किस्से-कहानियों में जिन लोगों ने शेखचिल्ली का नाम सुना है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि यह एक ऐसा कैरेक्टर है, जिसकी दुनिया पूरी तरह ऊटपटांग है। किस्से-कहानियों को छोडि़ए जनाब, अब तो वास्तविक जिंदगी में भी ऐसी तमाम बातें होती रहती हैं, जो शेखचिल्ली और उसकी ऊटपटांग दुनिया की याद दिला जाती हैं। नए साल के आने की खुशी में क्यूं न साल की कुछ ऐसी 'ऊटपटांग' घटनाओं को याद कर लिया जाए, जो अजीब होने के साथ-साथ हमारे मन को गुदगुदा भी गईं:
हिमेश रेशमिया: कंठ नहीं, नाक पर नाज
किसी का सुर मन मोह ले, तो कहते हैं कि उसके गले में सरस्वती का वास है, लेकिन हिमेश के मामले में आप ऐसा नहीं कह सकते। तो क्या हिमेश की नाक में सरस्वती का वास है? लगता तो कुछ ऐसा ही है। संगीतकार से गायक बने हिमेश की नाक ने ऐसा सुरीला गाया कि इतिहास लिख दिया। इस साल उनके तीन दर्जन गाने सुपर हिट हुए, जो ऐतिहासिक है। हालत यह रही कि रफी-लता को सुनकर बड़े हुए पैरंट्स हिमेश को गालियां देते रहे और उनके बच्चे हाई वॉल्यूम पर 'झलक दिखला जा...' पर साल भर थिरकते रहे।
आनंद जिले के भलेज गांव में तो गजब ही हो गया। वहां के ग्रामीणों ने कहा कि हिमेश के गाने 'झलक दिखला जा, एक बार आ जा...' को सुनकर गांव में भूत निकल आया। इस घटना के बाद उस गांव से हिमेश के अलबमों को 'गांवबदर' कर दिया गया। कहीं-कहीं उनके इस गाने को सुनकर सांप भी निकला और खबर बन गया। वैसे, विडंबना यह है कि इस बड़बोले संगीतकार- गायक को आशा भोंसले ने इस साल थप्पड़ भी रसीद करना चाहा।
मटुक की 'जवानी' ने ली अंगड़ाई: बाबा वैलंटाइन की कुर्सी डगमगाई
प्रेम के पथ पर पटना के हिंदी के प्रफेसर मटुक नाथ इस साल कुछ ऐसे दौड़े कि उनके सामने बाबा वैलंटाइन का कद छोटा दिखने लगा। अपनी शिष्या से प्यार तो बहुतों ने किया होगा, लेकिन सब कंबल ओढ़कर ही घी पीते रहे हैं। मटुक नाथ ने जिगर दिखाया और अपनी शिष्या जूली से प्रेम की बात स्वीकार कर सरेआम मुंह पर कालिख पुतवाई, लेकिन हंसते हुए। ऊंची-ऊंची दीवारों सी इस दुनिया की रस्में भी मटुक नाथ को अपनी जूली से मिलन को नहीं रोक पाईं।
भारतीय 'लव गुरु' की इस अदा से निश्चित रूप से स्वर्ग में बैठे सेंट वैलंटाइन को अपनी कुर्सी डगमगाती नजर आई होगी, लेकिन उनके फेवर में अच्छी बात यह रही कि यह घटना इस साल १४ फरवरी के काफी बाद हुई और अगली १४ फरवरी तक मटुकनाथ शायद ही किसी को याद रहे। अगर मटुक नाथ पर यह सब वैलंटाइन डे के पहले बीता होता, तो इस साल लोग 'मटुक नाथ डे' भी देख चुके होते।
कुएं में पहुंचा प्रिंसः आसमान पर पहुंची किस्मत
साठ फीट गहरे कुएं में गिरकर बचता कौन है और बचता भी है, तो कुएं से लाखों कमाता कौन है! लेकिन कुरुक्षेत्र के एक साधन विहीन गांव में पैदा हुए पांच साल के प्रिंस की चमकती तकदीर जैसे उस ६० फीट गहरे ट्यूबवेल में दफन थी, जिसमें वह इस साल जुलाई में गिरा। दो दिन की जद्दोजहद के बाद प्रिंस को कुएं से निकाला गया, तो जैसे उस पर मेहरबानियां बरस पड़ीं। दो दिन पहले तक एक जून रोटी को तरसने वाले प्रिंस के परिवार को सरकार और लोगों से लाखों मिले, तो किसी ने प्रिंस की जिंदगी भर की पढ़ाई के खर्च का जिम्मा लिया। प्रिंस के गड्ढे में गिरने से गांव की बदहाली दुनिया भर में दिखी और सरकार के लिए कलंक बनी, तो राज्य सरकार ने छह महीने के अंदर गांव की काया पलट कर दी। किसने सोचा होगा कि कल तक गांव की गलियों में धूल फांकने वाला बच्चा दो दिन में गांव का भाग्यविधाता बन जाएगा! ऐसा प्रिंस बनने के लिए तो हर कोई गड्ढे में गिरने को तैयार हो जाएगा।
मधु कोड़ा: अकेला घोड़ा
कुछ लोगों की तकदीर लिखते वक्त भगवान अपने कलम की पूरी स्याही खत्म कर डालते हैं। झारखंड के मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर भी भगवान ने ऐसी ही मेहरबानी की। झारखंड के इस मोस्ट वॉन्टेड बैचलर विधायक को इस साल बीवी मिलने से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी मिल गई। आश्चर्य की बात यह कि मधु निर्दलीय विधायक हैं और मुख्यमंत्री बनने के लिए भी उन्हें किसी पार्टी में शामिल नहीं होना पड़ा। यानी 'निर्दलीय पार्टी' के इस एकमात्र विधायक ने सोनिया, लालू और शिबू सोरेन जैसे घाघ राजनीतिज्ञों को पानी पिला दिया।
विडंबना देखिए कि जिस प्रजातंत्र में 'बहुमत की जय' होती है, उसी प्रजातंत्र में एक विधानसभा क्षेत्र के कुछ हजार वोट से जीता विधायक करोड़ों मतदाताओं के प्रतिनिधियों को अपनी 'उंगली' पर नचा रहा है।
राजस्थान में आई 'सूनामी': बाढ़ में डूबे ऊंट!
राजस्थान बोलते ही जो तस्वीर जेहन में उभरती है, वह है बालू और बबूल का प्रदेश। लेकिन अब ऐसी तस्वीर जेहन में आप बाढ़ को भी शामिल कर लें। जी हां, सदियों से बूंद-बूंद पानी को तरसने वाले राजस्थान ने इस साल बाढ़ का विनाशक मंजर भी देखा। इस प्रदेश के लिए यह बाढ़ किसी सूनामी से कम नहीं रही। सिर्फ बाड़मेर में १०४ लोगों की बाढ़ से मौत हो गई, ४५ हजार मवेशी मर गए, जिनमें काफी संख्या में ऊंट भी थे। दरअसल, इस 'रेगिस्तानी जहाज' ने इतना पानी जिंदगी में नहीं देखा था। १२ जिलों में आई बाढ़ ने ऐसा कहर ढाया कि लोगों को बचाने के लिए सेना को उतरना पड़ा और राजस्थान सरकार को बाढ़ रिलीफ फंड में २१८ करोड़ रुपये डालने पड़े। कौन जाने, इस उलटवांसी के बाद अब चेरापूंजी में सूखे की खबर भी आ जाए!
डेटिंग अलाउंस: इतना बाउंस!
ये पत्नियां भी अजीब होती हैं, पति न कमाए तो परेशानी, ज्यादा कमाए तो परेशानी। अब बेंगलूर की तृप्ति निगम को ही लीजिए, इस साल बेचारी की परेशानी यह रही कि उसका पति ऐसी कंपनी में काम करता है, जहां डेटिंग अलाउंस मिलता है। दरअसल, इस अलाउंस से जब तक वह अपने पति के साथ डेटिंग पर जाती थी, तब तक तो सब ठीक-ठाक था, लेकिन दिक्कत यह हो गई कि ज्यादा पैसा होने के कारण उसका पति दूसरी महिलाओं के साथ भी डेटिंग पर जाने लगा। बस क्या था, तृप्ति पहुंच गईं कोर्ट और कर डाला विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेमजी के खिलाफ केस। उसकी बस एक ही मांग थी, कंपनी कर्मचारी को देने वाले डेटिंग अलाउंस बंद करे। तो क्या अब पत्नियों की शिकायत पर दिलफेंक पतियों की सैलरी भी बंद होगी? बड़ा सवाल है, समय का इंतजार कीजिए!
