Thursday, January 25, 2007

अकेला गण, एतना विरोधी तंत्र

हम साल भर अपने देश पर नाज करता रहता हूं, लेकिन जैसने २६ जनवरी आता है, हमरा मन बदल जाता है। गणतंत्र के नाम से हमको चिढ़ होने लगता है- सुनते ही लगता है, जैसे दो-चार सौ मधुमक्खियों ने हमको भभौंड़ लिया हो।

गणतंत्र से बेसी तो इस देश में 'गनतंत्र' की चलती है। आखिर जहां गन के बल पर नेता वोट लूटकर ले जाता हो, चोर नोट लूटकर ले जाता हो, सरकार जनता के मुंह पर पट्टी बांध देती हो औरो आतंकवादी बेटी से लेकर बोटी तक लूटकर ले जाता हो, उसे 'गनतंत्र' समझने में बुराइए का है?

वैसे, आप इस देश को 'गुणतंत्र' कहें, तो भी चलेगा। आखिर आज देश में वही लोग ठीक से जी रहे हैं, जिनके पास गुण है, जो पढ़ल-लिखल है। यहां जो गरीब है, निरक्षर है, बिना किसी हुनर का है, ऊ तो जानवर से भी बदतर जिंदगी जी रहा है। ऐसन 'गुणतंत्र' में ही हो सकता है। गणतंत्र में तो गरीब, निरक्षरों को भी जीने का हक मिलता है, कमजोरों की भी अपनी इज्जत होती है। अपना देश 'गुणतंत्र' इस मामले में भी है कि यहां गुणगान करने वाले ही फलते-फूलते हैं। आप भले ही बहुत काबिल हों, बॉस का गुणगान नहीं करते, तो आपकी गाड़ी हमेशा एक ही प्लेटफारम पर अटकी रहेगी। केंद्र हो या राज्य, मंतरी वही नेता बनता है, जो सबसे बड़का चारण हो, भाट हो औरो पार्टी अध्यक्ष के गुणगान में कोई चालीसा लिख सके या गा सके - सोनिया चालीसा, लालू चालीसा, अटल चालीसा जैसन कुछ।

आप इहो कह सकते हैं कि अपने महान देश में 'ऋणतंत्र' है। चार्वाक का यह देश उनके दर्शन 'ऋणं कृत्वा घृतं पिबैत' से पूरे अभिभूत है। देश औरो बाजार की सब चमक-दमक ऋण के भरोसे है। बात- बात पर ऋण उपलब्ध है-- जीने के ऋण, मरने के लिए ऋण, शादी के लिए ऋण, बच्चा पैदा करने के लिए ऋण, औरो कुछ नहीं तो ऋण चुकाने के लिए ऋण...! लेकिन विडंबना ई कि गरीब औरो किसानों के लिए एको ठो ऋण नहीं है।

देश पर एतना ऋण है कि यहां बच्चा पैदा होते ही अमेरिका के सैकड़ों डालर के कर्जा तले दब जाता है। एतना कर्जा खा के कोयो कैसे किसी का विरोध कर सकता है? यही वजह है कि हम अमेरिका के किसी गलत काम का विरोध नहीं कर पाते। जब आप अपने देश में भी किसी दूसरे देश का विरोध नहीं कर सकते, बैंक रोड पर लोन वाली आपकी कार छिन लेती है औरो आप उसे रोक नहीं सकते, तो काहे का गणतंत्र? इससे बढ़िया तो ई कहिए कि यह राजतंत्र है। यहां ऋण देने वाले कुछ हजार सूदखोर महाजनों से लेकर बैंक तक, सब राजा हैं औरो ऋण खाने वाले अरब भर लोग उनकी परजा।

