Monday, August 18, 2014

महिलाओं के सखा बनें पुरुष



प्रिय भक्तो,

पिछले कुछ सालों से जन्माष्टमी के दिन मैं बड़ा व्याकुल महसूस करता हूं। मुझे पता चला कि पृथ्वी लोक पर सबसे ज्यादा पॉपुलर भगवानों में मैं शीर्ष पर हूं, लेकिन सच पूछो तो अपनी पॉपुलैरिटी को लेकर मैं खुद ही कन्फ्यूज्ड हूं। इतना पॉपुलर होने का मतलब है कि लोग मेरे विचारों से प्रभावित होंगे। उन्हें लगता होगा कि मैं उनका आदर्श हूं, लेकिन समझ नहीं आ रहा कि अगर मैं घर-घर पूजा जाता हूं, सबसे पॉपुलर हूं और आदर्श भी, तो फिर मेरे विचारों की, मेरे आदर्शों की धज्जियां वहां कैसे उड़ रही हैं!

मुझसे जुड़ा कोई भी धर्मग्रंथ, कोई भी पुराण देख लीजिए, महिलाओं को मैंने सबसे ज्यादा मान दिया है। जिस समय पुरुषों का राज था, वे समाज को लीड करते थे, तब भी मैंने गोपियों को समाज की मुख्यधारा में शामिल किया। उन्हें पुरुषों के बराबर दर्जा दिया। जहां कृष्ण हैं, वहां गोपियां हैं। बिना गोपियों के कृष्ण की कथा कभी पूरी नहीं होती। यह महिला सशक्तिकरण का मेरा तरीका था। मैंने उन्हें घर की चारदीवारी से बाहर निकाला, वे मेरे साथ नि:संकोच आ सकती थीं, रास में शामिल हो सकती थीं। कृष्ण के नाम पर उनके घरवालों ने उन्हें बेड़ियां नहीं पहनाईं। यह उनका विश्वास था। मुझे दुख होता है कि आज के पुरुष महिलाओं या उनके परिजनों के मन में यह विश्वास नहीं जगा पा रहे। जब पुरुष महिलाओं के सिर्फ पिता, भाई या पति हो सकते थे, तब गोपियां मुझमें दोस्त के रूप देखती थीं। यह पुरुष नहीं, एक सखा का प्यार था। यह विश्वास की पराकाष्ठा थी, जो महिलाएं पुरुष में व्यक्त कर सकती हैं।

अगर किसी को लगता है कि वह कृष्णभक्त है, तो यह लिटमस टेस्ट उसके लिए है - महिलाओं में अपनी विश्वसनीयता परखो। अगर खुद को सौ में 70 नंबर भी दे पाओ तो समझना सच्चे कृष्णभक्त हो। मैंने द्रौपदी के चीरहरण को विफल किया, मैंने दुष्टों को दंड दिया। मैं यह उम्मीद करता हूं कि अगर एक भी पुरुष इस धरती पर है तो किसी द्रौपदी का चीरहरण नहीं होना चाहिए। सच्ची कृष्णभक्ति तो यही है।

विश्वास करो, महिलाएं अब भी वैसी ही हैं। पुरुषों में अपना दोस्त, अपना सहयोगी देखने की उनकी दृष्टि अब भी वैसी ही है, लेकिन अफसोस कि पुरुष बदल गए। बेशक इसका नुकसान जितना महिलाओं और इस समाज को हुआ है, उससे कहीं ज्यादा नुकसान खुद पुरुषों का हुआ है। हालांकि इस कटु सत्य को आज शायद ही कोई स्वीकार करने को तैयार हो, लेकिन यह बात सोलह आने सच है।

मुझे ज्यादा दुख इसलिए भी होता है कि पुरुषों ने मेरी कथाओं का कुछ अलग ही मतलब निकालना शुरू कर दिया। वे अपनी सुविधा से मेरे दर्शन की व्याख्या करने लगे। उन्होंने कृष्ण को 'इस्तेमाल' करना शुरू कर दिया। अपने धत्कर्मों को सही साबित करने के लिए वे कृष्ण की गोपियों और 16 हजार रानियों की दुहाई देते हैं। वे रास लीलाओं का जिक्र करते हैं और राधा-कृष्ण के संबंधों का विश्लेषण भी। लेकिन वे नहीं जानते कि वासना और प्रेम में कितना फर्क होता है। महिलाएं मान-सम्मान की भूखी होती हैं, अगर कोई उन्हें वो दे तो वह खुद ही कृष्ण हो जाता है। जो गोपियां या मेरी जो भक्त मुझसे प्रेम करती हैं, वे इसलिए, क्योंकि कृष्ण के प्यार में सम्मान है। कृष्ण यह उम्मीद देता है कि पुरुष महिलाओं का सखा भी हो सकता है। वासनाओं और दैहिक जरूरतों से आगे भी कोई जमीन है, जहां नर और नारी में कोई भेद नहीं है। जहां कोई भी महिला मीरा या राधा हो सकती है और पुरुष कृष्ण। इसके लिए अलग से पौरुष की जरूरत नहीं होती, बस इंसान बनने की जरूरत होती है।


