Wednesday, December 12, 2007

बेगानी शादी में...

दुपहरिया तक गली में पूरा रोड घेरकर टेंट-शामियाना टंग गया था। आखिर माजरा का है, खिड़की से हमने नीचे देखा। ऐन नाक के नीचे घर के गेट पर टेंट-शामियाना देख हमरी बांछें खिल गईं-- आज तो दावत उड़ाने का मौका मिलबे करेगा। आंखों ने देखा, उन्हें बड़ी तृप्ति मिली, लेकिन जीभ को मजा नहीं आया- - का पता दिल्ली है, पड़ोसी भोज में बुलैबे न करे। दिमाग ने खबर पेट को भी पहुंचाई। वहां जठराग्नि ऐसी जली कि कई हजार चूहे एक साथ बगावत पर उतर आए!

अभी मुंह में पानी भरना शुरुए हुआ था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। एक थका-हारा इंसान गेट पर खड़ा था, परिचय से पता चला पड़ोसी महाराज हैं। निमंत्रण देने आए होंगे, ई सोचकर हमने कुछ बेसिए आवेश में उनको बिठाया। ऊ मुद्दे पर आए, 'हमरे यहां शादी है, पानी चाहिए। हमरा घर दूर है, आपके नल से कनेक्शन ले लूं।'

मन ने कहा, 'निमंत्रण तो दिए नहीं, मुंह उठाए पानी मांगने आ गए। पार्टी नहीं, तो पानी कैसन? मुफ्त में दिन भर मोटर चलाकर अपना पानी औरो बिजली बिल हम काहे बढ़ाएं?' फिर खयाल आया कि पानी लेंगे, तो निमंत्रण देबै करेंगे, लेकिन मन ने कहा, 'ऐसन इरादा होता तो कार्ड के संग आते।'

खैर, अपनी जेब पर कैंची चलती देख हमने पड़ोसी महोदय को टाला, 'मोटर खराब है। हम अपने दो दिन से पानी के लिए परेशान हूं।' पड़ोसी महोदय ने महसूस किया कि मैकेनिक बुलाने की व्यग्रता में उनकी जेब बढ़िया कटेगी। सो बेचारे खिसक लिए, लेकिन हमरे लिए स्थिति खराब कर गए। नीचे से जब हिंदुस्तानी मसालों की महक नाक में घुसनी शुरू हुई, तो पेट के चूहे तालिबानी हो गए। मेहरारू ने दिखाया, केतना बढिया गुलाब जामुन बना है, एकदम गरमागरम... पुलाव, हैदराबादी बिरयानी, बटर चिकन, गोलगप्पे का स्टॉल...।

सचमुच, खिड़की से टेंट के अंदर देखकर हमको कुछ-कुछ होने लगा था। हालत जब बेसी बिगड़ गई, तो हमने पिलान बनाया- चलो, होटल ही चलते हैं। तन-मन को शांति मिल जाएगी।

तैयार होकर नीचे उतरे, तो गेट पूरी तरह बंद। एक गेट शामियाने में अटकी थी, तो दूसरे पर कैटरिंग वालों ने बर्तन डाल रखे थे। स्पाइडरमैन बन हम तो पार हो जाते, लेकिन श्रीमती जी तो आजकल पिलेन रोड पर भी डगमग चलती हैं...।

अब का करें? पड़ोसी को कोसते वापस बालकनी में आ गए। मन पड़ोसी की इंसानियत को कोस रहा था-कमबखत ने जब निमंत्रणे नहीं दिया, तो हमरे सामने का रोड काहे जाम किया। रोड तो छोडि़ए, घर का गेट तक बंद! शादी उसके यहां है, हम काहे कष्ट सहें।

दिमाग बेसी गरम देख मेहरारू ने पानी डाला, 'बेटी तो समाज की होती है, तनिक कष्ट सहने में का जाता है? सबर कीजिए।'

हमने सबर कर लिया। हमने जली जीभ से उनकी डीजे की चीख तक सुनी औरो सह ली। शोर ने टीवी तक नहीं देखने दिया, तभियो दुखी नहीं हुए। जब तारे की छांव में लड़की विदा हुई, तब तक डीजे चीखता रहा औरो बिना नींद के भी हम सबर करते रहे। लेकिन तब हम बेसबर हो गए, जब चार बजे भोर में दिल्ली में भूकंप आ गया। ऊ तो कहिए कि हमरी खटिया बस डोलकर रह गई! भूकंप बेसी तगड़ा होता, तो हमरी जिंदगी की खाट खड़ी हो जाती। काहे कि पड़ोसी महोदय की किरपा से दोनों गेट तभियो जाम था। तभिये से सोच रहा हूं पड़ोसी धरम का मतलब का होता है?

Friday, December 07, 2007

बार बाला से किसकी मौज

दिल्ली के पियक्कड़ सब आजकल बहुते खुश हैं। अब बार में सुंदरी के हाथ से सुरा जो मिलेगी, मतलब नशा का डबल डोज न हो गया! हमको तो लगता है कि अब दिल्ली का कायाकल्प हो जाएगा।

सब कहता है कि इससे ला एंड आर्डर की स्थिति बिगड़ेगी, लेकिन हमको लगता है सुधर जाएगी। एक बार 'बार बाला' सब को काम पर पहुंचने दीजिए, फेर देखिएगा रोड पर कैसे मवालियों का अकाल हो जाता है। सब बांका रात भर मयखाने में रहेगा औरो दिन भर हैंगओवर में। आप छेड़ने की बात करते हैं! रोड पर लड़कियां तरस जाएंगी, कोई उनको देखने वाला नहीं मिलेगा। और बार में...? बाला सब उनको एतना टंच पिला देंगी कि उनसे गिलास नहीं संभलेगा, आप बंदूक-पेस्तौल चलाने की बात करते हैं। औरो ऐसने चलता रहा, तो एक दिन दिल्ली के सब बदमाश डैमेज लिवर औरो किडनी के साथ एम्स में भरती होकर इलाज के अभाव में मर जाएगा। पूछ लीजिए अपने रवि बाबू से, इसका इलाज केतना महंगा होता है। न हींग लगा न फिटकरी औरो रंग देखिए क्राइम कंट्रोल केतना चोखा हो गया... आप सरकार को बेकूफ समझते हैं। हां, कुछ भलो लोग मरेगा, लेकिन का कीजिएगा, कुछ पाने के लिए कुछ तो गंवाना ही पड़ता है।


आप बूझ नहीं रहे हैं कि एक तीर से केतना शिकार हो गया। अब सरकार का रेवेन्यू तो बढ़वे करेगा, ऐसन तथाकथित बुद्धिजीवियो सब निबट जाएगा, जिसको बिना पिये बौद्धिक बहस में मजे नहीं आता है या ई कह लीजिए कि जो पीने के बाद ही बुद्धिजीवी बन पाता है। होश में रहेगा, तब न सरकार की आलोचना करेगा। 'बार बाला' पिला के एतना टाइट कर देगी कि सरकार को गटर में फेंकते-फेंकते उ खुदे गटर के बगल में लुढ़क जाएगा।


सरकार की मौज तो औरो सब है, जैसे- लोग जब मयखाना में पैसा बहाएगा, तो अवैध निरमाण के लिए पैसे नहीं बचेगा, लोग कारो नहीं खरीद पाएगा। फिर सरकार को कोर्ट में अवैध निरमाण के वास्ते फजीहत नहीं झेलनी पड़ेगी। ऐसे में कोयो बच्चा को प्राइवेट स्कूल में नहीं भेज पाएगा? मतलब सब सरकारिये स्कूल में पढ़ेगा। सरकार कहेगी- देख लो प्रशासन, अवैध निर्माण खतम... शिक्षा का स्तर सुधार दिया, परदूषण औरो टरैफिक कंट्रोल हो गया। फायदा औरो सब है। हमर ऐगो दोस्त जब मुंबई के बियर बार में जाता था, तो बार डांसर को हजार रुपया टिप देते भी ऐसे शर्माता था, जैसे देना तो उसको दस हजार था, लेकिन चेकबुक घरे भूल आया। यही बात यहां भी होगी। विशवास कीजिए, जल्दिये दिल्लीवाला सब पांच रुपया को लेकर ऑटो वाला से हुज्जत करना छोड़ देगा। लोग का दिल बड़ा हो जाएगा।


वैसे, मौज तो बिना पट्टा के घूमे वाला उ जंतुओं सब का हो जाएगा। जब लोग सब पीके यहां-वहां लुढ़कल रहेगा, तो जंतु सब को 'टांग उठाने' के लिए हर चार कदम पर एगो खुला मुंह तो जरूरे मिल जाएगा। झूठे पूरे पार्क का चक्कर लगाना पड़ता है।


मौज 'बार बाला' औरो बार मालिको सब का है। पांच 'पटियाला' के बाद, गिलास में खाली सोडे गिरेगा, लेकिन दाम पूरा शराब के आएगा। मौज समाज का भी है। सामाजिक समरसता आ जाएगी। शराब के एतना नशा के सामने बाकी सब नशा लोग भूल जाएगा। मतलब अब निरीह लोग सब को सत्ता के नशा या पद औरो पैसा के नशा से घबराने की जरूरत नहीं होगी। ऐसन समाज की कल्पना तो प्लूटो और अरस्तूओं ने नहीं किया होगा!

Friday, November 30, 2007

एक हमहीं चिरकुट हैं भैय्या

आजकल दुनिया तानाशाहों से परेशान है। बुश से लेकर मुश तक औरो रामदास से लेकर बुद्धदेव दास तक, सब कहर ढा रहे हैं, लेकिन कोयो उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहा। मुशर्रफ ने अंतत: अपनी वरदी उतारिये दिया, लेकिन दुरभाग्य देखिए कि दुनिया उनका सिक्स पैक एब्स अभियो नहीं देख पाई है। हमरी दिली तमन्ना थी कि मुश का ऊ सिक्स पैक एब्स देखूं, जिनके बूते उसने कारिगल का सपना देखा था, लेकिन अफसोस कि देख नहीं पाया।

अब का है कि तानाशाह का मतलब तो ई न होता है कि मौका मिलते ही उसको सिंहासन पर से नीचे उतारिए औरो ऐसन ठोकिए कि फिर कोयो दूसरा तानाशाह पैदा न हो। लेकिन अफसोस कि मुशर्रफ के साथ ऐसन नहीं हुआ। उसने वरदी के नीचे में राष्ट्रपति का डरेस पहन लिया था। वरदी उतर गई, लेकिन शेरवानी अभियो देह पर कायम है।

मुशर्रफ ही नहीं, दुनिया में जेतना खूंखार तानाशाह होता है, सब मुशर्रफे जैसन डरपोक होता है औरो दस ठो कपड़ा पहनकर रहता है, ताकि एक-आध ठो उतरियो जाए, तो इज्जत कायम रहे। एक ठो बेचारा सद्दामे ऐसन अभागल थे कि नेस्तनाबूद हो गए, नहीं तो तानाशाह सब तो ऐसन होते हैं कि अपनी इज्जत बचाने के लिए लाखों की पैंट उतार देते हैं औरो साथ में सिर भी!

अपने रामदास भाई साहब को ही देख लीजिए। चमकती मूंछ की इज्जत न चल जाए, इसके लिए बेचारा सालों से एम्स डायरेक्टर के चमकते चांद को पूरै बंजर करने की कोशिश में लगे हुए थे औरो अंतत: मुशर्रफ जैसन ऊहो अपने मिशन में कामयाब होइए गए। आप ही बताइए, जिस स्वास्थ्य मंतरी पर सवा अरब लोगों के पेट खराब औरो बुखार ठीक कराने का भार हो, ऊ भला एक ठो हस्पताल के निदेशक से लड़ने में अपनी एनर्जी कैसे बरबाद कर सकता है?

का कहे, पेट खराब औरो बुखार ठीक कराने का भार? हां भैय्या, सरकारी हस्पतालों में इससे बड़ी बीमारी का इलाजे कहां होता है! एतना छोटकी बिमारियो का इलाज हो जाए, तो गनीमत मानिए। ऊ तो कहिए कि देश में झोला छाप 'घोड़ा डाक्टरों', हकीमों और तांतरिकों की संख्या एतना बेसी है कि ऊ बीमारी से निराश होने के बावजूदो किसी को जल्दी मरने नहीं देते। 'जो पुडि़या दे रहे हैं, ऊ लेते रहिए, जल्दिये ठीक हो जाइएगा' के आश्वासने पर ऊ लोगों को सालों जिलाए रखते हैं। नहीं तो, पराइवेट हस्पताल की तो हालत ई है कि फीस देखकर लाखों लोग रोज मर जाए!