वैसे, ई देश हमको गणतंत्र से बेसी 'कणतंत्र' लगता है, यानी यहां का कण-कण अलग है, कहीं कोई एका नहीं है। कोयो धरम के लिए लड़ रहा है, तो कोयो जाति के लिए, कोयो चमड़ी के रंग पर लड़ रहा है, तो कोयो दमड़ी के दम पर, कोयो बिहारी है, तो कोयो पंजाबी, कोयो असमी है, तो कोयो गुजराती औरो मराठी। मां अलग है, तो बेटा अलग, बाप अलग है, तो बेटी अलग। अब जब किसी तंत्र में एतना अलगाव हो, तो उसे कणतंत्र ही कहिए, तो ठीक रहेगा।

अपने देश में 'छिनतंत्र' भी है, यानी 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस'। आपसे आपका सब कुछ छिन सकता है औरो आप वह हर चीज पा सकते हैं, जो आप दूसरे से छीन सकते हैं। इससे बढ़िया तो जंगल है-- शेर का पेट भरा है, तो दिन भर के लिए बकरे की अम्मा खैर मना सकती है। अपने यहां तो तोंद लटककर जमीन छूने लगती है, तभियो लोगों की भूख नहीं मिटती औरो ऊ दूसरे की रोटी छीनने में लगे रहते हैं।
ऐसन में हमरे लिए तो गणतंत्र उस दिन होगा, जब गण के एतना विरोधी तंत्र में से एको ठो तंत्र कम हो जाएगा!

Monday, January 22, 2007

इस मानसिकता का क्या कहिए

रियलिटी शो 'बिग ब्रदर' में रेसिज्म को लेकर शिल्पा शेट्टी के ऊपर जो कुछ भी गुजरा, उससे आम भारतीय अपने को बेहद आहत महसूस कर रहा है। लेकिन अपने देश में भी ऐसे भेदभाव कम नहीं होते, भले ही इसका रूप दूसरा होता है:

शिल्पा शेट्टी पर नस्लीय टिप्पणी के बाद एक बार फिर से रेसिज्म चर्चा में है। हालांकि हाल के दिनों में आतंकवाद के चलते रेसिज्म विश्व भर में चर्चा का विषय बना, लेकिन हमारे लिए वह चर्चा का विषय तभी बन पाया, जब कोई सिलेब्रिटी इसकी चपेट में आया। पिछले दिनों हर्शल गिब्स ने पाकिस्तानी दर्शकों पर जब नस्लीय टिप्पणी की, तो उन्हें दो मैचों के लिए बैन कर दिया या। डीन जोंस को भी कमेंट्री के दौरान दक्षिणी अफ्रीकी क्रिकेटर हाशिम अमला को टेररिस्ट जैसा बताने पर अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। रेसिज्म को लेकर विवाद में शेन वॉर्न भी आए और तब भी इसकी खूब चर्चा हुई, जब फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान जिनेदिन जिदान पर मातेराजी ने नस्लीय टिप्पणी की।

यानी यह सिर्फ हमारी पीड़ा नहीं है, विश्व भर में लोग इससे परेशान हैं। लंदन में तो हालत यह है कि काले युवा जो कपडे़ पहनते हैं, वे उनका ब्रैंड और प्राइस टैग लगाकर चलते हैं, ताकि उनकी आर्थिक स्थिति का पता औरों को चले और उन्हें 'सड़क पर का आदमी' न समझा जाए।

शिल्पा के बहाने

हालांकि शिल्पा को ब्रिटेन में रेसिज्म की समस्या से जूझना पड़ा है, लेकिन अपने देश में भी ऐसी समस्याओं से लोग जूझ रहे हैं, जो रेसिज्म तो नहीं है, लेकिन बहुत कुछ उसी के जैसा है।
शिल्पा शेट्टी बेहतरीन डांसर भी हैं। फिल्म 'शूल' के गाने 'मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने...' पर ठुमके लाकर उन्होंने कभी यूपी-बिहार लूटा था। लेकिन अब 'बिग ब्रदर' में उन पर जो नस्लीय टिप्पणी हुई है, उसका भी यूपी-बिहार से खास संबंध है। दरअसल, वह लंदन में नस्लीय भेदभाव की शिकार हुई हैं, तो यूपी-बिहार के लोग अपने ही देश में क्षेत्रीयता की अंधी भावना के शिकार हैं। यूपी-बिहार ही क्यों, नॉर्थ-ईस्ट के लोगों को लेकर भी तो ऐसी ही सोच है शेष भारत में।

