Friday, September 29, 2006

बहुते पछताया रावण

हर साल हो रही अपनी बेइज्जती से इन दिनों रावण बहुते परेशान है। दशहरा और रावण दहन जैसे आयोजनों की दिनोंदिन बढ़ती भीड़ ने उसको कुछ बेसिए परेशान कर दिया है। उसके समझ में ई नहीं आ रहा कि जिस दुनिया के गली-मोहल्ला में रावणों की भरमार है, ऊ त्रेता युग के रावण को अब तक काहे जला रहा है। उसका कहना है कि जलाना ही है, तो यहां सदेह मौजूद कुछ रावणों में से एक-दू ठो को जला दें। इससे कुछ रावणो कम हो जाएगा औरो रावण दहन का कार्यक्रमो सार्थक हो जाएगा।

खैर, रावण ने फैसला किया कि दिल्ली भरमण कर ऊ अपनी दुर्दशा अपनी आंखों से देखेगा। कुंभकरण, मेघनाद को साथ लेकर रावण निकल पड़ा दिल्ली भरमण पर। दिल्ली घुसते ही उसे दिल्ली की अट्टालिकाएं दिखीं। रावण ने कहा, 'देखो जरा इन्हें, हमने तो वरदान में सोने की लंका पाई थी, लेकिन इनमें से बेसी रक्तपान के बाद बनी महलें हैं। ईमानदारी से कमाकर तो कोइयो बस अपना पेट ही भर सकता है, अट्टालिकाएं खड़ी नहीं कर सकता। क्या हमारी लंका से ज्यादा अनाचार नहीं है यहां? अगर ये सदाचारी होते, फिर तो दिल्ली झोपडि़यों की बस्ती होती। ये हमसे खुशकिस्मत हैं कि इन्हें मारने वाला कोई राम नहीं मिल रहा है। वरना इनकी दशा भी हमारी तरह ही होती।'

'लेकिन फिर इतने अनाचारी-दुराचारी होने के बाद भी हर साल वे हमें क्यों जलाते हैं?' मेघनाथ ने आश्चर्यचकित हो रावण से सवाल किया।

रावण ने गुरु गंभीर वाणी में कहा, 'बेटा, यह कलियुगी फिलासफी है। हर कोई समस्या के लिए दूसरों को ही दोषी ठहराता है।'

रावण आकाश मार्ग में कुछो औरो आगे आया। उसको गोल आकृति वाली एक ठो भव्य इमारत दिखी। रावण ने कहा, 'यह यहां की संसद है, अपनी राजसभा जैसी। यहां तुम्हें ढेरों विभीषण मिलेंगे। अपना विभीषण तो राम की पार्टी में मिल गया, लेकिन यहां का विभीषण 'डबल क्रॉस' करता है औरो हर सरकार में मंत्री पद पा जाता है, चाहे सत्ता एनडीए की हो या यूपीए की। इन्हें देखकर तो हमको पछतावा होता है कि बेकार हमने विभीषण को लात मारकर भगा दिया था। ऊ तो इनसे ज्यादा स्वामीभक्त औरो ईमानदार था।'

हम तो राक्षस थे। अनाचार अपना धरम था लेकिन यहां के लोग सब तो नेता बनते ही अनाचार के लिए हैं। ऊ पैसा लेकर प्रश्न पूछते हैं औरो संसद निधि का पैसा डकार जाते हैं। हिंसक प्रवृत्ति के ऊ इतने हैं कि संसदो में कुश्ती करने से बाज नहीं आते।

रावण तनि ठो औरो आगे बढ़ा। एक मैडम अपने चम्मचों के साथ रावण का एक विशाल पुतला जला रही थीं। रावण ने कुंभकरण से कहा, 'वत्स, इनकी पार्टी और सहयोगी पार्टियों में तुम्हारे जैसे बत्तीसों कुंभकरण हैं जो आदमी से लेकर सड़क तक खा जाते हैं औरो डकार भी नहीं मारते। तुम्हारे डकार से तो दुनिया हिलती थी औरो लोग समझ जाते थे कि तुमने ढेर सारे प्राणियों को खाकर अनाचार किया है। औरो ऊ देखो बूढ़े बाबा को, जब तक सत्ता में थे कुछ रावण औरो कुंभकरण उनके भी सहयोगी थे, लेकिन मुखौटे का कमाल देखो कि तब उन पर कार्रवाई करने में उनका हाथ कंपकंपाता था, लेकिन हमरे पुतले को जलाने में उनके हाथ पूरे सधे हुए हैं। अब तुम्हीं बताओ हमें जलाकर ये क्या पाएंगे?' मेघनाथ ने उसे साजिस बताया, 'हमें जलाकर ई लोग हमरी आड़ में अपनी जनता को आसानी से उल्लू बना लेते हैं।'