'किशन' या 'राधा' : पांडा की माया में कोर्ट की बाधा
कोर्ट ने ऐसी अनोखी सलाह शायद ही किसी को दी होगी, जैसी उसने यूपी के पूर्व आईजी डी. के. पांडा को दी। इस स्वघोषित 'दूसरी राधा' ने भगवा बाना तो पिछले साल ही पहन लिया था, लेकिन मोह-माया इस साल भी नहीं छोड़ पाए। पत्नी ने ज्यादा गुजारा भत्ता मांगा, तो पांडा पहुंच गए सुप्रीम कोर्ट। सुप्रीम कोर्ट में बेंच ने उनसे सीधा सवाल किया, 'आज आप राधा हैं या कृष्ण।' पांडा सकपकाए और सीधे मुद्दे पर आए कि उनकी पेंशन बहुत कम है, इसलिए पत्नी का गुजारा भत्ता कम कर दिया जाए, लेकिन बेंच ने कोई दलील नहीं मानी। बेंच ने उन्हें सलाह दी कि वे अब राधा तो बन ही गए हैं, तो कमंडल लें और मथुरा-गोकुल में विचरण करें। उन्हें अपनी पत्नी को पहले जितना ही पैसा देना होगा।
मुंबई में पंगा: मन चंगा, तो समुद्र में गंगा
इसे कहते हैं चमत्कार को नमस्कार। १८ अगस्त की रात मुंबई अशांत था और वहां के माहिम बीच पर लोगों की भीड़ जमा थी। खारेपन की वजह से समुद्री पानी से कुल्ला तक नहीं करने वाले लोग बोतलों और बाल्टियों में समुद्री पानी भर रहे थे। कोई उसे पी रहा था, तो कोई संभालकर रख रहा था, क्योंकि समुद्री पानी के इस मीठेपन को लोग वहां स्थित मखदूम शाह की दरगाह का 'प्रताप' मान रहे थे। लोगों ने उस पानी को विदेश में रहने वाले अपने परिजनों तक पहुंचाया। गेटर मुंबई की म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन लोगों को बार-बार चेताती रही कि बिना केमिकल टेस्ट के उस पानी को कोई न पिये, लेकिन आस्था के सामने किसका तर्क चलता है! लोगों ने तब तक उस गंदे पानी को जमकर पिया, जब तक कि किसी 'केमिकल लोचे' से मीठा हुआ वह पानी फिर से खारा नहीं हो गया।
...और अंत में
पुरुष की आबरू तार-तार: महिलाओं ने किया बलात्कार
यह कुछ वैसा ही है, जैसे कोई आदमी कुत्ते को काट खाए। जी हां, इसी महीने दो कुवैती महिलाओं को वहां की अदालत ने एक पुरुष के साथ बलात्कार करने के अपराध में सात-सात साल की सजा सुनाई है। पुरुष ने कोर्ट में उन महिलाओं के खिलाफ मारपीट कर संबंध स्थापित करने का आरोप लगाया था, जो साबित हो गया। हालांकि निचली अदालत ने उन महिलाओं को १५-१५ साल की सजा सुनाई थी, लेकिन ऊपरी अदालत ने उसे सात-सात साल कर दिया।
Sunday, December 31, 2006
Friday, December 29, 2006
राजनीति की बिसात
इस साल राजनीति की बिसात पर काफी कुछ हुआ। इनमें से कुछ देश के लिए बेहतर रहे, तो कुछ बदतर। कुछ ने देश व समाज को जोड़ा, तो कुछ ने तोड़ा। कुछ पार्टियों और नेताओं ने अपनी ताकत बढ़ाई, तो कुछ की घट गई। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव, आरक्षण की बात, वंदेमातरम् पर विवाद और अफजल गुरु के फांसी पर दांवपेंच जैसी कई चीजें इस साल की खास बात रही। एक जायजा साल भर के राजनीतिक परिदृश्य का:
शहीद वोट से बड़ा नहीं
ऐसा कभी पहले सुना नहीं गया। इससे पहले शायद ही किसी आतंकवादी को लेकर नेताओं में इतनी व्यापक 'सहानुभूति' रही हो, जो इस साल दिखी। जब कोर्ट ने संसद पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई, तो उस फैसले पर अमल रोकने की पैरवी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से लेकर कई केंद्रीय मंत्री तक ने की। संसद पर हुए हमले में शहीद हुए जांबाजों के परिजनों ने शौर्य पदक तक लौटा दिए, लेकिन सरकार जैसे सब कुछ 'भूल' चुकी है।
वोट के डर से...
आजादी के बाद के छह दशकों में राष्ट्रीयता की भावना कभी इतनी शर्म की चीज नहीं बनी। जिस राष्ट्रीय गीत 'वंदेमातरम्' को गा-गाकर हजारों लोग देश के नाम पर शहीद हो गए और जिसने करोड़ों लोगों के दिलों में देश को आजादी दिलाने का जोश भरा, उसी वंदेमातरम् को इस साल घोर साम्प्रदायिक गीत घोषित कर दिया गया। वोट का जोर कितना बड़ा होता है कि इस विवाद के बाद बड़े-बड़े नेताओं में भी देश की वंदना का जोश पैदा नहीं हो पाया और उनमें वंदेमातरम् गाने का साहस नहीं पैदा हो सका।
वोट की खातिर
मई में अर्जुन सिंह ने बिना अपने कैप्टन से पूछे ही बडे़ संस्थानों में ओबीसी कैटेगरी को आरक्षण देने का ऐलान कर दिया। इस मामले पर खूब राजनीति हुई। शिक्षा को सुधारने में असफल रहे अर्जुन सिंह ने समाज को जबर्दस्ती आरक्षण का झुनझुना पकड़ाया। यह सुविधा किसी ने मांगी नहीं थी। मंडल के दिन फिर से याद आ गए। समाज को बांटने वाली इस एक घोषणा से एक बार फिर छात्र आंदोलनों ने जोर पकड़ लिया। अंतत: सुप्रीम कोर्ट के आश्वासन से आंदोलन तो खत्म हो गया, लेकिन समस्या के बेहतर समाधान के लिए गठित मोइली कमिटी कुछ खास नहीं कर पाई। वोट के चक्कर में आरक्षण का विरोध तो किसी ने नहीं किया, लेकिन उसके स्वरूप को बदलने की सलाह बीजेपी और लेफ्ट की कुछ पार्टियों ने जरूर दी।
विधानसभा चुनाव
देश में हुए पांच विधानसभा चुनावों को देश की राजनीति को दिशा देने वाला माना गया। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार हुई, तो पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन की जीत। पांडिचेरी और असम में सत्ता कांग्रेस के हाथ रही। तमिलनाडु में डीएमके नीत डीपीए जीता और करुणानिधि फिर से एक बार मुख्यमंत्री बने। पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन ने 294 में 232 सीटें जीतकर तमाम गणित को पलट दिया, तो केरल में भी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट ने फिर से सत्ता हथिया ली।
कोर्ट का झटका
कोर्ट ने सरकार को इस साल खूब झटके दिए। अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकार से हज के लिए सब्सिडी बंद करने को कहा, तो सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रियों पर मुकदमा चलाने के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति लेने संबंधी बाध्यता खत्म कर दी। यानी अब बेईमान मंत्रियों का कवच खत्म हो गया और उनकी 'जेल यात्रा' आसान हुई।
दागी नेता, सब में होता
साल भर दागी सांसदों व विधायकों का मामला छाया रहा। अपने सेक्रेटरी की हत्या के जुर्म में कोयला मंत्री शिबू सोरेन को आजीवन कारावास मिला। नवजोत सिंह सिद्धू को एक पुराने मामले में सजा मिली। जेल से छूटे जयप्रकाश नारायण यादव को केंद्र में मंत्री पद मिला, तो मुलायम सिंह ने भी बाहुबली राजा भैया को जेल से छूटते ही फिर से मंत्री बना दिया। लगातार कानून को ठेंगा दिखाते सांसद सैयद शहाबुद्दीन अंतत: सलाखों के अंदर पहुंचे। जॉर्ज फर्नांडीज व जया जेटली के खिलाफ रक्षा खरीद मामले में सीबीआई ने आरोप पत्र दायर किए।
फिर से 'गरीबी हटाओ'
कांग्रेस को एक बार फिर गरीबों की याद आई। इस साल गठबंधन सरकार ने इंदिरा गांधी के प्रसिद्ध 'गरीबी हटाओ' के नारे को फिर से स्वर देने की प्लानिंग की, लेकिन जमीन पर कुछ भी दिख नहीं रहा।
बिगड़ैल छात्र राजनीति
छात्र राजनीति को दिशा देने के लिए लिंग्दोह कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन कोई उसकी सिफारिश मानने को तैयार नहीं। छात्र राजनीति की सबसे दुखद घटना यह रही कि मध्य प्रदेश के उज्जैन में छात्र नेताओं ने माधव कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. हरभजन सिंह सभरवाल की पीट-पीटकर हत्या कर दी। यूपी में छात्र नेताओं को सरकार से गनर मिलने पर लखनऊ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ने आपत्ति जताई और यूनिवर्सिटी को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया।
बेआबरू होकर...