ऐसे में तमाम लोगों का मानना है कि यही सही समय है, जब हमें अपने देश में व्याप्त क्षेत्रीयता और सामुदायिक श्रेष्ठता की अंधी भावना के बारे में भी सोचना चाहिए। उनके अनुसार यह किसी भी तरह से नस्लीय भेदभाव से कम नहीं है। एक 'रेशियल बिहेवियर' है, तो दूसरा 'टेरिटोरियल बिहेवियर' और साइकॉलजी के अनुसार दोनों ही बीमार मानसिकता के लक्षण हैं। यानी जितना दोषी नस्लवाद को हवा देने वाले हैं, उतना ही क्षेत्रवाद को हवा देने वाले भी।

हम गहरे धंसे हैं इस कीचड़ में

हम नस्लीय भेदभाव के मुद्दे पर ब्रिटेन के लोगों को चाहे जितना कोस लें, लेकिन सच यही है कि खुद हमारा समाज भी ऐसी मानसिकता से ग्रस्त है, अंतर बस इतना है कि यहां इसका रूप अलग है। महाराष्ट्र से पुरबियों को बाहर निकालने की मांग और असम में हिंदीभाषियों के विरुद्ध अल्फा की हिंसक कार्रवाई भी कुछ ऐसी ही है। इसी तरह नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के लिए दिल्लीवालों का 'चिंकी' संबोधन, यूपी-बिहार के लोगों के लिए मुंबई में 'भैया' संबोधन और बिहारी जैसे कर्णप्रिय शब्द का बिहार के निवासियों को धिक्कारने के लिए दिल्ली में यूज, कुछ ऐसी ही बातें हैं, जो किसी भी मामले में रेसिज्म से कम नहीं हैं।

श्रेष्ठता का बोध, यानी विडंबनाओं की पोटली

'बिग ब्रदर' मुद्दे को लेकर मुंबई के लोग खासे आक्रोशित हैं, लेकिन विडंबना यह देखिए कि वहां इसी तरह के भेदभाव के एक रूप--क्षेत्रीयता, का खुला खेल चलता है। श्रेष्ठता का दंभ भरने वाले 'मराठी मानुष' पुरबियों को लेकर अजीब ग्रंथि के शिकार हैं और वे उसे लत नहीं मानते। तो क्या यह माना जाए कि ब्रिटिश भी एशियाई लोगों को लेकर इसी तरह की किसी ग्रंथि के शिकार हैं और उसे लत नहीं मानते हैं?

साइकॉलजिस्ट समीर पारिख कहते हैं, 'यह स्वस्थ व्यवहार नहीं है। दरअसल, इस तरह का भेदभाव लोग इसलिए करते हैं, क्योंकि अपने प्रति खुद उनकी सोच बेहद पुअर होती है। ऐसे में खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ही वे दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।'

रेसिज्म और क्षेत्रीयता जैसे मुद्दे पर डीयू से एमफिल कर रहे गौरव शील कहते हैं, 'हम दोहरा मानदंड नहीं अपना सकते। अर मराठी मानुष अपनी हर समस्याओं के लिए पुरबिये को जिम्मेदार ठहराते हैं और उनसे मुक्ति की बात करते हैं, तो मेरे खयाल से शिल्पा प्रकरण पर गोरों की आलोचना का उन्हें नैतिक अधिकार नहीं है। आखिर एशियाई प्रतिभागी के रूप में शिल्पा ने भी तो 'ब्रिटिश डॉमिनेंस' को चुनौती देने की जुर्रत की है। सिर्फ रूप बदल जाने से मुद्दे की तासीर नहीं बदल जाती ना? हमारे यहां भी जो क्षेत्रवाद फैलाते हैं, उनकी सोच उन गोरों की तरह ही है।'