रावण ने कहा, 'जनता खुदे उल्लू बनती है, तभिये तो हर साल हमें जलाने की इन्हें जरूरत पड़ती है। जलाना ही है तो कुछ जिन्दा रावणों को जलाएं। दू-चार साल में हमको जलाने की जरूरते नहीं पड़ेगा।'

Wednesday, September 27, 2006

विवादों की बरसी

इसे आप विवादों की बरसी कह सकते हैं। जी हां, अगर साल दर साल ऑस्कर में भारतीय फिल्मों को भेजने के मौके पर इसी तरह से विवाद खड़ा हो रहा है, तो इसे बरसी कहना जरा भी गलत नहीं है। दरअसल, ऑस्कर में भारतीय फिल्म को भेजे जाने के मुद्दे पर एक बार फिर से विवाद खड़ा हो गया है। 'लगे रहो मुन्नाभाई' की यूनिवर्सल अपील के दीवानों को 'रंग दे बसंती' को ऑस्कर के लिए भेजना जरा भी गले नहीं उतर रहा। तो क्या अवॉर्ड और नॉमिनेशन जैसे मुद्दे विवादित होने के लिए ही होते हैं या फिर 'रंग दे बसंती' वाकई 'लगे रहो मुन्नाभाई' के सामने बौनी है?

दरअसल, यह बेजा विवाद भी नहीं है। कहीं तो कुछ गड़बड़ है। पिछले साल को ही लें। तमाम फिल्म समारोहों में 'ब्लैक' ही छाई रही, लेकिन ऑस्कर के लिए भेजा गया 'पहेली' को, जबकि 'ब्लैक' की शानदार मेकिंग और बहुतायत में इंग्लिश के डायलॉग ऑस्कर के जजों को जल्दी समझ में आने वाली चीजें थीं। फिर यह दो घंटे की ही फिल्म थी और इसमें गाने भी नहीं थे, जो ऑस्कर के पैमाने के बिल्कुल मुफीद थी। बावजूद इसके, 'पहेली' को ऑस्कर में भेजने के पीछे तर्क यह था कि इसमें भारतीयता है, यह भारतीय समाज का चित्रण है और ऑस्कर में एंट्री के लिए यह होना जरूरी है। अब हम अगर इसी तर्क की कसौटी पर 'रंग दे बसंती' को कसें, तो ऑस्कर के लिए उसे चुनने पर सवालिया निशान लग ही जाता है।

फिल्म की प्रकृति की बात करें, तो दोनों ही फिल्में एक जैसी हैं। एक भ्रष्टाचार के खिलाफ युवाओं की लड़ाई है, तो दूसरा गांधीवादी विचारधारा पर चलने की एक युवा की पहल। लेकिन अगर यूनिवर्सल अपील की बात करें, तो निस्संदेह मुन्नाभाई की गांधीगिरी डीजे के बसंती रंग पर भारी पड़ती है। भारतीय फिल्मों के प्लॉट को समझ से बाहर बताने वाले ऑस्कर के जजों के लिए गांधी व गांधीवाद कोई अनजाना प्लॉट नहीं होता और यह चीज ऑस्कर जीतने में हमें मदद कर सकती थी।

अव्वल तो यह कि ऑस्कर का आकर्षण ही हमारे लिए फिजूल की चीज है। इस बात से शायद ही कोई सहमत हो कि भारतीय फिल्मों को विश्व स्तर पर बेहतरीन फिल्म का दर्जा पाने के लिए ऑस्कर जैसे किसी मोहर की जरूरत भी है। फिर इस मरीचिका के पीछे भागने से पहले हमें इस हकीकत को भी स्वीकार करना होगा कि ऑस्कर अवॉर्ड पाने के लिए जिन चीजों की जरूरत होती है, उन्हें पूरा करने के बाद वह भारतीय फिल्म रह ही नहीं जाएगी। और जब वह भारतीय फिल्म रह ही नहीं जाएगी, तो फिर ऑस्कर पाने की जिद क्यों? अगर भारतीय स्टाइल में बनी फिल्म को ऑस्कर नहीं मिलता, तो हमारे लिए वह बेकार की चीज ही तो है। अपनी हुनर पर हम तभी इतराएं न, जब ऑरिजिनल फॉर्म में उसे स्वीकार किया जाए। अगर हम किसी अवॉर्ड को पाने के लिए अपना मूल स्वरूप ही खो दें, तो वह अवॉर्ड किस काम का?

