Friday, July 28, 2006

करे कोई, भरे कोई!

लीजिए एक ठो औरो वेतन आयोग गठित हो गया। मतलब निकम्मों-नाकारों को बिना मांगे एक ठो औरो पुरस्कार मिल गया। नसीब इसी को न कहते हैं-- काम-धाम कुछो नहीं औरो तनखा है कि रोज बढ़ता जाता है। जिन बाबूओं और अफसरों के कारण देश दिनों दिन गड्ढे में जा रहा है, उनका तनखा काहे रोज बढ़ता रहता है, ई बात हमरे समझ में आज तक नहीं आई! ई तो कमाकर दो टका नहीं देते सरकार को, उलटे सरकार को कमाकर इनका पेट भरना पड़ता है। अब असली परोबलम ई है कि सरकार तो कमाएगी हमीं-आप से न। सो एक बेर फेर तैयार हो जाइए महंगाई औरो टैक्स के तगड़ा झटका सहने के लिए। ई तो बड़का अन्याय है! किसी की करनी का फल कोयो और काहे भुगते भाई?

वैसे, एक बात बताऊं बास्तव में आज की दुनिया में हर जगह यही हो रहा है-- करता कोई है, भुगतता कोई और है। अब आतंकबादिये सब को देख लीजिए न। इनको जो पाल-पोस रहा है, ऊ तो मौजे न कर रहा है, मर तो बेचारी असहाय जनता रही है। पिछले दिनों अपने नेता जी भड़क गए, काहे कि दुनिया जिसको आतंकबादी कहती है, ऊ उनकी 'सिमी' डार्लिंग है। ऊ नेता जी को बोरा में भरके वोट देती है औरो विदेशी से आयातित नोट भी। अब ऐसन डार्लिंग पर अगर आप उंगली उठाइएगा, तो नेताजी भड़कवे न करेंगे!

और तो और अपने लाल झंडा वाले भाइयों को ही देख लीजिए। नक्सली सब जब सीधा-सादा आदिवासियों को मारते हैं, तो इन भाइयों के लिए उ 'हक की लड़ाई' होता है। लेकिन जब वही आदिवासी सब अपनी रक्षा में हथियार उठाता है, तो कामरेड सब की आंखों से एतना बड़का- बड़का आंसू गिरता है। उ बैठ के रोते रहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार जनता को हथियार देकर अन्याय कर रही है। का है कि राजनीति को चमकती है कामरेडों की, भुगतती बेचारी जनता है।

दिक्कत ई है कि नेताजी की करनी की वजह से आप बम-बारूद से मरिए या जरिए, उससे उनको कौनौ फरक नहीं पड़ता है? उनको कुरसी जिस चीज से मिलेगी, ऊ उसको पियार करेंगे ही। आप मनाते रहिए मैय्यत, नेताजी को काहे फरक पड़ने लगा?

हमको तो हंसी आती है कि अपने परधान मंतरी जी मुशर्रफ से दाउद औरो मसूद अजहर मांग रहे हैं। अरे भइया, जब अपना देसी आतंकबादी सब मंतरी औरो मुखमंतरी सब के संरक्षण में छुट्टा घूम रहे हैं, जो बेचारे मुशर्रफ जी से आप बिदेशी आतंकबादी काहे मांग रहे हैं? आप कहते हैं कि पाकिस्तान में आतंकबादियों को परशिक्षण मिलता है, मुशर्रफ उसको खतम करे, लेकिन आप खुद गली-गली में मौजूद 'आतंकी पाठशाला' पर तो कोयो अंकुश लगा नहीं पा रहे। ऐसे में मुशर्रफ को किस मुंह से अंकुश लगाने को कहते हैं? पहले आप देसी मुशर्रफों औरो मसूद अजहरों से तो निबटिये, फिर सीमा पार कीजिए!

हमरे जैसन जनता के लिए तो यही बहुत है कि बम-बारूद के बीच सड़क पर निकलने के लिए हमको बहादुर मान लिया गया। अब ई मानने के लिए कहां कोयो तैयार होता है कि हम इसलिए बाहर निकले, काहे कि पेट की आग बम-बारूद से बेसी विस्फोटक होती है औरो बेसी घातक भी! सो भैया अंदर की बात तो यही है कि बारूद के बीच काम पर जाना मजबूरी है, बहादुरी नहीं। आश्चर्य देखिए कि यहां भी करता कोई और भुगतता कोई और है- - भूख तो पेट को लगती है, लेकिन उसको शांत करने के चक्कर में बेचारा मारा पूरा देह जाता है।

