Thursday, August 31, 2006

ठेके पर पूरी दुनिया

जब हम स्कूल का सबक सही से नहीं निबटाते थे, तो हमरे गुरुजी कहते थे कि बचवा अपना काम ठेके पर निबटा के आया है। आज जब हम दुनिया के ई हालत देख रहा हूं, तो हमरे समझ में आने लगा है कि ठेका से उनका मतलब का होता था!

आप कहेंगे कि ई हम अचानके 'ठेका राग' काहे अलापने लगा हूं? तो बात ई है कि ठेका की दो ठो बड़की खबर हमरी नींद उड़ा रही है- पहली खबर है कि दिल्ली में डिमॉलिशन ठेका पर होगा औरो दूसरी खबर है कि अब बिहार में गुरु जी ठेके पर नियुक्त होंगे। यानी एक जगह लोगों का घर-द्वार ठेके के भरोसे है, तो दूसरी जगह देश का भविष्य। लेकिन ठेके का जो परिणाम दुनिया भर में हम देख रहा हूं, उससे तो हमरी हालत खराब हो रही है।

दुनिया के अमन-चैन की स्वघोषित ठेकेदारी अमेरिका के पास है। परिणाम देखिए कि पूरा विश्व अशांत है। हालत ई है कि कोतवाली करते-करते कोतवाल सनकी हो गया है। कहियो यहां बम फोड़ने की पलानिंग करता है, तो कहियो वहां। स्थिति उसकी खराब है औरो परेशान बेचारा एशियाई दिखने वाला लोग हो रहा है। सोचिए, अगर अमन-चैन की ठेकेदारी उसके पास नहीं होती, तो विश्व कितना अमन-चैन से रहता।

अमन-चैन से तो बीजेपी के नेता भी रहते, लेकिन दिक्कत ई है कि बीजेपी की ठेकेदारी संघ के पास है। परिणाम देखिए कि बीजेपी की सत्ता पूरे देश से जा रही है, तो लालकृष्ण आडवाणी जैसन नेता कुर्सी से।
दिल्ली में अवैध निरमाण को तोड़ने की ठेकेदारी पराइवेट हाथों में है, तो दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ का चुनाव खूबसूरती के ठेके पर है। हर फील्ड में इस विश्वविद्यालय के पढ़ल- लिखल धुरंधरों ने नाम कमाया है, चाहे ऊ नेतागिरी का खेल हो या फिर खेल का नेतागिरी। लेकिन अब आलम ई है कि यहां नेतागिरी खूबसूरती को ठेके पर दे दी गई है। अगर आपका (कृपया लड़की पढें) चेहरा हीरोइन जैसा है, तो छात्र संघ चुनाव लड़ने का टिकट पक्का। अब ई तो गहन जांच-पड़ताल करने वाली बात है कि नेता की खूबसूरती से कैंपस का सब परॉबलम कैसे दूर हो जाता है! हम तो कहते हैं कि अगर ई नुस्खा एतने कारगर है, तो देश की परधानमंतरी औरो राष्ट्रपतियो की कुर्सी खूबसूरती को ठेके पर दे देना चाहिए। का पता ऐश्वर्या भारत की सब समस्या चुटकी बजाते हल कर ले?

वैसे, ठेके से सबसे बुरी स्थिति तो खुदे भारत सरकार की है। सरकार कोयो निरणये नहीं ले पाती है या फिर ऐसन कहिए कि उसको ऐसा करने ही नहीं दिया जाता है। ऐसन तो ठेके व्यवस्था में संभव है न कि सरकार से बाहर का व्यक्ति सरकारी निरणय को प्रभावित करे। अब देखिए न, हर चीज को हैंडल दस जनपथे न करता है-- चाहे ऊ डीजल-पेटरोल की कीमत कम करने का मामला हो या फिर 'सूचना के अधिकार' कानून में परिवर्तन का। अब हमरे समझ में ई नहीं आ रहा कि मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने सरकार चलाने के लिए ठेका पर रखा है या फिर सोनिया जी के पास खुदे सरकार चलाने का ठेका है!