Thursday, September 21, 2006

मलाइका बाई का नाच

उस दिन हम कहीं जा रहे थे, पीछे से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी--कहां जा रयेला है मामू? हम सन्न थे। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार परोफेसर साहेब टपोरी बोली पर कैसे उतर आए? इससे पहिले कि हम कुछो बोलते, परोफेसर साहेब सफाई देने लगे-- हैरान काहे होते हो? सब समय की माया है, ऊ किसी भी चीज की जनम कुंडली बदल सकता है। इसीलिए हम कहता हूं कि कभियो किसी को मरल-गुजरल मत समझिए। आज जो पिद्दी है, संभव है कि कल ऊ पहलवान बन जाए। आज आप जिस चीज से घृणा कर रहे हैं, संभव है कल उसी को आप माथे पर उठाए फिरें। तभिये तो कभियो असभ्य लोगों की बोली समझी जाने वाली टपोरी को आज इंटलेकचुअल लोग भी बोलने में शरम महसूस नहीं करते।

समय कैसन-कैसन बदलाव लाता है, ऊ हम तुमको बताता हूं। एक जमाने में पैसा लेकर परब-त्योहार में नाचने-गाने वाले खाली नचनिया होते थे, लेकिन आज लोग उनको सेलिब्रिटी मानते हैं। उनकी झलक भर देखने को लोग बेचैन रहते हैं। मलाइका अरोड़ा पैसा लेकर आपकी जनम दिन की पार्टी में नाच सकती हैं औरो आप गर्व से सीना तान कह सकते हैं कि मलाइका ने आपके जनम दिन पर 'परफॉर्म' किया। आज से १५-२० साल पहले ऐसन होता, तो आप कहते-- हमरे जनम दिन पर मलाइका बाई का नाच है। जरूर देखने आना। जमाना का बदला कि हम वाक्य तक बदल देते हैं, गालियो तब आशीरवाद लगने लगता है! मामला 'अपमार्केट' हो, तो मलाइका को हम मलाइका बाई कैसे कह सकते हैं भाई!

ऐसने देखिए कि जब तक समाजसेवा में ग्लैमर नहीं आया था, एनजीओ को कोयो पूछबे नहीं करता था। समाजसेवियों को तब सिरफिरा दिमाग वाला माना जाता था--एकदम अर्द्धपागल आदमी। ऐसन आदमी, जो भीख मांगकर लोगों की भलाई करना चाहता है या जो समाजसेवा में भिखमंगा बनना चाहता है। लेकिन जैसने पैसा वाला औरो उनकी गलैमरस बीवियां समाजसेवी का चोला पहनने लगे, एनजीओ शान की 'दुकानदारी' हो गई। इसमें अब आप अवार्ड, शान औरो शोहरत खरीद-बेच सकते हैं औरो हां, इज्जत भी। हालत ई है कि मठ से बेसी अब जोगी हो गया है। ऐसन में समाजसेवा की 'भूख' मिटाने के लिए कोयो कौआ हांकने को मुद्दा बनाता है, तो कोयो पूरे परदेश को अवैध संबंधों के जाल में फंसा दिखा देता है। समाजसेवा के फैशनेबल बनने का जलवा ऐसन देखिए कि गलैमरस हीरोइनो सब अब भूखे-नंगे लोगों के बीच बैठकर फोटुआ खिंचाने में शरमाती नहीं औरो उनको 'प्रेरित' करने के लिए 'कॉन्सेशन रेट' पर एनजीओ को उपलब्ध हो जाती हैं।

कुछ ऐसने हाल अब पतरकारिता का हो गया है। कभियो पतरकारिता का पेशा समाज के 'मरे' हुए लोगों के लिए रिजर्व हो गया था। तब कंधे पर झोला लटकाए चप्पल चटकाते खद्दरधारी को देखते ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे। बेचारे समाज के पहरूओं को ब्याह करने के लिए ढंग की लड़की तक नसीब नहीं होती थी। लेकिन आज इसमें पैसा औरो गलैमर सब कुछ है। समाज की ऐसन सभी लड़कियां, जो अपने को सुंदर मानती हैं, लेकिन हीरोइन नहीं बन पाती हैं, माइक थामे किलो के भाव चैनलों में पहुंच जाती हैं। समय है, 'सोलह दूनी आठ' जानने के बावजूद इन इंस्टेंट पतरकारों की जय-जयकार हो रही है!