अब जिस देश का ई हाल हो, वहां का स्वास्थ्य मंतरी अगर किसी विद्वान डाक्टर को अपने साथ मूंछ की लड़ाई में सालों व्यस्त रखे, तो उसको तानाशाहे न कहिएगा! औरो अति तो ई देखिए कि महज एक आदमी के अहं ने सरकार को 'बीच' का साबित कर दिया। नहीं तो, भला किसी संस्था के निदेशक को सबक सिखाने के लिए कहीं लोकसभा औरो राज्यसभा के बेजा इस्तेमाल की इजाजत मिलती है किसी मंतरी को?

लेकिन एतना सब के बावजूद अफसोस यही कि दुनिया मुशर्रफे जैसन भारतीय तानाशाहों का भी 'सिक्स पैक एब्स' नहीं देख पाएगी, काहे कि गठबंधन सरकार के इस युग में ब्लैक मेलर पार्टियां दैव समान होती हैं औरो सरकार उनका चरण चंपन करती है। तो भैय्या, हम जनता ही ऐसन चिरकुट हैं, जो इन तानाशाहों को झेलते रहते हैं। केतना बढि़या रहता, हमहूं नेता बन जाते!

Saturday, November 24, 2007

एकता बड़े काम की चीज

अनेकता में एकता भारत की विशेषता है, बचपन में गुरुजी ने इस पर बहुते लेख लिखवाया था। हालांकि अकल आने पर ऐसन लगा जैसे गुरुजी को देशभक्ति से मतलब कम था, ऊ अपने सरकारी होने का ऋण बेसी उतार रहे थे। हम अभियो तक ऐसने सोच रखते थे, लेकिन भगवान भला करे बंगाल सरकार का, जिसने हमरी सोच बदल कर रख दी। अब हमको फिर से अनेकता में एकता दिखने लगी है।

दरअसल, 'सेक्युलर' बंगाल सरकार ने जब से तसलीमा नसरीन को 'कम्यूनल' राजस्थान सरकार के संरक्षण में भेजा है, हम सोच में पड़ गया हूं। हमरे समझ में ई नहीं आ रहा रहा कि कॉमरेडों ने संघियों पर एतना विश्वास करना कब से शुरू कर दिया कि उसके भरोसे तसलीमा नसरीन को छोड़ दिया! ई तो भाजपाई सरकार को सेक्युलर होने का परमाण पत्र देने जैसी बात है, यानी अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसन बात! मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जिस महिला को आप सालों से सुरक्षा-संरक्षा देते आ रहे हैं, एके झटका में आप उससे पल्ला कैसे झाड़ सकते हैं?

हमने यही बात अपने कामरेड मित्र से पूछी। ऊ बोलने लगे, 'मत जाइए, सेक्युलर औरो कम्युनल जैसन बात पर। ई सब तुच्छ बात है। असल बात तो ई है कि हमरे इस कदम से अनेकता में एकता को बढ़ावा मिला है। जो हमरे राज्य के लिए समस्या है, ऊ अगर दूसरे राज्य के लिए समस्या नहीं है, तो ऐसन आदान-परदान तो चलते रहना चाहिए। अब देखिए कि दिल्ली के उत्पाती बंदरों को मध्य परदेश जैसन राज्य सब अपने यहां शरण दे रहा है कि नहीं?'

हमने कहा कि बात तो आपकी ठीक है, लेकिन आप इहो तो देखिए कि इससे दिल्ली में बंदरों की संख्या कम नहीं हो रही है! जेतना बंदर दूसरे राज्य में भेजा जाता है, उससे बेसी यहां पैदा हो जाता है या कहीं से आ जाता है। ई ग्लोबल विलेज है, न तो आप किसी को पैदा होने से रोक सकते हैं औरो न ही किसी को अपने राज्य आने से। तो काहे नहीं आप भी दिल्ली की मुखमंतरी जैसन फैल जाते हैं? ऊ पतरकारों से कहती हैं कि बंदरों का हमरे पास कौनो इलाज नहीं है, आपके पास है, तो बताइए? अब आप ही बताइए, जनता का पैसा खाकर अगर ऊ कुछो नहीं सोच सकतीं, तो पतरकार लोग अपना खाकर केतना सोचेंगे?

तो बेहतर ई रहेगा कि आप भी खुलेआम कह दीजिए कि ई झूठो-मूठो के मानवाधिकार औरो व्यक्तिगत स्वतंत्रता में कुछो नहीं रखा है, जैसने दूसरी पारटी है, वैसने हम भी हूं। सब समस्या ही खतम हो जाएगी। देश का आदमी आपसे संरक्षण मांगने नहीं आएगा, तसलीमा जैसन विदेशी को कौन पूछे!
ऊ बोले, आप बात तो ठीक कह रहे हैं, लेकिन दिक्कत ई है कि लोकतंत्र में सीधे हाथ से घी नहीं निकलता। अगर हमहूं यही कहूंगा कि हम कांगरेस या भाजपाई जैसन हूं, तो हमको वोट के देगा? आप ई तो देखिए कि भाजपाई कांगरेस व हमरे द्वारा पैदा की गई समस्या पर राजनीति करते हैं औरो हम भाजपाई व कांगरेस द्वारा पैदा की गई समस्याओं पर! अब जब हम राजनीति में जमने के लिए एक दूसरे को एतना मदद करते हैं, तो अपनी समस्या राजस्थान के हवाले नहीं कर सकते?

सचमुच अपने देश में अनेकता में एकता है!

Wednesday, November 14, 2007

गर नाम नहीं, नंबरों से मिले पहचान

नाम बिना किसी का काम नहीं चलता। यही वजह है कि लोग अपने बच्चों से लेकर डॉगी और यहां तक कि गाय-भैंस को भी एक नाम देते हैं। ऐसे में क्या यह संभव है कि अपने देश में लोगों को नाम के बजाय नंबरों से पहचान जाए? दरअसल, एक मोबाइल सर्विस प्रवाइडर कंपनी के एक विज्ञापन में दिखाया जाता है कि दो जातियों के झगड़े के बाद सरपंच फैसला करता है कि नाम की वजह से समाज में वैमनस्यता बढ़ती है, इसलिए गांव में अब सब अपने-अपने मोबाइल नंबरों से जाना जाएगा। यानी जिसका जो मोबाइल नंबर होगा, उसका नाम भी वही होगा। हालांकि विज्ञापन में इस आइडिया को हिट करार दिया जाता है, लेकिन प्रैक्टिकल लाइफ में भी यह आइडिया क्या उतना ही हिट हो सकता है? अधिकतर लोगों की राय में यह नामुमकिन है।

दरअसल, तमाम लोगों का मानना है कि भारत में नाम समस्या पैदा नहीं करता, समस्या की जड़ टाइटल है, जो यह शो करता है कि कोई किस कास्ट का है। जाति के खांचे में बंटे हिंदू और मुस्लिम दोनों में टाइटल ही सब कुछ है। समाजशास्त्री गीता दुबे कहती हैं, 'दरअसल, देश में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था पर चोट कर उसे ढहा देना इतना आसान भी नहीं है। दलित, मुस्लिम और ईसाइयों की समाज में मौजूदगी इस बात की तस्दीक करती है कि भारत में धर्म बदलने से लोगों की सामाजिक हैसियत में बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। ठीक उसी तरह जिस तरह चुटकुले का छेदी लाल अपने नाम से परेशान होकर ईसाई धर्म तो स्वीकार कर लेता है, लेकिन वहां भी 'मिस्टर होल' ही नाम पाता है। ऐसे में संभव है कि लोगों के पास नंबर के बाद अपने टाइटल लगाने की भी मजबूरी हो, मसलन 9888888888 सिंह या 9888888888 मिश्रा या 9888888888 पासवान।'

जाहिर है, अगर देश में ऐसा कानून भी बन जाए कि हर व्यक्ति अपने मोबाइल नंबर से पहचाना जाएगा, तो भी बहुत ज्यादा फर्क नहीं आने वाला। ऐसे में संभव है कि समाज के लोग इस बात पर अड़ जाएं कि अगड़े की पहचान एक खास सीरीज के नंबर से ही होगी, तो दलित की पहचान एक अलग खास सीरीज के नंबरों से। ब्राह्माणों की जिद रहेगी कि उन्हें एक खास सीरीज का ही नंबर चाहिए, तो क्षत्रिय अपने लिए कोई फड़कता हुआ सीरीज ही चाहेंगे। इसी तरह दलित एकता की जिद एक ही सीरीज के लिए हो सकती है, तो यादवों की जिद एक खास अलग सीरीज के लिए। जाहिर है, ऐसे में न सिर्फ जाति की पहचान छिपाना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि ईजी सीरीज के नंबर पाने के लिए भी जातीय झगड़े खूब होंगे। आखिरकार जातीय पहचान अभी भी अपने देश में तमाम लोगों के लिए गर्व की बात तो है ही।

फिर सबसे बड़ा खतरा तो दिल्ली विधानसभा के पूर्व ठेकेदार अशोक मल्होत्रा जैसे लोगों से होगा, जो फैंसी नंबर पाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कितने की भी बोली लगा सकते हैं। हालांकि इसमें सबसे अधिक बल्ले-बल्ले मोबाइल प्रवाइडर कंपनियों की होगी। अभी अगर एक फैंसी नंबर के एवज में उन्हें लाखों रुपये मिल रहे हैं, तो ऐसी व्यवस्था लागू होने के बाद ऐसे नंबरों के लिए उन्हें करोड़ों मिलेंगे।

पब्लिक रिलेशंस के काम से जुड़े सुनील सिंह एक और बड़ी समस्या की तरफ ध्यान खींचते हैं। वह कहते हैं, 'बड़े बिजनेसमैन, लीडर या मार्केटिंग से जुड़े लोग एक से ज्यादा मोबाइल फोन रखते हैं। इनमें से एक नंबर ऐसा होता है, जिसकी जानकारी सिर्फ नजदीकी लोगों को होती है, जबकि दूसरे नंबर्स बाकियों के लिए होते हैं। जाहिर है, ऐसे में एक ही लोग के दस नाम होंगे। कोई उसे 9810 वाले सीरीज के नाम से बुलाएगा, तो कोई 9811 सीरीज वाले नाम से। संभव है किसी के लिए उसका नाम 9868 सीरीज वाला हो। फिर ऐसा भी होगा कि मोबाइल कनेक्शन बदलने पर एयरटेल रखने वाले बंदे का नाम वोडाफोन की सीरीज में बदल जाएगा और वोडाफोन का आइडिया में। जाहिर है, यह बेहद फनी सिचुएशन क्रिएट करेगा।'

फिर ऐसा भी संभव है कि किसी राज्य में राजनीति बदलने के साथ ही करोड़ों लोगों के नाम बदल दिए जाएं। उसी तरह, जिस तरह कि मुलायम सिंह यादव द्वारा अपने जाति के लोगों को पुलिस बल में भर्ती कराने के मुद्दे पर मायावती ने हजारों पुलिसवालों की नौकरी छीन ली। जरा कल्पना कीजिए कि अगर मुलायम ने स्वजातीय वोट पाने के लिए अपने जाति को कोई फैंसी सीरीज के नंबर वाले नाम अलॉट कर दिए, तो मुलायम के सत्ता से हटने के बाद उन करोड़ों लोगों के नाम का क्या होगा? संभव है कि मायावती सत्ता में आते ही मुलायम के निर्णय को पलटकर दलितों को फैंसी नंबर की सीरीज अलॉट कर दें और 9800 सीरीज वाले समुदाय का नाम बदलकर 9808 वाले सीरीज का हो जाए।

मुलायम और मायावती ही क्यों, जाति के नाम पर राजनीति करने वाली देश की तमाम क्षेत्रीय पार्टियां ऐसा कर सकती हैं। पता चला कि वोक्कालिंगा समुदाय की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी ने सत्ता संभालते ही कर्नाटक में लिंगायत समुदाय के सभी वीवीआईपी सीरीज छिनकर अपने समुदाय के लोगों को दे दिए और अगली बार जब लिंगायत समुदाय की नुमाइंदगी वाली सरकार बनी, तो उसने भी बदला ले लिया और वीवीआईपी सीरीज वाले लोगों के नाम बदल गए। अब ऐसे में तो बदलते रहिए साल दर साल नाम, जितनी बार सरकार गिरेगी-बनेगी, उतनी बार लोगों के नाम बदल जाएंगे। संभव है, इस तरह साम्प्रदायिक झगड़े भी बढ़े। अपने को सेक्युलर साबित करने के लिए तमाम ऊटपटांग हरकतें करने वाली राजनीतिक पार्टियां तब इस बात के लिए अड़ सकती हैं या फिर आंदोलन कर सकती हैं कि अल्पसंख्यकों को ऐसे नंबर वाले नाम दिए जाएं, जिससे उनकी पुख्ता राष्ट्रीय पहचान बन सके । जाहिर है, इससे देश का भला होने वाला नहीं है।

बहरहाल, निष्कर्ष यही है कि बात घूम-फिरकर अगर फिर से वहीं पहुंच जाए, जहां से शुरू हुई थी, तो ऐसी किसी कसरत का क्या फायदा!

