हम मिसिर जी के यहां पहुंचे, तो ऊ अपनी मेहरारू के साथ एक ठो इंटरनैशनल मुद्दे पर थेथड़ोलॉजी में बिजी थे। मुद्दा वही 'महिला बनाम पुरुष' टाइप सदियों पुरानी बहस और थेथड़ोलॉजी इसलिए काहे कि ऐसन बहस का न सिर होता है, न पूंछ। खैर, तो जल्दिये ऊ लोग इस बात का पोस्टमार्टम करने लगे कि आखिर दिल्ली में पतियों की तुलना में पत्नियां ज्यादा मोटी काहे होती हैं?
मिसिर जी का कहना था कि चूंकि महिलाएं टेनशन देने में विश्वास करती हैं, लेने में नहीं, इसलिए वे ज्यादा तंदुरुस्त होती हैं औरो बेचारा पति नामक जीव चूंकि पत्नी का सबसे करीबी 'दुश्मन' होता है, इसलिए पत्नियां सबसे बेसी टेनशन इसी जीव को देती हैं। यही वजह है कि टेंशन ले-ले कर बेचारे पति सब दिन 'सिंकिया पहलवान' ही बनल रहते हैं औरो टेंशन देकर मिलने वाले आनंद से प्रफुल्लित पत्नियां 'भूगोल सुंदरी' बन जाती हैं।
मिसिर जी की बात सुनकर उनकी मेहरारू तैश में आ गईं। बोलने लगीं, 'ई तो आपका फालतू का तर्क है। सच बात तो ई है कि घर-गिरहस्थी में फंसाकर पुरुषों ने महिलाओं को बरबाद कर दिया है। महिलाएं इसलिए मोटी नहीं होती हैं कि ऊ पतियों को टेनशन देकर अपना खून बढ़ाती हैं, बल्कि मोटी इसलिए होती हैं, काहे कि चूल्हे-चौके में फंसकर उनके पास एतना टाइमे नहीं होता कि ऊ अपने पर ध्यान दें। अगर हम पतली होने के लिए सवेरे हवाखोरी करने चले जाएं, तो आप सोचिए कि बिना चाय के आपकी सुबह केतना खराब होगी? टेंशन तो आप लोग देते हैं महिलाओं को, तभियो पता नहीं मोटे काहे नहीं होते हैं!'
हमने सोचा मामला अब रफादफा हो जाएगा, लेकिन मिसिर जी के तरकश में तीर की कमी नहीं थी। उन्होंने दूसरा तीर चलाया, 'देखिए, घर की मालकिन तो यही हैं। ऐसन में ऑफिस जाने के बाद हम ई देखने थोड़े आता हूं कि हमरे परोक्ष में दिन भर इन्होंने का खाया-पीया। का पता, हमको दही-चूड़ा खिलाकर ऑफिस विदा करने के बाद दूध की सब ठो मलाई यही खा लेती होंगी! आखिर मकान देखने से ही न पता चल जाता है कि उसमें किस क्वालिटी का बालू- सीमेंट लगा है। आप ही बताइए, हमरे अंजर-पंजर को देखकर कोयो कह सकता है कि वर्षों से हमने पौष्टिक खाना खाया हो? औरो इनको देखिए... सब यही कहता है कि खाते-पीते घर की महिला है! जब ई खाते-पीते घर की महिला है, तो इसी घर में रहकर हम चिड़ीमार काहे बना हुआ हूं?'
उनको शांत करने के लिए हमने भी तीर चलाया, 'मिसिर जी, लेकिन ई केवल दिल्ली की कहानी होगी, काहे कि इंटरनैशनल लेवल पर हुए एक ठो सर्वे का तो कहना है कि महिलाओं से बेसी पुरुष मोटापे के शिकार होते हैं...।'
मिसिर जी ने हमको रोका, 'बेसी नारीवादी मत बनिए। आप ऐसे ही छोटे शरीर के मालिक हैं, बढ़िएगा नहीं तो कभियो बुढ़ैबो नहीं करिएगा। ऐसे में अगर बीवी मोटी हो गईं, तो आते-जाते मोहल्ले में सब कहेंगे-- देखो मां-बेटा जा रहे हैं...।'
अब हम समझ गए थे मिसिर जी का दर्द कहां था। बीवी मोटी हुई, उसका गम कम था, असली टिस तो ई थी कि लोग मिसराइन के साथ उनकी जोड़ी को भी मां-बेटे की जोड़ी कहते थे!
Saturday, October 27, 2007
Saturday, October 20, 2007
रावण का इंटरभ्यू
दिल्ली में आजकल रावणों की संख्या अचानक से बढ़ गई है। जी हां, चोर-उचक्के , गिरहकट, लंपट औरो बलात्कारी जैसन कलियुगी जिंदा रावण तो पहिले से यहां बहुत थे, आजकल त्रेतायुगीन रावण के पुतले की भी भरमार है। तो हुआ ई कि हमरी संपादक जी ने कहा कि दशहरा के मौके पर रावण का इंटरभ्यू लेकर आओ। खैर, हमको बेसी खोजना नहीं पड़ा, बगल वाले पार्क में ही ऊ मूंछ पर हाथ फेरते दिख गए। हमने इंटरभ्यू की बात कही, तो ऊ नेता जी जैसन खुश हो गए औरो दे डाला एक धांसू इंटरभ्यू। लीजिए, आप भी पढि़ए :
'दिल्ली में आपकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है...।'
'बात ई है कि लोगों में फरस्टेशन बढ़ गया है। दिल्ली में चोर-उचक्कों औरो हत्यारों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन लोग उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहे हैं। ऐसे में हमरा पुतला फूंककर ऊ अपना फरस्टेशन निकालते हैं। इससे उनको सुकून मिलता है। अब जैसे-जैसे उनका फरस्टेशन बढ़ रहा है, हमरे पुतलों की संख्या भी ऊ बढ़ाते जा रहे हैं। फिर हुआ इहो है कि जेतना चोर-उचक्का सब था, सब नेता बन गया है। हमरा पुतला फूंककर ऊ सब जनता को समझाना चाहते हैं कि ऊ पापी तो हैं, लेकिन रावण जितना नहीं। खैर, हमरी तो तभियो मौज है-- राम लीला देखने कोयो नहीं जाता, लेकिन रावण दहन देखने लोग सपरिवार आते हैं।
'आपके पुतलों की ऊंचाइयो बढ़ती जा रही है?'