ठेके पर सरकार चलने का परिणाम ई है कि आजकल देश की सब समस्या कोर्ट हल कर रही है। फिर चाहे बात शहर की नालियों को साफ करवाने की हो या दिल्ली में अवैध निरमाण पर रोक लगवाने की। न, ई हम कहियो नहीं कहेंगे कि देश चलाने का काम कोर्ट को ठेके पर दे दिया गया है, काहे कि उसका काम एकदम टंच होता है।

चिंता तो हमको इस बात का है कि बिहार में चार हजार रुपैया पर ठेकाके गुरुजी सब अगर चेलबा सब को दो जोड़ दो चार पढ़ाने के बजाय पांच पढ़ाएंगे, तो उनका कोयो का बिगाड़ लेगा? ठेका का काम आखिर ठेके जैसे न होता है!

Thursday, August 24, 2006

शिक्षा मतलब चुनावी घुट्टी

अपने देश में एक ठो बड़की सरकारी संस्थान है, नाम है उसका एनसीईआरटी। वैसे तो इसका काम बच्चों को शिक्षा का घुट्टी पिलाना है, लेकिन असल में सरकार इसका उपयोग चुनावी घुट्टी पिलाने के लिए करती है। यानी एनसीईआरटी का यही मतलब है...नैशनल काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल (एजुकेशन नहीं) रिसर्च एंड टरेनिंग। तभिये न सरकार इसका उपयोग बच्चा सब के भविष्य सुधारने के बदले उसका ब्रेन वॉश करने में करती है।

इसकी चुनावी उपयोगिता देखिए कि सरकार बदलते ही अध्यक्ष से लेकर इसका सिलेबस तक बदल जाता है, इसमें राम-रहीम की परिभाषा बदल जाती है। एक सरकार के दौरान इसकी किताब में जिस महापुरुष को बड़का देशभक्त औरो सेक्युलर बताया जाता है, दूसरी सरकार के आते ही ऊ महापुरुष आतंकवादी औरो कम्युनल हो जाता है। इसकी किताबों पर रंग भी चढ़ता है - बीजेपी की सरकार में भगवा औरो कांगरेसी सरकार में लाल। अब ई तो रिसर्च वाली बात है कि कांगरेस में बुद्धिजीवी काहे नहीं पैदा होता है कि उसको लाल झंडे वालों से बुद्धि उधार लेनी पड़ती है।

खैर कुछ हो, इसकी किताबों का रंग बदलने से हमरे यहां ऐसन जेनरेशन पैदा हो रही है, जो पूरी तरह कन्फूज है। अभी एक ठो इस्कूल में गए थे। एक ठो बच्चा से पूछे - भगत सिंह का नाम जानते हो? उसने कहा - नाम तो सुना है। मैंने पूछा कौन थे? कहने लगा एक क्लास में पढ़ा था कि उ स्वतंत्रता सेनानी थे, लेकिन दूसरी में पढ़ा कि उन्होंने देश के लिए कुछो नहीं किया था। अब उस समय हम पैदा तो हुए नहीं थे, इसलिए सही-सही कुछो बता नहीं सकते आपको!

हमने दूसरे से पूछा - बाबरी मस्जिद का नाम सुने हो? उसने कहा, 'हां पहली क्लास में पढ़े थे कि उ एक ठो 'ढांचा' था, जिसको 'वीर राष्ट्र भक्तों' ने तोड़कर 'पुण्य' कमाया, लेकिन दूसरी क्लास में पढ़े कि उ एक ठो मस्जिद था, जिसको कुछ 'सिरफिरे कम्युनल' लोगों ने तोड़ दिया। अब हमसे ई मत पूछिएगा कि उसको 'शौर्य दिवस' कहते हैं कि 'काला दिवस', का है कि न तो हम बनाते समय उसके पास थे औरो न ही तोड़ते समय।

