई है औरो अब उन्हें दूसरे को मलाई खाने देना चाहिए। हमारा सिद्धांत 'जैसे को तैसा' वाला है। अगड़ों ने पहले पिछड़ों को दबाया, अब अगड़ों को दबाओ...।'

हमने उन्हें रोका, 'फिर तो अल्पसंख्यक से भी आपको 'जैसे का तैसा' वाला बर्ताव करना चाहिए। उन्होंने भी आज के बहुसंख्यक को सदियों तक दबाया है। वो आपने तो सुना होगा- जजिया कर...।'
नेताजी ने हमको इससे आगे एको ठो शब्द नहीं बोलने दिया। बोले, 'काहे साम्प्रदायिकता वाली बात करते हो। जो बात सदियों पुरानी है, उस पर बहस कैसा? गड़े मुर्दे काहे उखाड़ना, इससे साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ता है...।'

अब हमने नेताजी को रोका, 'फिर तो आपको भी कोर्ट की बात मान लेनी चाहिए कि जातिगत आरक्षण से समाज बंटेगा। पुरखों की गलती की सजा अगर आप एक को नहीं देना चाहते, तो दूसरे को काहे देना चाहते हैं...?'

हमरी बात सुनकर नेताजी का हाजमा बिगड़ गया। ऊ अभियो शौचालय में हैं औरो शायद अपने को सही साबित करने वाला तर्क खोज रहे हैं। कोर्ट को अब ऊ बाद में देखेंगे। चलिए इंतजार करते हैं!

Saturday, April 07, 2007

कांग्रेस की बत्ती गुल!

क्या कहते हैं उसे... हां 'धो डालना'। तो बीजेपी ने भी कांग्रेस को दिल्ली के एमसीडी के चुनाव में धो डाला। धोना इस सेंस में कि खुद कांग्रेस को भी अपनी ऐसी दुर्गति की आशंका नहीं थी और न ही बीजेपी को इतनी बड़ी जीत की उम्मीद! आखिर कौन यह सोच सकता था राज्य में बिना किसी कद्दावर नेतृत्व के भी बीजेपी 164 सीटें पा लेगी और कांग्रेस 69 सीट लेकर देखती रह जाएगी!

वैसे, इसे लोकतंत्र का चमत्कार और विडंबना ही कहिए कि इस जीत के लिए खुद बीजेपी भी अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती! यह तो कहिए कि कांग्रेस ने दिल्ली की इतनी दुर्गति ही कर दी थी कि मजबूरन लोगों को बीजेपी को चुनना पड़ा। वरना बीजेपी कोई सुधरी पार्टी कतई नहीं है कि उसे एमसीडी की जिम्मेदारी सौंप कर जनता निश्चिंत हो जाए।

तमाम लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस को सीलिंग और अवैध निर्माणों के तोड़फोड़ की सजा मिली, लेकिन यह हार की एकमात्र और सबसे बड़ी वजह कतई नहीं है। कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए जो सबसे बड़ा फैक्टर जिम्मेदार है, वह है कमर तोड़ महंगाई। दाल, चावल, सब्जियों और घरेलू चीजों के दाम हाल के महीनों में इतनी तेजी से बढ़े कि लोगों को घर का बजट देखकर बेहोशी आने लगी है। इतिहास खुद को दोहराता है और इस चुनाव में भी यही हुआ। यह तो कहिए कि बीजेपी ने एक तरह से बदला वसूला है कांग्रेस से। नौ साल पहले प्याज की आसमान चढ़ती कीमतों ने बीजेपी से दिल्ली का ताज छिन लिया था और अब दाल-सब्जी की आसमान छूती कीमतों ने कांग्रेस को पटकनी दे दी है। सत्ता छीनने का हथियार यहां एक ही है।

हालांकि एमसीडी चुनाव की इतनी अहमियत नहीं होती कि इसके परिणाम को जनता का जनादेश मान शीला दीक्षित को इस्तीफा देने को मजबूर किया जाए, लेकिन कांग्रेस ही नहीं बीजेपी के लिए भी यह चुनाव एक सबक है। अगर बीजेपी दिल्ली के ज्वलंत मुद्दे की आग जलाकर रख पाती है, तो तय मानिए कि अगले विधानसभा चुनाव में भी वह कांग्रेस की छुट्टी कर देगी, लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस एमसीडी के इस चुनाव से कोई सबक नहीं लेगी और बीजेपी को विधानसभा में भी मौका दे देगी?

अगर राज्य के वर्तमान स्थितियों को देखें, तो यह कम ही उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन में एमसीडी चुनाव की तुलना में कोई सुधार होने वाला है। वजह यह कि कांग्रेस की हार के कारणों-- सीलिंग, अवैध निर्माणों की तोड़फोड़, पानी, बिजली और महंगाई, किसी में भी सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही। आखिर इनमें से कोई भी चीज दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है। सीलिंग व अवैध निर्माण के मामले में कोई भी सकारात्मक परिणाम के लिए वह कोर्ट पर निर्भर है, तो पानी व बिजली के मामले में पड़ोसी राज्यों पर। महंगाई कोई लोकल मुद्दा नहीं है और दिल्ली सरकार चाहकर भी चीजों के दाम को महंगाई के आसमान से नीचे नहीं उतार सकती। तो कांग्रेस ने यह हार अपनी प्रशासनिक अक्षमताओं की वजह से कम और दूसरी वजहों से ज्यादा खाई है। हां, इस हार में पार्टी और सरकार के बीच तारतम्य की जो कमी है, उसकी भी अपनी भूमिका रही है।