'अरे, नहीं नहीं... ई कहिए कि जेतना ऊंचा होना चाहिए, हो नहीं पा रहा। बात ई है कि हमरा पुतला फूंकने का सबसे बेसी आयोजन बेईमानी-शैतानी से पैसा कमाने वाले सब ही करते हैं औरो बेईमानों के लिए इस बार सीजन तनिये ठंडा है। लोन महंगा हो गया, इसलिए लोग घर नहीं ले पा रहे। ऐसे में बिल्डर औरो परोपरटी डीलर पैसा नहीं बना पा रहे, तो कोर्ट के रवैये से ब्लूलाइन वालों की कमाई कम हो गई है, इसलिए पुतलों के लिए चंदा जुटाना 'रावण फूंको' समितियों के लिए मोश्किल हो गया है। उम्मीद रखिए, जैसे-जैसे बेईमानी, शैतानी औरो घूसखोरी बढ़ती जाएगी, हमरे पुतले की ऊंचाइयो बढ़ती जाएगी। यानी कलियुगी रावणों को जेतना सरकारी समरथन मिलेगा, ऊ पब्लिक को जेतना नोंच-खसोट पाएंगे, इस त्रेतायुगी रावण की ऊंचाईयो ओतने बढ़ेगी।'
'भारत सरकार का मानना है कि राम कभियो थे ही नहीं। जब राम नहीं थे, तब आप कहां से आ गए?'
'राम ठीके नहीं थे। जिंदा रहते हुए तो हमने खुदे राम के अस्तित्व को कभियो नहीं माना। अब का है कि हर वह व्यक्ति, जिसमें रावण-तत्व होता है, राम के अस्तित्व को चुनौती देता है औरो मरने के बाद अंतत: राम का अस्तित्व मानने लगता है, जैसा कि हमने किया। हमही नहीं, भाजपाई भी ऐसने करते हैं, जब तक सत्ता हाथ में रही राम मंदिर के बारे में कुछो सोचबे नहीं किया, जैसने सत्ता हाथ से गई कि फिर से उनका राम-राम शुरू हो गया! ऐसन में हम तो कांगरेसियों को बुद्धिमान मानता हूं कि समय रहते इसने राम के अस्तित्व को मान लिया, वरना...।'
'लेकिन करुणानिधि का भी तो ऐसने मानना है?'
'यार, तुम मीडिया वाला सब भी न एक नंबर के बेकूफ होते हो। अब तुम्ही बताओ, जिस व्यक्ति ने मारन जैसन योग्य आदमी को केंद्रीय मंत्रीमंडल से हटवाकर एक घोषित अपराधी की बीवी को केंद्र में मंत्री बना दिया, उससे अगर तुम राम के अस्तित्व बारे में सारटिफिकेट लेने जाओगे, तो ऐसने सारटिफिकेट मिलेगा न!'
'अपनी छवि सुधारने के लिए आप कुछो करते काहे नहीं हैं?'
'छवि सुधारकर करूंगा का? इस दुनिया में इस छवि के साथ जीना बेसी आसान है, चाहे त्रेतायुग हो या सतयुग! बदमाश होने का मतलब है कि कोयो आपसे भिड़ने अइबे नहीं करेगा, बस करते रहिए सज्जनों पर राज। अपराधियों को वैसे भी इस दुनिया में बेसी पब्लिसिटी मिलती है, देख लो हर चैनल पर कराइम शो चलता है, इंसानियत पर शो चलते कभियो देखा है!
रावण जी से इंटरभ्यू के बाद हमको तो सत्य का घनघोर ज्ञान हो गया, पता नहीं आपको पढ़ने के बाद कुछो हुआ है कि नहीं!
'दिल्ली में आपकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है...।'
'बात ई है कि लोगों में फरस्टेशन बढ़ गया है। दिल्ली में चोर-उचक्कों औरो हत्यारों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन लोग उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहे हैं। ऐसे में हमरा पुतला फूंककर ऊ अपना फरस्टेशन निकालते हैं। इससे उनको सुकून मिलता है। अब जैसे-जैसे उनका फरस्टेशन बढ़ रहा है, हमरे पुतलों की संख्या भी ऊ बढ़ाते जा रहे हैं। फिर हुआ इहो है कि जेतना चोर-उचक्का सब था, सब नेता बन गया है। हमरा पुतला फूंककर ऊ सब जनता को समझाना चाहते हैं कि ऊ पापी तो हैं, लेकिन रावण जितना नहीं। खैर, हमरी तो तभियो मौज है-- राम लीला देखने कोयो नहीं जाता, लेकिन रावण दहन देखने लोग सपरिवार आते हैं।
'आपके पुतलों की ऊंचाइयो बढ़ती जा रही है?'