कभी गांधी परिवार के बेहद निकट रहे कुंवर नटवर सिंह इस साल उससे बेहद दूर रहे, जाहिर है कांग्रेस से भी वह दूर हो गए। तेल के खेल में उन्हें इस साल पार्टी से निलंबित कर दिया गया और कुंवर साहब ने भी कांग्रेस की ऐसी-तैसी कर देने की गर्जना की, लेकिन किया कुछ नहीं। फिलहाल बेरोजगारी में दिन कट रहे हैं।
सीडी की अमर कहानी
अमर सिंह ने अपने फोन टैपिंग और उसकी बनीं सीडीज को लेकर खूब बवाल मचाया। सीडीज में क्या था, यह तो बहुत कम लोगों को पता चला, लेकिन अमर सिंह ने इस बहाने अपने विरोधियों की खूब फजीहत की। सुर्खियों में महीने भर छाए रहे।
राजनैतिक किताबों पर बवाल
वी पी सिंह पर लिखी किताब 'मंजिल से ज्यादा सफर' किताब खूब विवादों में रही, तो 'अ कॉल टू ऑनर: इन सर्विस ऑफ इमर्जेंट इंडिया' लिखकर जसवंत सिंह ने बड़ा बखेड़ा खड़ा किया। पीएमओ में भेदिया होने का रहस्योद्घाटन करने वाली यह किताब खूब बिकी। कंधार विमान अपहरण कांड की 'हकीकत' बयान करने का दावा करने वाली यह किताब बीजेपी के लिए 'आ बैल मुझे मार' को चरितार्थ करती नजर आई।
तख्ता पलट
छोटे राज्यों में अंकों का गणित कितना खतरनाक होता है, इसका उदाहरण इस साल खूब दिखा। कर्नाटक में साल की शुरुआत में ही पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के बेटे एच डी कुमारस्वामी ने कांगेसी मुख्यमंत्री धरम सिंह का तख्ता पलट दिया।
झारखंड में भी ऐसा ही हुआ। निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को कांग्रेस, राजद व झामुमो जैसी पार्टियों ने मुख्यमंत्री बना दिया और इस तरह सालों से जमी अर्जुन मुंडा सरकार का तख्ता पलट गया।
पार्टियों का यह साल
बीजेपी: सत्ता का स्वाद एक बार चख लेने के बाद कोई भी पार्टी कितनी खोखली हो जाती है, बीजेपी इसका उदाहरण है। पूरे साल पार्टी में उठा-पटक चलती रही और कैडर आधारित पार्टी का पोल खोलती रही। उमा भारती और मदनलाल खुराना के बागी रवैये से परेशान पार्टी आलाकमान ने दोनों को सलाम-नमस्ते कहना ही उचित समझा। अप्रैल में झारखंड के वरिष्ठ बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी ने भी पार्टी छोड़ दी। कद्दावर नेता प्रमोद महाजन की मौत से भी पार्टी की धार कुंद हुई। उपचुनावों और यूपी के स्थानीय निकायों के चुनाव में कुछ सफलता मिली, लेकिन बाकी जगह प्रदर्शन बुरा रहा। कर्नाटक में जेडी एस की सत्ता को सहारा दिया।
कांग्रेस: अपने सामंती रवैये को लेकर बदनाम रही कांग्रेस ने इस साल घर के बुजुर्ग की भूमिका बखूबी निभाई और गठबंधन धर्म को शिद्दत से समझा। वामपंथियों की घुड़की से बिना भड़के पार्टी ने अपने 'भानुमति के कुनबे' के साथ सत्ता का एक और साल पार कर लिया। केरल में सत्ता जाने के बावजूद पांडिचेरी और असम में सत्ता मिली। झारखंड में उसने बीजेपी की सत्ता गायब की।
लेफ्ट फ्रंट: वामपंथी इस बार ज्यादा ईमानदार नजर आए। जो किया, खुलकर किया, भले ही उन्हें अपनी विचारधारा को तिलांजलि देनी पड़ी। अमेरिका, विदेशी निवेश, तेल का दाम, लेबर लॉ जैसे तमाम मुद्दों पर विरोध तो किया, लेकिन वाम पार्टियां जिद पर नहीं अड़ीं। सिंगुर जैसी घटना के बाद तो लोगों ने बीजेपी से भी ज्यादा बड़ी 'पूंजीपतियों की पार्टी' कहा। तमाम आशंकाओं के बावजूद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जोरदार जीत दर्ज की, तो केरल में सत्ता उसके पास आई।
जो चले गए
प्रमोद महाजन: बीजेपी के इस 'लक्ष्मण' को उनके सगे लक्ष्मण ने अपने उत्कर्ष का आनंद नहीं लेने दिया। 22 अप्रैल को उनको उनके छोटे भाई ने गोली मार दी और बारहवें दिन मौत से संघर्ष करते हुए भारतीय राजनीतिक बिसात के सबसे माहिर खिलाड़ी ने सबको अलविदा कह दिया।
कांशी राम: वर्षों से बीमार चल रहे दलितों के इस सबसे बड़े पैरोकार ने इस साल अंतिम सांस ले ली। अपनी उपस्थिति से भारतीय राजनीति और सामाजिक ढांचे को संतुलित करने वाले बसपा के इस नेता की कमी लोगों को वर्षों तक खलेगी।
इधर उधर की
नेता के पास इतना पैसा: सीबीआई का कहना था कि उसने चौटाला परिवार के 1467 करोड़ रुपये की संपत्ति का पता लगाया है। सीबीआई के छापे के दौरान तो चौटाला परिवार के दो फार्म हाउसों से 13 लाख रुपये नकद बरामद हुए।
नेता को हेलिकॉप्टर: अब तक नेताओं को सिक्कों से तौलने और सोने का ताज पहनाने की ही खबरें आती थीं, लेकिन हाल ही में कुछ अद्भुत हुआ। गुर्जर समाज ने अपने नेता सांसद अवतार सिंह भड़ाना को एक-एक रुपया चंदा कर हेलिकॉप्टर खरीदकर दिया। उम्मीद यह कि नेताजी हवाई दौरा कर तेजी से उनके हितों की पैरवी करेंगे।
बुरी विदाई: बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह को कोर्ट के एक फैसले ने गद्दी छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कोर्ट ने सरकार नहीं बनने देने के लिए उनके विरुद्ध टिप्पणी की। एक बार फिर साबित हुआ- कोर्ट है, तो देश में कानून है।
शहीद वोट से बड़ा नहीं
ऐसा कभी पहले सुना नहीं गया। इससे पहले शायद ही किसी आतंकवादी को लेकर नेताओं में इतनी व्यापक 'सहानुभूति' रही हो, जो इस साल दिखी। जब कोर्ट ने संसद पर हमले के आरोपी आतंकी अफजल गुरु को फांसी की सजा सुनाई, तो उस फैसले पर अमल रोकने की पैरवी जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद से लेकर कई केंद्रीय मंत्री तक ने की। संसद पर हुए हमले में शहीद हुए जांबाजों के परिजनों ने शौर्य पदक तक लौटा दिए, लेकिन सरकार जैसे सब कुछ 'भूल' चुकी है।
वोट के डर से...
आजादी के बाद के छह दशकों में राष्ट्रीयता की भावना कभी इतनी शर्म की चीज नहीं बनी। जिस राष्ट्रीय गीत 'वंदेमातरम्' को गा-गाकर हजारों लोग देश के नाम पर शहीद हो गए और जिसने करोड़ों लोगों के दिलों में देश को आजादी दिलाने का जोश भरा, उसी वंदेमातरम् को इस साल घोर साम्प्रदायिक गीत घोषित कर दिया गया। वोट का जोर कितना बड़ा होता है कि इस विवाद के बाद बड़े-बड़े नेताओं में भी देश की वंदना का जोश पैदा नहीं हो पाया और उनमें वंदेमातरम् गाने का साहस नहीं पैदा हो सका।
वोट की खातिर
मई में अर्जुन सिंह ने बिना अपने कैप्टन से पूछे ही बडे़ संस्थानों में ओबीसी कैटेगरी को आरक्षण देने का ऐलान कर दिया। इस मामले पर खूब राजनीति हुई। शिक्षा को सुधारने में असफल रहे अर्जुन सिंह ने समाज को जबर्दस्ती आरक्षण का झुनझुना पकड़ाया। यह सुविधा किसी ने मांगी नहीं थी। मंडल के दिन फिर से याद आ गए। समाज को बांटने वाली इस एक घोषणा से एक बार फिर छात्र आंदोलनों ने जोर पकड़ लिया। अंतत: सुप्रीम कोर्ट के आश्वासन से आंदोलन तो खत्म हो गया, लेकिन समस्या के बेहतर समाधान के लिए गठित मोइली कमिटी कुछ खास नहीं कर पाई। वोट के चक्कर में आरक्षण का विरोध तो किसी ने नहीं किया, लेकिन उसके स्वरूप को बदलने की सलाह बीजेपी और लेफ्ट की कुछ पार्टियों ने जरूर दी।
विधानसभा चुनाव
देश में हुए पांच विधानसभा चुनावों को देश की राजनीति को दिशा देने वाला माना गया। केरल में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन की हार हुई, तो पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन की जीत। पांडिचेरी और असम में सत्ता कांग्रेस के हाथ रही। तमिलनाडु में डीएमके नीत डीपीए जीता और करुणानिधि फिर से एक बार मुख्यमंत्री बने। पश्चिम बंगाल में वाम गठबंधन ने 294 में 232 सीटें जीतकर तमाम गणित को पलट दिया, तो केरल में भी लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट ने फिर से सत्ता हथिया ली।
कोर्ट का झटका
कोर्ट ने सरकार को इस साल खूब झटके दिए। अगस्त में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सरकार से हज के लिए सब्सिडी बंद करने को कहा, तो सुप्रीम कोर्ट ने मंत्रियों पर मुकदमा चलाने के लिए सक्षम अधिकारी से अनुमति लेने संबंधी बाध्यता खत्म कर दी। यानी अब बेईमान मंत्रियों का कवच खत्म हो गया और उनकी 'जेल यात्रा' आसान हुई।
दागी नेता, सब में होता
साल भर दागी सांसदों व विधायकों का मामला छाया रहा। अपने सेक्रेटरी की हत्या के जुर्म में कोयला मंत्री शिबू सोरेन को आजीवन कारावास मिला। नवजोत सिंह सिद्धू को एक पुराने मामले में सजा मिली। जेल से छूटे जयप्रकाश नारायण यादव को केंद्र में मंत्री पद मिला, तो मुलायम सिंह ने भी बाहुबली राजा भैया को जेल से छूटते ही फिर से मंत्री बना दिया। लगातार कानून को ठेंगा दिखाते सांसद सैयद शहाबुद्दीन अंतत: सलाखों के अंदर पहुंचे। जॉर्ज फर्नांडीज व जया जेटली के खिलाफ रक्षा खरीद मामले में सीबीआई ने आरोप पत्र दायर किए।
फिर से 'गरीबी हटाओ'
कांग्रेस को एक बार फिर गरीबों की याद आई। इस साल गठबंधन सरकार ने इंदिरा गांधी के प्रसिद्ध 'गरीबी हटाओ' के नारे को फिर से स्वर देने की प्लानिंग की, लेकिन जमीन पर कुछ भी दिख नहीं रहा।
बिगड़ैल छात्र राजनीति
छात्र राजनीति को दिशा देने के लिए लिंग्दोह कमिटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की, लेकिन कोई उसकी सिफारिश मानने को तैयार नहीं। छात्र राजनीति की सबसे दुखद घटना यह रही कि मध्य प्रदेश के उज्जैन में छात्र नेताओं ने माधव कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. हरभजन सिंह सभरवाल की पीट-पीटकर हत्या कर दी। यूपी में छात्र नेताओं को सरकार से गनर मिलने पर लखनऊ यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर ने आपत्ति जताई और यूनिवर्सिटी को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया।
बेआबरू होकर...