Saturday, November 03, 2007

पावर से लैस बनाम पावरलेस

ऐसे तो दुनिया में हर चीज की अपनी-अपनी महिमा है, लेकिन जेतना महिमा पावर में है, ओतना किसी में नहीं। अपने देश के नेताओं और विद्वानों ने अपने वोट बैंक औरो दिमाग के हिसाब से चाहे समाज को जेतना टुकड़ा में बांट रखा हो, लेकिन हमरे खयाल से समाज में दूए तरह के लोग हैं- एक ऊ जो पावर से लैस हैं औरो दूसरा ऊ जो पावरलेस हैं।

पावर से लैस लोग जब चाहे, तब अपनी जिंदगी में उजाला बिखेर लेते हैं, लेकिन पावरलेस लोगों के लिए दिन भी राते जैसन होता है-- एकदम काला काला। पावर से लैस लोग जब चाहे, तब खबरों में छा सकते हैं-- चोरी करते पकड़ा गए तभियो, चोर को पकड़ लाए तभियो, लेकिन पावरलेस लोग चोर बनने पर ही खबरों में आते हैं, चोर पकड़ने पर कभियो नहीं। अगर पावरलेस लोगों ने चोर को पकड़कर रगड़ दिया, तो हल्ला मच जाता है--कानून को हाथ में ले लिया... कानून का शासन खतम कर दिया। यानी अगर आप पावरलेस हैं, तो लुट जाना आपका कर्त्तव्य है। पावरलेस आदमियों को चोरों से खुद को बचाने का कौनो राइट नहीं होता। तभियो नहीं, जबकि मरल पुलिस व्यवस्था का अघोषित नारा है 'अपने सामान की रक्षा स्वयं करे'। मतलब साफ है, जो पावर से लैस हैं, ऊ कमिशन खाकर चोरों को चोरी करने देते हैं औरो जो पावरलेस हैं, ऊ घूस देकर भी चोरी की रिपोर्ट नहीं लिखवा पाते!

हालांकि मिसिर जी का कहना है कि पावरलेस आदमी भगवान के भरोसे सुरक्षित रहता है, तो पावर से लैस आदमी अपने द्वारा तैयार किए गए भस्मासुरों के भरोसे। यानी पावर से लैस आदमी तभिये तक सुरक्षित है, जब तक कि उनके द्वारा तैयार भस्मासुर ने उस पर हाथ रखकर भसम नहीं कर डाला। वैसने जैसन अमेरिका तभिये तक सुरक्षित था, जब तक कि उसके अन्न औरो हथियार पर पले तालिबानों ने उसी पर हमला नहीं बोल दिया। तालिबानों ने जैसने उसके सिर पर हाथ रखा, ऊ असुरिक्षत हो गया! पता नहीं आपको का लगता है, लेकिन हमको मिसिर जी के बात में बहुते दम नजर आता है, काहे कि कुछ ऐसने दिल्लियो में हो रहा है।

दिल्ली में 'बिजली मीटर का रीडिंग लेना है' के बहाने घर में घुसकर चोरों ने हजारों लोगों को दिनदहाड़े लूट लिया, उनकी कहीं कौनो सुनवाई नहीं हुई। लेकिन एक दिन जैसने बिजली कंपनी के करमचारी के नाम एक आदमी दिल्ली के बिजली मंतरी के घर घुसा, मंतरी जी की हालत खराब हो गई। अब सरकार ने ऐसन आदमियों को घरों में घुसने से रोकने के लिए बिजली कंपनी से कहा है कि ऊ करमचारियों को आई कार्ड दे। ऐसन में आप भी शायद यही कहेंगे- काश! कि ऊ भला मानस बिजली मंतरी के घर में दू-चार साल पहले घुसा होता, दिल्ली में बहुतों लोग दिन-दहाड़े लुटने से बच गए होते। तो ई है, पावरलेस औरो पावर से लैस लोगों में अंतर।

ऐसने दिल्ली में बंदर बारहो महीना आतंक फैलाते हैं, लेकिन सरकार कुछो नहीं करती। सुप्रीम कोर्ट कड़ा आदेश देता है, तभियो नहीं। बंदर बकोटते रहे लोगों को, एमसीडी को का मतलब! हां, बंदर पकड़ने औरो भगाने के नाम एमसीडी लाखों का बिल हर महीने बनाती जरूर है। ऐसन में एमसीडी के इस पाले-पोसे 'तालिबानों' ने एक दिन हद ही कर दी। वे भस्मासुर बन गए औरो एक ठो पार्षद जी को छत पर से ऐसन गिराया कि ऊ खुदा के प्यारे हो गए। बस आ गई इन मूढ़मति बंदरों की शामत, अब एमसीडी वाले बंदरों को दिल्ली क्या, पृथ्वी पर से खदेड़ देने की कसम खा रहे हैं। मतलब एक पावर से लैस आदमी की मौत ने ऊ कमाल कर दिया, जो हजारों पावरलेस आदमियो की मौत नहीं कर सकी! ई है पावर!

Saturday, October 27, 2007

पति-पत्नी की मोटी लड़ाई

हम मिसिर जी के यहां पहुंचे, तो ऊ अपनी मेहरारू के साथ एक ठो इंटरनैशनल मुद्दे पर थेथड़ोलॉजी में बिजी थे। मुद्दा वही 'महिला बनाम पुरुष' टाइप सदियों पुरानी बहस और थेथड़ोलॉजी इसलिए काहे कि ऐसन बहस का न सिर होता है, न पूंछ। खैर, तो जल्दिये ऊ लोग इस बात का पोस्टमार्टम करने लगे कि आखिर दिल्ली में पतियों की तुलना में पत्नियां ज्यादा मोटी काहे होती हैं?

मिसिर जी का कहना था कि चूंकि महिलाएं टेनशन देने में विश्वास करती हैं, लेने में नहीं, इसलिए वे ज्यादा तंदुरुस्त होती हैं औरो बेचारा पति नामक जीव चूंकि पत्नी का सबसे करीबी 'दुश्मन' होता है, इसलिए पत्नियां सबसे बेसी टेनशन इसी जीव को देती हैं। यही वजह है कि टेंशन ले-ले कर बेचारे पति सब दिन 'सिंकिया पहलवान' ही बनल रहते हैं औरो टेंशन देकर मिलने वाले आनंद से प्रफुल्लित पत्नियां 'भूगोल सुंदरी' बन जाती हैं।

मिसिर जी की बात सुनकर उनकी मेहरारू तैश में आ गईं। बोलने लगीं, 'ई तो आपका फालतू का तर्क है। सच बात तो ई है कि घर-गिरहस्थी में फंसाकर पुरुषों ने महिलाओं को बरबाद कर दिया है। महिलाएं इसलिए मोटी नहीं होती हैं कि ऊ पतियों को टेनशन देकर अपना खून बढ़ाती हैं, बल्कि मोटी इसलिए होती हैं, काहे कि चूल्हे-चौके में फंसकर उनके पास एतना टाइमे नहीं होता कि ऊ अपने पर ध्यान दें। अगर हम पतली होने के लिए सवेरे हवाखोरी करने चले जाएं, तो आप सोचिए कि बिना चाय के आपकी सुबह केतना खराब होगी? टेंशन तो आप लोग देते हैं महिलाओं को, तभियो पता नहीं मोटे काहे नहीं होते हैं!'

हमने सोचा मामला अब रफादफा हो जाएगा, लेकिन मिसिर जी के तरकश में तीर की कमी नहीं थी। उन्होंने दूसरा तीर चलाया, 'देखिए, घर की मालकिन तो यही हैं। ऐसन में ऑफिस जाने के बाद हम ई देखने थोड़े आता हूं कि हमरे परोक्ष में दिन भर इन्होंने का खाया-पीया। का पता, हमको दही-चूड़ा खिलाकर ऑफिस विदा करने के बाद दूध की सब ठो मलाई यही खा लेती होंगी! आखिर मकान देखने से ही न पता चल जाता है कि उसमें किस क्वालिटी का बालू- सीमेंट लगा है। आप ही बताइए, हमरे अंजर-पंजर को देखकर कोयो कह सकता है कि वर्षों से हमने पौष्टिक खाना खाया हो? औरो इनको देखिए... सब यही कहता है कि खाते-पीते घर की महिला है! जब ई खाते-पीते घर की महिला है, तो इसी घर में रहकर हम चिड़ीमार काहे बना हुआ हूं?'

उनको शांत करने के लिए हमने भी तीर चलाया, 'मिसिर जी, लेकिन ई केवल दिल्ली की कहानी होगी, काहे कि इंटरनैशनल लेवल पर हुए एक ठो सर्वे का तो कहना है कि महिलाओं से बेसी पुरुष मोटापे के शिकार होते हैं...।'

मिसिर जी ने हमको रोका, 'बेसी नारीवादी मत बनिए। आप ऐसे ही छोटे शरीर के मालिक हैं, बढ़िएगा नहीं तो कभियो बुढ़ैबो नहीं करिएगा। ऐसे में अगर बीवी मोटी हो गईं, तो आते-जाते मोहल्ले में सब कहेंगे-- देखो मां-बेटा जा रहे हैं...।'

अब हम समझ गए थे मिसिर जी का दर्द कहां था। बीवी मोटी हुई, उसका गम कम था, असली टिस तो ई थी कि लोग मिसराइन के साथ उनकी जोड़ी को भी मां-बेटे की जोड़ी कहते थे!

Saturday, October 20, 2007

रावण का इंटरभ्यू

दिल्ली में आजकल रावणों की संख्या अचानक से बढ़ गई है। जी हां, चोर-उचक्के , गिरहकट, लंपट औरो बलात्कारी जैसन कलियुगी जिंदा रावण तो पहिले से यहां बहुत थे, आजकल त्रेतायुगीन रावण के पुतले की भी भरमार है। तो हुआ ई कि हमरी संपादक जी ने कहा कि दशहरा के मौके पर रावण का इंटरभ्यू लेकर आओ। खैर, हमको बेसी खोजना नहीं पड़ा, बगल वाले पार्क में ही ऊ मूंछ पर हाथ फेरते दिख गए। हमने इंटरभ्यू की बात कही, तो ऊ नेता जी जैसन खुश हो गए औरो दे डाला एक धांसू इंटरभ्यू। लीजिए, आप भी पढि़ए :

'दिल्ली में आपकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है...।'

'बात ई है कि लोगों में फरस्टेशन बढ़ गया है। दिल्ली में चोर-उचक्कों औरो हत्यारों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन लोग उनका कुछो बिगाड़ नहीं पा रहे हैं। ऐसे में हमरा पुतला फूंककर ऊ अपना फरस्टेशन निकालते हैं। इससे उनको सुकून मिलता है। अब जैसे-जैसे उनका फरस्टेशन बढ़ रहा है, हमरे पुतलों की संख्या भी ऊ बढ़ाते जा रहे हैं। फिर हुआ इहो है कि जेतना चोर-उचक्का सब था, सब नेता बन गया है। हमरा पुतला फूंककर ऊ सब जनता को समझाना चाहते हैं कि ऊ पापी तो हैं, लेकिन रावण जितना नहीं। खैर, हमरी तो तभियो मौज है-- राम लीला देखने कोयो नहीं जाता, लेकिन रावण दहन देखने लोग सपरिवार आते हैं।

'आपके पुतलों की ऊंचाइयो बढ़ती जा रही है?'