'अरे, नहीं नहीं... ई कहिए कि जेतना ऊंचा होना चाहिए, हो नहीं पा रहा। बात ई है कि हमरा पुतला फूंकने का सबसे बेसी आयोजन बेईमानी-शैतानी से पैसा कमाने वाले सब ही करते हैं औरो बेईमानों के लिए इस बार सीजन तनिये ठंडा है। लोन महंगा हो गया, इसलिए लोग घर नहीं ले पा रहे। ऐसे में बिल्डर औरो परोपरटी डीलर पैसा नहीं बना पा रहे, तो कोर्ट के रवैये से ब्लूलाइन वालों की कमाई कम हो गई है, इसलिए पुतलों के लिए चंदा जुटाना 'रावण फूंको' समितियों के लिए मोश्किल हो गया है। उम्मीद रखिए, जैसे-जैसे बेईमानी, शैतानी औरो घूसखोरी बढ़ती जाएगी, हमरे पुतले की ऊंचाइयो बढ़ती जाएगी। यानी कलियुगी रावणों को जेतना सरकारी समरथन मिलेगा, ऊ पब्लिक को जेतना नोंच-खसोट पाएंगे, इस त्रेतायुगी रावण की ऊंचाईयो ओतने बढ़ेगी।'
'भारत सरकार का मानना है कि राम कभियो थे ही नहीं। जब राम नहीं थे, तब आप कहां से आ गए?'
'राम ठीके नहीं थे। जिंदा रहते हुए तो हमने खुदे राम के अस्तित्व को कभियो नहीं माना। अब का है कि हर वह व्यक्ति, जिसमें रावण-तत्व होता है, राम के अस्तित्व को चुनौती देता है औरो मरने के बाद अंतत: राम का अस्तित्व मानने लगता है, जैसा कि हमने किया। हमही नहीं, भाजपाई भी ऐसने करते हैं, जब तक सत्ता हाथ में रही राम मंदिर के बारे में कुछो सोचबे नहीं किया, जैसने सत्ता हाथ से गई कि फिर से उनका राम-राम शुरू हो गया! ऐसन में हम तो कांगरेसियों को बुद्धिमान मानता हूं कि समय रहते इसने राम के अस्तित्व को मान लिया, वरना...।'
'लेकिन करुणानिधि का भी तो ऐसने मानना है?'
'यार, तुम मीडिया वाला सब भी न एक नंबर के बेकूफ होते हो। अब तुम्ही बताओ, जिस व्यक्ति ने मारन जैसन योग्य आदमी को केंद्रीय मंत्रीमंडल से हटवाकर एक घोषित अपराधी की बीवी को केंद्र में मंत्री बना दिया, उससे अगर तुम राम के अस्तित्व बारे में सारटिफिकेट लेने जाओगे, तो ऐसने सारटिफिकेट मिलेगा न!'
'अपनी छवि सुधारने के लिए आप कुछो करते काहे नहीं हैं?'
'छवि सुधारकर करूंगा का? इस दुनिया में इस छवि के साथ जीना बेसी आसान है, चाहे त्रेतायुग हो या सतयुग! बदमाश होने का मतलब है कि कोयो आपसे भिड़ने अइबे नहीं करेगा, बस करते रहिए सज्जनों पर राज। अपराधियों को वैसे भी इस दुनिया में बेसी पब्लिसिटी मिलती है, देख लो हर चैनल पर कराइम शो चलता है, इंसानियत पर शो चलते कभियो देखा है!
रावण जी से इंटरभ्यू के बाद हमको तो सत्य का घनघोर ज्ञान हो गया, पता नहीं आपको पढ़ने के बाद कुछो हुआ है कि नहीं!
Tuesday, October 16, 2007
बाबा बनने का गुर
उस दिन रमेश जी आए। बहुते हड़बड़ी में थे। बोलने लगे, 'किसी से हमको दस करोड़ टका कर्जा दिला दीजिए, दो साल में हम उसको बीस करोड़ लौटा दूंगा...।'
हमने कहा, 'अरे, असली बतवा तो बताइए? एतना टका शेयर बाजार में लगाइएगा का? हमरी मानिए, अभी ऐसन रिस्क मत लीजिए, शेयर बजार जल्दिये डूबने वाला है। वित्त मंतरी तक कह रहे हैं कि अभी इन्भेस्टमेंट में खतरा है।'
ऊ बोले, 'आप बेकारे नरभसिया रहे हैं। भैय्या, शेयर बाजार में पैसा लगाना के चाहता है? हम तो बाबा बनना चाहता हूं, पैसवा उसी के लिए चाहिए।'
हमने कहा, 'का बात कर रहे हैं! साधु-संत बनना कौनो दुकानदारी थोड़े है कि उसे शुरू करने के लिए पूंजी चाहिए। लोग तो माया-मोह से पिंड छुड़ाने के लिए साधु-संत बनते हैं औरो आप हैं कि साधु बनने के लिए पूंजी...!'