तो भइया, निष्कर्ष ई है कि आप जैसन हैं, उसी में मस्त रहिए। अपनी भाषा, रीति-रिवाज औरो संस्कृति को कभियो कमतर मत समझिए। बोले तो बिंदास बोलने का, बिंदास रहने का।

Thursday, September 14, 2006

हिंदी का नक्कारखाना

आज हिंदी दिवस था। ऐसन में हिंदी को 'याद' करने के लिए हर बरिस की तरह इस बार भी जलसे का आयोजन हुआ। ऊंची मंच पर हिंदी के सभी 'तारणहार' गर्दन टाने औरो छाती फुलाए विराजमान थे। अध्यक्ष महोदय की कुर्सी स्वाभाविक रूप से एक ठो नाम वाले सिंह जी के लिए समर्पित थी। उनके आते ही कार्यवाही शुरू हुई।

हाव-भाव से चम्मच कवि लग रहे एक सज्जन ने आकर सुर में कुछ गाना शुरू किया। सबने सोचा गणेश या सरस्वती वंदना गा रहा होगा, लेकिन उसके हृदय की बीसियों फुट गहराइयों से निकले स्वर बस अध्यक्ष जी के गुणगान के लिए थे। भाव यह था कि अध्यक्ष जी हैं, इसीलिए हिंदी है। ऊ इहो भूल गए कि कार्यक्रम हिंदी दिवस पर है, न कि अध्यक्ष जी के जनम दिवस या फिर उनके हजारवें चंद दरशन पर। खैर, जब गिनती के अध्यक्ष-विरोधियों ने हंगामा शुरू किया, तो गुणगान रोक वह मंच से नीचे उतर आए।

अब बारी थी, साउथ से पधारे कवि बालकृष्णन की। वह शुरू हुए-- हिंदी बहुत अच्छा भाषा है और हम चाहते है कि यह भारत भर का भाषा बने...। अभी ऊ अपना लाइन पूरा भी नहीं कर पाए थे कि लगे लोग हंसने और फब्तियां कसने- किसने बुला लिया इसे..., हिंदी की रेड़ मार रहा है...। बेचारे अधपके आम की तरह मुंह लटकाए अपनी कुर्सी से लटक गए।

अभी बालकृष्णन बाबू फिर कभियो हिंदी नहीं बोलने का कसम ले ही रहे थे कि श्रृंगार रस के कवि औरो कथाकार मिसिर जी को मंच से आमंत्रण मिला। आगे जो ऊ तूफान खड़ा करने जा रहे थे, उसको भांप उन्होंने अपनी धोती को बढि़या से बांधा, सारे गिरह दुबारा- तिबारा चेक किए औरो फिर मंच पर शहीदी भाव लिए जा पहुंचे। माइक कसकर थामे ऊ बोलने लगे- - हिंदी का बंटाधार हिंदी के मठाधीशों ने ही किया है, उसके स्वयंभू ठेकेदारों ने ही किया है। साल भर इसका हाल कोयो नहीं पूछता, लेकिन इस 'बरसी' का इंतजार हर कोयो करता है। हिंदी की स्थिति भारतीय हाकी टीम की तरह है। वहां हाकी के उत्थान की ठेकेदारी गिल साहेब की मूंछों के भरोसे है, तो यहां बड़े-बड़े नामवर लोग 'इज्म' के भरोसे इसका 'कल्याण' कर रहे हैं। हाकी का 'उत्थान' तो विश्व कप में आप देख ही रहे हैं औरो हिंदी...। मिसिर जी परोक्ष रूप से अपनी अलंकारिक भाषा में श्रोताओं को जो समझाने की कोशिश कर रहे थे, ऊ अब तक मठाधीशों के चेलबा सब के समझ में आ चुका था। आका पर शाब्दिक हमला होता देख, चेलबा सब ने मिसिर जी पर दैहिक हमला बोला। किसी ने उनकी धोती खोल दी, तो किसी ने चोटी, लेकिन मिसिर जी निश्चिंत थे। आखिर उन्होंने सारे गिरह इसी आघात की आशंका में तो कसे थे! हमलों में बीच जारी रहे-- हम आरोप लगाते हैं कि हिंदी का पाठके नहीं है, लेकिन हम पाठकों को देते का हैं? जनवादिता के नाम पर अपनी मानसिक कुंठा औरो चेलाही के नाम पर एक ही 'इज्म' से प्रेरित कहानी-कविता। अगर साहित्य का मतलब गरीबी का चित्रण औरो किसी जाति औरो धर्म के विरुद्ध भड़ास निकालना ही है, तो लोग साहित्य पढ़ेगा काहे?

