इंडीब्लॉगीज अवॉर्ड के परिणाम की घोषणा हो चुकी है। ब्लॉगर्स सिरमौर समीर लाल जी को बधाई भेजी, तो आप सभी को धन्यवाद कहने को दिल चाहा। परिणाम की दृष्टि से यह जितना अच्छा वोटिंग के मामले में रहा, मेरे खयाल से इससे बेहतर यह हिंदी ब्लॉगर्स परिवार को समृद्ध करने के मामले में रहेगा। अपने प्रति समर्थन जताने के लिए मैं अपने सभी शुभेच्छुओं का धन्यवाद करना चाहता हूं। मुझे उन लोगों के लिखे एक-एक शब्द याद हैं, जिन्होंने ब्लॉगर बनने के बाद से अब तक मेरे ब्लॉग पर अपने कमेंट भेजे। विश्वास कीजिए, मैं जो भी लिखता हूं, उसमें आप सब के प्रोत्साहन का योगदान ज्यादा रहता है, मेरे दिमाग का योगदान कम।
हां, एक चीज मैं और स्पष्ट करना चाहता हूं और वह यह कि मैं तकनीकी मामले की ज्यादा जानकारी नहीं रखता, इसलिए पोस्ट लिखने के अलावा, मैं कुछ नहीं कर पाता। यहां तक कि किसी ब्लॉग पर कमेंट करने में मेरे छक्के छूट जाते हैं। (पोस्ट के मामले में मैं पूरी तरह सुर का ऋणी हूं, बिहारी बाबू के तमाम वाणों की मालकिन वही हैं। मैं तो अदना-सा अवैतनिक कर्मचारी हूं) इसलिए मैं कहना चाहूंगा कि हर उस पोस्ट, जो हकीकत को सीधे या घुमा-फिराकर भी उघारता हो, जो हमारा स्वस्थ ज्ञानवर्द्धन और मनोरंजन करता हो, पर शाबासी का मेरा एक कमेंट मान लिया जाए। लिखने के तरीके के मामले में तो मैं ९० फीसदी ब्लॉगरों का कायल हूं। वाकई आप सभी बेहतर लिखते हैं और इससे भी बड़ी बात यह कि ज्यादा बेहतर सोचते हैं।
हां, एक चीज और जो मैं नारद जी से कहना चाहता हूं, वह यह है कि नारद जी साफ-सुथरा रहें, तो पाठकों को ज्यादा आनंद दे पाएंगे। (ऐसा मेरा मानना है।) अगर कोई अपना मानसिक कचरा इस प्लेटफॉर्म पर बिखेरना चाहें, तो उन्हें रोका जाना चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उच्छृंखलता दिखाने वाले को उन्हें रोकने का प्रयास करना चाहिए।
मैं यहां अनूप जी, सृजन शिल्पी जी, जगदीश जी, सुनील दीपक जी व रवि रतलामी जी को इस बात की बधाई देना चाहता हूं कि वे इतना बेहतर देते हैं कि ब्लॉग जगत ने उन्हें अपने लिए इतना खास माना। मेरी दुआ कि वे आगे भी इतना ही अच्छा लिखते रहें। और अंत में जय हो जीतू भैया की। उनकी चौधराहट यूं ही कायम रहें और उनके जुगाड़ से हम अपने कबाड़ में यूं ही जान डालते रहें। एक बार फिर आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।
Friday, February 23, 2007
बजट, यानी बदसूरत नगर वधू
आजकल जहां देखिए, वहां बजट की नौटंकी चल रही है, लेकिन हमको इसमें कोयो मजा नहीं आता। अब बजट हमको ऐसन पियक्कड़ आदमी लगने लगा है, जो साल में एक दिन सरकार नामक दारु पीकर टुल्ल हो जाता है औरो चौराहे पर खड़े होकर ई साबित करने में एड़ी-चोटी लगा देता है कि वही देश का भगवान है, भाग्य विधाता है। अब का है कि दारु पी लेने के बाद होश तो रहता नहीं, सो ऊ भूल जाता है कि देश में बाजार नामक दारुओ मौजूद है, जिसका नशा उससे बहुते बेसी है। तभिये तो देश एक दिन बजट की सुनता है औरो बाकी 364 दिन बाजार की ताल पर नाचता रहता है।
वैसे, आप चाहें तो बजट को नगर वधू भी कह सकते हैं। मतलब ऐसन सुंदरी, जिसको आप बस देख सकते हैं, भोग नहीं सकते। अक्सर इस नगर वधू की शकल ठीक नहीं होती, सो वित्त मंत्री बत्तीस ठो क्रीम-पाउडर लगाकर इसको चमकाते हैं औरो फिर संसद में पेश कर देते हैं। लेकिन दिक्कत ई है कि जल्दिये इसका मेकअप धुल जाता है औरो सरकार की पोल-पट्टी खुल जाती है। सबसे बड़ी बात तो ई कि इस सुंदरी की महफिल में अब गरीबों की कोई चरचा नहीं होती, अगर होती भी है, तो गरीब स्टेज से एतना दूर होते हैं कि उन्हें कोई तृप्ति नहीं मिलती। उन्होंने सुंदरी को देखकर 'आह' कहा या 'वाह', इस पर भी कोयो गौर नहीं करता।
हमरे खयाल से बजट अब हिस्ट्री है। ऊ दिन बीत गया, जब देश में इसका साल भर राज चलता था। अब तो बजट में जो चीज सस्ती दिखती है, बजट के दूसरे ही दिन ऊ महंगी हो जाती है। आखिर देश पर बाजार का राज जो है! आप ही देखिए न, रिलायंस ने चाहा तो भिखमंगे के हाथों में भी मोबाइल पहुंच गया, उसने चाहा हो स्टॉक मार्केट में भी कमाल हो गया। ऊ चाहे तो डीजल- पेट्रोल दो रुपये लीटर हो जाए, ऊ चाहे तो आलू सेब से भी महंगा बिकने लगे। सरकार के चाहने से अब का होता है? रिजर्व बैंक अब साल में पांच बार रिपो औरो रिवर्स रिपो रेट में बदलाव करता है, सरकार बनाती रहे साल में एक बार बजट, उसको कौन पूछने जाता है!