'अरे, नहीं नहीं... ई कहिए कि जेतना ऊंचा होना चाहिए, हो नहीं पा रहा। बात ई है कि हमरा पुतला फूंकने का सबसे बेसी आयोजन बेईमानी-शैतानी से पैसा कमाने वाले सब ही करते हैं औरो बेईमानों के लिए इस बार सीजन तनिये ठंडा है। लोन महंगा हो गया, इसलिए लोग घर नहीं ले पा रहे। ऐसे में बिल्डर औरो परोपरटी डीलर पैसा नहीं बना पा रहे, तो कोर्ट के रवैये से ब्लूलाइन वालों की कमाई कम हो गई है, इसलिए पुतलों के लिए चंदा जुटाना 'रावण फूंको' समितियों के लिए मोश्किल हो गया है। उम्मीद रखिए, जैसे-जैसे बेईमानी, शैतानी औरो घूसखोरी बढ़ती जाएगी, हमरे पुतले की ऊंचाइयो बढ़ती जाएगी। यानी कलियुगी रावणों को जेतना सरकारी समरथन मिलेगा, ऊ पब्लिक को जेतना नोंच-खसोट पाएंगे, इस त्रेतायुगी रावण की ऊंचाईयो ओतने बढ़ेगी।'

'भारत सरकार का मानना है कि राम कभियो थे ही नहीं। जब राम नहीं थे, तब आप कहां से आ गए?'
'राम ठीके नहीं थे। जिंदा रहते हुए तो हमने खुदे राम के अस्तित्व को कभियो नहीं माना। अब का है कि हर वह व्यक्ति, जिसमें रावण-तत्व होता है, राम के अस्तित्व को चुनौती देता है औरो मरने के बाद अंतत: राम का अस्तित्व मानने लगता है, जैसा कि हमने किया। हमही नहीं, भाजपाई भी ऐसने करते हैं, जब तक सत्ता हाथ में रही राम मंदिर के बारे में कुछो सोचबे नहीं किया, जैसने सत्ता हाथ से गई कि फिर से उनका राम-राम शुरू हो गया! ऐसन में हम तो कांगरेसियों को बुद्धिमान मानता हूं कि समय रहते इसने राम के अस्तित्व को मान लिया, वरना...।'

'लेकिन करुणानिधि का भी तो ऐसने मानना है?'

'यार, तुम मीडिया वाला सब भी न एक नंबर के बेकूफ होते हो। अब तुम्ही बताओ, जिस व्यक्ति ने मारन जैसन योग्य आदमी को केंद्रीय मंत्रीमंडल से हटवाकर एक घोषित अपराधी की बीवी को केंद्र में मंत्री बना दिया, उससे अगर तुम राम के अस्तित्व बारे में सारटिफिकेट लेने जाओगे, तो ऐसने सारटिफिकेट मिलेगा न!'

'अपनी छवि सुधारने के लिए आप कुछो करते काहे नहीं हैं?'

'छवि सुधारकर करूंगा का? इस दुनिया में इस छवि के साथ जीना बेसी आसान है, चाहे त्रेतायुग हो या सतयुग! बदमाश होने का मतलब है कि कोयो आपसे भिड़ने अइबे नहीं करेगा, बस करते रहिए सज्जनों पर राज। अपराधियों को वैसे भी इस दुनिया में बेसी पब्लिसिटी मिलती है, देख लो हर चैनल पर कराइम शो चलता है, इंसानियत पर शो चलते कभियो देखा है!

रावण जी से इंटरभ्यू के बाद हमको तो सत्य का घनघोर ज्ञान हो गया, पता नहीं आपको पढ़ने के बाद कुछो हुआ है कि नहीं!

Tuesday, October 16, 2007

बाबा बनने का गुर

उस दिन रमेश जी आए। बहुते हड़बड़ी में थे। बोलने लगे, 'किसी से हमको दस करोड़ टका कर्जा दिला दीजिए, दो साल में हम उसको बीस करोड़ लौटा दूंगा...।'

हमने कहा, 'अरे, असली बतवा तो बताइए? एतना टका शेयर बाजार में लगाइएगा का? हमरी मानिए, अभी ऐसन रिस्क मत लीजिए, शेयर बजार जल्दिये डूबने वाला है। वित्त मंतरी तक कह रहे हैं कि अभी इन्भेस्टमेंट में खतरा है।'

ऊ बोले, 'आप बेकारे नरभसिया रहे हैं। भैय्या, शेयर बाजार में पैसा लगाना के चाहता है? हम तो बाबा बनना चाहता हूं, पैसवा उसी के लिए चाहिए।'

हमने कहा, 'का बात कर रहे हैं! साधु-संत बनना कौनो दुकानदारी थोड़े है कि उसे शुरू करने के लिए पूंजी चाहिए। लोग तो माया-मोह से पिंड छुड़ाने के लिए साधु-संत बनते हैं औरो आप हैं कि साधु बनने के लिए पूंजी...!'

रमेश जी उखड़ गए, उनको लगा जैसे हम उनकी बात बूझने की कोशिशे नहीं कर रहा हूं। ऊ चूड़ा-सत्तू लेकर बैठ गए कि जब तक हम समझूंगा नहीं, ऊ उठेंगे नहीं। बोले, 'देखिए, मुफ्त में आजकल बाबा बनना बहुते मुश्किल है। बढ़िया बाबा बनने के लिए दस करोड़ तो चाहिए ही। दो-तीन करोड़ हमको इसलिए चाहिए, ताकि हम एक ठो फाइवस्टार आश्रम बना सकूं औरो कुछ 'दिखने वाला' सामाजिक काज कर सकूं। बाकी जो सात-आठ करोड़ टका बचेगा, उसको पब्लिसिटी में लगाऊंगा... बड़का नेता, अभिनेता औरो वैज्ञानिकों को खरीदूंगा, जो ई ढिंढोरा पीटेंगे कि आध्यात्मिक सुख तो बस श्री श्री 1008 रमेशानंद जी महाराज के चरणों में ही है। इनकी चरणों में आकर आप ऊ सब पा सकते हैं, जो जिंदगी में आपको चाहिए। आप ही सोचिए न, अगर सुनीता विलियम्स हमरे आसरम में आकर केवल ई कह दे कि हमरे आसरम जैसन सुख उनको अंतरिक्षो में जाकर नहीं मिला था, तो हमरी कैसन धाक जम जाएगी। ऐसने पैसा लेकर दंतमंजन का परचार करने वाले अमिताभ बच्चन को भी हम सेट कर सकता हूं। अगर ऊ मंजन बेच सकते हैं, तो ई काहे नहीं कह सकते कि स्वामी रमेशानंद जी महाराज देवता हैं।'

उनका आइडिया हमको पसंद तो आया, लेकिन हमरे समझ में ई नहीं आया कि अब तक बाबाओं और सत्संग के विरोधी रहे रमेश जी सत्संग में परवचन कैसे देंगे! औरो जब परवचने नहीं देंगे, तो लोगों में उनकी धाक जमेगी कैसे!

रमेश जी ने हमको ऐसे देखा, जैसे हमरी बुद्धि पर उनको तरस आ रही हो। हमको घूरते हुए बोले, 'बीस साल से यहां हम घास थोड़े खोद रहा हूं! आजकल तो भगवान को भी ई साबित करने के लिए मीडिया की जरूरत पड़ती है कि ऊ भगवान हैं। परवचन से बचने के लिए हम मीडिया को सेट करूंगा, एक ठो पी आर एजेंसी रखूंगा। ऊ परोपगंडा करेगा कि रमेशानंद जी महाराज साल में बस एके दिन बोलते हैं औरो ऊहो कान में। मतलब चेला सब को परवचन देने से तो छुट्टी मिलिए जाएगी, साल के उस एक दिन की कमाई भी करोड़ों में हो जाएगी, जिस दिन हम बोलने वाला रहूंगा। भाड़ा पर स्क्रिप्ट लिखने वाला आदमी रखूंगा औरो उसका लिखा परवचन अपनी आवाज में टेप कर साल भर सत्संग में बजाऊंगा। हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा होए।'

खैर, रमेश जी बाबा बन अपनी दुकान चला पाएंगे कि नहीं, ई तो हमको नहीं पता, लेकिन आइडिया उनका टंच है। तो अगर आप चाहते हैं कि दू साल में आपकी रकम दूनी हो जाए, तो रमेश जी में इन्भेस्ट कर सकते हैं।

Monday, October 08, 2007

बस ईमानदारों को न दिखे घूस

भरष्टाचार करना जेतना आसान है, उसको छिपाना ओतने मुश्किल। कमबखत कहीं न कहीं से दिखिए जाता है। घूस कमाते वक्त भले ही आप दुनिया को पता नहीं चलने दीजिए, लेकिन जेब में पहुंचते ही ई दुनिया को दिखने लगता है। अब का कीजिएगा, पैसे का गरमी होबे एतना तेज करता है कि बलबलाकर जेब से बाहर आ जाता है औरो पूरी दुनिया जान जाती है कि बंदा घूस कमाकर धन्ना सेठ बन गया है।

वैसे, किसने अपना जेब केतना गरम किया, इसका पता तभिये चलता है, जब कौनो व्यवस्था ताश के पत्ता जैसन भरभरा के गिर जाए। मसलन, जब एम्स के डाक्टरों को डेंगू हो जाए, सरकारी डाक्टर अपना इलाज पराइवेट नर्सिन्ग होम में कराए, परोफेसर का बेटा मैट्रिक फेल हो जाए, नई सड़क में गड्ढा हो जाए... तभिये पता चलता है कि घूस किस-किस ने खाया।

दिक्कत ई है कि घूस खाने वाला व्यवस्था पर ऐसन रंग-टीप करता है कि भरष्टाचार का पोल जल्दी खुलबे नहीं करता। औरो जब तक पोल खुलता है, बंदा या तो आलीशान बाथरूम बना चुका होता है या फिर सारा पैसा खाकर बाथरूम गंदा कर चुका होता है। बाथरूम से याद आया, तनिये दिन पहले जो यूपी के पूर्व मुख्य सचिव गिरफ्तार हुए हैं, उनके बाथरूम में सोने का नलका लगा हुआ है।

अभिये हमरी इस मुख्य सचिव साहेब से मुलाकात हुई, तो घूसखोरों की एक ठो बड़की व्यथा का हमको पता चला। हमने उनसे पूछा कि ऐसना घूस कमैइबे काहे किए कि दुनिया थू-थू कर रही है आप पर? ऊ तनिये ठो शरमाए, लेकिन फिर अपने सरकारी संस्कार पर आ गए। बोले, 'के कहता है कि घूस कमाना गलत है? पूरी दुनिया भरष्टाचार के बूते चल रही है। अगर भरष्टाचार बंद हो जाए, तो जेट की स्पीड से भाग रही आज की दुनिया, कल्हे से रेंगने लगेगी। सच बताऊं, तो भरष्टाचार खराब नहीं है, इसका दिख जाना खराब है। जब तक भरष्टाचार नहीं दिखता, कौनो सीबीआई पकड़ने नहीं आता किसी को, न ही पब्लिक हल्ला करती है, कमबखत भरष्टाचार का दिख जाना ही सब गड़बड़ कर देता है।'

हमने पूछा, 'तो आप ई चाहते हैं कि जैसे घूस नहीं दिखता है, वैसने उससे खरीदी हुई चीजो किसी को नजर नहीं आए! घूसखोर घूस के पैसे से बंगला खरीदे, किसी को नजरे नहीं आए..., ऊ बड़ी-सी लिमोजिन खरीदे, लेकिन किसी को दिखाइए नहीं पड़े..., बीवी के देह पर चालीस किलो सोना लदा है, किसी को दिखाइए नहीं पड़ रहा है... बेटा इंग्लैंड में पढ़ रहा है, पड़ोसी तक को पते नहीं है... घर में लाखों-करोड़ों का समान अंटा पड़ा है, लोगों को दिखबे नहीं कर रहा है... घूसखोर ने बड़का फार्म हाउस खरीदा, किसी को नजरे नहीं आया...।'

बात खतम होती, इससे पहले ही सचिव महोदय ने हमको रोक लिया। बोले, 'आप भी न गजबे वाला बात करते हैं। अरे, जब घूस से खरीदा सामान, कार या घर दिखबे नहीं करेगा, तो लोग का पागल हुआ है कि घूस लेगा? लोग तो घुसहा इसलिए बनते हैं, ताकि जिंदगी मौज से कटे, उसकी रईसी देखकर पड़ोसियों औरो संबंधियों का दिल जले! अगर अय्याशी औरो समृद्धि दिखबे नहीं करेगा, तो लोग घूस कमैइबे काहे करेगा? हम तो बस ई चाहता हूं कि घूस सबको दिखे, हो बस एतना कि घूस उनको न दिखे, जो सरकारी नौकरी में ईमानदारी की कसम खा लेते हैं औरो घूसखोरों को पकड़ने उसके घर चले आते हैं!'

Tuesday, October 02, 2007

कहां है गांधीगीरी?