मैं चाहता हूं कि लोग अपनी कमजोरियों और मजबूतियों को समान रूप से स्वीकार करें। इससे वे फ्रस्ट्रेट होने से बचेंगे, मानसिक रूप से मजबूत बनेंगे और जेंडर इक्विलिटी को लेकर ज्यादा संवेदनशील भी। मैंने अपनी कमजोरियों को कभी छिपाया नहीं। अगर मैं सर्वशक्तिमान होने का दंभ भरता तो कभी रणछोड़ नहीं कहलाता, मैं कभी किसी से डर कर मथुरा छोड़कर द्वारका नहीं जाता। अगर आप किसी भी मामले में कमजोर हैं, चाहे वह चरित्र ही क्यों ना हो, तो आप उसे स्वीकार करें। आप खुद ब खुद मजबूत हो जाएंगे। अपनी मजबूती दिखाने के लिए आपको किसी महिला के मानमर्दन की जरूरत नहीं पड़ेगी।


चलो, एक काम करो। इस जन्माष्टमी मुझे माखन-मिश्री मत खिलाओ। बस किसी एक महिला का विश्वास जीत कर दिखाओ। किसी अनजान महिला का सम्मान करके दिखाओ। महिलाओं की आबरू तार-तार करने वाले किसी दुर्योधन को सबक सिखाकर दिखाओ। किसी द्रौपदी का कृष्ण बन कर दिखाओ। विश्वास करो, कृष्ण तुम्हारे दर पर होगा।

आपका कृष्ण

Tuesday, April 15, 2014

मोदी से डरने की जरूरत नहीं है


जब भी यह पढ़ता हूं कि मुसलमान नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से डर रहे हैं, तो मुझे अजीब सा लगता है। सवाल है कि क्या देश के मुसलमानों को सचमुच मोदी से डरने की जरूरत है? क्या सच में मोदी के आने से मुस्लिमों पर कहर टूट पड़ेगा या मुस्लिम धर्म खतरे में आ जाएगा?

मुझे नहीं लगता कि मोदी के हिंदुत्व से किसी खास धर्म के लोगों को डरने की जरूरत है। अगर सत्ता द्वारा किसी एक खास धर्म का समर्थन करने से बाकी धर्म खत्म हो जाते या बाकी धर्म के लोगों की हालत खराब हो जाती, तो भारत से हिंदुओं का कब का नामोनिशां मिट गया होता। कभी बौद्ध और जैन धर्म ने राज सत्ता के समर्थन के जरिए ही ऊंचाइयों को छुआ था, लेकिन वे हिंदू धर्म का अस्तित्व नहीं मिटा पाए। मुझे नहीं लगता कि मोदी प्रधानमंत्री बनकर मुस्लिमों को खत्म करने के लिए जजिया कर से भी बड़ा घृणित कदम उठा सकते हैं। अगर वे ऐसे कदम उठा भी लें, तो मुस्लिमों को वे खत्म नहीं कर सकते, क्योंकि जजिया देकर भी हिंदू इसी देश में शान से जिंदा रहे हैं।

मुसलमानों के मन में लगातार यह बात बिठाई जा रही है कि बीजेपी आई, तो वे अपना खात्मा समझें। देसी-विदेशी कठमुल्लों के अलावा देश की तमाम पार्टियां भी यह डर मुस्लिमों के दिल में बिठा रही हैं। क्या सचमुच इस लोकतांत्रिक जमाने में करोड़ों लोगों का खात्मा संभव है? मुझे तो लगता है कि वोट के आगे कोई आपकी उपेक्षा तक नहीं कर सकता, खात्मा तो दूर की बात है।

जिन्हें डर है कि मोदी के आने से बाबरी विध्वंस जैसी घटनाएं बढ़ जाएंगी, उन्हें यह समझना चाहिए मंदिर-मस्जिद के विध्वंस से धर्म कभी खतरे में नहीं पड़ता और न ही उस धर्म को मानने वाले लोग खतरे में पड़ते हैं। गुलाम वंश से लेकर मुगल और उनके पुरखे चंगेज खान और गजनी तक ने तमाम मंदिरों को ध्वस्त किया था। क्या हुआ? आज भी हिंदू धर्म कायम है। सच मानिए मंदिर-मस्जिद के बनने या टूटने से धर्म जिंदा या मुर्दा नहीं होता।