कभी गांधी परिवार के बेहद निकट रहे कुंवर नटवर सिंह इस साल उससे बेहद दूर रहे, जाहिर है कांग्रेस से भी वह दूर हो गए। तेल के खेल में उन्हें इस साल पार्टी से निलंबित कर दिया गया और कुंवर साहब ने भी कांग्रेस की ऐसी-तैसी कर देने की गर्जना की, लेकिन किया कुछ नहीं। फिलहाल बेरोजगारी में दिन कट रहे हैं।
सीडी की अमर कहानी
अमर सिंह ने अपने फोन टैपिंग और उसकी बनीं सीडीज को लेकर खूब बवाल मचाया। सीडीज में क्या था, यह तो बहुत कम लोगों को पता चला, लेकिन अमर सिंह ने इस बहाने अपने विरोधियों की खूब फजीहत की। सुर्खियों में महीने भर छाए रहे।
राजनैतिक किताबों पर बवाल
वी पी सिंह पर लिखी किताब 'मंजिल से ज्यादा सफर' किताब खूब विवादों में रही, तो 'अ कॉल टू ऑनर: इन सर्विस ऑफ इमर्जेंट इंडिया' लिखकर जसवंत सिंह ने बड़ा बखेड़ा खड़ा किया। पीएमओ में भेदिया होने का रहस्योद्घाटन करने वाली यह किताब खूब बिकी। कंधार विमान अपहरण कांड की 'हकीकत' बयान करने का दावा करने वाली यह किताब बीजेपी के लिए 'आ बैल मुझे मार' को चरितार्थ करती नजर आई।
तख्ता पलट
छोटे राज्यों में अंकों का गणित कितना खतरनाक होता है, इसका उदाहरण इस साल खूब दिखा। कर्नाटक में साल की शुरुआत में ही पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के बेटे एच डी कुमारस्वामी ने कांगेसी मुख्यमंत्री धरम सिंह का तख्ता पलट दिया।
झारखंड में भी ऐसा ही हुआ। निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा को कांग्रेस, राजद व झामुमो जैसी पार्टियों ने मुख्यमंत्री बना दिया और इस तरह सालों से जमी अर्जुन मुंडा सरकार का तख्ता पलट गया।
पार्टियों का यह साल
बीजेपी: सत्ता का स्वाद एक बार चख लेने के बाद कोई भी पार्टी कितनी खोखली हो जाती है, बीजेपी इसका उदाहरण है। पूरे साल पार्टी में उठा-पटक चलती रही और कैडर आधारित पार्टी का पोल खोलती रही। उमा भारती और मदनलाल खुराना के बागी रवैये से परेशान पार्टी आलाकमान ने दोनों को सलाम-नमस्ते कहना ही उचित समझा। अप्रैल में झारखंड के वरिष्ठ बीजेपी नेता बाबूलाल मरांडी ने भी पार्टी छोड़ दी। कद्दावर नेता प्रमोद महाजन की मौत से भी पार्टी की धार कुंद हुई। उपचुनावों और यूपी के स्थानीय निकायों के चुनाव में कुछ सफलता मिली, लेकिन बाकी जगह प्रदर्शन बुरा रहा। कर्नाटक में जेडी एस की सत्ता को सहारा दिया।
कांग्रेस: अपने सामंती रवैये को लेकर बदनाम रही कांग्रेस ने इस साल घर के बुजुर्ग की भूमिका बखूबी निभाई और गठबंधन धर्म को शिद्दत से समझा। वामपंथियों की घुड़की से बिना भड़के पार्टी ने अपने 'भानुमति के कुनबे' के साथ सत्ता का एक और साल पार कर लिया। केरल में सत्ता जाने के बावजूद पांडिचेरी और असम में सत्ता मिली। झारखंड में उसने बीजेपी की सत्ता गायब की।
लेफ्ट फ्रंट: वामपंथी इस बार ज्यादा ईमानदार नजर आए। जो किया, खुलकर किया, भले ही उन्हें अपनी विचारधारा को तिलांजलि देनी पड़ी। अमेरिका, विदेशी निवेश, तेल का दाम, लेबर लॉ जैसे तमाम मुद्दों पर विरोध तो किया, लेकिन वाम पार्टियां जिद पर नहीं अड़ीं। सिंगुर जैसी घटना के बाद तो लोगों ने बीजेपी से भी ज्यादा बड़ी 'पूंजीपतियों की पार्टी' कहा। तमाम आशंकाओं के बावजूद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में जोरदार जीत दर्ज की, तो केरल में सत्ता उसके पास आई।
जो चले गए
प्रमोद महाजन: बीजेपी के इस 'लक्ष्मण' को उनके सगे लक्ष्मण ने अपने उत्कर्ष का आनंद नहीं लेने दिया। 22 अप्रैल को उनको उनके छोटे भाई ने गोली मार दी और बारहवें दिन मौत से संघर्ष करते हुए भारतीय राजनीतिक बिसात के सबसे माहिर खिलाड़ी ने सबको अलविदा कह दिया।
कांशी राम: वर्षों से बीमार चल रहे दलितों के इस सबसे बड़े पैरोकार ने इस साल अंतिम सांस ले ली। अपनी उपस्थिति से भारतीय राजनीति और सामाजिक ढांचे को संतुलित करने वाले बसपा के इस नेता की कमी लोगों को वर्षों तक खलेगी।
इधर उधर की
नेता के पास इतना पैसा: सीबीआई का कहना था कि उसने चौटाला परिवार के 1467 करोड़ रुपये की संपत्ति का पता लगाया है। सीबीआई के छापे के दौरान तो चौटाला परिवार के दो फार्म हाउसों से 13 लाख रुपये नकद बरामद हुए।
नेता को हेलिकॉप्टर: अब तक नेताओं को सिक्कों से तौलने और सोने का ताज पहनाने की ही खबरें आती थीं, लेकिन हाल ही में कुछ अद्भुत हुआ। गुर्जर समाज ने अपने नेता सांसद अवतार सिंह भड़ाना को एक-एक रुपया चंदा कर हेलिकॉप्टर खरीदकर दिया। उम्मीद यह कि नेताजी हवाई दौरा कर तेजी से उनके हितों की पैरवी करेंगे।
बुरी विदाई: बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह को कोर्ट के एक फैसले ने गद्दी छोड़ने पर मजबूर कर दिया। कोर्ट ने सरकार नहीं बनने देने के लिए उनके विरुद्ध टिप्पणी की। एक बार फिर साबित हुआ- कोर्ट है, तो देश में कानून है।
Thursday, December 28, 2006
साल का खिताबी किस्सा
साल के अंत में खिताब बांटने की परंपरा रही है। मतलब ई कि साल का सबसे बढ़िया कौन, सबसे घटिया कौन, सबसे बेसी काम लायक कौन, सबसे कम काम लायक कौन... जैसन तमाम खिताब दिसंबर में बांटा जाता है। ऐसन में हमने भी कुछ खिताब बांटने का फैसला किया, आइए उसके बारे में आपको बताता हूं।
एक ठो सरकारी संगठन है 'नेशनल नॉलेज कमिशन'। इस साल का 'सबसे बड़ा मजाक' इसी संगठन के साथ हुआ। हमरे खयाल से किसी ने जमकर जब भांग पिया होगा, तभिए उसको ऐसन संगठन बनाने की 'बदमाशी' सूझी होगी। नहीं, तो आप ही बताइए न, आरक्षण के जमाने में ऐसन संगठन बनाना जनता के साथ 'मूर्ख दिवस' मनाना ही तो है। बेचारे 'ज्ञानी आदमी' सैम पित्रोदा पछता रहे होंगे कि इसका मुखिया बनकर कहां फंस गया!
वैसे, हमरे एक दोस्त का कहना है कि फंस तो पराइम मिनिस्टर बनकर मनमोहन सिंह भी गए हैं औरो इस साल का 'सबसे बड़का चुटकुला' यही हो सकता है कि मनमोहन सिंह पराइम मिनिस्टर हैं। उसके अनुसार, इस पोस्ट के साथ ऐसी दुर्घटना कभियो नहीं घटी, जैसन कि इस साल घटी है। का है कि परधानमंतरी तो मनमोहन हैं, लेकिन सरकार का सारा काम हुआ सोनिया गांधी के कहने पर। ऐसन में मनमोहन के अभियो परधान मंतरी पद पर टिके रहने को 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मानी जा सकती है।
लेकिन, हमरे खयाल से पराइम मिनिस्टर के साथ हुए इस 'दुर्घटना' को हम बहुत बड़ा नहीं मान सकते, काहे कि हमरे खयाल से 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मुंबई के डांस बारों पर लगा प्रतिबंध है। ऊ इसलिए, काहे कि जैसे परमाणु बम फूटने के बाद विकिरण फैलता है, वैसने मुंबई में प्रतिबंध लगने के बाद वहां की बार डांसर पूरे देश में फैल गईं औरो गंध मचा रही हैं। दिल्ली से लेकर झारखंड के नेता तक उनसे अपनी महफिल सजा रहे हैं, तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के कोठा पर 'मुंबइया माल' पर लोग अपना माल लुटा रहे हैं। इससे बड़ी दुर्घटना और का हो सकती है? यानी आप कह सकते हैं कि इस साल का 'सबसे बड़ा अपराध' महाराष्ट्र के होम मिनिस्टर आर आर पाटिल ने किया है। काहे कि उन्हीं की जिद के कारण बार डांसर का ई 'विस्फोट' हुआ औरो देश परदूषित हुआ।
वैसे, इसका मतलब ई कतई नहीं है कि पाटिल को 'साल के सबसे बड़े जिद्दी' का खिताब दे दिया जाए। इस पर तो पूरा हक सौरव गंग्गुली का है। का है कि ऐसन तपस्या तो सीता जी ने राम जी को पाने के लिए भी नहीं किया था, जैसन गंग्गुली ने इस साल टीम में वापसी के लिए किया है।
अगर सबसे बड़े जिद्दी सौरव दादा हैं, तो का 'साल का सबसे बड़ा पिद्दी' ग्रेग चैपल को मान लिया जाए? आप कहें, तो हम ऐसा मान सकता हूं, काहे कि जिस आदमी को आपने चूहा मानकर निकाल दिया था, ऊ अगर शेर बनकर फिर से आप पर दहाड़ने लगे, तो नि:संदेह आप पिद्दी ही हैं! वैसे, पिद्दी होने का मतलब ई कतई नहीं है कि 'इस साल का जीरो' भी चैपल ही होंगे, काहे कि इस लाइन में किरण मोरे जैसन बहुते लोग हैं। लेकिन इस खिताब पर हमरे खयाल से सबसे पहला अधिकार सरकार का है, काहे कि साल में सबसे बेसी फजीहत उसी की हुई है। कोयो उसको पूछ नहीं रहा, सब अपनी मर्जी कर रहे हैं। आपको साल भर कभियो लगा कि इस देश में सरकारो नामक कोयो चीज है भी?