वैसे, बजट मिस्ट्री भी है। इसको समझना मुश्किल है। बजट से का बदला कुछो पता नहीं चलता! सर्विस टैक्स घटता है, तो सेल्स टैक्स बढ़ जाता है, मतलब दाम वहीं का वहीं! एक तरफ तो ऊ ई दिखाता है कि ऊ सबके लिए बेसी पैसे का जुगाड़ कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ इहो परावधान करता है कि लोगों के पास बेसी पैसा न पहुंच जाए। उसको बेसी पैसा से होने वाले मुद्रास्फीति का डर सताता है, काहे कि उससे इससे महंगाई बढ़ती है। अब उसको ई कौन समझाए कि मुद्रास्फीति लोगों के पास बेसी पैसा होने से नहीं, बल्कि सौ में से दस आदमी के पास पैसा जमा होने से बढ़ती है। अगर पैसा बाकी 90 के पास भी पहुंच जाए, तो मुद्रास्फीति होगी ही नहीं, लेकिन बजट इस जमाखोरी की चिंता कहां करता है? उसको तो चिंता बस ई रहती है कि किसी तरह सरकारी खजाने में पैसा आता रहे, ताकि बाबूओं और अफसरों का पेट पलता रहे।
लोग चकाचक देश की कामना करता है, लेकिन बजट बीमारी की। सरकारी अस्पताल हो या गड्ढे वाली सड़क, शिक्षा हो या खेती, बजट इनको मजबूत बनाने के बारे में नहीं सोचता, बल्कि वेंटिलेटर पर लटका देना बेसी मुनासिब समझता है, ताकि ये बस किसी तरह जिंदा रहे औरो इनके इलाज के नाम पर चंदा (टैक्स) उगाही होती रहे। लेकिन पब्लिक को इसकी दोहरी मार झेलनी पड़ती है, ऊ सरकारी अस्पतालों में जाकर मरना नहीं चाहती औरो पराइवेट अस्पताल में जाकर जान बचाने में उनका दम निकल जाता है।
ऐसन में हमको तो बजट का एकमात्र मतलब 'चंदा' उगाही लगता है, लेकिन सवाल ई है कि इसके लिए एतना नौटंकी काहे हो? अपने देश में तो ऐसे भी गुप्त दान की परंपरा रही है!
वैसे, आप चाहें तो बजट को नगर वधू भी कह सकते हैं। मतलब ऐसन सुंदरी, जिसको आप बस देख सकते हैं, भोग नहीं सकते। अक्सर इस नगर वधू की शकल ठीक नहीं होती, सो वित्त मंत्री बत्तीस ठो क्रीम-पाउडर लगाकर इसको चमकाते हैं औरो फिर संसद में पेश कर देते हैं। लेकिन दिक्कत ई है कि जल्दिये इसका मेकअप धुल जाता है औरो सरकार की पोल-पट्टी खुल जाती है। सबसे बड़ी बात तो ई कि इस सुंदरी की महफिल में अब गरीबों की कोई चरचा नहीं होती, अगर होती भी है, तो गरीब स्टेज से एतना दूर होते हैं कि उन्हें कोई तृप्ति नहीं मिलती। उन्होंने सुंदरी को देखकर 'आह' कहा या 'वाह', इस पर भी कोयो गौर नहीं करता।
हमरे खयाल से बजट अब हिस्ट्री है। ऊ दिन बीत गया, जब देश में इसका साल भर राज चलता था। अब तो बजट में जो चीज सस्ती दिखती है, बजट के दूसरे ही दिन ऊ महंगी हो जाती है। आखिर देश पर बाजार का राज जो है! आप ही देखिए न, रिलायंस ने चाहा तो भिखमंगे के हाथों में भी मोबाइल पहुंच गया, उसने चाहा हो स्टॉक मार्केट में भी कमाल हो गया। ऊ चाहे तो डीजल- पेट्रोल दो रुपये लीटर हो जाए, ऊ चाहे तो आलू सेब से भी महंगा बिकने लगे। सरकार के चाहने से अब का होता है? रिजर्व बैंक अब साल में पांच बार रिपो औरो रिवर्स रिपो रेट में बदलाव करता है, सरकार बनाती रहे साल में एक बार बजट, उसको कौन पूछने जाता है!
वैसे, बजट मिस्ट्री भी है। इसको समझना मुश्किल है। बजट से का बदला कुछो पता नहीं चलता! सर्विस टैक्स घटता है, तो सेल्स टैक्स बढ़ जाता है, मतलब दाम वहीं का वहीं! एक तरफ तो ऊ ई दिखाता है कि ऊ सबके लिए बेसी पैसे का जुगाड़ कर रहा है, लेकिन दूसरी तरफ इहो परावधान करता है कि लोगों के पास बेसी पैसा न पहुंच जाए। उसको बेसी पैसा से होने वाले मुद्रास्फीति का डर सताता है, काहे कि उससे इससे महंगाई बढ़ती है। अब उसको ई कौन समझाए कि मुद्रास्फीति लोगों के पास बेसी पैसा होने से नहीं, बल्कि सौ में से दस आदमी के पास पैसा जमा होने से बढ़ती है। अगर पैसा बाकी 90 के पास भी पहुंच जाए, तो मुद्रास्फीति होगी ही नहीं, लेकिन बजट इस जमाखोरी की चिंता कहां करता है? उसको तो चिंता बस ई रहती है कि किसी तरह सरकारी खजाने में पैसा आता रहे, ताकि बाबूओं और अफसरों का पेट पलता रहे।
लोग चकाचक देश की कामना करता है, लेकिन बजट बीमारी की। सरकारी अस्पताल हो या गड्ढे वाली सड़क, शिक्षा हो या खेती, बजट इनको मजबूत बनाने के बारे में नहीं सोचता, बल्कि वेंटिलेटर पर लटका देना बेसी मुनासिब समझता है, ताकि ये बस किसी तरह जिंदा रहे औरो इनके इलाज के नाम पर चंदा (टैक्स) उगाही होती रहे। लेकिन पब्लिक को इसकी दोहरी मार झेलनी पड़ती है, ऊ सरकारी अस्पतालों में जाकर मरना नहीं चाहती औरो पराइवेट अस्पताल में जाकर जान बचाने में उनका दम निकल जाता है।
ऐसन में हमको तो बजट का एकमात्र मतलब 'चंदा' उगाही लगता है, लेकिन सवाल ई है कि इसके लिए एतना नौटंकी काहे हो? अपने देश में तो ऐसे भी गुप्त दान की परंपरा रही है!
Friday, February 16, 2007
चुनिए सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग
हिंदी ब्लॉगर परिवार के तमाम सदस्यों को शुक्रिया कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। इतने बड़े-बड़े धुरंधरों के बीच आपने मेरे ब्लॉग को भी किसी काबिल समझा, इसके लिए हम तहे दिल से आपके शुक्रगुजार हैं। मैं जीतू भैय्या और शशि जी और उन सभी वरिष्ठ चिट्ठाकारों का भी आभारी हूं, जिनकी उपस्थिति ने मुझे ब्लॉग जगत में कदम रखने की प्रेरणा दी। फिर सबसे बड़ा धन्यवाद सुर नामक उस प्राणी का, जिसने मुझे लिखने का प्लेटफॉर्म दिया। और अंत में एक निवेदन आप सभी विद्वतजनों से कि अब जब आप लोगों ने यहां पहुंचा ही दिया है, तो अपने कंप्यूटर महाराज के चूहे को थोड़ा और क्लिक करें और खिताब का रास्ता आसान कर दें। वोटिंग के लिए धन्यवाद एडवांस में।
प्यार के साइड एफेक्ट भी तो देखिए!