रमेश जी उखड़ गए, उनको लगा जैसे हम उनकी बात बूझने की कोशिशे नहीं कर रहा हूं। ऊ चूड़ा-सत्तू लेकर बैठ गए कि जब तक हम समझूंगा नहीं, ऊ उठेंगे नहीं। बोले, 'देखिए, मुफ्त में आजकल बाबा बनना बहुते मुश्किल है। बढ़िया बाबा बनने के लिए दस करोड़ तो चाहिए ही। दो-तीन करोड़ हमको इसलिए चाहिए, ताकि हम एक ठो फाइवस्टार आश्रम बना सकूं औरो कुछ 'दिखने वाला' सामाजिक काज कर सकूं। बाकी जो सात-आठ करोड़ टका बचेगा, उसको पब्लिसिटी में लगाऊंगा... बड़का नेता, अभिनेता औरो वैज्ञानिकों को खरीदूंगा, जो ई ढिंढोरा पीटेंगे कि आध्यात्मिक सुख तो बस श्री श्री 1008 रमेशानंद जी महाराज के चरणों में ही है। इनकी चरणों में आकर आप ऊ सब पा सकते हैं, जो जिंदगी में आपको चाहिए। आप ही सोचिए न, अगर सुनीता विलियम्स हमरे आसरम में आकर केवल ई कह दे कि हमरे आसरम जैसन सुख उनको अंतरिक्षो में जाकर नहीं मिला था, तो हमरी कैसन धाक जम जाएगी। ऐसने पैसा लेकर दंतमंजन का परचार करने वाले अमिताभ बच्चन को भी हम सेट कर सकता हूं। अगर ऊ मंजन बेच सकते हैं, तो ई काहे नहीं कह सकते कि स्वामी रमेशानंद जी महाराज देवता हैं।'
उनका आइडिया हमको पसंद तो आया, लेकिन हमरे समझ में ई नहीं आया कि अब तक बाबाओं और सत्संग के विरोधी रहे रमेश जी सत्संग में परवचन कैसे देंगे! औरो जब परवचने नहीं देंगे, तो लोगों में उनकी धाक जमेगी कैसे!
रमेश जी ने हमको ऐसे देखा, जैसे हमरी बुद्धि पर उनको तरस आ रही हो। हमको घूरते हुए बोले, 'बीस साल से यहां हम घास थोड़े खोद रहा हूं! आजकल तो भगवान को भी ई साबित करने के लिए मीडिया की जरूरत पड़ती है कि ऊ भगवान हैं। परवचन से बचने के लिए हम मीडिया को सेट करूंगा, एक ठो पी आर एजेंसी रखूंगा। ऊ परोपगंडा करेगा कि रमेशानंद जी महाराज साल में बस एके दिन बोलते हैं औरो ऊहो कान में। मतलब चेला सब को परवचन देने से तो छुट्टी मिलिए जाएगी, साल के उस एक दिन की कमाई भी करोड़ों में हो जाएगी, जिस दिन हम बोलने वाला रहूंगा। भाड़ा पर स्क्रिप्ट लिखने वाला आदमी रखूंगा औरो उसका लिखा परवचन अपनी आवाज में टेप कर साल भर सत्संग में बजाऊंगा। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होए।'
खैर, रमेश जी बाबा बन अपनी दुकान चला पाएंगे कि नहीं, ई तो हमको नहीं पता, लेकिन आइडिया उनका टंच है। तो अगर आप चाहते हैं कि दू साल में आपकी रकम दूनी हो जाए, तो रमेश जी में इन्भेस्ट कर सकते हैं।
हमने कहा, 'अरे, असली बतवा तो बताइए? एतना टका शेयर बाजार में लगाइएगा का? हमरी मानिए, अभी ऐसन रिस्क मत लीजिए, शेयर बजार जल्दिये डूबने वाला है। वित्त मंतरी तक कह रहे हैं कि अभी इन्भेस्टमेंट में खतरा है।'
ऊ बोले, 'आप बेकारे नरभसिया रहे हैं। भैय्या, शेयर बाजार में पैसा लगाना के चाहता है? हम तो बाबा बनना चाहता हूं, पैसवा उसी के लिए चाहिए।'
हमने कहा, 'का बात कर रहे हैं! साधु-संत बनना कौनो दुकानदारी थोड़े है कि उसे शुरू करने के लिए पूंजी चाहिए। लोग तो माया-मोह से पिंड छुड़ाने के लिए साधु-संत बनते हैं औरो आप हैं कि साधु बनने के लिए पूंजी...!'
रमेश जी उखड़ गए, उनको लगा जैसे हम उनकी बात बूझने की कोशिशे नहीं कर रहा हूं। ऊ चूड़ा-सत्तू लेकर बैठ गए कि जब तक हम समझूंगा नहीं, ऊ उठेंगे नहीं। बोले, 'देखिए, मुफ्त में आजकल बाबा बनना बहुते मुश्किल है। बढ़िया बाबा बनने के लिए दस करोड़ तो चाहिए ही। दो-तीन करोड़ हमको इसलिए चाहिए, ताकि हम एक ठो फाइवस्टार आश्रम बना सकूं औरो कुछ 'दिखने वाला' सामाजिक काज कर सकूं। बाकी जो सात-आठ करोड़ टका बचेगा, उसको पब्लिसिटी में लगाऊंगा... बड़का नेता, अभिनेता औरो वैज्ञानिकों को खरीदूंगा, जो ई ढिंढोरा पीटेंगे कि आध्यात्मिक सुख तो बस श्री श्री 1008 रमेशानंद जी महाराज के चरणों में ही है। इनकी चरणों में आकर आप ऊ सब पा सकते हैं, जो जिंदगी में आपको चाहिए। आप ही सोचिए न, अगर सुनीता विलियम्स हमरे आसरम में आकर केवल ई कह दे कि हमरे आसरम जैसन सुख उनको अंतरिक्षो में जाकर नहीं मिला था, तो हमरी कैसन धाक जम जाएगी। ऐसने पैसा लेकर दंतमंजन का परचार करने वाले अमिताभ बच्चन को भी हम सेट कर सकता हूं। अगर ऊ मंजन बेच सकते हैं, तो ई काहे नहीं कह सकते कि स्वामी रमेशानंद जी महाराज देवता हैं।'
उनका आइडिया हमको पसंद तो आया, लेकिन हमरे समझ में ई नहीं आया कि अब तक बाबाओं और सत्संग के विरोधी रहे रमेश जी सत्संग में परवचन कैसे देंगे! औरो जब परवचने नहीं देंगे, तो लोगों में उनकी धाक जमेगी कैसे!