सरकार के इसी निकम्मेपन के चलते 'साल का सबसे बड़ा हीरो' का खिताब न्यायपालिका को दिया जा सकता है। काहे कि अगर इस साल कोर्ट इतना एक्टिव नहीं होता, तो इस देश का भगवाने मालिक था। कोर्ट नहीं रहता, तो नोट-वोट के चक्कर में तो नेता औरो अफसर सब इस देश को डुबाइए न देते!
तो ई है खिताबों की लिस्ट और उनके हकदारों के नाम। लेकिन अभी ई फाइनल नहीं है, काहे कि सिफारिशी लालों के इस देश में अभियो हम सिफारिश पर गौर करने को तैयार हूं।
एक ठो सरकारी संगठन है 'नेशनल नॉलेज कमिशन'। इस साल का 'सबसे बड़ा मजाक' इसी संगठन के साथ हुआ। हमरे खयाल से किसी ने जमकर जब भांग पिया होगा, तभिए उसको ऐसन संगठन बनाने की 'बदमाशी' सूझी होगी। नहीं, तो आप ही बताइए न, आरक्षण के जमाने में ऐसन संगठन बनाना जनता के साथ 'मूर्ख दिवस' मनाना ही तो है। बेचारे 'ज्ञानी आदमी' सैम पित्रोदा पछता रहे होंगे कि इसका मुखिया बनकर कहां फंस गया!
वैसे, हमरे एक दोस्त का कहना है कि फंस तो पराइम मिनिस्टर बनकर मनमोहन सिंह भी गए हैं औरो इस साल का 'सबसे बड़का चुटकुला' यही हो सकता है कि मनमोहन सिंह पराइम मिनिस्टर हैं। उसके अनुसार, इस पोस्ट के साथ ऐसी दुर्घटना कभियो नहीं घटी, जैसन कि इस साल घटी है। का है कि परधानमंतरी तो मनमोहन हैं, लेकिन सरकार का सारा काम हुआ सोनिया गांधी के कहने पर। ऐसन में मनमोहन के अभियो परधान मंतरी पद पर टिके रहने को 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मानी जा सकती है।
लेकिन, हमरे खयाल से पराइम मिनिस्टर के साथ हुए इस 'दुर्घटना' को हम बहुत बड़ा नहीं मान सकते, काहे कि हमरे खयाल से 'साल की सबसे बड़ी दुर्घटना' मुंबई के डांस बारों पर लगा प्रतिबंध है। ऊ इसलिए, काहे कि जैसे परमाणु बम फूटने के बाद विकिरण फैलता है, वैसने मुंबई में प्रतिबंध लगने के बाद वहां की बार डांसर पूरे देश में फैल गईं औरो गंध मचा रही हैं। दिल्ली से लेकर झारखंड के नेता तक उनसे अपनी महफिल सजा रहे हैं, तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक के कोठा पर 'मुंबइया माल' पर लोग अपना माल लुटा रहे हैं। इससे बड़ी दुर्घटना और का हो सकती है? यानी आप कह सकते हैं कि इस साल का 'सबसे बड़ा अपराध' महाराष्ट्र के होम मिनिस्टर आर आर पाटिल ने किया है। काहे कि उन्हीं की जिद के कारण बार डांसर का ई 'विस्फोट' हुआ औरो देश परदूषित हुआ।
वैसे, इसका मतलब ई कतई नहीं है कि पाटिल को 'साल के सबसे बड़े जिद्दी' का खिताब दे दिया जाए। इस पर तो पूरा हक सौरव गंग्गुली का है। का है कि ऐसन तपस्या तो सीता जी ने राम जी को पाने के लिए भी नहीं किया था, जैसन गंग्गुली ने इस साल टीम में वापसी के लिए किया है।
अगर सबसे बड़े जिद्दी सौरव दादा हैं, तो का 'साल का सबसे बड़ा पिद्दी' ग्रेग चैपल को मान लिया जाए? आप कहें, तो हम ऐसा मान सकता हूं, काहे कि जिस आदमी को आपने चूहा मानकर निकाल दिया था, ऊ अगर शेर बनकर फिर से आप पर दहाड़ने लगे, तो नि:संदेह आप पिद्दी ही हैं! वैसे, पिद्दी होने का मतलब ई कतई नहीं है कि 'इस साल का जीरो' भी चैपल ही होंगे, काहे कि इस लाइन में किरण मोरे जैसन बहुते लोग हैं। लेकिन इस खिताब पर हमरे खयाल से सबसे पहला अधिकार सरकार का है, काहे कि साल में सबसे बेसी फजीहत उसी की हुई है। कोयो उसको पूछ नहीं रहा, सब अपनी मर्जी कर रहे हैं। आपको साल भर कभियो लगा कि इस देश में सरकारो नामक कोयो चीज है भी?
सरकार के इसी निकम्मेपन के चलते 'साल का सबसे बड़ा हीरो' का खिताब न्यायपालिका को दिया जा सकता है। काहे कि अगर इस साल कोर्ट इतना एक्टिव नहीं होता, तो इस देश का भगवाने मालिक था। कोर्ट नहीं रहता, तो नोट-वोट के चक्कर में तो नेता औरो अफसर सब इस देश को डुबाइए न देते!
तो ई है खिताबों की लिस्ट और उनके हकदारों के नाम। लेकिन अभी ई फाइनल नहीं है, काहे कि सिफारिशी लालों के इस देश में अभियो हम सिफारिश पर गौर करने को तैयार हूं।
Thursday, December 21, 2006
बीत गया साल पहेली में
एथलीट एस. शांति ने दोहा एशियन गेम्स में सिल्वर मेडल जीता था, जो उससे छीन लिया गया। कहा गया कि महिलाओं की दौड़ जीतने वाली शांति महिला नहीं, पुरुष है। ई 'सत्य' जानकर बहुतों को झटका लगा, लेकिन हम पर इसका कोयो इफेक्ट नहीं हुआ। का है कि साल भर हम ऐसने झटका सहता रहा हूं। हमने जिसको जो समझा, ऊ कमबख्त ऊ निकला ही नहीं। जिसको हमने गाय समझा, ऊ बैल निकला औरो जिसको बैल समझा, ऊ गाय।
अब देखिए न, पूरे साल हम ई नहीं समझ पाए कि शरद पवार कृषि मंतरी हैं कि किरकेट मंतरी। उन्हीं के गृह परदेश में विदर्भ के किसान भूखे मरते रहे, आत्महत्या करते रहे, लेकिन उन्होंने कभियो चिंता नहीं की। पैसे का भूखा बताकर ऊ जगमोहन डालमिया को साल भर साइड लाइन करने में लगे रहे, लेकिन कृषि मंतरी होने के बावजूद उन्होंने विदर्भ में खेती बरबाद करने वाले पैसे के भूखे अधिकारियों को कुछो नहीं कहा। देश की खेती को दुरुस्त करने के बदले ऊ किरकेट की अपनी पिच दुरुस्त करते रहे।
हमरे समझ में इहो नहीं आया कि गिल साहब हाकी के तारणहार हैं या डुबनहार। ऊ तारणहार होते तो भारतीय हाकी अभी चमक रही होती, लेकिन चमक तो खतम ही हो रही है। इसका मतलब उनको डुबनहार होना चाहिए, लेकिन ऐसा भी नहीं है। काहे कि अगर ऐसा होता, तो उनको हाकी संघ से कब का बाहर कर दिया गया होता, लेकिन ऊ तो अभी भी तानाशाह बने अपनी मूंछ ऐंठ रहे हैं।
गिल जैसन मनमर्जी करने वालों की इस साल देश में कौनो कमी नहीं रही। अर्जुन बाबू को ही ले लीजिए। उन्होंने एक मिनिस्टरी का नामे बदल दिया। अब तक एचआरडी मिनिस्टरी का मतलब हम ह्यूमन रिसोर्सेज मिनिस्टरी समझते थे, लेकिन इस साल ई ह्यूमिलिएशन रिसोर्सेज मिनिस्टरी बन गया। ऐसन मिनिस्टरी, जो पढ़ाई में मेहनत करने के बदले किसी खास जातियों में पैदा होने को बेसी महत्व देता है। गरीब बचवा सब को पढ़ने के लिए टाट-पट्टी नहीं मिल रहा, इसकी चिंता अर्जुन बाबू ने साल भर नहीं की, लेकिन सम्पन्न लोगों को भी वोट की खातिर आरक्षण मिलना चाहिए, इसकी चिंता उनको बहुते रही।
ऐसने हाल रहा स्वास्थ्य मंतरी रामदास का। हमरे समझ में ई नहीं आया कि उनको स्वास्थ्य मंतरी की कुर्सी प्यारी है या एम्स के निदेशक की! हैं तो ऊ देश के स्वास्थ्य मंतरी, लेकिन साल भर एम्स के सर्वेसर्वा बनने के लिए लड़ते रहे। अब हमरे समझ में ई नहीं आया कि लोग अपना परमोशन चाहते हैं, लेकिन रामदास अपना डिमोशन काहे चाह रहे हैं? अगर एम्स से एतना ही परेम है औरो वेणुगोपाल एतना ही अयोग्य हैं, तो आप उनके साथ पोस्ट काहे नहीं बदल लेते? उन्होंने देश की आपसे बेसी सेवा की है औरो अयोग्य भी ऊ आपसे बेसी हैं, इसलिए ऊ बढि़या मंतरी साबित होंगे, इसकी पूरी गारंटी है!