' लगे रहो मुन्ना भाई' को रिलीज हुए साल भर से ज्यादा हो गया। यानी गांधीगीरी ने इस दुनिया में एक साल पूरा कर लिया। जब यह फिल्म रिलीज हुई थी, तो माना जा रहा था कि गांधी एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठेंगे, लेकिन क्या ऐसा हकीकत में हुआ? अगर हम इस एक साल का आकलन करने बैठें, तो निष्कर्ष है, शायद नहीं। सच तो यह है कि यह फिल्म गांधी के सिद्धांतों के लिए लिटमस टेस्ट साबित हुई। यानी, जो यह जानना चाहते थे कि गांधीजी के सिद्धांत आज कितने प्रासंगिक हैं, उन्हें इसका आधा-अधूरा उत्तर तो मिल ही गया है।

दरअसल, सवाल यह है भी नहीं कि गांधीजी आज के समय में कितने प्रासंगिक हैं। असल सवाल यह है कि क्या आज की दुनिया में गांधी के सिद्धांतों पर चला जा सकता है? अगर इस एक साल का अनुभव देखें, तो इसका उत्तर है, नहीं। 'लगे रहो मुन्ना भाई' की रिलीज के बाद सबसे पहले यूपी के एक व्यक्ति ने 'गांधीगीरी' को अपनाया। उसने सबके सामने अपने कपड़े उतारकर उस सरकारी मुलाजिम को थमा दिए, जो उससे घूस मांग रहा था। मीडिया विस्फोट के इस युग में बात मिनटों में दुनिया भर में फैल गई। सबको लगा कि गांधी युग वाकई वापस आ रहा है, लेकिन बात यहीं आकर रुक गई। उस व्यक्ति का क्या हुआ, यह कोई नहीं जानता। मीडिया रिपोर्ट बस यह कहती है कि उस व्यक्ति की गांधीगीरी से सन्न सरकारी अधिकारियों ने तत्काल तो उसे सम्मान दिया, लेकिन बाद में मीडिया को यह भी सलाह दे डाली कि अगर इसी तरह होता रहा, तो सरकारी ऑफिस एक दिन में बंद हो जाएंगे, क्योंकि हर जायज-नाजायज कामों के लिए लोग गांधीगीरी कर मीडिया में सुर्खियां तो बटोर सकते हैं, लेकिन अपना भला नहीं कर सकते। यह परोक्ष रूप से एक धमकी थी और इसी से समझा जा सकता है कि गांधीगीरी करने वाले उस व्यक्ति का हश्र क्या हुआ होगा!

जाहिर है, इसी एक घटना ने साबित कर दिया कि गांधीगीरी की राह आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए सिस्टम को बदलना होगा और दुर्भाग्य यह है कि आज के घुन लगे सिस्टम को गांधीगीरी से बदलना असंभव है। उसके लिए तो बस गांधी के विशुद्ध सिद्धांत चाहिए। हकीकत तो यह है कि मुन्ना भाई की यह 'गांधीगीरी' गांधी के असल सिद्धांतों से बेहद हल्की है और अपनी फिल्म की तरह यह बस कुछ लोगों को पब्लिसिटी भर दिला सकने में सक्षम है, उससे ज्यादा कुछ नहीं।

हालांकि, इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि 60 सालों से गांधी जी के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाते आ रहे लोगों ने उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया। गांधी के नाम पर किसी ने अपनी राजनीति चमकाई, तो किसी ने अपनी आजीविका का साधन जुटाया और बदले में एक तरह से उनका नाम खर्च कर डाला। अगर गांधी को अपना आदर्श मानने वाला एक व्यक्ति भी उनके सिद्धांतों के प्रचार-प्रसार के लिए आगे आता, तो आज देश को छिछली गांधीगीरी की जरूरत महसूस ही नहीं होती और न ही गांधीजी को प्रासंगिक बनाने के लिए किसी फिल्म की।

वास्तव में आज जरूरत गांधीगिरी की नहीं, विशुद्ध गाँधीवाद की है और ऐसे लोगों की है, जो इस पर चलने के लिए दूसरों में साहस पैदा कर सकें!

Monday, October 01, 2007

किरकेटिया कप की अज़ब कहानी


देश की किरकेटिया टीम ने 20-20 वाला विश्वकप का जीता, पूरे देश उसके पीछे पगलाए पड़ा है। राज्य सरकारें खिलाड़ियों को ईनाम ऐसे बांट रही है, जैसे खिलाड़ियों ने विश्व का सब देश जीत के उनकी चरणों में रख दिया हो। खैर, जाने दीजिए, ई सब तो आप लोग भी जानते होंगे। यहां तो हम आपको कुछ ऐसन बात बताना चाहता हूं, जो आप जानबे नहीं करते होंगे।

जैसे कि आप ई नहीं जानते होंगे कि 20-20 विश्व कप खेलने जाने से पहिले अपने किरकेटिया खिलाडि़यों ने अपने परिवारों को कुछ महीने के लिए शहर छोड़कर जाने के लिए कह दिया था, ताकि अगर ऊ बांग्लादेश की टीम से हारकर विश्व कप से बाहर हो जाए, तो देश में गुस्साई भीड़ उनके मां-बाप का टांग न तोड़ सके। पिछले विश्व कप में हार के बाद रांची के लोगों ने धोनी के घर का दीवारे ढहा दिया था, डर के मारे इस बार उसके भाई ने साधु जैसन दाढ़ी बढ़ा लिया, ताकि कोयो पहचान नहीं पाए। जब भारत विश्व कप जीत गया, बेचारे ने तभिये जाकर बेचारे ने दाढ़ी बनाई।

आप इहो नहीं जानते होंगे कि दिल्ली के उस थाने का कमरा अभियो खालिए है, जिसको सहवाग ने साउथ अफरीका जाने से पहिले अपने लिए बुक कराया था। का कहे, थाना बुक! अरे भैय्या, पिछले विश्व कप में हारने के बाद दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे सहवाग को अगर पुलिस अपने साथ सीधे थाने नहीं ले जाती, तो आज आपको बेचारे की चांद पर बचा-खुचा केश भी देखने को नहीं मिलता! ऊ तो कहिए कि देश जीत गया औरो सहवाग को थाने जाने की नौबत हीं नहीं आई।

सबसे बुरी स्थिति तो जोगिंदर शर्मा के पिता की रही। धोनी ने अंतिम ओवर उनके बेटे को गेंद सौंपकर उनको फंसाइए दिया था। जैसने जोगिंदर की गेंद पर मिस्बा उल हक ने छक्का मारा, बेचारे जोगिंदर के पिताजी ने अपना पान दुकान बंद कर फुट लेना ही बेहतर समझा। एतना रिस्की खेल खेलने के लिए बेटे को गरियाते हुए अभी ऊ गली से छुप- छुपकर भागिये रहे थे कि श्रीशंत ने मिस्बा का कैच पकड़ लिया औरो जोगिंदर के बापू बरबाद होते-होते बच गए।

खैर, ई तो कहानी रही बरबाद होने से बच जाने वालों की, अब आप सुनिए कहानी बरबाद होने वालों की। विश्व कप जीतकर कमबखत धोनी की टीम ने जिंदा हो रहे हॉकी को फिर से आईसीयू में भरती करा दिया। बस ई समझ लीजिए कि ओंठ तक आते-आते जाम छलक गया। 'चक दे इंडिया' देखकर कल तक जो बचवा लोग हॉकी खेलने लगे थे, अब तक 'कपूत' धोनी को 'सपूत' बनता देख ऊ फिर से किरकेट खेलने लगे हैं। हॉकी स्टिक अब उनका बैट बन गया है औरो ऊ दनादन किरकेट खेल रहे हैं।

बरबाद तो बेचारे चैनल वालों की मेहनत भी हुई। अब का है कि बेचारों ने मान लिया था कि भारत कभियो जीतिए नहीं सकता, इसलिए पतरकारों ने टीम को गरियाने के लिए चुन-चुनकर गालियों को स्क्रिप्ट में पिरोया था, लेकिन कमबखत टीम ने कप जीतकर उनकी मेहनत को पूरे मिट्टी में मिलाय दिया।

वैसे पिलानिंग तो हमरी भी भारतीय टीम को गरियाने की ही थी, लेकिन उसकी जीत ने सब गड़बड़ कर दी. लेकिन भडास निकालने के लिए कुछो तो लिखना ही था सो ई लिख मारा. अब आप इसको झेलिये औरों निंदा पुराण मे महारथी सच्चे भार्तिये होने का सबूत दीजिये.

Monday, September 17, 2007

राम सेतु की पंचायत में अम्मा

कुल की नैया डूबती देख आखिरकार अम्मा को मैदान में डैमेज कंटरोल के लिए कूदना ही पड़ा। ऐसे तो ऊ हर समय अपने बिगड़ैल बच्चा सब का कान उमेठते रहती हैं, लेकिन बचवा सब है कि सुधरने का नाम ही नहीं लेते। अम्मा एक झगड़ा निबटाती नहीं कि बचवा सब दूसरे झगड़ा में उनको घसीट लेता है। अभिए तो उन्होंने परमाणु मुद्दे पर किसी तरह सेथ-मेथ कर तलाक को टाला था कि बचवा सब राम का अस्तित्व ही मिट्टी में मिलाने पर तुल गए औरो उनको मैदान में कूदना पड़ा।

अम्मा का मानना है कि वामपंथियों को छेड़ना अलग बात है औरो बजरंगियों को छेड़ना अलग, लेकिन बचवा सब है कि समझने को तैयारे नहीं है। खैर, अम्मा पंचों के सामने पेश हुई हैं औरो डैमेज कंटरोल कर रही हैं, आखिर 'पापी' वोट का सवाल है -

पंच: आपका कुल राम को नहीं मानता?
अम्मा: नहीं हुजूर, ऐसा नहीं है। अब का है माई-बाप कि बचवा सब नादान हैं, अभी राजनीति सीखिए रहे हैं, इसलिए गलती हो गई। अब आप ही देखिए न, अगर इनको देश चलाना आता, तो सरकार हमरे इशारे पर काहे नाचती? परधानमंतरी डमी काहे होता?

पंच: तो आप उनको राजनीति सिखाती काहे नहीं हैं?
अम्मा: हुजूर, ऐसा है कि अगर वे राजनीति सीख लेंगे, तो हमरी तो मिट्टी पलीद हो जाएगी। फिर ऊ राजनीति सीख कर करेंगे का? अपने भरोसे चुनाव जीत नहीं सकते। अगर गांधी टाइटिल का नेता नहीं हो, तो हमरी पारटी को कोयो वोटो नहीं देता!

पंच: तो इसके लिए गुनाहगार के है?
अम्मा: हुजूर, दिक्कत ई है कि हमरे परिवार में पढ़ने-लिखने की परंपरा नहीं है, सब बस खानदानी नेता होते हैं, इसलिए 'बौद्धिक संगठनों' को चलाने का हम ठेकेदारी दे देते हैं। आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भी ठेका पर ही है। हमरे परिवार के राज में सब दिन इसकी ठेकेदारी उन लोगों के पास रही है, जिनसे हमरा अभी-अभी हनीमून खतम हुआ है, लेकिन तलाक बाकी है। परमाणु मुद्दे पर खिसियाए इन्हीं मार्क्स व लेनिन के भक्तों ने हमको फंसा दिया हुजूर।

पंच: तो आप ई कहना चाहती हैं कि आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बेकार संस्था है?
अम्मा: भगवान झूठ न बुलवाए हुजूर, लेकिन आप ही बताइए, आज तक जिस संस्था ने ढंग का देश का एक इतिहास नहीं ढूंढा, ऊ भला राम के अस्तित्व के बारे में कहां से कुछ बोलेगा?

पंच: तो ऊ ढूंढता काहे नहीं? आप तो रिमोट से देश चलाती हैं, आप ही कुछो कीजिए?
अम्मा: हुजूर, ऐसा है कि अपने देश का सरकारी विभाग तो सामने का चीज नहीं देख पाता, भला त्रेता युग के बारे में कहां से पता करेगा? उसके लिए जमीन खोदना होगा, सागर छानना होगा, लंका जाना होगा... अब अगर एतना ही मेहनत करना हो, तो लोग सरकारी नौकरी काहे करेगा? फिर हम नई चीजों को ढूंढते ही कहां हैं? देखिए न, रिलायंस रोज एक ठो तेल औरो गैस का कुआं खोज लेता है देश में, लेकिन सरकारी कंपनियां साठ साल में दसो ठो नहीं ढूंढ पाईं!

पंच: खैर, सजा के भुगतेगा?
अम्मा: हुजूर, भाजपाइयों के बात पर मत जाइए, उन्हीं लोगों ने राम जी वाले पुल पर पेट्रोल डाला था, हम तो बस बारूद ले के बगल से गुजर रहे थे कि आग लग गई! दंड तो उन्हीं को मिलना चाहिए।

खैर, पंचायत खतम हो गई. फैसले के लिए अभी गुजरात इलेक्शन तक इन्तजार करना होगा.