रमेश जी ने हमको ऐसे देखा, जैसे हमरी बुद्धि पर उनको तरस आ रही हो। हमको घूरते हुए बोले, 'बीस साल से यहां हम घास थोड़े खोद रहा हूं! आजकल तो भगवान को भी ई साबित करने के लिए मीडिया की जरूरत पड़ती है कि ऊ भगवान हैं। परवचन से बचने के लिए हम मीडिया को सेट करूंगा, एक ठो पी आर एजेंसी रखूंगा। ऊ परोपगंडा करेगा कि रमेशानंद जी महाराज साल में बस एके दिन बोलते हैं औरो ऊहो कान में। मतलब चेला सब को परवचन देने से तो छुट्टी मिलिए जाएगी, साल के उस एक दिन की कमाई भी करोड़ों में हो जाएगी, जिस दिन हम बोलने वाला रहूंगा। भाड़ा पर स्क्रिप्ट लिखने वाला आदमी रखूंगा औरो उसका लिखा परवचन अपनी आवाज में टेप कर साल भर सत्संग में बजाऊंगा। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होए।'
खैर, रमेश जी बाबा बन अपनी दुकान चला पाएंगे कि नहीं, ई तो हमको नहीं पता, लेकिन आइडिया उनका टंच है। तो अगर आप चाहते हैं कि दू साल में आपकी रकम दूनी हो जाए, तो रमेश जी में इन्भेस्ट कर सकते हैं।
Monday, October 08, 2007
बस ईमानदारों को न दिखे घूस
भरष्टाचार करना जेतना आसान है, उसको छिपाना ओतने मुश्किल। कमबखत कहीं न कहीं से दिखिए जाता है। घूस कमाते वक्त भले ही आप दुनिया को पता नहीं चलने दीजिए, लेकिन जेब में पहुंचते ही ई दुनिया को दिखने लगता है। अब का कीजिएगा, पैसे का गरमी होबे एतना तेज करता है कि बलबलाकर जेब से बाहर आ जाता है औरो पूरी दुनिया जान जाती है कि बंदा घूस कमाकर धन्ना सेठ बन गया है।
वैसे, किसने अपना जेब केतना गरम किया, इसका पता तभिये चलता है, जब कौनो व्यवस्था ताश के पत्ता जैसन भरभरा के गिर जाए। मसलन, जब एम्स के डाक्टरों को डेंगू हो जाए, सरकारी डाक्टर अपना इलाज पराइवेट नर्सिन्ग होम में कराए, परोफेसर का बेटा मैट्रिक फेल हो जाए, नई सड़क में गड्ढा हो जाए... तभिये पता चलता है कि घूस किस-किस ने खाया।
दिक्कत ई है कि घूस खाने वाला व्यवस्था पर ऐसन रंग-टीप करता है कि भरष्टाचार का पोल जल्दी खुलबे नहीं करता। औरो जब तक पोल खुलता है, बंदा या तो आलीशान बाथरूम बना चुका होता है या फिर सारा पैसा खाकर बाथरूम गंदा कर चुका होता है। बाथरूम से याद आया, तनिये दिन पहले जो यूपी के पूर्व मुख्य सचिव गिरफ्तार हुए हैं, उनके बाथरूम में सोने का नलका लगा हुआ है।
अभिये हमरी इस मुख्य सचिव साहेब से मुलाकात हुई, तो घूसखोरों की एक ठो बड़की व्यथा का हमको पता चला। हमने उनसे पूछा कि ऐसना घूस कमैइबे काहे किए कि दुनिया थू-थू कर रही है आप पर? ऊ तनिये ठो शरमाए, लेकिन फिर अपने सरकारी संस्कार पर आ गए। बोले, 'के कहता है कि घूस कमाना गलत है? पूरी दुनिया भरष्टाचार के बूते चल रही है। अगर भरष्टाचार बंद हो जाए, तो जेट की स्पीड से भाग रही आज की दुनिया, कल्हे से रेंगने लगेगी। सच बताऊं, तो भरष्टाचार खराब नहीं है, इसका दिख जाना खराब है। जब तक भरष्टाचार नहीं दिखता, कौनो सीबीआई पकड़ने नहीं आता किसी को, न ही पब्लिक हल्ला करती है, कमबखत भरष्टाचार का दिख जाना ही सब गड़बड़ कर देता है।'
हमने पूछा, 'तो आप ई चाहते हैं कि जैसे घूस नहीं दिखता है, वैसने उससे खरीदी हुई चीजो किसी को नजर नहीं आए! घूसखोर घूस के पैसे से बंगला खरीदे, किसी को नजरे नहीं आए..., ऊ बड़ी-सी लिमोजिन खरीदे, लेकिन किसी को दिखाइए नहीं पड़े..., बीवी के देह पर चालीस किलो सोना लदा है, किसी को दिखाइए नहीं पड़ रहा है... बेटा इंग्लैंड में पढ़ रहा है, पड़ोसी तक को पते नहीं है... घर में लाखों-करोड़ों का समान अंटा पड़ा है, लोगों को दिखबे नहीं कर रहा है... घूसखोर ने बड़का फार्म हाउस खरीदा, किसी को नजरे नहीं आया...।'
बात खतम होती, इससे पहले ही सचिव महोदय ने हमको रोक लिया। बोले, 'आप भी न गजबे वाला बात करते हैं। अरे, जब घूस से खरीदा सामान, कार या घर दिखबे नहीं करेगा, तो लोग का पागल हुआ है कि घूस लेगा? लोग तो घुसहा इसलिए बनते हैं, ताकि जिंदगी मौज से कटे, उसकी रईसी देखकर पड़ोसियों औरो संबंधियों का दिल जले! अगर अय्याशी औरो समृद्धि दिखबे नहीं करेगा, तो लोग घूस कमैइबे काहे करेगा? हम तो बस ई चाहता हूं कि घूस सबको दिखे, हो बस एतना कि घूस उनको न दिखे, जो सरकारी नौकरी में ईमानदारी की कसम खा लेते हैं औरो घूसखोरों को पकड़ने उसके घर चले आते हैं!'