अब हमरे समझ में आने लगा था कि पूरा देश कन्फूज काहे है! दरअसल, बात जब चुनाव की हो तो सरकार के लिए कन्फूजन सबसे बढि़या चीज होती है। तभिये न नेता सब ने राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के मुद्दा पर टीवी चैनल वाले को कन्फूज कर दिया। अब उन नेताओं का कहना है कि जानते तो हम सब कुछ थे, लेकिन इसलिए उत्तर नहीं दिए कि हम सेक्युलर पार्टी से हैं औरो इसलिए अपने मुंह से 'वंदे मातरम्' नहीं निकाल सकते, जबकि जो नेता राष्ट्र गान 'जन, गण, मन...' को नहीं बता पाए थे, उनका कहना है कि जब तक उनकी पार्टी यह निरणय नहीं ले लेती है कि ई गीत राष्ट्र भक्ति का गीत है या अंगरेजों की चरण वंदना, तब तक उ ऐसन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देंगे।

अब जब ऊपर से नीचे तक एतना कन्फूजन हो, तो हमरे खयाल से एनसीईआरटी का फुल फॉर्म ऐसे समझा जाना चाहिए .. जब कांगरेसी सरकार हो, तो इसको पढि़ए नैशनल कांगरेस एंड कम्युनिस्ट काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल रिसर्च एंड टरेनिंग औरो जब बीजेपी की सरकार हो, तो पढि़ए नॉन कांगरेस एंड कम्युनिस्ट काउंसिल ऑफ इलेक्टोरल रिसर्च एंड टरेनिंग!!

Friday, August 18, 2006

डरने का फायदा!

स्वतंत्रता दिवस के दिन जब लाल किला से हमरे परधानमंतरी अपनी कमजोर आवाज में पाकिस्तान को सुधर जाने की 'कड़क' चेतावनी दे रहे थे, तब मारे डर के हम अपने घर में दुबके हुए थे। यहां तक कि हम तभियो बाहर नहीं निकले, जबकि पूरी दुनिया पतंग उड़ाने के लिए अपनी छतों पर चढ़ आई। का है कि सुबह में हमको बस में फिट बम का खतरा सताता रहा, तो दिन में पतंग में फिट बम का। कमबख्त बम नहीं हो गया, टैक्स हो गया- कहीं न कहीं से सिर पर गिरेगा ही!

खैर, चैन से हम बैठ नहीं पाए। मन ने कोसा, 'तुम जैसे 'नौजवान' पर ही तो देश को नाज है। कम से कम देश की खातिर को झंडा फहराने निकलो।' अभी साहस बांधकर हम घर से निकलबे किए थे कि पता चला डर के मारे परधानमंतरी जी अपनी 'शाही' बीएमडब्ल्यू कार छोड़कर 'टुच्चा' टाटा सफारी में झंडा फहराने लाल किला पहुंचे। फिर तो मत पूछिए, सारा साहस न जाने कहां घुस गया। आखिर जिस आदमी की सुरक्षा में पूरा फोर्स लगा हो, जब ऊ अपनी कार में चलने का साहस नहीं कर पाता, तो हमरे जैसन गरीब की औकात का है?

मैंने इस डर को निकलाने का एक रास्ता सोचा कि सरकार को नौजवानों को मिलिटरी टरेनिंग देनी चाहिए, इससे उनका डर कम हो जाएगा। लेकिन इससे हमको संतुष्टि नहीं मिली। अब देखिए न भारतीय किरकेटया टीम को। अभी श्रीलंका जाने से पहले पूरी टीम सेना के हवाले थी, ताकि उनमें कुछ साहस-वाहस आए। भज्जी से लेकर तेंडुलकर तक का पेपर में फौजी डरेस में बड़का-बड़का फोटुआ छपा, लेकिन का हुआ? २२ गज लंबा पीच के ई शेर सब एकदम कमजोर मेमना निकला! डर के मारे कोलंबो में १५ अगस्त पर तिरंगा फहराने एको ठो नहीं जा सका, जबकि होटल से भारतीय दूतावास मात्र सौ मीटर दूर है। अब आप ही बताइए ऐसन मिलिटरी टरेनिंग का कौनो फायदा है?