Saturday, September 08, 2007

चैनल वाले बाबा

मिसिर जी ने टीवी देखकर अपनी मेहरारू को बुलाया। चैनलों पर सरौते वाले बाबा का आशरम दिखाया जा रहा था। चप्पलों का ढेर, घायलों की लाइन, लोगों का हुजूम... मिसिर जी ने मेहरारू को 'कल तक' चैनल दिखाया। वहां का अल्टरा-मॉड एंकर चीख-चीख कर इस कांड के लिए मध्य परदेश सरकार को कोस रहा था। ऊ वहां के एसपी से पूछ रहा था कि बाबा पर आईपीसी का कौन-कौन धारा लग सकता है कि ऊ जेल में सड़ जाए।

एंकर की बात सुन मिसिर जी का मन भन्ना गया, 'सबसे पहले तो तुम्ही पर आईपीसी की सब धारा लगा दी जानी चाहिए कि चैनल बंद हो जाए। पांच दिन पहले तुम्ही तो अपने चैनल पर सरौते वाले बाबा का गुणगान कर रहे थे, अब घडियाल जैसे रो क्यों रहे हो?' मिसिर जी का तो मन कर रहा था कि टीवी से खींच कर झुठ्ठे एंकर को पटक दे, लेकिन हकीकत में ऐसा ऊ ऐसा कर नहीं सकते थे, सो मन मसोस कर रह गए।

एंकर से फारिग हो मिसिर जी ने मेहरारू की खबर ली, 'देख लीजिए नजारा... पूरी दुनिया के हस्पताल के डाकडर मर गए, जो आप इलाज के लिए इस बाबा से अपनी आंख में सरौता डलवाना चाहती थीं। हम तो पहले ही कह रहे थे न कि ई चैनल वाले लोगों को बरगलाते हैं... बाबाओं से इनकी सेटिंग है...।'

ई कहते-कहते मिसिर जी ने रिमोट दबाकर चैनल आगे बढ़ाया। अब टीवी पर 'जी-वन टीवी' चैनल चल रहा था। एक मोटा-सा थुलथुल रिपोर्टर नदी किनारे बने श्मशान में एक बाबा के चरण छू रहा था। मेहरारू ने मिसिर जी को टोका, 'देखिए, देखिए... कैसे इत्ते बड़े चैनल का पतरकार बाबा के चरण धोकर पी रहा है औरो आप कहते हैं कि बाबा ढोंगी है।' मिसिर जी देगी मिरिच जैसन लाल हो गए, 'उसको चैनल का मालिक बाबाओं के चरण धोकर पीने के लिए ही तनखा देता है, तो ऊ पीएगा ही।' मिसिर जी अभी भी रुके नहीं थे, 'मिसराइन जैसन लोगों को मूरख बनाने के लिए पता नहीं चैनल वालों को का का करना पड़ता है... बेचारे चैनल वाले!'

अभी मिसिर जी की बात समाप्त भी नहीं हुई थी कि उनका बड़का बेटा आ गया, 'पापा पापा... हम संजय दत्त वाली माता जी का मंदिर देखने कब जाएंगे? मम्मी कह रही थीं कि उसके बाद हम लोग अमिताभ बच्चन वाले भगवान जी के मंदिर भी देखने जाएंगे।'

बेटे का गप्प सुनकर मिसिर जी ने अपना माथा पकड़ लिया। अब वह सुपुत्र के कोड वर्ड को डीकोड कर रहे थे, 'संजय दत्त वाली माता जी का मंदिर... मतलब वैष्णो देवी का मंदिर औरो अमिताभ बच्चन वाले भगवान के मंदिर... मतलब सिद्धि विनायक मंदिर, बालाजी मंदिर, अक्षरधाम मंदिर, काशी विश्वनाथ मंदिर...।'

मिसिर जी का सिर दुखने लगा था। उन्हें भगवान पर तरस आने लगा, 'अमिताभ बच्चन वाले भगवान का मंदिर... संजय दत्त वाली माता जी का मंदिर... बताइए ई है चैनल की माया। इन चैनल वालों की किरपा से भगवानो की औकात कम हो गई। वैष्णो देवी की अपनी ख्याति कम थी कि संजय दत्त उनका बरांड एम्बेसेडर बन गया औरो मेरा छोटुआ उनको संजय दत्त की माता जी बता रहा है...।'

मिसिर जीं का मन कर रहा था कि उ टीवी को फोड़ दे लेकिन उ रुक गए. आख़िर जिस चीज ने भगवान की औकात कम कर दी ओरो बाबाओं की बढ़ा दी उससे भला कोयो कैसे पंगा ले सकता है!

Saturday, August 25, 2007

बेदिमाग मुरगा

बस इसी सर्टिफिकेट की जरूरत थी। जो बात अपने देश के नेताओं से हर कोयो कहना चाहता है, लेकिन कहकर भी सुना नहीं पाता है, ऊ बात रोनेन बाबू ने डंके की चोट पर कह दी। औरो आश्चर्य की बात तो ई है कि नेताओं ने न सिर्फ उनका कमेंट सुना, बल्कि समझियो लिया। अब उनकी मोटी खाल में रोनेन की बात घुसी कैसे, बस यही पता लगाने वाली बात है!

हालांकि रोनेन ने बेदिमाग नहीं, बेसिर मुरगे की बात की थी, जो हलाल होते ही फुट भर उछलने लगता है। लेकिन भारतीय नेताओं की तरह हमहूं इस बात से सहमत हूं कि रोनेन ने घुमा-फिरकर एक ही बात कहने की कोशिश की थी कि हमरे नेता सब बेदिमाग हैं।

वैसे, हमरे खयाल से रोनेन का ई बयान नेताओं के लिए काम्प्लीमेंट है। रोनेन तो यह कहना चाह रहे थे कि ये भारतीय नेताओं की ही कूबत है कि वे बिना दिमागो के देश चला रहे हैं, वरना तो विदेशों में दिमाग वाला भी देश नहीं चला पाता! रोनेन कुछो माने, लेकिन हम तो यही मानते हैं कि अपने यहां दिमाग होना, कौनो मुसीबत से कम नहीं! आपके पास दिमाग है, तो आप एबनारमल हैं। सच तो ई है कि अगर आपके पास दिमाग है, तो आप यहां नेता बनिए नहीं सकते, काहे कि दिमाग होने का मतलब है कि आप सही-गलत में फरक समझने लगिएगा। औरो जहां ई फरक आप समझने लगे कि गई आपकी भैंसिया पानी में। नेतागिरी का शटर तो बंद हुआ ही समझिए।

अब का है कि भाई-भतीजावाद औरो भरष्टाचार को परमोट करने से मना कीजिएगा, तो लोग आपको वोट नहीं देंगे। अगर घूस के रूप में घर आती लक्ष्मी को न कहने का साहस कीजिएगा, तो घर की लक्ष्मी के सामने खड़े होने का साहस नहीं कर पाइएगा। अपने देश के लिए भगवान बनिएगा, तो बेटा-बेटी के लिए शैतान से कम नहीं होइएगा। आपके 'भगवान' बनने का मतलब है कि जिंदगी भर उनकी आत्माएं छोटी-छोटी चीजों के लिए अतृप्त ही रह जाएंगी। 'भगवान' बनने वाले को तो अपने देश में घर के लोग तक वोट नहीं देते, बाकी को कौन पूछे! औरो जब वोट मिलेगा ही नहीं, तो नेता बनिएगा कैसे? तो हमरे खयाल से बेदिमाग मुरगा बनने में ही फैदा है।

वैसे, सूत्र तो कहते हैं कि हमरे विदेश मंतरी जी का इस विषय में कुछो और ही मानना है। उनका कहना है कि रोनेन बाबू निर्दोष हैं। जिस तरह से हम भगवान की विशेषता गिनाने के लिए उनको चार भुजाओं वाले, पांच मुखवाले... कहते हैं, उसी तरह रोनेन बाबू ने नेताओं की स्तुति गान में उनको 'बिना सिर का...' कहा होगा। इसीलिए हे नेताओं, रोनेन की भावनाओं को समझो, गुस्साओ मत!

Monday, August 20, 2007

अंगरेज चले गए, नए अंगरेज दे गए

15 अगस्त बीत गया, देश ने आजादी का 60वां हैपी बर्थ डे मना लिया, लेकिन हम अभियो इसी गुणा-भाग में लगा हुआ हूं कि देश वास्तव में केतना आजाद हुआ है! हमरा निष्कर्ष ई है कि अजगर अंगरेज 60 साल पहले देश से चला गया, लेकिन उसकी पूंछ अभियो देश में शान से लहरा रही है।

अंगरेजियत औरो अंगरेजी के प्रति हमरी अटूट श्रद्धा 60 साल बादौ गायब नहीं हो रही, तो आज के 'भारतीय अंगरेज' तब के असली अंगरेज से बेसी खूंखार हैं। अंगरेज का लूटा बिरटेन चला जाता था, इसलिए दिखता नहीं था औरो इसीलिए दुख नहीं होता था। लेकिन इन भारतीय अंगरेजों का लूटा भारत में ही रह जाता है, इसलिए सबको दिखता है औरो दिल को दुख पहुंचाता है। ये 'भारतीय अंगरेज' इंडिया में रहते हैं औरो भारत से इनकी दूरी दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है।

अंगरेज दुनिया लूटते रहे औरो भारतीयों को बैट-बॉल थमा गए। पूरा देश अभियो इस खेल की बंधुआ मजदूरी कर रहा है, काहे कि गुलाम पैर किरकेटिया पिच के अलावा औरो किसी खेल में दौड़िए नहीं पाता। गुलामी के दौर में साहब बन जाने के बाद ही भारतीय किरकेट खेलते थे, लेकिन आज लोग किरकेट खेलकर साहब बन जाते हैं। किरकेटिया गुलामी खून में ऐसन है कि यहां हर बच्चा गावस्कर, तेंदुलकर बनने के सपने के साथ ही पैदा होता है।

जो गरीबी में इन सपनों के साथ नहीं पैदा होने का साहस नहीं जुटा पाता, उसको मैकाले की शिक्षा पद्धति घुट्टी में मिलती है। ऊ बढ़िया कलमघिस्सू बाबू बनने के लिए दिन-रात एक कर देता है औरो चंद्रगुप्त मौर्य से लेकर इंदिरा गांधी तक के खानदान का वंश वृक्ष तोता की तरह रटते हुए सरकारी नौकरी के लिए चप्पल घिसता रहता है।

देश की स्थिति गुलामी के दिनों से बहुत बेसी नहीं बदली है, इसका बहुते परमाण है। अंगरेजों के जमाने में विक्टोरिया के नाम पर वायसराय राज करते थे, आज मैडम के नाम पर रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट देश पर राज कर रहा है। अंगरेजों के जमाने में रजवाड़ों की ठाठ थी, आज भी उनकी ठाठ है, बल्कि 32 नए रजवाड़े पैदा हो गए हैं-- गांधी वंश, यादव वंश, ठाकरे वंश, करुणानिधि वंश, देवगौड़ा वंश, दीक्षित वंश, पवार वंश, पटनायक वंश, चौटाला वंश... केतना नाम गिनाएं! ऐसने गुलामी के दिनों में पचास-सौ ठो राय बहादुर रहे होंगे, आज पचासो हजार राय बहादुर हैं औरो शासन की चमचागिरी कर फल-फूल रहे हैं।

सूदखोर महाजन तभियो थे, आज भी हैं, बल्कि आज बेसी ताकतवर बन गए हैं। ऊ माडर्न क्रेडिट कार्ड देकर चक्रवृद्धि ब्याज में वसूली करते हैं औरो डंके की चोट पर करते हैं। बड़का व्यापारी सब तभियो राज करते थे, आज भी रिलायंस जैसन घराना राज कर रहे हैं। मजदूरों का शोषण जेतना तब होता था, उससे बेसी आज हो रहा है, लेकिन कोयो कुछ कहने का साहस नहीं कर पाता, फिर आप ही बताइए आजाद देश में बदला का है? कानून की स्थिति तो औरो खराब है।

लोग अभियो गुलामी के दौर में अंगरेजों के बनाए कानूनों के तहत सजा पा रहे हैं, जेल जा रहे हैं, तो उसके छेदों का फायदा उठाकर कानून को ठेंगा भी दिखा रहे हैं। भारतीय कचहरियों में दायर मुकदमे आधा से बेसी गरीब औरो निरक्षर लोगों के हैं, लेकिन वहां मुकदमे पर बहस अंगरेजी में होता है, आदेश अंगरेजी में निकलते हैं। खेती की रजिस्टरी औरो शपथ पत्र जिस भाषा में तैयार होते हैं, उसको आदमी को कौन पूछे, साक्षात भगवानो नहीं पढ़ पाएंगे! तभिये तो वकीलों व दलालों की फौज की मौज है औरो बेचारे अनपढ़ गरीब अभियो उनकी गुलामी कर रहे हैं।