वैलंटाइन डे शुभ-शुभ बीत गया। मां-बापों ने राहत की सांस ली कि सड़क पर उनका तमाशा निकलने से बच गया, तो पुलिस और प्रशासन ने इसलिए राहत महसूस की कि बजरंगी बदमाशी नहीं कर पाए। हालांकि अपने बजरंगी भाई सब वैलंटाइन डे पर प्यार-मोहब्बत के प्रदर्शन का विरोध तो करते हैं, लेकिन हमारे खयाल से उनको ऐसा नहीं करना चाहिए। ऊ भूल रहे हैं कि ऊ एक ऐसन ताकत का विरोध कर रहे हैं, जिसका ऊ जबर्दस्त फायदा उठा सकते हैं।
का है कि प्यार भले ही पनपता स्कूल-कालेजों, मोहल्लों और आफिसों में है, लेकिन पलता औरो परवान तो चढ़ता आबादी से दूर खेत-खिलहानों, बाग-बगीचों, महलों- मकबरों के खंडहरों में ही है न। तो बात ई है कि पेड़-पौधे बढ़े औरो महलों व मकबरों के खंडहर कायम रहे, इसकी दुआ ऊ हमेशा करते रहते हैं। आप का समझते हैं कि मक्का-बाजरे के खेत तमाम मौसमी गड़बडि़यों के बावजूद दो-तीन महीने में अपने-आप लहलहा उठते हैं औरो सरकार की उपेक्षा के बावजूद चौंदहवी -पंद्रहवीं सदी के महल-मकबरे अब तक अपने दम पर महफूज हैं? अरे भैय्या, सब परेमियों के दुआओं का असर है!
बजरंगी झाडि़यों और खंडहरों से लैला-मजनुओं को पकड़ने का अभियान तो चलाते हैं, लेकिन ऊ ई भूल जाते हैं कि अगर दिल्ली में पुराना किला, कुतुब मीनार, सफदरजंग मकबरा जैसन इमारतें औरो लोधी गार्डन व बुद्धा गार्डन जैसन पार्क नहीं होते, तो दिल्ली में लव का आधा से बेसी मामला मैरिज तक पहुंचबे नहीं करता! अरे बजरंगी भैय्या लोग, ई तो देखो कि इस झाड़ी औरो किला के प्यार ने तुम्हरे यहां के दहेज औरो जाति व्यवस्था पर कैसन चोट किया है कि ऊ जमीन सूंघने लगे हैं।
तो भैय्या ऐसन है कि परेमियों के परेम-परदरशन पर रोक लगाने से बेहतर होगा कि आप देश के इन दो बड़े संसाधनों (प्यार औरो युवाओं) का दोहन कीजिए। अपनी टोली में लैला-मजनुओं को शामिल कीजिए औरो देश के परयावरण औरो ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण में इनकी मदद लीजिए। जैसने बच्चा सब के मन में 'अपोजिट' को देख के कुछ-कुछ होने लगे, उसको लोदी गार्डन में एक ठो पेड़ लगाने औरो उसकी देखभाल की जिम्मेदारी दे दीजिए। जब तक ऊ डेट पर जाने लायक होगा, गुटर-गूं के लिए उनकी अपनी झाड़ तैयार हो जाएगी! बताइए, परयावरण का परयावरण बच गया औरो ऊ आपने देश के एक व्यक्ति को बढि़या नागरिको बन दिया। इसका पुण्य भी आप ही को मिलेगा ना!
फिर ई सोचिए न कि परेमी हैं, तो भूत-परेत औरो अपराध का खौफ भी शहर से दूर है। जिस दिन इश्क का कीड़ा काटना बंद कर देगा, परेमी लोग इजहारे-इश्क के लिए एकांत को ढूंढना बंद कर देंगे, यानी खंडहरों में भूतों का बसेरा हो जाएगा। दूसरे ही दिन वहां गंजहों की धुनी रम जाएगी औरो ऊ बदमाशों का अड्डा बन जाएगा।
इसका एक ठो औरो लाभ आपको जानना चाहिए। का है कि प्यार का सीधा संबंध व्यापार से है। प्यार बढ़ेगा, तो व्यापार बढ़ेगा। आपकी पार्टी के व्यापारी लोग आपको ई गणित बढि़या से बता सकते हैं। टीवी देखिए, विज्ञापनों को देखकर आप भी महसूस करेंगे कि देश की सबसे बड़ी समस्या मुंह व तन की दुर्गंध औरो मन की थकान है। लगता है जैसे ये चीजें अगर किसी में हों, तो उसको कभियो वैलंटाइन नहीं मिलेगा--परेम पर ई दुर्गंध औरो थकान भारी पड़ जाता है! मतलब वैलंटाइन पाने के चक्कर में डियोडरेंट से लेकर साबुन, क्रीम, पाउडर औरो शैंपू तक का व्यापार चमक रहा है। अब बाजार के सामने तो वामपंथियो नतमस्तक हैं, फिर आप काहे नाराज रहते हैं भैय्या! आप तो हमेशा से उनके सबसे बड़े हितैषी रहे हैं!
का है कि प्यार भले ही पनपता स्कूल-कालेजों, मोहल्लों और आफिसों में है, लेकिन पलता औरो परवान तो चढ़ता आबादी से दूर खेत-खिलहानों, बाग-बगीचों, महलों- मकबरों के खंडहरों में ही है न। तो बात ई है कि पेड़-पौधे बढ़े औरो महलों व मकबरों के खंडहर कायम रहे, इसकी दुआ ऊ हमेशा करते रहते हैं। आप का समझते हैं कि मक्का-बाजरे के खेत तमाम मौसमी गड़बडि़यों के बावजूद दो-तीन महीने में अपने-आप लहलहा उठते हैं औरो सरकार की उपेक्षा के बावजूद चौंदहवी -पंद्रहवीं सदी के महल-मकबरे अब तक अपने दम पर महफूज हैं? अरे भैय्या, सब परेमियों के दुआओं का असर है!
बजरंगी झाडि़यों और खंडहरों से लैला-मजनुओं को पकड़ने का अभियान तो चलाते हैं, लेकिन ऊ ई भूल जाते हैं कि अगर दिल्ली में पुराना किला, कुतुब मीनार, सफदरजंग मकबरा जैसन इमारतें औरो लोधी गार्डन व बुद्धा गार्डन जैसन पार्क नहीं होते, तो दिल्ली में लव का आधा से बेसी मामला मैरिज तक पहुंचबे नहीं करता! अरे बजरंगी भैय्या लोग, ई तो देखो कि इस झाड़ी औरो किला के प्यार ने तुम्हरे यहां के दहेज औरो जाति व्यवस्था पर कैसन चोट किया है कि ऊ जमीन सूंघने लगे हैं।
तो भैय्या ऐसन है कि परेमियों के परेम-परदरशन पर रोक लगाने से बेहतर होगा कि आप देश के इन दो बड़े संसाधनों (प्यार औरो युवाओं) का दोहन कीजिए। अपनी टोली में लैला-मजनुओं को शामिल कीजिए औरो देश के परयावरण औरो ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण में इनकी मदद लीजिए। जैसने बच्चा सब के मन में 'अपोजिट' को देख के कुछ-कुछ होने लगे, उसको लोदी गार्डन में एक ठो पेड़ लगाने औरो उसकी देखभाल की जिम्मेदारी दे दीजिए। जब तक ऊ डेट पर जाने लायक होगा, गुटर-गूं के लिए उनकी अपनी झाड़ तैयार हो जाएगी! बताइए, परयावरण का परयावरण बच गया औरो ऊ आपने देश के एक व्यक्ति को बढि़या नागरिको बन दिया। इसका पुण्य भी आप ही को मिलेगा ना!
