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बहुते पछताया रावण

हर साल हो रही अपनी बेइज्जती से इन दिनों रावण बहुते परेशान है। दशहरा और रावण दहन जैसे आयोजनों की दिनोंदिन बढ़ती भीड़ ने उसको कुछ बेसिए परेशान कर दिया है। उसके समझ में ई नहीं आ रहा कि जिस दुनिया के गली-मोहल्ला में रावणों की भरमार है, ऊ त्रेता युग के रावण को अब तक काहे जला रहा है। उसका कहना है कि जलाना ही है, तो यहां सदेह मौजूद कुछ रावणों में से एक-दू ठो को जला दें। इससे कुछ रावणो कम हो जाएगा औरो रावण दहन का कार्यक्रमो सार्थक हो जाएगा। खैर, रावण ने फैसला किया कि दिल्ली भरमण कर ऊ अपनी दुर्दशा अपनी आंखों से देखेगा। कुंभकरण, मेघनाद को साथ लेकर रावण निकल पड़ा दिल्ली भरमण पर। दिल्ली घुसते ही उसे दिल्ली की अट्टालिकाएं दिखीं। रावण ने कहा, 'देखो जरा इन्हें, हमने तो वरदान में सोने की लंका पाई थी, लेकिन इनमें से बेसी रक्तपान के बाद बनी महलें हैं। ईमानदारी से कमाकर तो कोइयो बस अपना पेट ही भर सकता है, अट्टालिकाएं खड़ी नहीं कर सकता। क्या हमारी लंका से ज्यादा अनाचार नहीं है यहां? अगर ये सदाचारी होते, फिर तो दिल्ली झोपडि़यों की बस्ती होती। ये हमसे खुशकिस्मत हैं कि इन्हें मारने वाला कोई राम नहीं मिल

विवादों की बरसी

इसे आप विवादों की बरसी कह सकते हैं। जी हां, अगर साल दर साल ऑस्कर में भारतीय फिल्मों को भेजने के मौके पर इसी तरह से विवाद खड़ा हो रहा है, तो इसे बरसी कहना जरा भी गलत नहीं है। दरअसल, ऑस्कर में भारतीय फिल्म को भेजे जाने के मुद्दे पर एक बार फिर से विवाद खड़ा हो गया है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' की यूनिवर्सल अपील के दीवानों को 'रंग दे बसंती' को ऑस्कर के लिए भेजना जरा भी गले नहीं उतर रहा। तो क्या अवॉर्ड और नॉमिनेशन जैसे मुद्दे विवादित होने के लिए ही होते हैं या फिर 'रंग दे बसंती' वाकई 'लगे रहो मुन्नाभाई' के सामने बौनी है? दरअसल, यह बेजा विवाद भी नहीं है। कहीं तो कुछ गड़बड़ है। पिछले साल को ही लें। तमाम फिल्म समारोहों में 'ब्लैक' ही छाई रही, लेकिन ऑस्कर के लिए भेजा गया 'पहेली' को, जबकि 'ब्लैक' की शानदार मेकिंग और बहुतायत में इंग्लिश के डायलॉग ऑस्कर के जजों को जल्दी समझ में आने वाली चीजें थीं। फिर यह दो घंटे की ही फिल्म थी और इसमें गाने भी नहीं थे, जो ऑस्कर के पैमाने के बिल्कुल मुफीद थी। बावजूद इसके, 'पहेली' को ऑस्कर में भेजने के पीछे त

मलाइका बाई का नाच

उस दिन हम कहीं जा रहे थे, पीछे से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी--कहां जा रयेला है मामू? हम सन्न थे। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार परोफेसर साहेब टपोरी बोली पर कैसे उतर आए? इससे पहिले कि हम कुछो बोलते, परोफेसर साहेब सफाई देने लगे-- हैरान काहे होते हो? सब समय की माया है, ऊ किसी भी चीज की जनम कुंडली बदल सकता है। इसीलिए हम कहता हूं कि कभियो किसी को मरल-गुजरल मत समझिए। आज जो पिद्दी है, संभव है कि कल ऊ पहलवान बन जाए। आज आप जिस चीज से घृणा कर रहे हैं, संभव है कल उसी को आप माथे पर उठाए फिरें। तभिये तो कभियो असभ्य लोगों की बोली समझी जाने वाली टपोरी को आज इंटलेकचुअल लोग भी बोलने में शरम महसूस नहीं करते। समय कैसन-कैसन बदलाव लाता है, ऊ हम तुमको बताता हूं। एक जमाने में पैसा लेकर परब-त्योहार में नाचने-गाने वाले खाली नचनिया होते थे, लेकिन आज लोग उनको सेलिब्रिटी मानते हैं। उनकी झलक भर देखने को लोग बेचैन रहते हैं। मलाइका अरोड़ा पैसा लेकर आपकी जनम दिन की पार्टी में नाच सकती हैं औरो आप गर्व से सीना तान कह सकते हैं कि मलाइका ने आपके जनम दिन पर 'परफॉर्म' किया। आज से १५-२० साल पहले ऐसन होता, तो आप कहते-