वैसे, हमरे खयाल से ऐसन डिमोशन सत्ता के फेर में ही होता है। काहे कि अपना कुछ ऐसने डिमोशन इस साल लाल झंडे वालों ने भी किया। ई कहना मुश्किल रहा कि विचारधारा उनके लिए बेसी अहमियत रखती है या सत्ता। का है कि सीपीआई का मतलब भले ही 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' होता हो, लेकिन सिंगुर जैसन तमाम काम करने के बाद उसका नाम अगर 'कोलेबोरेशन आफ पराइवेट इंडस्ट्री' रख दिया जाए, तो कौनो गलत नहीं होगा! तो ऐसने कनफूजन में बीत गया हमरा साल, कहीं आपके साथ भी तो ऐसने नहीं रहा?
अब देखिए न, पूरे साल हम ई नहीं समझ पाए कि शरद पवार कृषि मंतरी हैं कि किरकेट मंतरी। उन्हीं के गृह परदेश में विदर्भ के किसान भूखे मरते रहे, आत्महत्या करते रहे, लेकिन उन्होंने कभियो चिंता नहीं की। पैसे का भूखा बताकर ऊ जगमोहन डालमिया को साल भर साइड लाइन करने में लगे रहे, लेकिन कृषि मंतरी होने के बावजूद उन्होंने विदर्भ में खेती बरबाद करने वाले पैसे के भूखे अधिकारियों को कुछो नहीं कहा। देश की खेती को दुरुस्त करने के बदले ऊ किरकेट की अपनी पिच दुरुस्त करते रहे।
हमरे समझ में इहो नहीं आया कि गिल साहब हाकी के तारणहार हैं या डुबनहार। ऊ तारणहार होते तो भारतीय हाकी अभी चमक रही होती, लेकिन चमक तो खतम ही हो रही है। इसका मतलब उनको डुबनहार होना चाहिए, लेकिन ऐसा भी नहीं है। काहे कि अगर ऐसा होता, तो उनको हाकी संघ से कब का बाहर कर दिया गया होता, लेकिन ऊ तो अभी भी तानाशाह बने अपनी मूंछ ऐंठ रहे हैं।
गिल जैसन मनमर्जी करने वालों की इस साल देश में कौनो कमी नहीं रही। अर्जुन बाबू को ही ले लीजिए। उन्होंने एक मिनिस्टरी का नामे बदल दिया। अब तक एचआरडी मिनिस्टरी का मतलब हम ह्यूमन रिसोर्सेज मिनिस्टरी समझते थे, लेकिन इस साल ई ह्यूमिलिएशन रिसोर्सेज मिनिस्टरी बन गया। ऐसन मिनिस्टरी, जो पढ़ाई में मेहनत करने के बदले किसी खास जातियों में पैदा होने को बेसी महत्व देता है। गरीब बचवा सब को पढ़ने के लिए टाट-पट्टी नहीं मिल रहा, इसकी चिंता अर्जुन बाबू ने साल भर नहीं की, लेकिन सम्पन्न लोगों को भी वोट की खातिर आरक्षण मिलना चाहिए, इसकी चिंता उनको बहुते रही।
ऐसने हाल रहा स्वास्थ्य मंतरी रामदास का। हमरे समझ में ई नहीं आया कि उनको स्वास्थ्य मंतरी की कुर्सी प्यारी है या एम्स के निदेशक की! हैं तो ऊ देश के स्वास्थ्य मंतरी, लेकिन साल भर एम्स के सर्वेसर्वा बनने के लिए लड़ते रहे। अब हमरे समझ में ई नहीं आया कि लोग अपना परमोशन चाहते हैं, लेकिन रामदास अपना डिमोशन काहे चाह रहे हैं? अगर एम्स से एतना ही परेम है औरो वेणुगोपाल एतना ही अयोग्य हैं, तो आप उनके साथ पोस्ट काहे नहीं बदल लेते? उन्होंने देश की आपसे बेसी सेवा की है औरो अयोग्य भी ऊ आपसे बेसी हैं, इसलिए ऊ बढि़या मंतरी साबित होंगे, इसकी पूरी गारंटी है!
वैसे, हमरे खयाल से ऐसन डिमोशन सत्ता के फेर में ही होता है। काहे कि अपना कुछ ऐसने डिमोशन इस साल लाल झंडे वालों ने भी किया। ई कहना मुश्किल रहा कि विचारधारा उनके लिए बेसी अहमियत रखती है या सत्ता। का है कि सीपीआई का मतलब भले ही 'कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया' होता हो, लेकिन सिंगुर जैसन तमाम काम करने के बाद उसका नाम अगर 'कोलेबोरेशन आफ पराइवेट इंडस्ट्री' रख दिया जाए, तो कौनो गलत नहीं होगा! तो ऐसने कनफूजन में बीत गया हमरा साल, कहीं आपके साथ भी तो ऐसने नहीं रहा?
Thursday, December 14, 2006
सीधी बात हजम नहीं होती
समय बदलने से लोगों की मानसिकता केतना बदल जाती है, हमरे खयाल से ई रिसर्च का बहुते दिलचस्प बिषय है। एक समय था, जब किसी काम में तनियो ठो लफड़ा होता था, तो हमरी-आपकी हालत खराब हो जाती थी। लगता था, पता नहीं किसका मुंह देखकर सबेरे उठे थे कि एतना परॉबलम हो रहा है। लेकिन आज अगर बिना लफड़ा के एको घंटा बीत जाता है, तो लगता है जैसन जिंदगी का सारा रोमांचे खतम हो गया। मतलब, लोगों को अब लफड़े में बेसी आनंद मिलता है। बिना लफड़ा के लाइफ में कौनो मजा नहीं होता।
अब वर्मा जी को ही लीजिए। बेचारे कहीं से आ रहे थे। एक ठो आटो वाले से लक्ष्मीनगर छोड़ने को कहा। आटोवाला बिना किसी हील-हुज्जत के मीटर से चलने को तैयार हो गया। अब वर्मा जी की हालत खराब! ऊ आटो पर बैठ तो गए, लेकिन उनको सब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। एक झटके में अगर दिल्ली का कोयो आटोवाला मीटर से चलने को तैयार हो जाए, तो किसी अदने से आदमी को भी दाल में काला नजर आ सकता है या कहिए कि पूरी दाल काली लग सकती है। फिर वर्मा जी तो दिल्ली के नस-नस से वाकिफ ठहरे।
खैर, रास्ता भर उनके दिल में किसी अनहोनी को लेकर धुकधुकी तो लगी रही, लेकिन आटोवाले ने सुरक्षित उन्हें घर पर उतार दिया। पैसा देकर ऊ निबटे ही थे कि एक झटका उनको औरो लगा। उनको विशवास नहीं हो रहा था कि 'सर, मैं जाऊं' की जो आवाज उनके कानों में मिश्री घोल रही है, वह आटोवाले के श्रीमुख से ही निकली है! उसने चारों ओर देखा कि कोयो औरो बोल रहा होगा, लेकिन ई प्रश्न आटोवाला ही पूछ रहा था! वर्मा जी का गला भर आया, उ बस किसी तरह एतना बोल पाए, 'हां भैया, अब आप जाओ।' लेकिन दिल के अंदर अभियो तूफान मचा था, कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है।
तो ई है बिना लफड़े की दिल्ली। अगर कोयो आपसे परेम वाला व्यवहार करे, तो आपका सिक्स्थ सेंस जाग्रत हो जाता है- कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है। हमरे मकान मालिक बहुते बढि़या नेचर के हैं। हमको छोटा भाई मानते हैं, सो अक्सर साथ खाने पर बुलाते रहते हैं। उस दिन जब हमने आफिस में कहा कि आज हमारा लंच उन्हीं के यहां था, तो सबके कान खड़े हो गए। एक ने पूछा, 'तो उन्होंने कब आपको घर खाली करने को कहा है?' दूसरे ने पूछा, 'किराया बढ़ा दिया होगा औरो जोर का झटका धीरे से देने के लिए आपको लंच पर बुलाया होगा?' मतलब, सबका मानना ई था कि कि मकान मालिक औरो किरायेदार में एतना परेम हो ही नहीं सकता। मकान मालिक अगर मानवीयता दिखाने लगे, तो समझ जाइए कि कुछो गड़बड़ जरूर है।
यही स्थिति ऑफिस के बॉस के साथ रहती है। अगर बॉस ने आपको अपने केबिन में हाल-चाल पूछने भी बुला लिया, तो आपके सहकर्मियों में डुगडुगी बज जाती है- आज तो बच्चू की लग गई क्लास! जरा सोचिए, केबिन में आप दोनों जेंटलमैन की तरह बात कर रहे हैं औरो केबिन के बाहर इमेजिन किया जा रहा है कि बॉस रूपी बाघ के सामने आप बकरी की तरह घिघिया रहे होंगे।
तो ऐसन है जमाना! जैसन लोगों को देसी घी औरो शुद्ध दूध नहीं पचता, वैसने दूसरों का बढि़या व्यवहार भी उनसे जल्दी हजम नहीं होता। अगर आप सीधे हैं, तो लोग आपको या तो बेकूफ मानेंगे या फेरो घुन्ना। अब जब ऐसन है, तो कहिए भला, कोयो बढि़या इंसान काहे बनना चाहेगा? लोगों के सामने बेकूफ साबित होने से तो बढि़या है कि टशन में रहा जाए औरो सच पूछिए तो इसी टशन में लोगों का मानवीय चेहरा गायब हो रहा है! तो दोषी कौन है, हम-आप या जमाना?