फिर हमरे मन में आया कि हर मोहल्ला में एक-एक ठो थाना खोल दिया जाए, तो लोगों का डर कम हो जाएगा। लेकिन इससे भी हमरे मन का डर दूर नहीं हुआ। का है कि डर के मारे खुदे दिल्ली पुलिस की हालत खस्ता हो रही है, तो उ दूसरे की सुरक्षा कैसी करेगी? आतंकियों के बम का डर उसको एतना सता रहा है कि आईटीओ वाले पुलिस हेडक्वॉर्टर के खिड़की तक को प्लाईवुड से आजकल सील किया जा रहा है।

खैर, एतना कुछ सोचते-सोचते हम लाल किला नहीं गए, लेकिन इसका घाटा परधानमंतरी को गया। का है कि डर के मारे में हम लाल किला उनका भाषण सुनने जा नहीं सके औरो बिजली कटौती के कारण टीवी पर उनका भाषण आया नहीं। भाषण नहीं सुनने से उनकी एको ठो 'स्वर्णिम' योजना की जानकारी हमको हो नहीं पाई औरो अब आगे हो भी नहीं पाएगी, काहे कि हमको पूरा विशवास है कि उनमें से एक ठो को लागू तो होना है नहीं। अब आप ही बताइए, अगले २६ जनवरी तक हम उनकी पार्टी को काहे भोट काहे देंगे?

लेकिन आप आश्चर्य करेंगे कि उन दिन आतंकवादियों से एतना डरने औरो बिजली के नहीं रहने के बावजूद हम अपने को भाग्यशाली समझता हूं। का है कि अगर हम डरते नहीं या फिर बिजली जाती नहीं, तो परधानमंतरी जी के भाषण से तनिये देर के लिए सही, हम उल्लू तो बन ही न जाते! अब तो झूठे आश्वासनों से हम सरपट बच गया हूं। जय हो बिजली महरानी की! जय हो आतंकवादी महराज की!!

Monday, August 14, 2006

आजादी बोले तो...

'मंगल पांडे' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और रिजेक्ट कर दिया। 'रंग दे बसंती' रिलीज हुई, लोगों ने देखा और सर आंखों पर बिठा लिया। पहली फिल्म देशभक्ति का नाम लेकर रिलीज हुई, लेकिन फ्लॉप रही, दूसरी फिल्म आम मसाला फिल्म कहकर रिलीज हुई और देशभक्ति पर आधारित फिल्म का दर्जा पा गई। सवाल है, आखिर क्यों मंगल पांडे जैसे प्रथम स्वतंत्रता सेनानी पर आधारित फिल्म को लोगों ने ठुकरा दिया, लेकिन एक साथी की मौत से नाराज कुछ दोस्तों के हथियार उठा लेने की कहानी का समर्थन किया?

वास्तव में इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल नहीं है। दरअसल, जहां देशों की सीमाएं दिनोंदिन कमजोर हो रही हों और लोग देश से ज्यादा ग्लोबल हलचलों या फिर आसपास के लोगों से प्रभावित हो रहे हों, वहां देशभक्ति का मतलब बदलना कोई बड़ी बात भी नहीं है। शायद यही वजह है कि बंदे मातरम् का नारा लगाने से ज्यादा जरूरी अब लोगों को यह लग रहा है कि वे प्रियदर्शनी मट्टू और जेसिका लाल के हत्यारे को सजा दिलाने के लिए जंतर-मंतर पर आवाज बुलंद करें। उन्हें यह महसूस होने लगा है कि उनकी आजादी को विदेशी शक्तियों से ज्यादा खतरा अपने समाज में मौजूद असामाजिक तत्त्वों से है और शायद यही वजह है कि वे जंग खा रहे सिस्टम से लड़ने वालों का समर्थन कर रहे हैं। फिर चाहे वह कोई फिल्मी नायक हो या जेसिका लाल का पिता।