तो यह कहना ज्यादा बेहतर रहेगा कि हर कोई अपने से 'श्रेष्ठ' से परेशान है और अपने से 'निमन्' को वह परेशान कर रहा है। शिल्पा ने भले ही एक ब्रिटिश महिला की अहम से चोट खाई हो, लेकिन खुद ब्रिटिश नारिकों की शिकायत रहती है कि स्कॉटिश उन्हें अपने से 'निमन्' समझते हैं।

समस्या की जड़

समाजशास्त्रियों का कहना है कि अपने को 'श्रेष्ठ' मानने वाले लोग, समुदाय या रेस को 'निमन्' से समस्या तब तक नहीं होती, जब तक कि 'निमन्' उनकी चाकरी करते रहते हैं और आर्थिक- सामाजिक रूप से उन्हें टक्कर देने की स्थिति में नहीं होते। समस्या तब खड़ी होती है, जब वे संसाधनों पर अपना अधिकार जमाने लते हैं और इस तरह से उन कथित 'श्रेष्ठों' को उनसे चुनौती मिलने लती है।

'बिग बॉस' की प्रतिभागी रहीं रुपाली गांगुली कहती हैं कि शिल्पा भी अगर पहले ही दिन गोरे प्रतिभागियों के आभामंडल से घबराकर बाहर हो जातीं, तो उन्हें यह कमेंट नहीं सुनना पड़ता। उन्हें यह कमेंट इसलिए सुनना पड़ा, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे शो को जीतने का माद्दा दिखाया, जिसकी लोकप्रियता आसमान छूती रही है और ब्रिटिश रेस पर गर्व करने वाला कोई शख्स, जिसमें मुंह की खाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मेरा मानना है कि शिल्पा को घबराकर शो छोड़ना नहीं चाहिए, बल्कि नस्लीय सोच का डटकर मुकाबला करना चाहिए।

Sunday, January 21, 2007

फिर से देश में जमींदारी राज!

एतना फरेस्टेड हम आज तक जिनगी में कभियो नहीं हुए थे, जेतना कि ऐश्वर्या राय की सगाई से हुए हैं। एतना फरस्टेशन तो हमको तभियो नहीं हुआ था, जब माधुरी दीक्षित को एक ठो परदेसी ब्याहकर ले गया था। दरअसल, हमरी फरस्टेशन की वजह ई है कि इस देश में तमाम बढि़या चीज गिने-चुने दोए-चार आदमी के हवेली में पहुंच रही है। पैसा हो या पावर, नालेज हो या खूबसूरती, देश के सब संसाधनों पर दोए-चार घरानों का कब्जा होता जा रहा है। भई, ई ठीक बात नहीं। ई तो गुलामी के दिनों का भारत हो या, मतलब जमींदारी प्रथा वाला देश-- धनी बस जमींदार साहेब हों, बाकी सब गरीब रहेगा।

हमरे खयाल से पैसा, पावर, जमीन हो या फिर खूबसूरती, इनका समाज के सभी वर्गों में असमान ही सही, वितरण तो होना ही चाहिए। परजातंत्र में किसी की मोनोपोली काहे होगी? लेकिन अपना देश है कि विकेंद्रीकरण में विशवासे नहीं करता! अंबानी दिनोंदिन धनी होते जा रहे हैं, तो मंगरू दिनोंदिन गरीब। पवार साहब का पावर दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है, तो डालमिया का दिनोंदिन घटता ही जा रहा है। कृषि मंत्री शरद पवार को औरो पावर चाहिए था, इसलिए ऊ भारतीय किरकेट के मुखिया बन गए, उससे भी पेट नहीं भरा तो अब आईसीसी का चुनाव लड़ रहे हैं। कांगरेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ७२ ठो संस्था की अध्यक्ष हैं, लेकिन पावर की भूख खतमे नहीं हो रही, सो उन्होंने अपने लिए यूपीए अध्यक्ष की स्पेशल कुर्सी बनवा ली।