फिर ई सोचिए न कि परेमी हैं, तो भूत-परेत औरो अपराध का खौफ भी शहर से दूर है। जिस दिन इश्क का कीड़ा काटना बंद कर देगा, परेमी लोग इजहारे-इश्क के लिए एकांत को ढूंढना बंद कर देंगे, यानी खंडहरों में भूतों का बसेरा हो जाएगा। दूसरे ही दिन वहां गंजहों की धुनी रम जाएगी औरो ऊ बदमाशों का अड्डा बन जाएगा।
इसका एक ठो औरो लाभ आपको जानना चाहिए। का है कि प्यार का सीधा संबंध व्यापार से है। प्यार बढ़ेगा, तो व्यापार बढ़ेगा। आपकी पार्टी के व्यापारी लोग आपको ई गणित बढि़या से बता सकते हैं। टीवी देखिए, विज्ञापनों को देखकर आप भी महसूस करेंगे कि देश की सबसे बड़ी समस्या मुंह व तन की दुर्गंध औरो मन की थकान है। लगता है जैसे ये चीजें अगर किसी में हों, तो उसको कभियो वैलंटाइन नहीं मिलेगा--परेम पर ई दुर्गंध औरो थकान भारी पड़ जाता है! मतलब वैलंटाइन पाने के चक्कर में डियोडरेंट से लेकर साबुन, क्रीम, पाउडर औरो शैंपू तक का व्यापार चमक रहा है। अब बाजार के सामने तो वामपंथियो नतमस्तक हैं, फिर आप काहे नाराज रहते हैं भैय्या! आप तो हमेशा से उनके सबसे बड़े हितैषी रहे हैं!
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Thursday, February 15, 2007
हीर-रांझा की कहानी में ट्विस्ट
ग्लोबलाइजेशन के इस युग में 'प्रेम रोग' ने 'महामारी' का रूप ले लिया है। तमाम लोग कहते हैं कि प्रेम के ये कीटाणु वेस्टर्न कल्चर ने फैलाये हैं, लेकिन शायद यह पूरी तरह सच नहीं है। इसके बजाय अगर ये कहा जाए कि प्रेम का आज का स्वरूप वेस्टर्न कल्चर की देन है, तो ज्यादा सही होगा, क्योंकि प्रेम तो भारतीय संस्कृति में सदियों से रचा-बसा रहा है। हां, यह बात और है कि ऐसा उच्छृंखल वह कभी नहीं रहा, जैसा कि आज है :
अक्सर प्रेम के सौदागरों को हीर-रांझा या रोमियो-जूलियट की उपाधि दी जाती है। लेकिन अब के प्यार के परिंदों के लिए शायद यह उपयुक्त नहीं। हीर- रांझा होना आज के समय में बहुत मुश्किल है। अब न तो रांझा का वह दिल है, जो सिर्फ हीर के लिए धड़कता है और न ही वह हीर है, जिनकी आंखें रांझा के दीदार के लिए तरसती थीं। कहते हैं न कि सस्ती चीज की कीमत नहीं होती, तो ऐसा ही कुछ प्यार के साथ हुआ है। प्यार अब इतना सस्ता हो गया कि उसकी कीमत ही नहीं बची।
शायद यही वजह है कि दिल लगाना आज जितना आसान है, उतना ही आसान है उसका टूटना भी। हीर-रांझा को छोडि़ए, अब तो लोग देवदास तक नहीं होते। दिल के तार आए दिन एक नेटवर्क से टूटते हैं और जल्दी ही फिर किसी दूसरे नेटवर्क से जुड़ जाते हैं। मोबाइल दिल कभी लव के नेटवर्क से बाहर नहीं होता। जब अपना नेटवर्क काम न करे, तो दूसरे के नेटवर्क का सहारा ले लो--आज तो मल्टीपल डेटिंग का जमाना है। न हीर को इससे मुश्किल होती है और न रांझा को। तभी तो लोग कुछ इस भाव से भी लव के गेम में कूदते हैं-- तू उसके साथ भी डेट पर जा और मेरे साथ भी। इससे जब मुझे नहीं ऐतराज है, तो तुम्हें क्यों होने लगा? तुम्हें भी पता है कि तुम मुझे फ्लर्ट कर रही हो और मुझे भी पता है कि तुम ऐसा ही कर रही हो। बावजूद इसके, मुझे सुकून रहेगा कि अपने सर्कल के लोग मानेंगे कि हमारे बीच प्यार है। मेरे पास एक अदद गर्लफ्रेंड है, इससे मेरी नाक कटने से बच जाएगी और तुम जितने अधिक को 'घुमा' सको, वह तो तुम्हारी काबिलियत ही गिनी जाएगी! तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि अपनी कुर्बानी देकर मैं तुम्हारी डिमांड बढ़ा रहा हूं।
तो यह है जमाना। आज प्यार में तमाम एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं, फिर भी दिल की दुकानदारी में जल्दी बोहनी नहीं होती। चाहत की प्यास दिनोंदिन बड़ी होती जा रही है। कोई दिल को पसंद आता है, तो वह पट नहीं रहा होता और जो पट रहा होता है, उसे दिल नहीं पसंद करता। जहां पहले प्यार के दीदार में दिन नहीं, महीने और साल बीत जाते थे, वहीं अब जब चाहो तब दर्शन हो जाते हैं-- न पनघट पर जाने का बहाना और न ही स्कूल- कॉलेज जाने के बहाने मुलाकात की ताक। जब चाहो, तब मिलो। मुलाकात नहीं हो रही, तो आवाज सुनने से तो अब दैव भी नहीं रोक सकते, बापू और ताऊ की क्या मजाल--मोबाइल की माया जो है। दिल अगर बात करने को चाहे, तो मोबाइल जहन्नुम में भी नेटवर्क ढूंढ ही लेगा।
वैसे, आज प्यार खुद ही अपना रास्ता नहीं बना रहा, बल्कि रास्ते प्लानिंग के तहत बनाए भी जा रहे हैं। मेट्रो सिटीज में 'स्पीड डेटिंग' आयोजित होती है। कुछ पैसे भरिए और बाजार द्वारा आयोजित अपने 'स्वयंवर' में पहुंच जाइए। कोई मिल गया ढंग का, तो कुछ दिन जीने का सहारा मिल जाएगा, नहीं मिला, तो फिर दूसरे में पहुंच जाइए-- किसी इन्फीरियर या सुपीरियर ग्रंथि का शिकार होने की जरूरत नहीं है। अगर अपने लिए कोई तोता या मैना नहीं मिल रहा, तो इंटरनेट पर जाइए। वहां घंटा-दो घंटा साथ काटने से लेकर जीवन भर साथ देने वाले ऑफर्स की भरमार है। खुद झारखंड में रहिए और प्रेम कीजिए मैनहट्टन की माशूका से। महबूबा का दीदार वेब कैम पर कीजिए और बाकी चीजों के लिए? उसके लिए तो मन की आंखें हैं ही! क्या हुआ महबूबा पास नहीं है, प्यार की खुमारी में महीनों तो गुजर ही जाएंगे! एक छूटी, दूसरी ढूंढ लीजिए। सिलसिला रुकने वाला नहीं है, आप ग्लोबल विलेज में जो रह रहे हैं।