वैसे, किसने अपना जेब केतना गरम किया, इसका पता तभिये चलता है, जब कौनो व्यवस्था ताश के पत्ता जैसन भरभरा के गिर जाए। मसलन, जब एम्स के डाक्टरों को डेंगू हो जाए, सरकारी डाक्टर अपना इलाज पराइवेट नर्सिन्ग होम में कराए, परोफेसर का बेटा मैट्रिक फेल हो जाए, नई सड़क में गड्ढा हो जाए... तभिये पता चलता है कि घूस किस-किस ने खाया।
दिक्कत ई है कि घूस खाने वाला व्यवस्था पर ऐसन रंग-टीप करता है कि भरष्टाचार का पोल जल्दी खुलबे नहीं करता। औरो जब तक पोल खुलता है, बंदा या तो आलीशान बाथरूम बना चुका होता है या फिर सारा पैसा खाकर बाथरूम गंदा कर चुका होता है। बाथरूम से याद आया, तनिये दिन पहले जो यूपी के पूर्व मुख्य सचिव गिरफ्तार हुए हैं, उनके बाथरूम में सोने का नलका लगा हुआ है।
अभिये हमरी इस मुख्य सचिव साहेब से मुलाकात हुई, तो घूसखोरों की एक ठो बड़की व्यथा का हमको पता चला। हमने उनसे पूछा कि ऐसना घूस कमैइबे काहे किए कि दुनिया थू-थू कर रही है आप पर? ऊ तनिये ठो शरमाए, लेकिन फिर अपने सरकारी संस्कार पर आ गए। बोले, 'के कहता है कि घूस कमाना गलत है? पूरी दुनिया भरष्टाचार के बूते चल रही है। अगर भरष्टाचार बंद हो जाए, तो जेट की स्पीड से भाग रही आज की दुनिया, कल्हे से रेंगने लगेगी। सच बताऊं, तो भरष्टाचार खराब नहीं है, इसका दिख जाना खराब है। जब तक भरष्टाचार नहीं दिखता, कौनो सीबीआई पकड़ने नहीं आता किसी को, न ही पब्लिक हल्ला करती है, कमबखत भरष्टाचार का दिख जाना ही सब गड़बड़ कर देता है।'
हमने पूछा, 'तो आप ई चाहते हैं कि जैसे घूस नहीं दिखता है, वैसने उससे खरीदी हुई चीजो किसी को नजर नहीं आए! घूसखोर घूस के पैसे से बंगला खरीदे, किसी को नजरे नहीं आए..., ऊ बड़ी-सी लिमोजिन खरीदे, लेकिन किसी को दिखाइए नहीं पड़े..., बीवी के देह पर चालीस किलो सोना लदा है, किसी को दिखाइए नहीं पड़ रहा है... बेटा इंग्लैंड में पढ़ रहा है, पड़ोसी तक को पते नहीं है... घर में लाखों-करोड़ों का समान अंटा पड़ा है, लोगों को दिखबे नहीं कर रहा है... घूसखोर ने बड़का फार्म हाउस खरीदा, किसी को नजरे नहीं आया...।'
बात खतम होती, इससे पहले ही सचिव महोदय ने हमको रोक लिया। बोले, 'आप भी न गजबे वाला बात करते हैं। अरे, जब घूस से खरीदा सामान, कार या घर दिखबे नहीं करेगा, तो लोग का पागल हुआ है कि घूस लेगा? लोग तो घुसहा इसलिए बनते हैं, ताकि जिंदगी मौज से कटे, उसकी रईसी देखकर पड़ोसियों औरो संबंधियों का दिल जले! अगर अय्याशी औरो समृद्धि दिखबे नहीं करेगा, तो लोग घूस कमैइबे काहे करेगा? हम तो बस ई चाहता हूं कि घूस सबको दिखे, हो बस एतना कि घूस उनको न दिखे, जो सरकारी नौकरी में ईमानदारी की कसम खा लेते हैं औरो घूसखोरों को पकड़ने उसके घर चले आते हैं!'
Tuesday, October 02, 2007
कहां है गांधीगीरी?