अब वर्मा जी को ही लीजिए। बेचारे कहीं से आ रहे थे। एक ठो आटो वाले से लक्ष्मीनगर छोड़ने को कहा। आटोवाला बिना किसी हील-हुज्जत के मीटर से चलने को तैयार हो गया। अब वर्मा जी की हालत खराब! ऊ आटो पर बैठ तो गए, लेकिन उनको सब कुछ ठीक नहीं लग रहा था। एक झटके में अगर दिल्ली का कोयो आटोवाला मीटर से चलने को तैयार हो जाए, तो किसी अदने से आदमी को भी दाल में काला नजर आ सकता है या कहिए कि पूरी दाल काली लग सकती है। फिर वर्मा जी तो दिल्ली के नस-नस से वाकिफ ठहरे।
खैर, रास्ता भर उनके दिल में किसी अनहोनी को लेकर धुकधुकी तो लगी रही, लेकिन आटोवाले ने सुरक्षित उन्हें घर पर उतार दिया। पैसा देकर ऊ निबटे ही थे कि एक झटका उनको औरो लगा। उनको विशवास नहीं हो रहा था कि 'सर, मैं जाऊं' की जो आवाज उनके कानों में मिश्री घोल रही है, वह आटोवाले के श्रीमुख से ही निकली है! उसने चारों ओर देखा कि कोयो औरो बोल रहा होगा, लेकिन ई प्रश्न आटोवाला ही पूछ रहा था! वर्मा जी का गला भर आया, उ बस किसी तरह एतना बोल पाए, 'हां भैया, अब आप जाओ।' लेकिन दिल के अंदर अभियो तूफान मचा था, कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है।
तो ई है बिना लफड़े की दिल्ली। अगर कोयो आपसे परेम वाला व्यवहार करे, तो आपका सिक्स्थ सेंस जाग्रत हो जाता है- कहीं कुछो गड़बड़ जरूर है। हमरे मकान मालिक बहुते बढि़या नेचर के हैं। हमको छोटा भाई मानते हैं, सो अक्सर साथ खाने पर बुलाते रहते हैं। उस दिन जब हमने आफिस में कहा कि आज हमारा लंच उन्हीं के यहां था, तो सबके कान खड़े हो गए। एक ने पूछा, 'तो उन्होंने कब आपको घर खाली करने को कहा है?' दूसरे ने पूछा, 'किराया बढ़ा दिया होगा औरो जोर का झटका धीरे से देने के लिए आपको लंच पर बुलाया होगा?' मतलब, सबका मानना ई था कि कि मकान मालिक औरो किरायेदार में एतना परेम हो ही नहीं सकता। मकान मालिक अगर मानवीयता दिखाने लगे, तो समझ जाइए कि कुछो गड़बड़ जरूर है।
यही स्थिति ऑफिस के बॉस के साथ रहती है। अगर बॉस ने आपको अपने केबिन में हाल-चाल पूछने भी बुला लिया, तो आपके सहकर्मियों में डुगडुगी बज जाती है- आज तो बच्चू की लग गई क्लास! जरा सोचिए, केबिन में आप दोनों जेंटलमैन की तरह बात कर रहे हैं औरो केबिन के बाहर इमेजिन किया जा रहा है कि बॉस रूपी बाघ के सामने आप बकरी की तरह घिघिया रहे होंगे।
तो ऐसन है जमाना! जैसन लोगों को देसी घी औरो शुद्ध दूध नहीं पचता, वैसने दूसरों का बढि़या व्यवहार भी उनसे जल्दी हजम नहीं होता। अगर आप सीधे हैं, तो लोग आपको या तो बेकूफ मानेंगे या फेरो घुन्ना। अब जब ऐसन है, तो कहिए भला, कोयो बढि़या इंसान काहे बनना चाहेगा? लोगों के सामने बेकूफ साबित होने से तो बढि़या है कि टशन में रहा जाए औरो सच पूछिए तो इसी टशन में लोगों का मानवीय चेहरा गायब हो रहा है! तो दोषी कौन है, हम-आप या जमाना?
Thursday, December 07, 2006
नेताओं के लिए स्पेशल जेल!
उस दिन तिहाड़ जेल के एक ठो जेलर मिल गए। बहुते परेशान थे। कहने लगे, 'यार, जिस तेजी से नेता लोग जेल भेजे जा रहे हैं, उससे तो हमरी हालत खस्ता होने वाली है। हमरे जैसन संतरी के लिए इससे बुरी स्थिति का होगी कि जिस मंतरी को आप हत्यारा मान रहे हैं, उसको भी सलाम बजा रहे हैं। अपराध करके जेल ऊ आते हैं औरो सजा एक तरह से हमको मिलती है। टन भर वजनी पप्पू जी का नखरा झेलते-झेलते हमरी हालत ऐसने खराब हो रही है, ऊपर से एक ठो 'गुरुजी' औरो आ गए। हमरी हालत तो उस 'सिद्धूइज्म' के डर से भी खराब हो रही है, जो चौबीसो घंटा चलता रहता है। अगर सरदार जी यहां आ गए, तो कौन झेल पाएगा उनको?'
उस जेलर महोदय की परेशानी देख हमहूं परेशान हो गया हूं, लेकिन हमरी परेशानी कुछ दूसरी है। उनको नेता जैसन वीआईपी कैदियों से परेशानी है, तो हमको देश की चिंता हो रही है। का है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विधायकों के लिए जेल दूसरा घर बन चुका है, तो कम से कम सौ ऐसन सांसद हैं, जो सरकार की जरा-सी ईमानदारी से कभियो जेल जा सकते हैं। अब देखिए न, अपने पप्पू औरो शहाबुद्दीन जी पहिले से जेल में हैं, तो 'स्वनामधन्य' साधु जी बाढ़ का पैसा पीकर जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन सब का साथ देने के लिए अब शिबू गुरुजी भी वहां पहुंच चुके हैं। कोर्ट ऐसने तेजी से चाबुक चलाती रही, तो आश्चर्य नहीं कि आधा संसद जेल में होगा। अब जिस देश के राष्ट्रीय प्रतिनिधि की आधी संख्या जेल में होगी, उस देश के भविष्य की बस कल्पना ही की जा सकती है!
सो हम भी लगे कल्पना करने। कल्पना में हमें देश के महान स्वरूप का दर्शन हुआ। देश के महान जनता के दर्शन हुए। यह भी पता चला कि अपना देश एतना महान बन चुका है कि बिना एमपी-एमएलए के भी चल सकता है। अब ऐसन देश आपको कहां मिलेगा, जहां का सौ सांसद लोगों को डराने-धमकाने से लेकर हत्या कराने तक का आरोपी हो, फिर भी ऊ जनता का प्रतिनिधि हो। ऐसन जनता भी आपको कहीं नहीं मिलेगी, जो कोर्ट द्वारा हत्या का आरोपी ठहरा दिए गए नेता पर सड़े अंडे औरो टमाटर फेंकने के बजाय, उसके समर्थन में रांची से दिल्ली तक परदरशन करे। यह तो महान जनता की दरियादिली ही है कि जेल में रहने वाले नेता वर्षों अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं जाते, फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। तिहाड़ में बंद 'टन भर वजनी नेता' का तो इस मामले में गिनीज बुक रिकार्ड में नाम दर्ज हो सकता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि बिना एमपी- एमएलए के भी देश का काम चल सकता है।
लेकिन मान लीजिए कि सरकार सांसदों को जरूरी मानती ही है, तो फिर ऊ एक ठो व्यवस्था कर सकती है। चूंकि सरकार औरो जनता की दरियादिली से दागी सांसदों का बहुमत सब दिन संसद में रहेगा ही, सो काहे नहीं कानून बदल दिया जाए। संसद में ही एक जेल बना दिया जाए। तब हथकड़ियों में बंधे नेता लोग देश के सुनहरे भविष्य पर चरचा करेंगे औरो तिहाड़ जेल के जेलरों को परेशानी भी नहीं होगी। आखिर एक 'राष्ट्रीय गर्व' की इमारत को 'राष्ट्रीय शर्म' की इमारत बनाने का माद्दा हम भारतीयों में तो है ही!
उस जेलर महोदय की परेशानी देख हमहूं परेशान हो गया हूं, लेकिन हमरी परेशानी कुछ दूसरी है। उनको नेता जैसन वीआईपी कैदियों से परेशानी है, तो हमको देश की चिंता हो रही है। का है कि कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विधायकों के लिए जेल दूसरा घर बन चुका है, तो कम से कम सौ ऐसन सांसद हैं, जो सरकार की जरा-सी ईमानदारी से कभियो जेल जा सकते हैं। अब देखिए न, अपने पप्पू औरो शहाबुद्दीन जी पहिले से जेल में हैं, तो 'स्वनामधन्य' साधु जी बाढ़ का पैसा पीकर जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन सब का साथ देने के लिए अब शिबू गुरुजी भी वहां पहुंच चुके हैं। कोर्ट ऐसने तेजी से चाबुक चलाती रही, तो आश्चर्य नहीं कि आधा संसद जेल में होगा। अब जिस देश के राष्ट्रीय प्रतिनिधि की आधी संख्या जेल में होगी, उस देश के भविष्य की बस कल्पना ही की जा सकती है!
सो हम भी लगे कल्पना करने। कल्पना में हमें देश के महान स्वरूप का दर्शन हुआ। देश के महान जनता के दर्शन हुए। यह भी पता चला कि अपना देश एतना महान बन चुका है कि बिना एमपी-एमएलए के भी चल सकता है। अब ऐसन देश आपको कहां मिलेगा, जहां का सौ सांसद लोगों को डराने-धमकाने से लेकर हत्या कराने तक का आरोपी हो, फिर भी ऊ जनता का प्रतिनिधि हो। ऐसन जनता भी आपको कहीं नहीं मिलेगी, जो कोर्ट द्वारा हत्या का आरोपी ठहरा दिए गए नेता पर सड़े अंडे औरो टमाटर फेंकने के बजाय, उसके समर्थन में रांची से दिल्ली तक परदरशन करे। यह तो महान जनता की दरियादिली ही है कि जेल में रहने वाले नेता वर्षों अपने निर्वाचन क्षेत्र में नहीं जाते, फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। तिहाड़ में बंद 'टन भर वजनी नेता' का तो इस मामले में गिनीज बुक रिकार्ड में नाम दर्ज हो सकता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि बिना एमपी- एमएलए के भी देश का काम चल सकता है।
लेकिन मान लीजिए कि सरकार सांसदों को जरूरी मानती ही है, तो फिर ऊ एक ठो व्यवस्था कर सकती है। चूंकि सरकार औरो जनता की दरियादिली से दागी सांसदों का बहुमत सब दिन संसद में रहेगा ही, सो काहे नहीं कानून बदल दिया जाए। संसद में ही एक जेल बना दिया जाए। तब हथकड़ियों में बंधे नेता लोग देश के सुनहरे भविष्य पर चरचा करेंगे औरो तिहाड़ जेल के जेलरों को परेशानी भी नहीं होगी। आखिर एक 'राष्ट्रीय गर्व' की इमारत को 'राष्ट्रीय शर्म' की इमारत बनाने का माद्दा हम भारतीयों में तो है ही!