प्यार जबरन ठूंसा भी जा रहा है। अब बात आंतरिक सुंदरता की नहीं, बाहरी सुंदरता की होती है। प्यार गरीबी से भी नहीं होता। युवा चेन स्नैचिंग करते हैं, ताकि महबूबा के सामने हीरो बनकर महंगी बाइक या कार से पहुंचा जाए और उसकी महंगी फरमाइशें पूरी कर सकें। अब हैंडसम और जेब से मजबूत बंदे से फ्लर्टिंग का शिकार होना गुनाह नहीं है, तो हूर की परी पर दादाजी की उम्र के लोग भी मेहरबानी लुटाने से बाज नहीं आते--उम्र चूकने से दिल तो नहीं चूकता ना।
हालांकि बावजूद इतनी सुविधाओं के प्यार की तासीर बढ़ने के बजाय कम ही हो रही है। जब तक शादी नहीं होती, हीर हीर और रांझा रांझा नजर आते हैं, लेकिन एक दिन में सब कुछ बदल जाता है। दरअसल, प्यार की नींव इतनी कमजोर होने लगी है कि वह प्यार की अपेक्षाओं का बोझ झेल नहीं पाती। प्यार के परिंदे गृहस्थी के घोंसले में पहुंचते ही अपनी गलती पर पछताने लगते हैं। शायद यही वजह है कि जिस गति से लव मैरिज की तादाद बढ़ रही है, उसी गति से बढ़ने लगा है तलाक भी। यह तलाक की बढ़ती दर ही है कि प्यार के इतना सुलभ होने के बावजूद न तो पैरंट्स और न ही प्यार करने वाले इतना श्योर हो पा रहे हैं कि उनका रिश्ता जन्मों-जन्मों का है।
आप कह सकते हैं कि प्यार अपनी मौत मर रहा है। कम से कम भारतीय मूड का जो प्यार है, उसके साथ तो ऐसा ही है। शायद यही वजह है कि जिस दर से प्यार के परिंदे अपने समाज में बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से उजड़ रहा है उनका घोंसला भी। फिर भी वैलंटाइंस डे की अपनी अहमियत है, क्योंकि कुछ ही समय के लिए सही, दिल को सुकून देने वाला एक शख्स तो चाहिए ही। तो प्यार जरूर कीजिए, लेकिन दुकानों में चिपकी रहने वाली इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए-- फैशन के इस दौर में किसी गारंटी की उम्मीद न करें।
अक्सर प्रेम के सौदागरों को हीर-रांझा या रोमियो-जूलियट की उपाधि दी जाती है। लेकिन अब के प्यार के परिंदों के लिए शायद यह उपयुक्त नहीं। हीर- रांझा होना आज के समय में बहुत मुश्किल है। अब न तो रांझा का वह दिल है, जो सिर्फ हीर के लिए धड़कता है और न ही वह हीर है, जिनकी आंखें रांझा के दीदार के लिए तरसती थीं। कहते हैं न कि सस्ती चीज की कीमत नहीं होती, तो ऐसा ही कुछ प्यार के साथ हुआ है। प्यार अब इतना सस्ता हो गया कि उसकी कीमत ही नहीं बची।
शायद यही वजह है कि दिल लगाना आज जितना आसान है, उतना ही आसान है उसका टूटना भी। हीर-रांझा को छोडि़ए, अब तो लोग देवदास तक नहीं होते। दिल के तार आए दिन एक नेटवर्क से टूटते हैं और जल्दी ही फिर किसी दूसरे नेटवर्क से जुड़ जाते हैं। मोबाइल दिल कभी लव के नेटवर्क से बाहर नहीं होता। जब अपना नेटवर्क काम न करे, तो दूसरे के नेटवर्क का सहारा ले लो--आज तो मल्टीपल डेटिंग का जमाना है। न हीर को इससे मुश्किल होती है और न रांझा को। तभी तो लोग कुछ इस भाव से भी लव के गेम में कूदते हैं-- तू उसके साथ भी डेट पर जा और मेरे साथ भी। इससे जब मुझे नहीं ऐतराज है, तो तुम्हें क्यों होने लगा? तुम्हें भी पता है कि तुम मुझे फ्लर्ट कर रही हो और मुझे भी पता है कि तुम ऐसा ही कर रही हो। बावजूद इसके, मुझे सुकून रहेगा कि अपने सर्कल के लोग मानेंगे कि हमारे बीच प्यार है। मेरे पास एक अदद गर्लफ्रेंड है, इससे मेरी नाक कटने से बच जाएगी और तुम जितने अधिक को 'घुमा' सको, वह तो तुम्हारी काबिलियत ही गिनी जाएगी! तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि अपनी कुर्बानी देकर मैं तुम्हारी डिमांड बढ़ा रहा हूं।
तो यह है जमाना। आज प्यार में तमाम एक्सपेरिमेंट हो रहे हैं, फिर भी दिल की दुकानदारी में जल्दी बोहनी नहीं होती। चाहत की प्यास दिनोंदिन बड़ी होती जा रही है। कोई दिल को पसंद आता है, तो वह पट नहीं रहा होता और जो पट रहा होता है, उसे दिल नहीं पसंद करता। जहां पहले प्यार के दीदार में दिन नहीं, महीने और साल बीत जाते थे, वहीं अब जब चाहो तब दर्शन हो जाते हैं-- न पनघट पर जाने का बहाना और न ही स्कूल- कॉलेज जाने के बहाने मुलाकात की ताक। जब चाहो, तब मिलो। मुलाकात नहीं हो रही, तो आवाज सुनने से तो अब दैव भी नहीं रोक सकते, बापू और ताऊ की क्या मजाल--मोबाइल की माया जो है। दिल अगर बात करने को चाहे, तो मोबाइल जहन्नुम में भी नेटवर्क ढूंढ ही लेगा।
वैसे, आज प्यार खुद ही अपना रास्ता नहीं बना रहा, बल्कि रास्ते प्लानिंग के तहत बनाए भी जा रहे हैं। मेट्रो सिटीज में 'स्पीड डेटिंग' आयोजित होती है। कुछ पैसे भरिए और बाजार द्वारा आयोजित अपने 'स्वयंवर' में पहुंच जाइए। कोई मिल गया ढंग का, तो कुछ दिन जीने का सहारा मिल जाएगा, नहीं मिला, तो फिर दूसरे में पहुंच जाइए-- किसी इन्फीरियर या सुपीरियर ग्रंथि का शिकार होने की जरूरत नहीं है। अगर अपने लिए कोई तोता या मैना नहीं मिल रहा, तो इंटरनेट पर जाइए। वहां घंटा-दो घंटा साथ काटने से लेकर जीवन भर साथ देने वाले ऑफर्स की भरमार है। खुद झारखंड में रहिए और प्रेम कीजिए मैनहट्टन की माशूका से। महबूबा का दीदार वेब कैम पर कीजिए और बाकी चीजों के लिए? उसके लिए तो मन की आंखें हैं ही! क्या हुआ महबूबा पास नहीं है, प्यार की खुमारी में महीनों तो गुजर ही जाएंगे! एक छूटी, दूसरी ढूंढ लीजिए। सिलसिला रुकने वाला नहीं है, आप ग्लोबल विलेज में जो रह रहे हैं।