बालकृष्णन बाबू की हिंदी पर आप लोग हंस रहे हैं। लेकिन ऐसने हंसते रहिएगा, तो भैया काहे कोयो हिंदी बोलेगा? किसने हिंदी बोलने की ठेकेदारी ली है? ऊ तमिल बोलेगा, तेलुगु बोलेगा, कन्नड़ बोलेगा, बहुत परेशान कीजिएगा, तो इंग्लिश बोलेगा औरो आपकी बोलती बंद कर देगा। अरे, हिंदी का भाव बढ़ाना है, तो हिंदी की ठेकेदारी खतम कीजिए..., हिंदी बोलने की कोशिश करने वालों का स्वागत कीजिए...। इंग्लिश से प्रेरणा लीजिए, दुनिया भर में बत्तीस तरह से इंग्लिश बोला जाता है, लेकिन ऊ इंग्लिश ही है, कोयो किसी पर हंसता नहीं...।

अब तक मिसिर जी को मंच पर से घसीट लिया गया था। एक चम्मच खड़ा हुआ, सभी मठाधीशों से मिसिर जी की गुस्ताखी के लिए माफी मांगी औरो फिर सर्वसम्मति से फैसला किया गया कि मिसिर जी को कहीं छपने नहीं दिया जाएगा। आज से इनका हुक्का-पानी बंद। तब तो ऊ जलसा खतम हो गया था, लेकिन अभियो आपको हजारो मिसिर जी हिंदी के नक्कारखाने में 'किकयाते' मिल जाएंगे। संभव है, उनमें से एक आप भी हों।

Friday, September 08, 2006

सब्र का फल कड़वा होता है

कहते हैं कि सब्र का फल मीठा होता है, लेकिन हमको लगता है कि अब इस कहावत में बदलाव की जरूरत है। का है कि सब्र का फल मीठा होबे करेगा, आज के समय में इसकी कोयो गारंटी नहीं ले सकता।

अब देखिए न अपने बंगाल टाइगर को। टीम में सलेक्ट होने के इंतजार में बेचारे टाइगर महाराज बूढ़े हुए जा रहे हैं, लेकिन न तो ग्रेट चप्पल को ऊ पहन पा रहे हैं औरो नहिए मोरे का किरण कहीं उनको दिख रहा है। न उनको विदा होने के लिए कहा जाता है औरो न ही रखा जाता है। ऊ तो बस आश्वासन पर जिंदा हैं, जो कभियो चयन समिति से मिलता है, तो कभियो किरकेट बोर्ड से। हमको तो लगता है कि पैड-ग्लब्स पहनकर सिलेक्शन के दिन बुलावे का इंतजार करते-करते गंगुल्ली महाराज जब सो जाते होंगे, तो सपने में भी उनको सब्र से डर लगता होगा।

हालांकि ई कम आश्चर्य की बात नहीं है कि निकम्मा के नाम पर खिलाडि़यों को टीम से बाहर एतना इंतजार कराने वाला किरकेट बोर्ड गुरु गरेग को एतना सब्र के साथ कैसे ढो रहा है! बोर्ड को लगता है कि सब्र से काम लीजिए, गरेग हमको विश्व कप जिताएंगे। जबकि विश्व कप के लिए युवा टीम तैयार कराने के नाम पर ऊ जिस तरह से खिलाडि़यों को अंदर-बाहर कर रहे हैं, उससे तो हमको नहीं लगता कि कभियो भारत की 'टीम' बनियो पाएगी? जिस तरह से ऊ महाशय काम कर रहे हैं, उससे तो लगता है कि जब तक 'ढंग' की भारतीय टीम बनेगी, तब तक सब 'योग्य' खिलाड़ी एक-एक कर बूढ़े हो जाएंगे। अब देखिए न, गंग्गुली को बाहर बिठाकर गरेग 'युवा टीम' बना रहे हैं, लेकिन साल बीत गया अभी तक ऊ एको ठो युवा तीसमार खां नहीं ढूंढ पाए। ऐसने चलता रहा, तो चप्पल बनाते रहें विश्व विजेता टीम और मिलता रहा भारतीय किरकेट को सब्र का मीठा फल!