जमींदारी खानदानी होती थी, यहां भी मामला खानदानी बनता जा रहा है। सोनिया की कुर्सी राहुल को मिलेगी, ई तय है, तो इहो मानकर चलिए कि सुपर स्टार की कुर्सी भी अमिताभ से अभिषेक को ही टरांसफर होगी औरो बेचारा शाहरुख टापते रह जाएंगे। आखिर इसकी तैयारी तो हो रही है- इंडस्ट्री का सबसे बढि़या स्क्रिप्ट उनके लिए तैयार हो रहा है, ए ग्रेड की हीरोइन उनको मिल रही है, तो ए ग्रेड के डायरेक्टर उनको मिल रहे हैं। अब क्या चाहिए? जब संसाधन एतना बढि़या होगा, तो प्रोडक्ट सुपर हिट होगा ही न!

हद तो ई है भैय्या कि रोटी-नून तक में जमींदारी चल रही है। रिलायंस नून-तेल से लेकर सब्जी तक बेचने पर उतारू है, तो वालमार्ट जैसन खिलाड़ियों मैदान में टपकने वाला है। अब आप ही बताइए, जब चकमक पांच सितारा मॉल में पटरी पर से सस्ती चीजें मिलेंगी, तो पटरी पर के गंधाते दुकानदारों से चीज खरीदने कौन जाएगा? यानी जल्दिये छोटकी- मोटकी दुकान सब बंद हो जाएगी औरो औरो दिल्ली जैसन शहर में लोगों को स्कूटर का पंक्चर ठीक कराने भी मॉल में जाना होगा, लेकिन चिंता की बात ई है कि फिर सुल्तान मियां के दर्जन भर बाल-बच्चे का का होगा, जो इस धंधा में लगा है? रिलायंस औरो वालमार्ट की जमींदारी से तंग आकर ऊ या तो दुबई कमाने चले जाएंगे या फिर भूखे मर जाएंगे या संभव है कि ऊ आतंकवादियो बन जाए! अब का कीजिएगा, पेट नहीं भरेगा, तो लो कुछ न कुछ तो करबे करेगा न!

मतलब जब जमींदार बढ़ते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर क्रांतिकारी भी बढ़ते हैं। यानी हम भी क्रांति कर सकता हूं औरो पार्टी में सल्लू मियां औरो विवेक ओबेराय को भी शामिल कर सकता हूं। आखिर 'जमींदार' बच्चन ने दोनों को हमरी तरह 'ऐश्वर्यविहीन' जो कर दिया है!

Thursday, January 11, 2007

एतना खोट गरीबी में!

आजकल जहां देखिए, वहीं कंकालों की चरचा है। अपने देश के निठारी गांव से लेकर परदेस सोमालिया तक, हड्डी ही हड्डी! निठारी में भले-चंगे मानुषों को एक अमीर ने कंकाल बना दिया, तो सोमालिया में गरीबी से कंकाल में बदल चुके मानुषों को अमीर अमेरिका अब पता नहीं किस चीज में बदलेगा।

बढ़िया है भैय्या। अमेरिका धनी देश है, इसलिए ऊ धनी आदमी जैसन रोज 'दिन होली, रात दीवाली' तो मनइबे करेगा। अभिए तो उसने इराक में सद्दाम की बलि से बकरीद मनाया था औरो एतना जल्दी सोमालिया में दीवाली मनाने पहुंच गया! खैर, अमीर मनाए रोज होली-दीवाली हमरा कौन-सा तेल-घी जलता है, लेकिन दिक्कत बस ई है कि निठारी गांव हो या सोमालिया, अमीरों की ऐय्याशी में बोटी तो गरीबों की ही उड़ती है न। तो गलती किसकी है, खून पीने वाले अमीरों की या फिर खून पिलवाने के लिए तैयार गरीबों की?