प्यार जबरन ठूंसा भी जा रहा है। अब बात आंतरिक सुंदरता की नहीं, बाहरी सुंदरता की होती है। प्यार गरीबी से भी नहीं होता। युवा चेन स्नैचिंग करते हैं, ताकि महबूबा के सामने हीरो बनकर महंगी बाइक या कार से पहुंचा जाए और उसकी महंगी फरमाइशें पूरी कर सकें। अब हैंडसम और जेब से मजबूत बंदे से फ्लर्टिंग का शिकार होना गुनाह नहीं है, तो हूर की परी पर दादाजी की उम्र के लोग भी मेहरबानी लुटाने से बाज नहीं आते--उम्र चूकने से दिल तो नहीं चूकता ना।
हालांकि बावजूद इतनी सुविधाओं के प्यार की तासीर बढ़ने के बजाय कम ही हो रही है। जब तक शादी नहीं होती, हीर हीर और रांझा रांझा नजर आते हैं, लेकिन एक दिन में सब कुछ बदल जाता है। दरअसल, प्यार की नींव इतनी कमजोर होने लगी है कि वह प्यार की अपेक्षाओं का बोझ झेल नहीं पाती। प्यार के परिंदे गृहस्थी के घोंसले में पहुंचते ही अपनी गलती पर पछताने लगते हैं। शायद यही वजह है कि जिस गति से लव मैरिज की तादाद बढ़ रही है, उसी गति से बढ़ने लगा है तलाक भी। यह तलाक की बढ़ती दर ही है कि प्यार के इतना सुलभ होने के बावजूद न तो पैरंट्स और न ही प्यार करने वाले इतना श्योर हो पा रहे हैं कि उनका रिश्ता जन्मों-जन्मों का है।
आप कह सकते हैं कि प्यार अपनी मौत मर रहा है। कम से कम भारतीय मूड का जो प्यार है, उसके साथ तो ऐसा ही है। शायद यही वजह है कि जिस दर से प्यार के परिंदे अपने समाज में बढ़ रहे हैं, उतनी ही तेजी से उजड़ रहा है उनका घोंसला भी। फिर भी वैलंटाइंस डे की अपनी अहमियत है, क्योंकि कुछ ही समय के लिए सही, दिल को सुकून देने वाला एक शख्स तो चाहिए ही। तो प्यार जरूर कीजिए, लेकिन दुकानों में चिपकी रहने वाली इस चेतावनी को ध्यान में रखते हुए-- फैशन के इस दौर में किसी गारंटी की उम्मीद न करें।
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हीर-रांझा
Friday, February 09, 2007
गिनीज बुक में नाम
उस दिन एक ठो परसिद्ध पतरिका पर जब हमरी नजर पड़ी, तो हम चौंक गए। का है कि बिहार के मुख्य मंतरी को उसमें देश का नम्बर वन मुख्य मंतरी बताया गया है। हमको तो विश्वासे नहीं हुआ। अभिये तो लालू जी ने कहा था कि बिहार कभियो सुधर नहीं सकता, फिर अचानक ई कैसे हो गया...। पहले तो लगा कि फागुन का महीना शुरू हो चुका है, इसलिए होली विशेषांक के फेर में पतरकार सब बौरा गए होंगे। लेकिन चुटकुला जैसन लगने वाली ई बात थी बहुत सीरियस।
हमरे खयाल से ई तो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज होने वाली बात है। का है कि उसमें ऐसने चीजों को जगह मिलती है न, जो अब तक हुआ न हो। तो बिहार में भी ऐसन अभी तक नहीं हुआ था। वहां की एक पूरी पीढ़ी बच्चे से जवान औरो जवान से बूढ़ा होने के कगार पर पहुंच गई, लेकिन वहां के मुख्यमंतरी का नाम कभियो सुधरल मुख्यमंतरी के लिस्ट में टाप पर नहीं रहा। हां, नीचे से टाप में उनका नाम जरूर शुमार होता रहा है। ऐसन में हमको लगता है कि नितीश बाबू को गिनीज बुक में अपने नाम की दावेदारी कर ही देनी चाहिए।
हालांकि हमको इसमें कुछ परोबलम भी नजर आ रहा है। जैसे ई कि दुनिया तब हंसेगी कि देखो विश्व के सबसे बड़े औरो मजबूत लोकतांतरिक देश में ऐसनो राज्य है, जिसकी एक पीढ़ी खप गई, लेकिन उसको ढंग का मुख्य मंतरी नहीं मिला। तब हार्वर्ड जैसन विदेशी विश्वविद्यालय सब इसको अपना केस स्टडियो बना सकता है। स्टडी का विषय कुछ ऐसन हो सकता है-- बूझो तो जानूं : जिस व्यवस्था में पांच साल पर निकम्मी सरकार को पलटने का प्रावधान हो, वहां एक राज्य को दशकों तक बढि़या मुख्य मंतरी कैसे नहीं मिला? वैसे, आप ई कह सकते हैं कि इससे जगहंसाई होगी, लेकिन फायदा तभियो होगा-- का है कि ढोल की पोल तो खुलेगी।
वैसे भी ई रिसर्च का विषय है कि खोट किसी व्यवस्था में होता है या नेता सब मंतरी, मुख्य मंतरी बनने के बाद व्यवस्था में खोट पैदा कर देता है। हमरे खयाल से ई बड़का पहेली है? खोट नेता में होता है, ई कहना इसलिए मुश्किल है, काहे कि जो रेल वाले मंतरी रेल को रिकार्ड फायदा दिलाने औरो हार्वर्ड के इस्टूडेंट को बिजनेस पढ़ाने का दावा करते हैं, पंदह साल तक बिहार उनके ही कब्जे में रहा औरो खुद उनका नाम कभियो सुधरल मुख्य मंतरी की लिस्ट में नहीं आ पाया!
तो का खोट व्यवस्था में है? ईहो कहना मुश्किल है। काहे कि जिस बिहार के बारे में इसी रेल वाले मंतरी जी ने कहा कि ऊ सुधर नहीं सकता, ऊ आजकल सरपट दौड़ने की तैयारी में लगल है औरो वहां का मुख्य मंतरी तमाम राज्यों के मुख्य मंतरी को पछाड़कर नंबर वन मुख्य मंतरी घोषित हो रहा है! सवाल है कि अगर वहां की व्यवस्था में ही खोट होता, नितीश का कर लेते?
अब जब न खोट नेता में है औरो न व्यवस्था में, तो खोट है कहां? चलिए एक बार नितीश जी गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज कराने का दावा भर कर दें, तो मीडिया इस मुद्दे का ऐसन पोस्टमार्टम करेगा कि सबका कन्फ्यूजन दूर हो जाएगा!