Thursday, July 20, 2006

दुनिया है गोल

दुनिया गोल है, ई बात अब हमहूं दावे के साथ कह सकता हूं। जी नहीं, हम आपको जोगराफिया नहीं पढ़ा रहा हूं। हमरे कहने का मतलब तो बस ई है कि दुनिया में आप कहीं भी जाइए, स्थिति एके जैसी है। अगर चावल का एक दाना देखकर उसके पकने का अंदाजा चल सकता है, तो हम ई कह सकता हूं कि खाली हमरे लिए ही नहीं, दुनिया के हर देश के लोगों के लिए घर की मुरगी दाल बराबर होती है, अपनी स्थिति से कोई खुश नहीं रहता, जाम हर जगह लगता है औरो भरष्टाचार के शिकार सिरफ हमहीं नहीं, दूसरे देश के लोग भी हैं। हमको तो लगता है कि मरने के बाद स्वर्ग पहुंचने वाले लोग भी निश्चित रूप से अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं रहते होंगे।

का है कि अभी हम मलेशिया गए थे। चकाचक मलेशिया देखने के बाद हम ई सोचियो नहीं सकते कि पेट्रो डालर, पाम आयल औरो रबर से ठनाठन नगदी कमाने वाली जनता अपनी स्थिति से नाखुशो हो सकती है, लेकिन हकीकत यही है। एतना पैसा होने के बावजूद लोग औरो पैसा कमाने का साधन नहीं जुटाने के लिए सरकार को कोसते रहते हैं, तो मलेशिया की जिस खूबसूरती को देखने के लिए पूरी दुनिया से लोग आते हैं, वहीं की जनता उसे निहारना नहीं चाहती। हालत ई है कि झोला उठाकर दूसरे देश की सैर को जाने वालों में मलेशियाई लोगों का नंबर विश्व में दूसरा है। तो जनाब, घर की मुरगी को दाल सिरफ हमी नहीं समझते, दुनिया के दूसरे लोग भी समझते हैं।

घर की मुरगी दाल बराबर वाली बात का एक ठो बड़ा दिलचस्प वाकिया है। हमरे साथ एक ठो बंगाली बाबू भी मलेशियन सरकार के मेहमान थे। दिल्ली में पलेन पर चढ़ते ही उनका तकिया कलाम बन गया- - एनीथिंग बट इंडियन! मतलब कुछो चलेगा, लेकिन इंडियन नहीं। उनको हिंदी गाना नहीं सुनना, भारतीय खाना नहीं खाना, मलेशिया की भारतीय बस्तियों में नहीं जाना। उस महाशय को भारत जितना नरक जगह लगता था, विदेश उतना ही स्वर्ग। लेकिन संयोग देखिए कि इससे पहले कि बेचारे मलेशियाई खूबसूरती को देखते हुए अपने देश को बढि़या से कोस पाते, एक मलेशियाई ने उनका पानी उतार दिया। बाबू मोशाय को तब बड़ा झटका लगा, जब उनको मिले पहले ही मलेशियाई व्यक्ति ने उन्हें बताया कि कश्मीर, ऊटी औरो मसूरी बहुते खूबसूरत जगह है औरो ऊ छुट्टी बीताने के लिए सपरिवार यहां आता रहता है। अब जिस व्यक्ति के लिए दुनिया में दोए ठो स्वर्ग हो-कोलकाता और पेरिस, उसके लिए तो ई हजार वाट का झटका जैसा था।

हम एक ठो औरो निष्कर्ष पर पहुंचा हूं औरो उ ई कि सरकार प्राय: सहिए होती है, खोट बेसी जनते में होता है। मतलब सब परोबलम की जड़ जनता की सोच ही है। अगर दिल्ली के लोगों की सोशल स्टेटस बढ़ाने की चिंता ने यहां की सड़कों को कार से पाट दिया है औरो जाम आम हो गया है, तो मलेशिया में भी इसी ठसक के लिए हर कोयो अपनी कार से चलना चाहता है। परिणाम ई है कि वहां रोज हाई वे पर दस किलोमीटर लंबा जाम लगता है औरो सरकार इसका कोयो साल्यूशन नहीं निकाल पा रही। सरकार इधर साल में दो फीट रोड चौड़ा करती है और चार फ्लाईओवर बनाती है, तो उधर कारों की संख्या दस हजार बढ़ जाती है। अब सरकार सड़क को 'हनुमानजी' तो बना नहीं सकती कि टरैफिक के 'सुरसा' जेतना बड़ा मुंह फैलाए, सड़क ओतना बड़ा हो जाए!

खैर, विकास की सड़क तलाशते हुए पहुंच हम गए भरष्टाचार को तलाशने। आखिर खांटी भारतीय औरो उहो में खांटी बिहारी जो ठहरे! चकाचक मामले में भी खोट तलाशना तो अपना धरम है। सो गगनचुम्बी इमारत, चकाचक रोड, अरबों के तमाम पराइवेट प्रोजेक्ट्स देखकर तो एक बारगी लगा जैसे वाकई रामराज है, लेकिन इससे पहले कि हम निश्चिंत होते, एक दिन सवेरे पेपर पढ़कर चौंक पड़े, मलेशियन एयरवेज का एक ठो बड़का स्कैम सुर्खियों में था। बात औरो बहुते है, लेकिन निष्कर्ष एके है- - इस दुनिया में हर जगह स्थिति एके है, फर्क बस उन्नीस-बीस का है।