Friday, December 01, 2006
चाहिए कुछ किरकेटिया जयचंद
अब हमको पूरा विशवास हो गया है कि अपने देश को कुछ किरकेटिया जयचंद की एकदम सख्त जरूरत है। यानी कुछ ऐसन किरकेटिया पिलयर औरो कोच चाहिए, जो अपनी ही टीम की लुटिया डुबो सके। सच पूछिए, तो इसी में अपने देश का भला है औरो किरकेट का भी।
आप कहिएगा कि हम एतना गुस्सा में काहे हूं, तो भइया हर चीज की एक ठो लिमिट होती है, लेकिन ई मुआ किरकेट है कि इसका कोयो लिमिटे नहीं है। का जनता, का नेता, सब हाथ धो के इसी के पीछे पड़ल रहता है। देश-दुनिया जाए भांड़ में, सबको चिंता बस किरकेट की है। दक्षिण अफरीका से दू ठो मैच का हार गए, ऐसन लग रहा है जैसे पूरे देश का सिर शरम से नीचे हो गया हो। सड़क से संसद तक हंगामा मचा है। विदर्भ के किसान भूखे मर रहे हैं, फांसी लगा रहे हैं, नेता औरो जनता सब को इसकी चिंता नहीं है, लेकिन देश दू ठो मैच हार गया, इसकी उन्हें घनघोर चिंता है। लोगों के भूखे मरने औरो किसानों के फांसी पर झूलने से पूरे विश्व में नाक कट रही है, उसकी चिंता कोयो नहीं कर रहा, लेकिन दस ठो किरकेट खेलने वाले देश में नाक कट गई, इसकी बहुते चिंता है।
हम तो कहते हैं कि भगवान की दया से ऐसने सब दिन हारती रहे अपनी टीम। इसी में भारतीय किरकेट का भला है औरो अपने देश का भी। का है कि अगर हम इसी तरह हारते रहे न, तो एक दिन जरूर ऐसन आएगा, जब लोग किरकेट के बारे में सोचना बंद कर देंगे। मतलब उन दूसरे 'दलित' खेलों को भी अपने देश में पैर फैलाने का मौका मिलेगा, जो 'सवर्ण' किरकेट के सामने बेमौत मर रहे हैं। अगर बच्चा सब तेंडुलकर औरो गंग्गुली बनने का सपना नहीं देखेगा, तो यकीन मानिए एक अरब का अपना देश ओलंपिकों में दो-तीन सौ पदक तो जीतिए लेगा। अब आप ही बताइए, किरकेट के ग्यारह ठो पिलयर के पीछे दिमाग खराब करना फायदेमंद है या फिर दो-तीन सौ एथलीटों के पीछे?
मैच हारते रहने का सबसे बड़का फायदा ई होगा कि देश के बेरोजगारों को कभियो बेरोजगारी नहीं अखरेगी। का है कि अपने देश के लोग सब घनघोर विश्लेषक किस्म के पराणी होते हैं औरो 'एक्सपर्ट कमेंट' देने में माहिर होते हैं। उनको कौनो मुद्दा दे दीजिए औरो फिर देखिए उनकी विश्लेषण क्षमता! किरकेट की ए बी सी डी ऊ भले न जानते हों, लेकिन किरकेट तो ऊ डॉन ब्रेडमैन तक को सिखा सकते हैं। ऐसन में अगर अपनी टीम हारती रहेगी, तो विश्लेषण बेसी होगा औरो विश्लेषण बेसी होगा, तो देश के बेरोजगार सब कभियो अपने को बेरोजगार महसूस नहीं करेंगे औरो सरकार से बेरोजगारी भत्ता भी नहीं मांगेंगे। मतलब देश को जीतने से बेसी फायदा किरकेट टीम के हारते रहने में है। आप ही सोचिए न, जीतने के बाद विश्लेषण की गुंजाइशे कितनी बचती है?
वैसे हारते रहने में फायदा तो भारतीय किरकेट टीम का भी है। का है कि लगातार हारते रहने से लोग किरकेट को भूल जाएंगे, जैसन हाकी को भूल गए हैं। ऐसन में किरकेटरों पर मानसिक दवाव कम होगा, जिससे ऊ बढ़िया परदरशन कर सकेंगे। अगर बढि़या नहीं खेल पाए, तभियो कोयो उनको जूता का माला तो नहिए पहनाएगा औरो नहिए उनके घर पर तोड़-फोड़ करेगा। खबर तो पढ़े ही होंगे, बेचारा गरीब पराणी मोहम्मद कैफ के घर पर लोग सब लाठी-डंडा लेकर पहुंच गए थे! आज तक कभियो धनराज पिल्लई के घर पर हाकी प्रेमियों के परदरशन की खबर सुने हैं आप? नहीं ना! तो फिर दुआ कीजिए, कुछ किरकेटिया जयचंद तो हमको मिल ही जाए!
आप कहिएगा कि हम एतना गुस्सा में काहे हूं, तो भइया हर चीज की एक ठो लिमिट होती है, लेकिन ई मुआ किरकेट है कि इसका कोयो लिमिटे नहीं है। का जनता, का नेता, सब हाथ धो के इसी के पीछे पड़ल रहता है। देश-दुनिया जाए भांड़ में, सबको चिंता बस किरकेट की है। दक्षिण अफरीका से दू ठो मैच का हार गए, ऐसन लग रहा है जैसे पूरे देश का सिर शरम से नीचे हो गया हो। सड़क से संसद तक हंगामा मचा है। विदर्भ के किसान भूखे मर रहे हैं, फांसी लगा रहे हैं, नेता औरो जनता सब को इसकी चिंता नहीं है, लेकिन देश दू ठो मैच हार गया, इसकी उन्हें घनघोर चिंता है। लोगों के भूखे मरने औरो किसानों के फांसी पर झूलने से पूरे विश्व में नाक कट रही है, उसकी चिंता कोयो नहीं कर रहा, लेकिन दस ठो किरकेट खेलने वाले देश में नाक कट गई, इसकी बहुते चिंता है।
हम तो कहते हैं कि भगवान की दया से ऐसने सब दिन हारती रहे अपनी टीम। इसी में भारतीय किरकेट का भला है औरो अपने देश का भी। का है कि अगर हम इसी तरह हारते रहे न, तो एक दिन जरूर ऐसन आएगा, जब लोग किरकेट के बारे में सोचना बंद कर देंगे। मतलब उन दूसरे 'दलित' खेलों को भी अपने देश में पैर फैलाने का मौका मिलेगा, जो 'सवर्ण' किरकेट के सामने बेमौत मर रहे हैं। अगर बच्चा सब तेंडुलकर औरो गंग्गुली बनने का सपना नहीं देखेगा, तो यकीन मानिए एक अरब का अपना देश ओलंपिकों में दो-तीन सौ पदक तो जीतिए लेगा। अब आप ही बताइए, किरकेट के ग्यारह ठो पिलयर के पीछे दिमाग खराब करना फायदेमंद है या फिर दो-तीन सौ एथलीटों के पीछे?
मैच हारते रहने का सबसे बड़का फायदा ई होगा कि देश के बेरोजगारों को कभियो बेरोजगारी नहीं अखरेगी। का है कि अपने देश के लोग सब घनघोर विश्लेषक किस्म के पराणी होते हैं औरो 'एक्सपर्ट कमेंट' देने में माहिर होते हैं। उनको कौनो मुद्दा दे दीजिए औरो फिर देखिए उनकी विश्लेषण क्षमता! किरकेट की ए बी सी डी ऊ भले न जानते हों, लेकिन किरकेट तो ऊ डॉन ब्रेडमैन तक को सिखा सकते हैं। ऐसन में अगर अपनी टीम हारती रहेगी, तो विश्लेषण बेसी होगा औरो विश्लेषण बेसी होगा, तो देश के बेरोजगार सब कभियो अपने को बेरोजगार महसूस नहीं करेंगे औरो सरकार से बेरोजगारी भत्ता भी नहीं मांगेंगे। मतलब देश को जीतने से बेसी फायदा किरकेट टीम के हारते रहने में है। आप ही सोचिए न, जीतने के बाद विश्लेषण की गुंजाइशे कितनी बचती है?
वैसे हारते रहने में फायदा तो भारतीय किरकेट टीम का भी है। का है कि लगातार हारते रहने से लोग किरकेट को भूल जाएंगे, जैसन हाकी को भूल गए हैं। ऐसन में किरकेटरों पर मानसिक दवाव कम होगा, जिससे ऊ बढ़िया परदरशन कर सकेंगे। अगर बढि़या नहीं खेल पाए, तभियो कोयो उनको जूता का माला तो नहिए पहनाएगा औरो नहिए उनके घर पर तोड़-फोड़ करेगा। खबर तो पढ़े ही होंगे, बेचारा गरीब पराणी मोहम्मद कैफ के घर पर लोग सब लाठी-डंडा लेकर पहुंच गए थे! आज तक कभियो धनराज पिल्लई के घर पर हाकी प्रेमियों के परदरशन की खबर सुने हैं आप? नहीं ना! तो फिर दुआ कीजिए, कुछ किरकेटिया जयचंद तो हमको मिल ही जाए!
Subscribe to:
Posts (Atom)