हमरे खयाल से ई तो गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज होने वाली बात है। का है कि उसमें ऐसने चीजों को जगह मिलती है न, जो अब तक हुआ न हो। तो बिहार में भी ऐसन अभी तक नहीं हुआ था। वहां की एक पूरी पीढ़ी बच्चे से जवान औरो जवान से बूढ़ा होने के कगार पर पहुंच गई, लेकिन वहां के मुख्यमंतरी का नाम कभियो सुधरल मुख्यमंतरी के लिस्ट में टाप पर नहीं रहा। हां, नीचे से टाप में उनका नाम जरूर शुमार होता रहा है। ऐसन में हमको लगता है कि नितीश बाबू को गिनीज बुक में अपने नाम की दावेदारी कर ही देनी चाहिए।
हालांकि हमको इसमें कुछ परोबलम भी नजर आ रहा है। जैसे ई कि दुनिया तब हंसेगी कि देखो विश्व के सबसे बड़े औरो मजबूत लोकतांतरिक देश में ऐसनो राज्य है, जिसकी एक पीढ़ी खप गई, लेकिन उसको ढंग का मुख्य मंतरी नहीं मिला। तब हार्वर्ड जैसन विदेशी विश्वविद्यालय सब इसको अपना केस स्टडियो बना सकता है। स्टडी का विषय कुछ ऐसन हो सकता है-- बूझो तो जानूं : जिस व्यवस्था में पांच साल पर निकम्मी सरकार को पलटने का प्रावधान हो, वहां एक राज्य को दशकों तक बढि़या मुख्य मंतरी कैसे नहीं मिला? वैसे, आप ई कह सकते हैं कि इससे जगहंसाई होगी, लेकिन फायदा तभियो होगा-- का है कि ढोल की पोल तो खुलेगी।
वैसे भी ई रिसर्च का विषय है कि खोट किसी व्यवस्था में होता है या नेता सब मंतरी, मुख्य मंतरी बनने के बाद व्यवस्था में खोट पैदा कर देता है। हमरे खयाल से ई बड़का पहेली है? खोट नेता में होता है, ई कहना इसलिए मुश्किल है, काहे कि जो रेल वाले मंतरी रेल को रिकार्ड फायदा दिलाने औरो हार्वर्ड के इस्टूडेंट को बिजनेस पढ़ाने का दावा करते हैं, पंदह साल तक बिहार उनके ही कब्जे में रहा औरो खुद उनका नाम कभियो सुधरल मुख्य मंतरी की लिस्ट में नहीं आ पाया!
तो का खोट व्यवस्था में है? ईहो कहना मुश्किल है। काहे कि जिस बिहार के बारे में इसी रेल वाले मंतरी जी ने कहा कि ऊ सुधर नहीं सकता, ऊ आजकल सरपट दौड़ने की तैयारी में लगल है औरो वहां का मुख्य मंतरी तमाम राज्यों के मुख्य मंतरी को पछाड़कर नंबर वन मुख्य मंतरी घोषित हो रहा है! सवाल है कि अगर वहां की व्यवस्था में ही खोट होता, नितीश का कर लेते?
अब जब न खोट नेता में है औरो न व्यवस्था में, तो खोट है कहां? चलिए एक बार नितीश जी गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज कराने का दावा भर कर दें, तो मीडिया इस मुद्दे का ऐसन पोस्टमार्टम करेगा कि सबका कन्फ्यूजन दूर हो जाएगा!
Friday, February 02, 2007
इक चेहरे पे कितने चेहरे...
हम आजकल परेशानी में हूं। हम ई नहीं समझ पा रहा हूं कि वास्तव में हम जा कहां रहा हूं। हमरे चेहरे पर एतना चेहरा लग गया है कि हम इहो भूल गया हूं कि हमरा असली चेहरा कैसन है! वैसे, हम अकेला ऐसन नहीं हूं, दुनिया के तमाम लोगों की स्थिति ऐसने है। हमको रोज ऐसन दस ठो जमूरा मिलता है, जिनका करतब देखके हमरे लिए ई डिसैड करना मुश्किल हो जाता है कि ऊ आदमिये है या कुछो और।
अपने रेल वाले नेताजी को ही लीजिए। उस दिन पूजा पर बैठे शताब्दी टरेन की इस्पीड से झूम रहे थे। पहले तो लगा कि रेल को दौड़ाते हैं, इसलिए उसके इस्पीड से झूमने की इनको आदत लग गई होगी, लेकिन तनिए देर में पता चला कि हुजूर तंत्र-मंत्र में लीन हैं। खुद बिहार से 'भूत' हो गए, तो अब ओझा बनकर दूसरों का भूत भगा रहे हैं। हमने कहा, 'एक आपका चेहरा उहो था, जब आपने बिहार में भूत-परेत भगाने वाले पाखंडियों को जेल में डालने के लिए कानून बनाया था औरो एक चेहरा ई है कि आप खुदे पाखंडी बने बैठे हैं! आपका असली चेहरा कौन-सा है?'
जनाब उबल पड़े। बोले, 'ई चेहरा-बेहरा का होता है? जब हम सत्ता में होता हूं, तो कानून बनाता हूं औरो जब सत्ताविहीन होता हूं, तो कानूनों को तोड़कर सही विपक्ष का रोल अदा करता हूं। सिम्पल बात है! हमने परिवार नियोजन कार्यक्रम की धज्जी उड़ाई, दो कम दर्जन भर बच्चे पैदा किए, लेकिन तभिये तक, जब तक कि सत्ता में नहीं थे। सत्ता में आने के बाद हमको एको ठो बच्चा हुआ? नहीं न। फिर? ऐसने जब हम बिहार में सत्ता में थे, तो 'एंटी विचक्राफ्ट एक्ट' बनाए औरो जैसने सत्ता से बाहर हुए खुदे ओझा बनकर भूत भगा रहा हूं। गांधीजी सत्याग्रह से कानूनों का विरोध करते थे, हम ओझा बनकर ऐसा कर रहा हूं! वैसे, आप हमरे पीछे काहे लगे हैं? उससे काहे कुछ नहीं पूछते, जो मंगल दोष दूर करने के लिए आजकल भारत भ्रमण कर रहा है?'
उनका आइडिया हमको पसंद आया। हम पहुंच गए भारत भर के मंदिरों में इन दिनों तंबू लगा रहे लंबू जी के पास? हमने पूछा, 'आपको का हो गया? कहां तो आप रस्म-रिवाज तोड़ने वाले एंग्री यंग मैन थे, 'बाबुल' में आपने बहू का विधवा विवाह करवाया औरो कहां अब होने वाली बहू का मंगलदोष दूर करने के लिए मंदिरों में भटक रहे हैं। आपका असली चेहरा कौन-सा है?'