सही बताऊं, तो गंग्गुली जी की याद हमको इसलिए आई है, काहे कि आजकल हमारा औरो उनका दर्द एके जैसा है। उनका दर्द दिल्लीवाले से बेहतर कोयो नहीं जान सकता। सब्र का फल केतना कड़वा होता है, ई कोयो हमसे पूछे। तोड़फोड़ को लेकर पिछले साल भर से हमरी हालत खराब है। रात की नींद औरो दिन की चैन छिन गई है। अरे भइया, अतिक्रमण रखना है, तो रखो औरो तोड़ना है, तो तोड़ दो। हमको गंग्गुली काहे बनाए हुए हो?

हमरे नेता लोग हैं, रोज आकर कहेंगे- बस कुछ दिन औरो सब्र कीजिए, सब ठीक-ठाक हो जाएगा। उनका भरोसा दिलाने का अंदाज कुछ ऐसन होता है कि आपको लगेगा, जैसे अगर आप संसदो भवन पर अतिक्रमण कर लेंगे, तो ऊ कानून बनाकर उसको लीगल कर देंगे, लेकिन होता कुछो नहीं। साल भर सब्र करने का परिणाम ई है कि पूरी दिल्ली एक बेर फिर सील हो रही है।

हमको तो लगता है कि जैसे हम बस सब्र करने के लिए ही अभिशप्त हैं। घर से बाहर तक सब्र, सब्र और बस सब्र...। घर में जगह पर कुछ भी मिल नहीं रहा, इसके लिए गुस्सा करो तो सब्र करने की सीख मिलेगी। ऑफिस जाने के लिए रोड पर निकलो, तो आगे वाला सीख देगा- सब्र कर यार, अभी साइड देता हूं। उसे का पता कि लेट पहुंचने पर ऑफिस में बॉस कैसे ऐसी-तैसी करेगा? ऑफिस पहुंचो, तो वहां का आलम गीता मय होता है- काम किए जा, फल की चिंता मत कर। सब्र कर। भगवान चाहेंगे, तो तुम्हारी भी सैलरी बढ़ेगी, पोस्ट बढ़ेगा। अब एतना सब्र कर-कर के तो हम भी गंग्गुली जैसे बूढ़ा हो जाऊंगा औरो जब बूढ़ा हो जाऊंगा, तो आप ही कहिए सब्र करके ही का करूंगा?

Monday, September 04, 2006

भंवर में गुरुजी

हर साल ५ सितंबर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, लेकिन तमाम अन्य 'दिवसों' की तरह लगता है यह भी बस रस्म अदायगी का दिन बनकर रह गया है। वजह, कहते हैं कि न तो अब 'वैसे' गुरु इस दुनिया में रहे और न ही 'वैसे' चेले। बदल जाने का आरोप गुरु और चेले दोनों पर है, लेकिन दोनों ही इसके लिए एक-दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं। सवाल है कि असलियत क्या है?

दरअसल, पूरे परिदृश्य को देखें, तो लगता है जैसे गुरु को इसके लिए जितना गुनहगार माना जाता है, उतना वे हैं नहीं। गुरु अगर आज 'टीचर' बन गए हैं, तो इसके पीछे कई वजहें हैं और बिना उन वजहों की पड़ताल के उन्हें गुनहगार ठहराना जायज नहीं। हम गौर करें, तो पाएंगे कि टीचर का यह बाना गुरुओं ने मजबूरी में भी धारण किया है! और इसके लिए उन्हें जिन चीजों ने सबसे ज्यादा मजबूर किया है, वे हैं- आज का विकट भौतिकवाद, अनुशासन की छड़ी को रोकती कानून की तलवार, निरीह मानव की बनती उनकी छवि और खुद बच्चों के पैरंट्स का खराब रवैया।