वैसे, इसमें कोई शंका नहीं कि आज हम आम भारतीय जिन समस्याओं से गुजर रहे हैं, उनके लिए खुद हम भी कम दोषी नहीं हैं। अगर हमने पिछले छह दशकों में आजादी को सही अर्थों में लिया होता और उसका सही मूल्य समझा होता, तो शायद हम आज जिस स्टैंडर्ड की आजादी भोग रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा आजाद होते। अपनी आजादी के लिए अभी भी हम अधिकार तो ढूंढते हैं, लेकिन कर्त्तव्यों की परवाह नहीं करते और यही वजह है कि आखिरकार अधिकार भी धीरे-धीरे हमारे हाथों से जा रहा है।
क्या यह सच नहीं है कि हम सैद्धांतिक रूप से जितने आजाद हैं, प्रैक्टिकल में दिनोंदिन हमारी आजादी उतनी कम हो रही है? प्राइवेटाइजेशन के इस युग में हमारी परेशानियां चाहे जितनी घटी हों, लेकिन यह भी सच है कि हमारी तमाम तरह की दिक्कतें बढ़ रही हैं और इसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार भी हैं।
इसके लिए एक ही उदाहरण काफी है। कभी दिल्ली में बिजली देने का काम सरकारी विभाग का था। हम जनता में से ही कोई वहां अधिकारी था, तो कोई कर्मचारी और कोई उपभोक्ता। हम सब ने मिलकर उस विभाग का बेड़ा गर्क कर दिया। उपभोक्ता ने बिजली चोरी की, कांटा फंसाया, मीटर धीमा कराया और भी तमाम वे काम किए, जो गैरकानूनी हो सकते थे। अधिकारियों व कर्मचारियों ने भी इस खेल में खूब हाथ बंटाया और महलें खड़ी कीं। सबने वर्षों क्या, दशकों तक इस स्थिति का लाभ उठाया, लेकिन आज स्थिति क्या है? स्थिति यह है कि बिजली प्राइवेट हाथों में हैं और हमारे तमाम विरोधों के बावजूद इलेक्ट्रॉनिक मीटर हमारा खून जला रहा है। हम उस पर सुपरफास्ट होने का आरोप लगा रहे हैं, लेकिन सरकार भी इस स्थिति में नहीं है कि हमें उससे निजात दिला सके। उस पर तुर्रा यह कि बिजली भी हमेशा नहीं रहती। जिन लोगों ने कभी बिजली चोरी के पैसे से महल खड़े किए, वे आज बल्ब जलाने के लिए इन्वर्टर खरीद रहे हैं। जब तक बिजली सरकारी थी, गरीबों की बस्ती भी जगमगाती थी, लेकिन आज चोरी के नाम पर वहां रोज सोलह घंटे लाइट काट ली जाती है और कोई विरोध भी नहीं कर पाता!

जाहिर है, एक सरकारी विभाग को हमने ही बंद करवा दिया और प्रैक्टिकली आज हमारे पास इतनी भी आजादी नहीं है कि हम प्राइवेट बिजली कंपनियों के गलत कदमों का विरोध कर सके।

तो आज के दिन की मांग है कि हम अपने अधिकार के साथ अपने कर्त्तव्यों को भी देखें। शायद तभी हम अपनी आजादी को कायम भी रख पाएंगे।

Thursday, August 10, 2006

अथ श्री लंगोट कथा

अभी पटना वाले पोरफेसर साहेब मटुकनाथ बाबू की रास चरचा से हम निपटबो नहीं किए थे कि गवैया उदित बाबू पटना में दू ठो मेहरारू के बीच सैंडबिच बन गए। हमरे मित्र सब कहते हैं कि दोनों मामला ढीली लंगोटी का है। मतलब ढीले करेक्टर का है। एक की लंगोटी शिष्या के कारण ढीली हुई या ई कहिए कि शिष्या ने ढीली कर दी, तो दूसरे की एक ठो बिमान बाला ने। अब हम कन्फूजन में हूं कि इन सूरमाओं को हम ढीली लंगोटी वाला मानूं या कि मजबूत लंगोटी वाला। का है कि ऐसन पंगा दोए आदमी ले सकता है- एक तो उ, जिसकी लंगोटी एतना टाइट हो कि दुनिया लाख कोशिश कर ले, लेकिन खिसका नहीं पाए औरो दूसरा उ, जिसको लंगोटी खिसकने का डरे नहीं हो।