' लगे रहो मुन्ना भाई' को रिलीज हुए साल भर से ज्यादा हो गया। यानी गांधीगीरी ने इस दुनिया में एक साल पूरा कर लिया। जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तो माना जा रहा था कि गांधी एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठेंगे, लेकिन क्या ऐसा हकीकत में हुआ? अगर हम इस एक साल का आकलन करने बैठें, तो निष्कर्ष है, शायद नहीं। सच तो यह है कि यह फिल्म गांधी के सिद्धांतों के लिए लिटमस टेस्ट साबित हुई। यानी, जो यह जानना चाहते थे कि गांधीजी के सिद्धांत आज कितने प्रासंगिक हैं, उन्हें इसका आधा-अधूरा उत्तर तो मिल ही गया है।
दरअसल, सवाल यह है भी नहीं कि गांधीजी आज के समय में कितने प्रासंगिक हैं। असल सवाल यह है कि क्या आज की दुनिया में गांधी के सिद्धांतों पर चला जा सकता है? अगर इस एक साल का अनुभव देखें, तो इसका उत्तर है, नहीं। 'लगे रहो मुन्ना भाई' की रिलीज के बाद सबसे पहले यूपी के एक व्यक्ति ने 'गांधीगीरी' को अपनाया। उसने सबके सामने अपने कपड़े उतारकर उस सरकारी मुलाजिम को थमा दिए, जो उससे घूस मांग रहा था। मीडिया विस्फोट के इस युग में बात मिनटों में दुनिया भर में फैल गई। सबको लगा कि गांधी युग वाकई वापस आ रहा है, लेकिन बात यहीं आकर रुक गई। उस व्यक्ति का क्या हुआ, यह कोई नहीं जानता। मीडिया रिपोर्ट बस यह कहती है कि उस व्यक्ति की गांधीगीरी से सन्न सरकारी अधिकारियों ने तत्काल तो उसे सम्मान दिया, लेकिन बाद में मीडिया को यह भी सलाह दे डाली कि अगर इसी तरह होता रहा, तो सरकारी ऑफिस एक दिन में बंद हो जाएंगे, क्योंकि हर जायज-नाजायज कामों के लिए लोग गांधीगीरी कर मीडिया में सुर्खियां तो बटोर सकते हैं, लेकिन अपना भला नहीं कर सकते। यह परोक्ष रूप से एक धमकी थी और इसी से समझा जा सकता है कि गांधीगीरी करने वाले उस व्यक्ति का हश्र क्या हुआ होगा!
जाहिर है, इसी एक घटना ने साबित कर दिया कि गांधीगीरी की राह आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए सिस्टम को बदलना होगा और दुर्भाग्य यह है कि आज के घुन लगे सिस्टम को गांधीगीरी से बदलना असंभव है। उसके लिए तो बस गांधी के विशुद्ध सिद्धांत चाहिए। हकीकत तो यह है कि मुन्ना भाई की यह 'गांधीगीरी' गांधी के असल सिद्धांतों से बेहद हल्की है और अपनी फिल्म की तरह यह बस कुछ लोगों को पब्लिसिटी भर दिला सकने में सक्षम है, उससे ज्यादा कुछ नहीं।
हालांकि, इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि 60 सालों से गांधी जी के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाते आ रहे लोगों ने उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया। गांधी के नाम पर किसी ने अपनी राजनीति चमकाई, तो किसी ने अपनी आजीविका का साधन जुटाया और बदले में एक तरह से उनका नाम खर्च कर डाला। अगर गांधी को अपना आदर्श मानने वाला एक व्यक्ति भी उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए आगे आता, तो आज देश को छिछली गांधीगीरी की जरूरत महसूस ही नहीं होती और न ही गांधीजी को प्रासंगिक बनाने के लिए किसी फिल्म की।
वास्तव में आज जरूरत गांधीगिरी की नहीं, विशुद्ध गाँधीवाद की है और ऐसे लोगों की है, जो इस पर चलने के लिए दूसरों में साहस पैदा कर सकें!
दरअसल, सवाल यह है भी नहीं कि गांधीजी आज के समय में कितने प्रासंगिक हैं। असल सवाल यह है कि क्या आज की दुनिया में गांधी के सिद्धांतों पर चला जा सकता है? अगर इस एक साल का अनुभव देखें, तो इसका उत्तर है, नहीं। 'लगे रहो मुन्ना भाई' की रिलीज के बाद सबसे पहले यूपी के एक व्यक्ति ने 'गांधीगीरी' को अपनाया। उसने सबके सामने अपने कपड़े उतारकर उस सरकारी मुलाजिम को थमा दिए, जो उससे घूस मांग रहा था। मीडिया विस्फोट के इस युग में बात मिनटों में दुनिया भर में फैल गई। सबको लगा कि गांधी युग वाकई वापस आ रहा है, लेकिन बात यहीं आकर रुक गई। उस व्यक्ति का क्या हुआ, यह कोई नहीं जानता। मीडिया रिपोर्ट बस यह कहती है कि उस व्यक्ति की गांधीगीरी से सन्न सरकारी अधिकारियों ने तत्काल तो उसे सम्मान दिया, लेकिन बाद में मीडिया को यह भी सलाह दे डाली कि अगर इसी तरह होता रहा, तो सरकारी ऑफिस एक दिन में बंद हो जाएंगे, क्योंकि हर जायज-नाजायज कामों के लिए लोग गांधीगीरी कर मीडिया में सुर्खियां तो बटोर सकते हैं, लेकिन अपना भला नहीं कर सकते। यह परोक्ष रूप से एक धमकी थी और इसी से समझा जा सकता है कि गांधीगीरी करने वाले उस व्यक्ति का हश्र क्या हुआ होगा!