हमरे खयाल से गलती दोनों में से किसी की नहीं है, काहे कि दोनों अपनी आदत से लाचार हैं। अमीरों की गलती इसलिए नहीं है, काहे कि उनकी प्यास होती ही इतनी बड़ी है कि जल्दी बुझबे नहीं करती, तो गरीबों की गलती आप इसलिए नहीं कह सकते, काहे कि अगर पेट में चूहा हुड़दंग मचाएगा, तो लोग श्मशान में भी अन्न ढूंढने पहुंचेगा ही। आपको का लगता है, सोमालिया के 'कंकाल मानव' सब शौक से गया होगा अल कायदा के आतंकवादियों के पास? अरे भैय्या, उन आतंकियों ने उन्हें भी वैसने चॉकलेट देकर फंसाया होगा, जैसन निठारी गांव के बच्चा सब को मोनिंदर सिंह ने फंसाया था। ई कमबख्त पेट बहुत खराब चीज होता है हो, जो न कराए, ऊ कम है!

तो का खोट अमीरी में है? न, बिल्कुल नहीं। हमरे खयाल से खोट गरीबी में है! न आदमी गरीब होगा, न कोयो उनको फंसाकर उसकी जान लेगा। अगर निठारी के मासूम बच्चों औरो सोमालिया के 'कंकाल मानवों' के पास पैसा होता, तो ऊ मोनिंदर या अलकायदा के फांस में काहे फंसता?

खोट गरीबी में है, तभिये तो बिहार-यूपी के मजदूरों को असम से लेकर मुंबई तक में गाली सुननी पड़ती है। इधर बेचारा हिंदीभाषियों की असम में हत्या हो रही है, तो उधर बाल ठाकरे पुरबियों को मुंबई छोड़ने के लिए रोजे धमकाते रहते हैं। गरीबों में एक खोट औरो होता है, जब ऊ अमीर हो जाता है, तो गरीबों से घोर नफरत करने लगता है। तभिये तो कल तक गरीब रही मल्लिका सहरावत को आज गरीबों से नफरत है। पिछले दिनों ऊ मिली, तो बहुते गुस्से में थी। उनकी तकलीफ ई है कि चैनलों के चलते मुंबई में हुआ उनका एतना खास सेक्सी भूखे-नंगों तक ने देख लिया। कहने लगी, 'चैनल के भुख्खर पतरकारों ने हमको बाजारू औरत समझ लिया था। अगर भूखे-नंगों को ही नाच दिखाना होता, तो अपने कपड़ों को लंगोट का रूप काहे देती? का है कि ऊ कपड़ा तो बस अमीर ही बर्दाश्त कर सकते हैं, गरीबों को उसे देखकर गर्मी आने लगती है, जो किसी के लिए ठीक नहीं। फिलिम में जब हम आधा ढंककर आधा उघारे रहती हूं, तब को फरंट सीट से किलो के हिसाब में सिक्का उछाला जाता है परदे पर! अगर इस तरह का बॉडी सूट पहनकर परदे पर पहुंच जाऊं, तो सिनेमा हाल का तो भगवाने मालिक है! अब जो हजम न हो गरीबों को, ऊ उनको काहे दिखाया जाए।'

चलिए, हमको गरीबों के एक ठो औरो खोट का पता चल गया!

Thursday, January 04, 2007

नए साल में नशा बस दारू का हो

नए साल से लोग बहुते उम्मीद रखते हैं, लेकिन हमरी बस एके ठो उम्मीद है। और ऊ है-- आप जो हैं, वही दिखें, वही बने रहें। अगर हमरी ई एकमात्र उम्मीद पूरी हो जाए, तो यकीन मानिए दुनिया की सब उम्मीद पूरी हो जाएगी औरो दुनिया मजे में चलती रहेगी।