खैर, हम कन्फूजन दूर करने पहुंचे पोरफेसर साहेब के पास। छिड़ गई लंगोट चरचा। कहने लगे, 'काहे का लंगोट। हमको का नटवर बाबू समझते हैं कि गलत कामो करेंगे औरो लंगोट की भी चिंता करेंगे! हम तो उसको उसी दिन धारण करना छोड़ दिए, जिस दिन अपना दिल बीवी से हटकर जूली पर आ गया। वैसे, जहां तक कमजोर लंगोटी की बात है, तो ई तो उन पोरफेसरों का है, जो क्लास से लेकर पीएचडी तक में शिष्याओं को टॉप कराते रहते हैं औरो दुनिया को पते नहीं चलता। आपको का लगता है, ई 'परोपकार' मुफ्त में होता है। अरे, उ कमजोर लंगोटी के हैं, तब न कंबल ओढ़कर घी पीते हैं। इससे तो बेसी बढ़िया है कि हमरे जैसे लंगोट उतार के चलो, खिसकने का कोयो खतरे नहीं बचेगा!'

पोरफेसर साहेब ऐसे तन जाएंगे, इसका अंदाजा हमको नहीं था। का है कि लंगोट खिंचाई में पतरकार से कोयो जीत जाए, ऐसा होता नहीं है, लेकिन उनकी मजबूत लंगोट ने हमरी हालत पस्त कर दी। एतना पस्त कि हम गवैया बाबू की लंगोटी का हाल जानने लायक भी नहीं बचे। बचते-बचते हम रोड पर पहुंचे, तो पहलवानी लंगोट पहने नटवर बाबू देह को तेल पिला रहे थे। उनकी लंगोट देख हमने सोचा कि कुछ चरचा इन्हीं से कर लूं, लेकिन उ अपने ही धुन में थे। ताल ठोंकते बोले- किसकी लंगोट कमजोर है, ई तो हमको नहीं पता, लेकिन जिस कांगेस ने हमको इस लंगोट में रोड पर खड़ा किया है, उसकी लंगोट हम जरूर ढीली कर देंगे। हम मटुकनाथ थोड़े ही हैं कि लोग हमरे मुंह में कालिख पोत दे औरो हम कुछ नहीं कहें।

शूरवीरता वाला उनका बयान सुनकर हमको अपने जस्सो बाबू याद आ गए। का है कि उन्होंने भी किताब छापकर अपनी लंगोट मजबूत दिखाई थी, लेकिन अमेरिकी जासूस की बात पर सरदार जी ऐसन खंभ ठोककर खड़े हो गए कि दूए दिन में जस्सो बाबू की लंगोट खिसकने लगी। उ तो भला हो पाठक जी की रिपोर्ट और उसको लीक करने वालों की कि ऐन मौका पर जस्सो बाबू की लंगोट पर कांग्रेस की पकड़ ढीली पड़ गई, नहीं तो दूसरे मटुकनाथ तो वही होने वाले थे।

खैर, अब बारी इस लंगोट कथा के निष्कर्ष की। हमरे खयाल से अक्सर जो जेतना मजबूत लंगोट के दिखता है, ओतना होता नहीं। इसलिए अगली बार जब आपको कोयो अपनी मजबूत लंगोट दिखा के डराए, तो डरने से पहले एक बार उसको खींचने की कोशिश जरूर कीजिएगा। का पता, उनकी हालत भी जस्सो बाबू औरो नटवर बाबू जैसी हो!