हिंदी का नक्कारखाना

आज हिंदी दिवस था। ऐसन में हिंदी को 'याद' करने के लिए हर बरिस की तरह इस बार भी जलसे का आयोजन हुआ। ऊंची मंच पर हिंदी के सभी 'तारणहार' गर्दन टाने औरो छाती फुलाए विराजमान थे। अध्यक्ष महोदय की कुर्सी स्वाभाविक रूप से एक ठो नाम वाले सिंह जी के लिए समर्पित थी। उनके आते ही कार्यवाही शुरू हुई। हाव-भाव से चम्मच कवि लग रहे एक सज्जन ने आकर सुर में कुछ गाना शुरू किया। सबने सोचा गणेश या सरस्वती वंदना गा रहा होगा, लेकिन उसके हृदय की बीसियों फुट गहराइयों से निकले स्वर बस अध्यक्ष जी के गुणगान के लिए थे। भाव यह था कि अध्यक्ष जी हैं, इसीलिए हिंदी है। ऊ इहो भूल गए कि कार्यक्रम हिंदी दिवस पर है, न कि अध्यक्ष जी के जनम दिवस या फिर उनके हजारवें चंद दरशन पर। खैर, जब गिनती के अध्यक्ष-विरोधियों ने हंगामा शुरू किया, तो गुणगान रोक वह मंच से नीचे उतर आए। अब बारी थी, साउथ से पधारे कवि बालकृष्णन की। वह शुरू हुए-- हिंदी बहुत अच्छा भाषा है और हम चाहते है कि यह भारत भर का भाषा बने...। अभी ऊ अपना लाइन पूरा भी नहीं कर पाए थे कि लगे लोग हंसने और फब्तियां कसने- किसने बुला लिया इसे..., हिंदी की रेड़ मार रहा

सब्र का फल कड़वा होता है

कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है, लेकिन हमको लगता है कि अब इस कहावत में बदलाव की जरूरत है। का है कि सब्र का फल मीठा होबे करेगा, आज के समय में इसकी कोयो गारंटी नहीं ले सकता। अब देखिए न अपने बंगाल टाइगर को। टीम में सलेक्ट होने के इंतजार में बेचारे टाइगर महाराज बूढ़े हुए जा रहे हैं, लेकिन न तो ग्रेट चप्पल को ऊ पहन पा रहे हैं औरो नहिए मोरे का किरण कहीं उनको दिख रहा है। न उनको विदा होने के लिए कहा जाता है औरो न ही रखा जाता है। ऊ तो बस आश्वासन पर जिंदा हैं, जो कभियो चयन समिति से मिलता है, तो कभियो किरकेट बोर्ड से। हमको तो लगता है कि पैड-ग्लब्स पहनकर सिलेक्शन के दिन बुलावे का इंतजार करते-करते गंगुल्ली महाराज जब सो जाते होंगे, तो सपने में भी उनको सब्र से डर लगता होगा। हालांकि ई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि निकम्मा के नाम पर खिलाडि़यों को टीम से बाहर एतना इंतजार कराने वाला किरकेट बोर्ड गुरु गरेग को एतना सब्र के साथ कैसे ढो रहा है! बोर्ड को लगता है कि सब्र से काम लीजिए, गरेग हमको विश्व कप जिताएंगे। जबकि विश्व कप के लिए युवा टीम तैयार कराने के नाम पर ऊ जिस तरह से खिलाडि़यों को अंदर-बाहर कर रहे

भंवर में गुरुजी

हर साल ५ सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन तमाम अन्य 'दिवसों' की तरह लगता है यह भी बस रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है। वजह, कहते हैं कि न तो अब 'वैसे' गुरु इस दुनिया में रहे और न ही 'वैसे' चेले। बदल जाने का आरोप गुरु और चेले दोनों पर है, लेकिन दोनों ही इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। सवाल है कि असलियत क्या है? दरअसल, पूरे परिदृश्य को देखें, तो लगता है जैसे गुरु को इसके लिए जितना गुनहगार माना जाता है, उतना वे हैं नहीं। गुरु अगर आज 'टीचर' बन गए हैं, तो इसके पीछे कई वजहें हैं और बिना उन वजहों की पड़ताल के उन्हें गुनहगार ठहराना जायज नहीं। हम गौर करें, तो पाएंगे कि टीचर का यह बाना गुरुओं ने मजबूरी में भी धारण किया है! और इसके लिए उन्हें जिन चीजों ने सबसे ज्यादा मजबूर किया है, वे हैं- आज का विकट भौतिकवाद, अनुशासन की छड़ी को रोकती कानून की तलवार, निरीह मानव की बनती उनकी छवि और खुद बच्चों के पैरंट्स का खराब रवैया। बेशक 'टीचर युग' की शुरुआत से पहले कम पैसा पाने के बावजूद लोग गुरुजी बनना चाहते थे। तब शिक्षक के पेशे को अपनाने क