जाहिर है, इसी एक घटना ने साबित कर दिया कि गांधीगीरी की राह आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए सिस्टम को बदलना होगा और दुर्भाग्य यह है कि आज के घुन लगे सिस्टम को गांधीगीरी से बदलना असंभव है। उसके लिए तो बस गांधी के विशुद्ध सिद्धांत चाहिए। हकीकत तो यह है कि मुन्ना भाई की यह 'गांधीगीरी' गांधी के असल सिद्धांतों से बेहद हल्की है और अपनी फिल्म की तरह यह बस कुछ लोगों को पब्लिसिटी भर दिला सकने में सक्षम है, उससे ज्यादा कुछ नहीं।
हालांकि, इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि 60 सालों से गांधी जी के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाते आ रहे लोगों ने उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया। गांधी के नाम पर किसी ने अपनी राजनीति चमकाई, तो किसी ने अपनी आजीविका का साधन जुटाया और बदले में एक तरह से उनका नाम खर्च कर डाला। अगर गांधी को अपना आदर्श मानने वाला एक व्यक्ति भी उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए आगे आता, तो आज देश को छिछली गांधीगीरी की जरूरत महसूस ही नहीं होती और न ही गांधीजी को प्रासंगिक बनाने के लिए किसी फिल्म की।
वास्तव में आज जरूरत गांधीगिरी की नहीं, विशुद्ध गाँधीवाद की है और ऐसे लोगों की है, जो इस पर चलने के लिए दूसरों में साहस पैदा कर सकें!
Monday, October 01, 2007
किरकेटिया कप की अज़ब कहानी
देश की किरकेटिया टीम ने 20-20 वाला विश्वकप का जीता, पूरे देश उसके पीछे पगलाए पड़ा है। राज्य सरकारें खिलाड़ियों को ईनाम ऐसे बांट रही है, जैसे खिलाड़ियों ने विश्व का सब देश जीत के उनकी चरणों में रख दिया हो। खैर, जाने दीजिए, ई सब तो आप लोग भी जानते होंगे। यहां तो हम आपको कुछ ऐसन बात बताना चाहता हूं, जो आप जानबे नहीं करते होंगे।
जैसे कि आप ई नहीं जानते होंगे कि 20-20 विश्व कप खेलने जाने से पहिले अपने किरकेटिया खिलाडि़यों ने अपने परिवारों को कुछ महीने के लिए शहर छोड़कर जाने के लिए कह दिया था, ताकि अगर ऊ बांग्लादेश की टीम से हारकर विश्व कप से बाहर हो जाए, तो देश में गुस्साई भीड़ उनके मां-बाप का टांग न तोड़ सके। पिछले विश्व कप में हार के बाद रांची के लोगों ने धोनी के घर का दीवारे ढहा दिया था, डर के मारे इस बार उसके भाई ने साधु जैसन दाढ़ी बढ़ा लिया, ताकि कोयो पहचान नहीं पाए। जब भारत विश्व कप जीत गया, बेचारे ने तभिये जाकर बेचारे ने दाढ़ी बनाई।
आप इहो नहीं जानते होंगे कि दिल्ली के उस थाने का कमरा अभियो खालिए है, जिसको सहवाग ने साउथ अफरीका जाने से पहिले अपने लिए बुक कराया था। का कहे, थाना बुक! अरे भैय्या, पिछले विश्व कप में हारने के बाद दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे सहवाग को अगर पुलिस अपने साथ सीधे थाने नहीं ले जाती, तो आज आपको बेचारे की चांद पर बचा-खुचा केश भी देखने को नहीं मिलता! ऊ तो कहिए कि देश जीत गया औरो सहवाग को थाने जाने की नौबत हीं नहीं आई।
सबसे बुरी स्थिति तो जोगिंदर शर्मा के पिता की रही। धोनी ने अंतिम ओवर उनके बेटे को गेंद सौंपकर उनको फंसाइए दिया था। जैसने जोगिंदर की गेंद पर मिस्बा उल हक ने छक्का मारा, बेचारे जोगिंदर के पिताजी ने अपना पान दुकान बंद कर फुट लेना ही बेहतर समझा। एतना रिस्की खेल खेलने के लिए बेटे को गरियाते हुए अभी ऊ गली से छुप- छुपकर भागिये रहे थे कि श्रीशंत ने मिस्बा का कैच पकड़ लिया औरो जोगिंदर के बापू बरबाद होते-होते बच गए।
खैर, ई तो कहानी रही बरबाद होने से बच जाने वालों की, अब आप सुनिए कहानी बरबाद होने वालों की। विश्व कप जीतकर कमबखत धोनी की टीम ने जिंदा हो रहे हॉकी को फिर से आईसीयू में भरती करा दिया। बस ई समझ लीजिए कि ओंठ तक आते-आते जाम छलक गया। 'चक दे इंडिया' देखकर कल तक जो बचवा लोग हॉकी खेलने लगे थे, अब तक 'कपूत' धोनी को 'सपूत' बनता देख ऊ फिर से किरकेट खेलने लगे हैं। हॉकी स्टिक अब उनका बैट बन गया है औरो ऊ दनादन किरकेट खेल रहे हैं।
बरबाद तो बेचारे चैनल वालों की मेहनत भी हुई। अब का है कि बेचारों ने मान लिया था कि भारत कभियो जीतिए नहीं सकता, इसलिए पतरकारों ने टीम को गरियाने के लिए चुन-चुनकर गालियों को स्क्रिप्ट में पिरोया था, लेकिन कमबखत टीम ने कप जीतकर उनकी मेहनत को पूरे मिट्टी में मिलाय दिया।
वैसे पिलानिंग तो हमरी भी भारतीय टीम को गरियाने की ही थी, लेकिन उसकी जीत ने सब गड़बड़ कर दी. लेकिन भडास निकालने के लिए कुछो तो लिखना ही था सो ई लिख मारा. अब आप इसको झेलिये औरों निंदा पुराण मे महारथी सच्चे भार्तिये होने का सबूत दीजिये.
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