Saturday, July 21, 2007

दाग अच्छे हैं

राष्ट्रपति का चुनाव का खतम हुआ, समझ लीजिए कि हमरे नेताओं के माथा पर से एक ठो बड़का भार उतर गया। जब से कलाम जी राष्ट्रपति भवन पहुंचे थे, तब से पता नहीं कहां से एतना खतरनाक शब्द सब हवा में तैरने लगा था कि हमरे नेता सब की हालत खराब रहने लगी थी। अब आप ही बताइए न शुचिता, ईमानदारी, पवित्रता, विद्वता ... औरो न जाने केतना कुछ ... एतना भारी भरकम शब्द सब कलाम से जुड़ल था कि राष्ट्रपति भवन में समाइए नहीं पाता था। परिणाम ई हो गया कि देश का बाकी नेता सब इंफीरियरिटी काम्प्लेक्स से ग्रस्त हो गया था औरो मानसिक तौर पर बीमार रहने लगा था।

अब आप समझ गए होंगे कि तीसरे मोर्चे के रिकवेस्ट पर जब कलाम जी दूसरे कार्यकाल के लिए तैयार हो गए थे, तो वामपंथी सब उनको गरियाने काहे लगे थे! कलाम को गरियाना वामपंथियों व पवार की बीमार मानसिकता की उपज थी औरो ई बीमार मानसिकता कलाम ने ही इन नेताओं को इंफीरियरिटी काम्प्लेक्स के रूप में दी थी। सीधी बात है, न कलाम जी एतना सुपर आदमी होते, न नेताओं को मिरची लगती।

हां, तो हम ई कह रहे थे कि कलाम के जाने से बहुतों का दिमाग हल्का हो गया है। अब का है कि काजल के कोठरी में वही एक ठो बगुला भगत के जैसन उजले बैठे हुए थे औरो काले हो गए दूसरे लोगों का मुंह चिढ़ा रहे थे! 'न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी' वाले अंदाज में उनके जाने के बाद अब देश के राजनीति में एको ठो उजला नेता बचबे नहीं करेगा कि उसका उदाहरण दिया जाएगा। अब जो रहेगा, सब एक रंग का होगा-- कालिख में धंसा होगा! राजनीति में कंट्रास्ट, वैसे भी चलबे कहां करता है? यानी डिटर्जेंट का ऊ विज्ञापन अपने देश के लिए हमको एकदम सटीक लगता है, जिसका नारा है कि 'दाग अच्छे हैं'।

दाग अच्छे हैं इसलिए, काहे कि यह पता नहीं चलने देता कि के राजा है, के रंक। काजल की कोठरिया में सब बस काला भूत होता है। अगर कलाम दागी होते, तो दो सूटकेश लेकर राष्ट्रपति भवन से विदा नहीं होते औरो यही तो अखरने वाली बात है! जिस देश में चपरासी का भाई मुखमंतरी बनता हो औरो करोड़पति होकर मुखमंतरी निवास से विदा होता हो... एमसीडी की टीचर मुखमंतरी बनती हो औरो अरबपति होकर मुखमंतरी निवास से विदा होती हो, वैसन देश में कलाम जैसन लोगों होना ठीक नहीं। काहे कि ई कंट्रास्ट पैदा करता है औरो इन जैसे लोगों की वजह से ही लालूओं व मायाओं की बदनामी होती है! आप ही बताइए न, आज तक लालू को किसी ने माया बनने के लिए कहा होगा? नहीं न, लेकिन उनको कलाम बनने की नसीहत अक्सर मिलती रहती है!

तो हर घटना, दुर्घटना की एक ठो 'मोरल आफ द स्टोरी' होती है। जाहिर है, इस राष्ट्रपति चुनाव की भी है--

भारतीय राजनीति का हमाम बदल गया है। पहले इस हमाम में आने के बाद लोग नंगे होते थे, अब उम्मीद की जाती है कि नंगे लोग ही यहां आएं। जो लोग कपड़ा पहनकर इस हमाम में घुसने की कोशिश करता है, सब मिलकर उसका छिलका उतार देता है-- तुम्हरी कमीज हमरी कमीज से उजली कैसे?

लेकिन हमरे खयाल से दाग अच्छे हैं, काहे कि वे किसी में इंफीरियरिटी काम्प्लेक्स पैदा नहीं करते। तो का ई मान लिया जाए कि कलाम के जाने से हमरे नेता बीमार मानसिकता से उबर जाएंगे?

Tuesday, July 10, 2007

कम कपड़ा, बेसी कल्याण

पिछले दिनों कपड़ा उतारने की दो- तीन घटनाओं ने मंगरू को बेचैन कर दिया है। नहीं, उसकी बेचैनी इस बात को लेकर कतई नहीं है कि सभ्य समाज को कपड़ा नहीं उतरना चाहिए। इस दौर में तो पूरा कपड़ा में ऊ सभ्य समाज की कल्पने नहीं कर सकता! ऊ तो ई जानने के लिए बेचैन है कि आखिर कपड़ा उतारने की नौबते काहे आती है औरो आती है, तो उसका कौनो फैदा होता है कि नहीं?

कपड़ा उतारने की पहली घटना के बारे में उसको पता चला कि यह काम उस गरम ... ऊ का कहते हैं... हॉट मॉडल की है, जो चलती टरेन पर छैंया छैंया गाकर रेल के नियम-कानून को ठेंगा दिखा चुकी है। ई जानकर मंगरू बहुते खुश हुआ। आखिर ऊ टरेन के छत पर नाच-गाकर भारतीय गरीबों को रेल की मुफ्त सवारी का रास्ता जो बता चुकी है। मंगरू खुदे बहुते बार ऐसन सवारी कर चुका है।

खैर, तो नाम मात्र के कपड़ा में फोटुआ खिंचवाकर उस माडल ने घोषणा की कि ऐसा महान काम उसने यह जागरूकता फैलाने के लिए किया है कि मकाऊ तोते के जान पर आफत आ पड़ी है, इसलिए उसको बचाया जाए।

ई जानकर मंगरू एक बार फिर खुश हुआ। उसको पूरा भरोसा है कि मुफ्त टरेन यात्रा का रास्ता दिखाने वाली माडल उसको फिर से रास्ता दिखाएगी औरो उसके कल्याण के लिए भी वही करेगी, जैसन उसने तोते के लिए किया है। आखिर उसकी हालत उस तोते से बेसी खराब जो है।

ऊ पहुंचा उस माडल के पास। कहने लगा, 'काश! हमरे कल्याण के लिए भी इस दुनिया में कोयो कपड़ा उतारकर परदरशन करता। कोयो कहता कि हमने ऐसा इसलिए किया, काहे कि मंगरू भूखा मर रहा है, उसको बचाइए। अगर आप ऐसा कर दीजिए, तो हमरी सूखी आंत भी लोगों को दिख जाएगी। जानवरों के लिए तो आप हसीनाएं एतना कुछ करती हैं, तनिक मनुष्य के लिए भी कुछ कीजिए न।'

माडल ने उसे गौर से देखा औरो अपनी बेबसी बताई, 'बात तो तुम सही कहते हो, लेकिन जानवरों के लिए कपड़ा हम इसलिए उतारती हूं, काहे कि उनसे हमरा फैशन चलता है। खरगोश के खून से मस्कारा, हाथी दांत के गहने, हिरण से शहतूश के शाल ... यानी हमरी चमक -दमक जानवरों के बल पर है। अब हमरे कारण जिसका पराण जाता है, उसके लिए कुछ तो हमको करना ही चाहिए न। तुमको तो नेताओं से मिलना चाहिए, वही तुम्हरे लिए कपड़ा उतार सकते हैं, काहे कि उनकी चमक-दमक तुम्हरे जैसन आम लोगों के कारण ही है।'

निराश मंगरू कपड़ा उतारने की दूसरी घटना के बारे में जानने गया। पता चला, राजकोट में ससुरालियों के खिलाफ कुछ कपड़े 'पहनकर' परदरशन करने वाली 'वीरांगना' को इसका वास्तव में फैदा हुआ है। अब बत्तीस ठो एनजीओ उसकी मदद कर रहा है, पैसा से लेकर नौकरी तक उसको आफर हो रहे हैं।

वीरांगना ने मंगरू को एक एनजीओ से मिलवाया। उसके बाद से मंगरू की कोटर से बाहर निकली आंखें सौ वाट के बल्ब की तरह चमक रही हैं। वह अब खुद माडल बनेगा, एनजीओ के पास जाएगा औरो अपने कल्याण के लिए खुद अपने कपड़े उतारेगा। आखिर भूखमरी से ग्रस्त भारतीय आदमी का मंगरू परफेक्ट माडल जो है। नेताओं से तो उसको उम्मीद ऐसे भी नहीं है, भला नंगा आदमी किसी के लिए कपड़ा कहां से उतारेगा!

Saturday, June 30, 2007

नेतागिरी में कमाऊ कैरियर

जब से हमने यूपी की मुखमंतरी बहन जी के 52 करोड़ रुपये की संपत्ति के बारे में सुना है, हमरा मन नेता बनने के लिए मचलने लगा है। ऊ भी एतना कि उसको संभालना हमरे लिए मुशकिल हो रहा है। बताइए, इससे बढ़िया कैरियर औरो कौन हो सकता है, जिसमें 3 साल में आपकी संपत्ति चार सौ गुना हो जाए! जब बहुजन का नेता बनकर कोयो दस-बीस साल में 52 करोड़ बना सकता है, तो जरा सोचिए हम सर्वजन का नेता बनकर केतना अरब कमा लूंगा?

फिर जब सामाजिक औरो आरथिक रूप से कमजोर वर्ग का नेता जनता के चंदा से आधा अरबपति बन सकता है, तो मजबूत वर्ग का नेता तो चंदा के बल पर खरबपति बन जाएगा! बस, इसलिए नेता बनने की हम पलानिंग कर रहा हूं। तब जनता से 'नजराना वसूलने' के लिए हम साल में दो बार जनम दिन मनाऊंगा- एक ठो ओरिजिनल औरो एक ठो सारटीफिकेट वाला। फिर इसी तरह पहले क्वाटर जनमदिन औरो फिर अद्धा, मतलब चंदा लेबे वाला जेतना बहाना हो सकता है, सब आजमाऊंगा। आखिर बलैक माल को हुआइट कराने का इससे बढ़िया बहाना औरो का हो सकता है?

का बताएं, हमको तो बहुतों को कोसने का मन कर रहा है, लेकिन किस- किस को कोसूं, ई डिसैड नहीं कर पा रहा हूं। बताइए, एतना बढ़िया कैरियर के बारे में हमको कभियो किसी ने नहीं बताया। बचपन में मां-बाप से लेकर गुरुजी तक, सब हमको डाक्टर, इंजीनियर या फिर आईएएस बनने के बारे में ही बताते रहे, कभियो किसी ने नहीं कहा कि नेता बनकर भी करोड़पति-अरबपति बना जा सकता है, उसी में कैरियर बनाओ। मन तो कर रहा है कि उस कैरियर कंसलेटेंट को भी जाकर कान के नीचे दू झापड़ लगाऊं, जिसने हमको कभियो एतना बराइट कैरियर के बारे में नहीं बताया। हां, नेता बनने के बारे में बचपन से जरूर एक गाना सुनता आ रहा हूं -- '... नेता तुम्ही हो कल के', लेकिन कमबख्त उसमें भी इंसाफ की डगर पर चलने की बात होती है! आप ही बताइए, इंसाफ की डगर पर चलकर तो कोई बस खाकपति बन सकता है, उस पर चलकर हम भला अरबपति कैसे बनूंगा?

खैर, 'जभी जागो, तभी सबेरा' के सिद्धांत को मानते हुए अब तो हम पूरी जिंदगी नेतागिरी में इन्भेस्ट करने को तैयार हूं। भाड़ में जाए पतरकारिता। हम तो कहता हूं कि शेयर में पैसा लगाने वाला सब भी बेकूफ है। भैया, एतना तगड़ा रिटर्न तो नैस्देक का शेयर बाजारो नहीं दे सकता, जेतना कि पोलिटिक्स देता है। ई परेमजी औरो मित्तल सब तो बेकूफ है, जो एक को दू बनाने में एतना साल लगा देता है।
नेता बनके सबसे पहले हम सीए के कोर्स में परिवर्तन कराऊंगा। का है कि हमको ऐसन सीए चाहिए होगा, जो सब 'नदियों' से बहकर आने वाले धनों का 'संगम' चंदा के रूप में करा दे। ऐसे में जैसन इलेक्ट्रिसिटी, बैंकिंग औरो इंश्योरेंस सेक्टर के बास्ते अलग-अलग एकाउंटिंग पढ़ाया जाता है, वैसने नेताओं की संपत्ति के आडिट के लिए भी अलग से एकाउंटिंग पढ़ाने की व्यवस्था करूंगा।

तो शुभस्य शीघ्रम के अंदाज में आप ई मान लीजिए कि नेता बनने का यही हमरा घोषणा पत्र है। समझ लीजिए कि देश का 'गौरव' बढ़ाने वाला अरबपति नेता बनने के लिए एक ऐसन आदमी ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया है, जो अभी लखपतियो नहीं है! आप तो समरथन दीजिएगा न?