बेशक 'टीचर युग' की शुरुआत से पहले कम पैसा पाने के बावजूद लोग गुरुजी बनना चाहते थे। तब शिक्षक के पेशे को अपनाने के लिए जो चीज लोगों को सबसे ज्यादा प्रेरित करती थी, वह थी इस पेशे को मिलने वाला अथाह सम्मान और चेलों के कुछ बन जाने पर मिलने वाली बड़ी आत्मसंतुष्टि। वजह और भी कई थीं- - तब अपने यहां इतना भौतिकवाद नहीं था, दुनिया की सभी चीजें हम अपने घर में इकट्ठी नहीं कर लेना चाहते थे। तब पैसा व पावर ही दुनिया में सम्मान नहीं दिलाते थे, लोग पेशे की पवित्रता को देखते थे और इसीलिए प्रधानमंत्री व करोड़पति भी शिक्षक के सामने नतमस्तक रहते थे। उनके पास पैसा व पावर नहीं था फिर भी वे आज की तरह 'निरीह प्राणी' नहीं समझे जाते थे। जाहिर है, अगर सामाजिक सम्मान पाने के लिए आपके पास धन का होना अनिवार्य हो, तो आप हर हाल में बस पैसा कमाना चाहेंगे और सच मानिए इसी 'जरूरत' ने 'गुरु' को 'टीचर' बना दिया।

लोग कहते हैं, शिक्षक अब अपने कर्त्तव्य को लेकर उदासीन हो गए हैं। वाकई में ऐसा हुआ है, जानते हैं क्यों? वह इसलिए क्योंकि वे आज दुधारी तलवार पर चल रहे हैं। कोई भी साइड सेफ नहीं। पैरंट्स को अच्छे बच्चे भी चाहिए, लेकिन उसके लिए गुरुजी की छड़ी नहीं चाहिए। बच्चे बिना अनुशासित हुए पढ़ नहीं सकते और बच्चों में अनुशासन बिना डांट-डपट और छड़ी के भय से आ नहीं सकता। अब इस विकट स्थिति में गुरुजी क्या करें? उदासीन होना उनकी मजबूरी है। वे तो बस किसी तरह नौकरी का एक-एक दिन काट लेना चाहते हैं।

अनुशासनहीनता का आलम यह है कि नेता बनने के लिए शिष्य गुरुओं की छाती की हड्डी तोड़ देते हैं, उन्हें मौत के मुंह में पहुंचा देते हैं और वह भी महाकालेश्वर की उस नगरी में जहां गुरु-शिष्य परंपरा ने सदियां गुजारी हैं। आखिर जब चेले इतने अनुशासनहीन हों और कानून व पैरंट्स के भय से आप उन्हें डांट भी नहीं सकें, तो कोई भी गुरु क्या कर सकता है? वह अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन ही हो सकता है और इसीलिए हो रहा है। उदासीनता की एक बड़ी वजह, उन्हें मिलने वाला पैसा भी है। सरकारी कर्मचारियों में सबसे कम पैसा उन्हें ही मिलता है, तनख्वाह के मामले में वह बस चपरासी से ऊपर है और क्लर्क के बराबर। लेकिन क्लर्कों की ऊपरी आमदनी उनकी तनख्वाह से कई गुना ज्यादा होती है। सरकारी स्कूलों का मामला तो तब भी ठीक है, लेकिन प्राइवेट टीचर तो बस रामभरोसे हैं। उनसे दस्तखत करवाया जाता है १० हजार रुपये पगार के पेपर पर, तो मिलते हैं महज चार हजार। सरकार के यहां कोई ऐसा कानून नहीं, जो शिक्षा माफियाओं से उन्हें रहम दिला सके। जाहिर है, 'मजबूर' और 'लाचार' उन्हें इसी समाज और व्यवस्था ने बनाया है। और अपनी इसी छवि या स्थिति से निकलने के लिए 'गुरुजी' अब 'टीचर' बन गए हैं और अपने कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन हो गए हैं। लेकिन उनकी यह उदासीनता हमारे लिए ठीक नहीं, क्योंकि नौनिहालों को जिम्मेदार नागरिक बस वहीं बना सकते हैं।

तो क्या टीचर फिर से गुरु बन सकता है? शायद नहीं, क्योंकि माया और राम में से हम एक ही पा सकते हैं और आज के समय में माया के सामने राम कहीं नहीं ठहरते!