यह डर फिजूल है कि मोदी के आने से देश कम्यूनल हो जाएगा और मुस्लिम धर्म खतरे में पड़ जाएगा। जिन्हें यह डर है, उन्हें मुस्लिम धर्म की विराटता और उनकी अच्छाइयों पर भरोसा नहीं है।

सच तो यह है कि भारत में मुस्लिमों को सबसे ज्यादा खतरा उनके अपनों से है और वाकई उन्हें उनसे डरने की जरूरत भी है। बजाए मोदी के डरने से उन्हें उन कठमुल्लों से डरना चाहिए, जो कुरान की अनाप-शनाप व्याख्या कर मुस्लिमों को ईसा पूर्व के जमाने में ले जा रहे हैं। असली दुश्मन वे हैं, जो मुस्लिमों को पढ़ने नहीं देते, नई टेक्नॉलजी के प्रयोग से रोकते हैं, धर्म के नाम पर आधी जनसंख्या को घर में कैद रखने की वकालत करते हैं, फैमिली प्लानिंग को धर्म विरुद्ध बताते हैं और पोलियो ड्रॉप तक पीने से रोक देते हैं। यकीनन ये सारी चीजें मुस्लिमों को भारत जैसे देश में पीछे ले जा रही हैं।

शायद मुस्लिम देशों में इन बातों से मुसलमानों को कोई नुकसान नहीं होता हो, लेकिन भारत में इनसे प्रत्यक्ष नुकसान है। क्योंकि यहां उनका मुकाबला प्रगतिशील हिंदुओं, ईसाइयों और सिखों से है। इन धर्मों में धर्म ने नाम पर अच्छे कामों और अच्छी तालीम से किसी को महरूम नहीं रखा जा रहा, इसलिए वे बढ़ रहे हैं। जब तक हिंदू धर्म कर्मकांडों के जकड़न में था, हिंदुओं की हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी। हिंदुओं ने बेड़ियां तोड़ीं, तभी हालात अच्छे हुए। हिंदुओं ने इसलिए प्रगति की, क्योंकि छुआ-छूत, जाति के आधार पर पेशे के बंटवारे और समंदर पार करने पर धर्म भ्रष्ट होने जैसी मान्यताओं को उन्होंने तिलांजलि दी। वे भूखे नहीं मरना चाहते, इसलिए उन्होंने यह मानना छोड़ दिया है कि बच्चे भगवान की देन होते हैं और फैमिली प्लानिंग अधार्मिक काम है। अब तो बेटे से मुखाग्नि पाने के फेर में दर्जन भर बच्चे पैदा करने का लालच भी उन्होंने छोड़ दिया है। और यकीन मानिए इससे हिंदू धर्म कभी नष्ट नहीं होने वाला। हिंदुओं ने धर्म के नाम पर पोंगा-पंथी को बाय-बाय कहना शुरू कर दिया है, इसलिए वे लगातार बढ़ रहे हैं।

अब नियम यह कहता है कि एक बढ़ेगा और लगातार बढ़ेगा, तो बाकी पीछे छूटेंगे ही। और ऐसा पीछा छूटेंगे कि रेस से बाहर हो जाएंगे। सच पूछिए तो आज मुस्लिमों को लेकर भी मुझे यही डर सता रहा है। अगर उनकी कट्टरता इसी तरह बढ़ती रही, तो वे रेस से बाहर हो जाएंगे और वह दिन इस देश के लिए सही नहीं होगा।

ऐसे में मुस्लिमों को डरना और लड़ना ही है, तो अपनी अशिक्षा, बेरोजगारी और जनसंख्या वृद्धि से लड़ना होगा। यकीनन वे लड़ना शुरू करेंगे, तो जीतेंगे भी। अगर वे पढ़ेंगे और अच्छी तालीम लेंगे, तो किसी मोदी में इतनी ताकत नहीं कि वह मुसलमानों को आगे बढ़ने और मुस्लिम धर्म को मजबूत होने से रोक दे।

इसलिए मोदी से डरना छोड़ना होगा। वैसे भी कांग्रेस, एसपी या बीएसपी जैसी तथाकथित सेक्युलर पार्टियों का शासन मुस्लिमों के विकास की गारंटी नहीं है। आजादी के बाद से इन पार्टियों का ही तो शासन रहा है, फिर भी हालत बद से बदतर होती जा रही है।

तो इसमें हर्ज ही क्या है कि विकास की बात करने वाले और अपने राज्य को देश के विकास दर से भी ज्यादा विकास दर पर लाकर खड़ा करने वाले मोदी को आजमाया जाए! आखिर आज गुजरात के मुस्लिमों के लिए भी तरक्की के उतने ही रास्ते खुले हैं, जितना कि वहां के पटेलों के लिए।