हमरे कहने का मतलब ई है कि नेता को नेता होना चाहिए, खिलाड़ी को खिलाड़ी होना चाहिए, चोर को चोर होना चाहिए, तो पुलिस को पुलिस। सबसे बड़ी बात तो ई कि जनता को जनता होना चाहिए, न कि बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक या अगड़ा-पिछड़ा। का है कि जब जनता एतना टुकड़ों में बट जाती है, तभिये नेता सब सही रास्ता छोड़कर 'नेतागीरी' करने लगते हैं, खिलाड़ी सब खेल छोड़कर तंबाकू, क्रीम औरो मंजन बेचने लगते हैं, पुलिस कोतवाली छोड़कर चोरी करने लगती है, तो चोर सब चोरियो करता है औरो पुलिस बनने की कोशिशो करता है।

आप ही सोचिए न अगर परधान मंतरी वास्तव में मंतरियों के परधान होते, तो हर कोयो 'जितनी चाबी भरी सोनिया ने, उतना चले मनमोहना...' काहे गाता? ऊ परधान मंतरी हैं, तो उनको मंतरियों का परधान तो दिखना ही चाहिए। इसी तरह शिक्षा मंतरी को शिक्षा मंतरी बनना चाहिए, न कि आरक्षण मंतरी। अगर पचास साल में शासन कर चुकी सरकारों के शिक्षा मंतरी शिक्षा को मजबूत करने में जरा-सी भी ईमानदारी बरतते, तो लोगों को फुसलाने के लिए सरकार को आरक्षण के झुनझुने की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। का है कि जब बच्चा सब रोता रहता है औरो मां-बाप के पास उसके लिए टैम नहीं होता, तभिये न उनको झुनझुना थमाया जाता है- लो बजाते रहो औरो ई भूल जाओ कि तुम्हरा इस दुनिया में कोयो है भी।

एक ठो अपने कृषि मंतरी हैं। उनको देखके तो हमको लगता है कि मंतरियों के पास कोयो कामे नहीं होता। नेता सब बस तफरीह के लिए मंतरी बन जाते हैं। का है कि भारत जैसन कृषि परधान देश के कृषि मंतरी अगर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाए, तो उसके पास बाथरूम जाने के लिए समय नहीं होगा। लेकिन अपने शरद जी के पास एतना समय है कि ऊ भारतीय किरकेट की ठेकेदारी लेने के बाद अब विश्व किरकेट की ठेकेदारी लेने जा रहे हैं। अब देश के किसान करते रहे आत्महत्या, मंतरी जी को तो बस किरकेट के बचाना है? लेकिन हमरे खयाल से अगर आप कृषि मंतरी हैं, तो आपको कृषि मंतरी होना चाहिए, न कि किरकेट मंतरी।

इसी तरह आप बहुसंख्यक हैं, तो आपको बड़ा भाई बनकर रहना चाहिए न कि सब सुख-सुविधा खुदे हड़पने के फेर में रहना चाहिए। अब जब आप इतना त्याग करेंगे, तो जाहिर है अल्पसंख्यकों को भी लोकतंत्र के एतना 'दुरुपयोग' की जरूरत नहीं पड़ेगी औरो न ही ब्लैकमेलिंग की।

आप ही सोचिए न, अगर समाजसेवी समाज सेवा करे और दुकानदार दुकानदारी, तो किसी को का दिक्कत होगा? दिक्कत तो तब होता है, जब समाजसेवी दुकानदारी करने लगते हैं औरो दुकानदार समाजसेवी बन जाते हैं।

इसी तरह नशा जब अल्कोहल का हो, मजा तभिये आता है, पीने वालों को भी औरो पियक्कड़ों को देखने वालों को भी। गड़बड़ तो तब होती है, जब सत्ता, पैसा औरो पोस्ट जैसन बिना अल्कोहल वाली चीजों का नशा लोगों पर छाने लगता है औरो जबान से जमीर तक लड़खड़ाने लगता है।

Monday, January 01, 2007

नव वर्ष मंगलमय हो !!!

आप सभी को नव वर्ष 2007 की हार्दिक शुभकामनाएं