लंबू जी ने पहले तो नवरतन तेल लगाया, फिर पेप्सी पिया औरो फिर खाया च्यवनप्राश। हमने सोचा ई गोस्सा नहीं दिखाने के लिए कूल हो रहे हैं औरो इनर्जी के लिए च्यवनप्राश खा रहे हैं, लेकिन तनिए देर में ऊ गरम हो गए औरो लड़खड़ाकर गिर गए। फिर संभलकर बोले, 'देखिए, इन तीनों चीज के उपयोग से हमको कौनो फायदा हुआ? नहीं न। जबकि विज्ञापन में हम इनका एतना फायदा गिनाता हूं। अब आप समझे! का है कि हम मूरख नहीं हूं। हम तो जनता को मूरख बनाता हूं। तो मंदिरों में तंबू लगाने के पीछे भी यही कारण है। देश के पंडे-पुजारियों औरो खबरिया चैनलों ने हमको अपना बिजनेस चमकाने के वास्ते 'ब्रांड एम्बेसडर' बनाया है, इसलिए ई सब कर रहा हूं। अब जनता मूरख बन रही है, तो हमरा का दोष?'
हमरा कन्फ्यूजन अभियो दूर नहीं हुआ था, इसलिए हम जा पहुंचे अपने गुरुजी के पास। ऊ बोले, 'बेटा, ई कन्फ्यूजन नहीं, फ्यूजन का जमाना है। अगर तुम कथक औरो रॉक को मिलाकर 'कथरॉक' जैसन कुछो बना सको, तो दुनिया तुमको बिरजू महाराज औरो माइकल जैकसन से बेसी काबिल मानेगी। इसी का जमाना है। रथ में बीएमडब्लू का मशीन लगाकर चलाओ, तभिये माडर्न कहलाओगे। इसीलिए बेसी परेशान मत हो। का है कि परेशानी में असली चेहरा सामने आता है औरो अगर असली चेहरा सामने आ गया, तो कोयो तुमको पूछेगा नहीं! जरा सोचो, अगर लंबू जी औरो उ मंतरी जी का रोज एक नया चेहरा लोगों के सामने नहीं आए, तो उनको पूछेगा कौन? चेहरा बदलने से लोगों की दिलचस्पी उनमें बनी रहती है औरो तभिये ऊ लोगों को उल्लू बना पाते हैं।' लगता है अब हमरा कन्फ्यूजन दूर हो गया है!
अपने रेल वाले नेताजी को ही लीजिए। उस दिन पूजा पर बैठे शताब्दी टरेन की इस्पीड से झूम रहे थे। पहले तो लगा कि रेल को दौड़ाते हैं, इसलिए उसके इस्पीड से झूमने की इनको आदत लग गई होगी, लेकिन तनिए देर में पता चला कि हुजूर तंत्र-मंत्र में लीन हैं। खुद बिहार से 'भूत' हो गए, तो अब ओझा बनकर दूसरों का भूत भगा रहे हैं। हमने कहा, 'एक आपका चेहरा उहो था, जब आपने बिहार में भूत-परेत भगाने वाले पाखंडियों को जेल में डालने के लिए कानून बनाया था औरो एक चेहरा ई है कि आप खुदे पाखंडी बने बैठे हैं! आपका असली चेहरा कौन-सा है?'
जनाब उबल पड़े। बोले, 'ई चेहरा-बेहरा का होता है? जब हम सत्ता में होता हूं, तो कानून बनाता हूं औरो जब सत्ताविहीन होता हूं, तो कानूनों को तोड़कर सही विपक्ष का रोल अदा करता हूं। सिम्पल बात है! हमने परिवार नियोजन कार्यक्रम की धज्जी उड़ाई, दो कम दर्जन भर बच्चे पैदा किए, लेकिन तभिये तक, जब तक कि सत्ता में नहीं थे। सत्ता में आने के बाद हमको एको ठो बच्चा हुआ? नहीं न। फिर? ऐसने जब हम बिहार में सत्ता में थे, तो 'एंटी विचक्राफ्ट एक्ट' बनाए औरो जैसने सत्ता से बाहर हुए खुदे ओझा बनकर भूत भगा रहा हूं। गांधीजी सत्याग्रह से कानूनों का विरोध करते थे, हम ओझा बनकर ऐसा कर रहा हूं! वैसे, आप हमरे पीछे काहे लगे हैं? उससे काहे कुछ नहीं पूछते, जो मंगल दोष दूर करने के लिए आजकल भारत भ्रमण कर रहा है?'
उनका आइडिया हमको पसंद आया। हम पहुंच गए भारत भर के मंदिरों में इन दिनों तंबू लगा रहे लंबू जी के पास? हमने पूछा, 'आपको का हो गया? कहां तो आप रस्म-रिवाज तोड़ने वाले एंग्री यंग मैन थे, 'बाबुल' में आपने बहू का विधवा विवाह करवाया औरो कहां अब होने वाली बहू का मंगलदोष दूर करने के लिए मंदिरों में भटक रहे हैं। आपका असली चेहरा कौन-सा है?'
लंबू जी ने पहले तो नवरतन तेल लगाया, फिर पेप्सी पिया औरो फिर खाया च्यवनप्राश। हमने सोचा ई गोस्सा नहीं दिखाने के लिए कूल हो रहे हैं औरो इनर्जी के लिए च्यवनप्राश खा रहे हैं, लेकिन तनिए देर में ऊ गरम हो गए औरो लड़खड़ाकर गिर गए। फिर संभलकर बोले, 'देखिए, इन तीनों चीज के उपयोग से हमको कौनो फायदा हुआ? नहीं न। जबकि विज्ञापन में हम इनका एतना फायदा गिनाता हूं। अब आप समझे! का है कि हम मूरख नहीं हूं। हम तो जनता को मूरख बनाता हूं। तो मंदिरों में तंबू लगाने के पीछे भी यही कारण है। देश के पंडे-पुजारियों औरो खबरिया चैनलों ने हमको अपना बिजनेस चमकाने के वास्ते 'ब्रांड एम्बेसडर' बनाया है, इसलिए ई सब कर रहा हूं। अब जनता मूरख बन रही है, तो हमरा का दोष?'
हमरा कन्फ्यूजन अभियो दूर नहीं हुआ था, इसलिए हम जा पहुंचे अपने गुरुजी के पास। ऊ बोले, 'बेटा, ई कन्फ्यूजन नहीं, फ्यूजन का जमाना है। अगर तुम कथक औरो रॉक को मिलाकर 'कथरॉक' जैसन कुछो बना सको, तो दुनिया तुमको बिरजू महाराज औरो माइकल जैकसन से बेसी काबिल मानेगी। इसी का जमाना है। रथ में बीएमडब्लू का मशीन लगाकर चलाओ, तभिये माडर्न कहलाओगे। इसीलिए बेसी परेशान मत हो। का है कि परेशानी में असली चेहरा सामने आता है औरो अगर असली चेहरा सामने आ गया, तो कोयो तुमको पूछेगा नहीं! जरा सोचो, अगर लंबू जी औरो उ मंतरी जी का रोज एक नया चेहरा लोगों के सामने नहीं आए, तो उनको पूछेगा कौन? चेहरा बदलने से लोगों की दिलचस्पी उनमें बनी रहती है औरो तभिये ऊ लोगों को उल्लू बना पाते हैं।' लगता है अब हमरा कन्फ्यूजन दूर हो गया है!
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