इस चुनाव से सबक: दिल्ली के एमसीडी चुनावों के परिणाम को देखकर कोई भी सरकार यह सोचना छोड़ दे कि वह मॉल, मल्टीप्लेक्स और फ्लाईओवर्स से राज्य को सजाकर जनता से वोट पा लेगी। हालांकि हम ऐसा ही परिणाम चंद्रबाबू नायडू की आंध्र प्रदेश से विदाई के रूप में भी देख चुके हैं। सच तो यह है कि इन चीजों के रहने और न रहने से जनता को उतना फर्क नहीं पड़ता, जितना कि पेट में अन्न होने से। अगर जनता के पेट में अन्न नहीं होगा, तो वह किसी भी सरकार का तख्ता पलट सकती है। उसे आप धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता के नाम पर हमेशा मूर्ख नहीं बना सकते और न ही समस्या का अस्थायी समाधान निकालकर उसे भरमा सकते हैं।

Friday, April 06, 2007

ई तो कुछ बेसिए हो गया

आपने ऊ सुना कि नहीं कि एक सर्वे में दिल्ली को 'क्वालिटी आफ लिविंग' के पैमाना पर 215 देशों में 148वां स्थान मिला है औरो इस बात पर तमाम लोग खुशियां मना रहे हैं। लोगों का तो नहीं पता, लेकिन हमरे लिए ई फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि इस खबर पर हंसूं या रोऊं। हमरे लिए ई गर्व की बात इसलिए नहीं, काहे कि हमको इसकी बुनियादे बहुत कमजोर दिखती है। सबसे पहली बात तो ई कि दिल्ली की सारी चमक-दमक दस परसेंट लोगों के बल पर है औरो अगर नब्बे परसेंट लोग बस किसी तरह जिंदगी काट रहे हों, तो आप किसी शहर को ऐसन तमगा नहीं दे सकते। दूसरी बात ई कि इन दस परसेंट लोग में से भी 'पसीने की कमाई' बहुत कम लोगों के पास है औरो उन्हीं लोगों के चलते बाकी नब्बे परसेंट दिल्ली झुग्गी बनकर रह गई है।

दरअसल, भरष्टाचार की अजीब महिमा ई है कि इससे पावर औरो पैसे वाले लोगों का तो जीवनस्तर सुधरता चला जाता है, लेकिन यही सुधरता जीवनस्तर बाकियों के लिए अभिशाप बन जाता है। आखिर जोंक दूसरे जीवों का खून पीकर ही तो मोटे होते हैं। तो अगर जोंकों के भरोसे दिल्ली का लिविंग स्डैंडर्ड किसी सर्वे में हाई दिखता हो, तो हमरे खयाल से किसी के लिए यह गर्व की बात नहीं।

दरअसल, कुछ ऐसन बात है, जो हमको कतई ई नहीं विश्वास होने देती कि दिल्ली में जीवनस्तर सुधर रहा है। दूसरे को छोडि़ए, खुदे सरकार मानती है कि दिल्ली में 80 परसेंट रिहायशी मकान अवैध है। मतलब साफ है, वहां नागरिक सुविधाएं भी अवैध कालोनियों जैसी ही है। इन कालोनियों में बस किसी तरह पानी औरो बिजली पहुंच रही है, अधिकतर में तो सीवेज सिस्टम तक नहीं है, सड़क औरो पार्क की तो बाते मत कीजिए। एक का घर दूसरे के घर पर चढ़ा हुआ है, गलियां औरो सड़क इतनी संकरी है कि आग लग जाए या भूकंप हो जाए, तो मरने वाले आदमियों की संख्या शताब्दी का रिकार्ड बना ले। लोगों के घर में कूलर है, फ्रीज है, एसी है, लेकिन बिजली रोज आठ घंटे कटती है। बताइए, जहां के अस्सी परसेंट लोगों के घर में पावर कट के कारण फ्रीज दिन में तीन बार अपने आप डिफ्रॉस्ट हो जाता हो, वहां कोयो सर्वे ई कैसे दावा कर सकता है कि वहां जीवनस्तर सुधर रहा है!

हमको तो लगता है कि सर्वे करने वालों ने रोड पर कार, फ्लाई ओवर औरो रोड के किनारे चमचमाते मॉल व मल्टीप्लेक्स देखके ई घोषित कर दिया कि दिल्ली का जीवनस्तर सुधर रहा है। उन 'काबिलों' ने ई नहीं देखा कि ये कार, फ्लाईओवर औरो मॉल-मल्टीप्लेक्स दिल्ली के दस परसेंट आदमी के काम का भी नहीं है। उन लोगों ने ई नहीं देखा कि दिल्ली के बहुसंख्यक लोग अभियो वाजिब पैसा देकर भी ब्लू लाइन के कंडक्टरों की गालियां सहते हुए दिल्ली की सड़कों पर सफर करते हैं। उन्होंने ई नहीं देखा कि दिल्ली का तीन चौथाई इलाका बैंकों के रजिस्टर में नेगेटिव एरिया घोषित है, जहां रहने वालों को लोन भी नहीं मिलता औरो बिना लोन के तो मिडिल क्लास रात में सपना तक नहीं देख सकता। फिर उन्होंने इहो नहीं देखा कि लोगों को नाला साफ कराने तक के लिए कोर्ट के शरण में जाना पड़ता है औरो पार्किंग के मुद्दे पर पड़ोसियों में गालियां से गोलियां तक चलती हैं। और जब एतना सब के बावजूद किसी को स्थिति सुधरती लग रही है, तो यकीन मानिए कि या तो ऊ बहुते आशावादी लोग हैं या फिर इस घोषणा में उनका कोयो स्वार्थ है!