Saturday, June 23, 2007

महिला राष्ट्रपति औरो डीवीडी पिलेयर!

हम गए थे एक ठो डीवीडी पिलेयर खरीदने, लेकिन हमको विष्णु शरमा जैसन एक ठो ऐसन दुकानदार भेंटा गया कि उससे पूरा माडर्न पंचतंत्र पढ़कर आ रहा हूं। हमने उससे कहा कि भैया, एक ठो ढंग का डीवीडी पिलेयर चाहिए। उसने बत्तीस ठो गुड़ गोबर कमपनी का डीवीडी पिलेयर दिखा दिया औरो उसकी खासियत भी गिना दी, लेकिन बरांडेड कमपनी का एको ठो नहीं दिखाया।

हमने उससे कहा कि भैया, हम 'महंगा रोए, एक बार' के सिद्धांत में विश्वास करता हूं, इसलिए तनिक बरांडेड डीवीडी पिलेयर दिखाओ। बेचारा, ऐसन उखड़ा कि हम उसके दुकान से बाहर होते-होते बचे। बोला, 'ऐसन है कि आप डीवीडी पिलेयर मांग रहे बरांडेड औरो इसमें डीवीडी चलाइएगा पायरेटेड। बराडेंड डीवीडी पिलेयर में दुनिया का सब डीवीडी चल सकता है, लेकिन पायरेटेड नहीं। आप बजार से ढाई सौ टका वाला ओरिजिनल डीवीडी तो खरीदिएगा नहीं औरो दौड़े आइएगा हमरे पास कि हमने सामान डुपलीकेट पकड़ा दिया। भैया, छोटकी-मोटकी लोकल कंपनी का कोयो डीवीडी पिलेयर ले जाइए, कैसेनो सड़ल डीवीडी लगाइएगा, झक्कास दिखेगा, चाहे ऊ ब्लू हो या हुआइट। बरांडेड चीज लेकर अचार डालिएगा का? दू हजार के इस लोकल कंपनी के डीवीडी पिलेयर पर हम आपको चार साल का गैरान्टी दे सकता हूं, लेकिन चार हजार के बरांडेड कंपनी पर एक साल का मात्र वारंटी दूंगा, गैरान्टी नहीं।'

हमने कहा, 'भैय्या, ई कैसन दुनिया है, बेसी पैसा तो लोग बढ़िया चीज खरीदने के लिए देता है, आप तो उलटे बतिया रहे हैं? बरांडेड महंगा होता है, तो क्वॉलिटी बढ़िया होती है, उसमें पाइरेटेड औरो ओरिजिनल सब डीवीडी चलना चाहिए न, लेकिन आप कह रहे हैं पायरेटेड चलबे नहीं करेगा?'

ऊ कहने लगा, 'आप जेतना भोले हैं, उतने दिखते नहीं! लगता है आपको दूसरे भाषा में समझाना पड़ेगा। आप बरांडेंड और क्वॉलिटी की बात कर रहे हैं, आप एक ठो चीज बताइए- इस देश में केतना सही आदमी, सही जगह पर पहुंच पाता है? आप जेतना बेईमान होइएगा, इस सिस्टम में ओतना रन कीजिएगा। देख लीजिए न, जेतना ईमानदार अफसर होता, सब सचिवालय में बैठकर मक्खी मारता है औरो बेईमान अफसर सब जिला में तैनात होकर मलाई खाता है। मंतरी से लेकर जनता तक ऐसन अफसर से खुश रहते हैं कि चलो, बेसी कानूनची नहीं है, कुछ ले-देकर सब काम कर देता है! तो बेईमान अफसर को आप पायरेटेड सीडी मान सकते हैं, जो बढ़िया व खराब सब सरकार में अपना जुगाड़ फिट कर लेता है औरो हमेशा आबाद रहता है। वैसे, आप तो जानबे करते हैं कि आजकल बढ़िया सरकार होबे कहां करता है!'

हमने उसे रोका, 'सिस्टम खराब की बात मत कहिए, देखिए महिला राष्ट्रपति बस बनने ही वाली है...।'
अब उसने हमको रोका, 'यही तो विडंबना है, जो नेता सब महिलाओं को आज तक संसद में 33 परतिशत आरक्षण नहीं दिला सका, वही अब महिला को राष्ट्रपति बनाने का ढोंग कर रहा है। आपको नहीं पता कि जब मुखर्जी, सिंह औरो पाटिल सरनेम वाले पुरुषों पर सहमित नहीं बनी, तब जाकर ई महिला चौथी च्वाइस बनी औरो आप हैं कि सिस्टम को दाद दे रहे हैं। भैय्या, अपना देश तो ऐसन डीवीडी पिलेयर है, जिसमें ओरिजिनल डीवीडी कभियो चलिए नहीं सकता। सबसे बेसी निकम्मा, यहां सबसे बेसी हिट है। आदमी जेतना पायरेटेड होगा, देश के सिस्टम में ओतना बढ़िया रन करेगा!'
45 डिग्री टैम्परेचर में, ई कुछ बेसिये हाट डिस्कशन हो गया। चलिए, लस्सी पीकर आते हैं।

Thursday, June 14, 2007

निरमोही विदेशिया कोच

लीजिए, अभी एक लात का दर्द हम भूलबो नहीं किए थे कि दूसरा पड़ गया। एक ऊ 'भगवान' गरेग चैपल थे, जिन्होंने पहले तो इस निरीह किरकेटिया देश को सरेआम उंगली दिखाई दी, फिर टीम की ऐसन लुटिया डुबोई कि बांग्लादेश हम पर भारी पड़ गया औरो अब ई एक गराहम फोर्ड बाबू हैं, जिन्होंने आने से पहले ही देश को जुतिया दिया। बताइए, केतना उमीद से हमने 'स्वयंवर' रचा के उन्हें अपना तारणहारण नियुक्त किया था औरो केतना बेदरदी से उन्होंने हमरी उम्मीदों को मटियामेट कर दिया! कहां तो हम उनसे किरकेट खिलवाना चाहते थे औरो कहां ऊ हमरे इमोशन से खेल गए!

फोर्ड बाबू, काश! आप हमरे देश के सवा अरब जनता के उम्मीदों पर ऐसन पानी फेरने से पहले एक बार सोच लिए होते। केतना निरमोही हैं आप भी? बताइए, फिक्सिंग से हम केतना नफरत करते हैं कि हमने अजहर औरो अजय जडेजा जैसन अपने स्टार पिलयर को हमेशा के लिए टीम से निकाल दिया, लेकिन आप एक 'भगवान' थे कि फिक्सिंग में आपका नाम आने के बादो हमने आपको साल भर पूजना स्वीकार किया, लेकिन आपने हमारे इमोशन की...! एतना ही नहीं, हमने आपको ई जानते हुए भी 'भगवान' माना कि आप पर घोर नसलवादी होने का आरोप है। जबकि हम नसलवाद के केतना खिलाफ हैं कि बैठे-बिठाए शिल्पा शेट्टी जैसन रिटायर हो रही हीरोइन को गलोबल परसनैलिटी बना देते हैं। सही बताऊं, एतना छूट तो हम ऊपर बैठे उस भगवान को भी नहीं देते, जिसके बारे में हम मानते हैं कि उसकी किरपादृष्टि हो जाए, तो सहवाग जैसन खिलाडि़यो हर मैच में तिहरा शतक ठोक सकता है औरो हम हर मैच में आस्टेलिया को धूल चटा सकते हैं।

वैसे, फोर्ड बाबू ने हमरे 'भगवान' बनने की प्रार्थना स्वीकार नहीं की, तो इसमें उनकी कौनो गलती नहीं है। अब का है कि अगर हमको लगता है कि विदेशी कोच ही हमको किरकेट के भवसागर से पार लगा सकता है, तो ई हमरा पिराबलम है, विदेशियों की नहीं-- ऊ तो अपने ही कोच से खुश रहते हैं। आज तक कभियो कोई देश गावस्कर या कपिलदेव से कोच बनने के लिए गिड़गिड़ाने नहीं आया, भले ही इन महारथियों के नाम केतना भी रिकार्ड काहे न हो। औरो एक हम हैं कि हर ऐरे-गैरे नत्थू-खैरे विदेशी कोचों के चरण-चंपन में लगे रहते हैं कि ऊ हमरी किरकेटिया टीम का तारणहार बनकर हमें कृतार्थ करें।

बहरहाल, गरेग बाबू औरो फोर्ड बाबू के अंदाज को देखकर तो हम गनीमत मानता हूं कि अभी तक विदेशी लोगों की बात खेलों तक ही सीमित है। जिस दिन बात खेल से निकलकर विदेशी नेताओं के भारत में आयात पर आ जाएगी, पता नहीं उस दिन इस देश का का होगा? वैसे भी अभियो तक अंगरेजों के बनाए तमाम कानूनों पर ही चल रहे इस देश में ऐसन लोगों की कोयो कमी नहीं है, जो फिर से अंगरेज को देश में बुलाना चाहते हैं, ताकि देश पटरी पर चल सके।

Thursday, May 31, 2007

राष्ट्रपति की कुर्सी, मंगरू की उम्मीदवारी

देश को एक अदद राष्ट्रपति चाहिए। पूरा देश आजकल उसी की खोज में व्यस्त है, लेकिन एको ठो योग्य उम्मीदवार पर सहमति नहीं बन पा रही। अब जबकि कांग्रेस, बीजेपी से लेकर बसपा तक इस नेशनल टैलेंट हंट शो में जोर आजमाइश कर रहा है, हमको लगता है कि हमरा मंगरू इस पोस्ट के लिए सबसे पकिया उम्मीदवार है। का है कि राष्ट्रपति बनने के लिए अब तक तमाम पार्टियों ने जिस-जिस टैलेंट की बात की है, अपना मंगरू उन सब पर सोलहो आना खरा उतरता है।

मंगरू की सबसे बड़की खासियत ई है कि ऊ सब दिन से दबा कुचला रहा है, इसलिए ऊ बोलता बहुत कम है। ऐसन में राष्ट्रपति बनने के बाद ऊ सरकार या संसद के किसी भी ऊटपटांग हरकत के बारे में कभियो कुछो नहीं बोलेगा, इसकी गरंटी है। सोनिया को 'लाभ का पद' के दायरे से बाहर करने की तो बाते छोड़िए, अगर सरकार देश को बेचने का अध्यादेशो लेके आ जाए, तभियो ऊ कुछो नहीं कहेगा। ऐसने अगर सरकार चाहे, तो ऊ एक नहीं हजारों अफजल गुरु को फांसी की तख्ती से उतार देगा औरो सरकार का वोट बैंक मजबूत करने में पूरा मदद कर करेगा।

उसकी दूसरी खासियत ई है कि ऊ निपट गंवार है, मतलब ई कि ऊ कभियो सरकारी फैसलों पर उंगली नहीं उठाएगा। केंद्र सरकार जब चाहे, तब राज्यों के गैरकांग्रेसी सरकार को धमका सकती है, टपका सकती है, विपक्षियों को संसद से बाहर फिंकवा सकती है औरो यहां तक कि इमरजेंसियो लगवा सकती है... यानी मंगरू के राष्ट्रपति रहते सरकार की फुल ऐश!

उसकी तीसरी खासियत ई है कि भगवान ने उसके पुण्यों को देखते हुए ऐसन जाति में पैदा किया है कि मायावती से लेकर सोनिया गांधी तक उसका विरोध नहीं कर सकती। इस मामले में ऊ सुशील कुमार शिंदे से वजनी उम्मीदवार है। ऊ तो हंडरेड परसेंट से भी अगर बेसी संभव हो, तो आरक्षण का हकदार है। ऐसन में उसके नाम पर किसी को कोयो आपत्ति नहीं होगी।

उसकी चौथी विशेषता ई है कि ऊ राष्ट्रपति चुनाव में लगल सब उम्मीदवार पर किसी न किसी तरह से भारी पड़ता है। ऊ न तो करण सिंह जैसन लोकसभा चुनाव हार चुका है औरो नहिए प्रणव मुखर्जी जैसन जिंदगी में पहली बार लोकसभा चुनाव जीता है। ऊ अर्जुन जैसन समाज को बांटकर सुख पाने वाला मंतरियो नहीं रहा है औरो नहिए ऊ कभियो सुशील कुमार शिंदे जैसन निकम्मा मुख्य मंतरी साबित हुआ है। ऊ शेखावत जैसन संघियो नहीं है कि दूसरे दल के ढोंगी नेता सब उसके नाम पर बिदक जाए औरो वोट न दे।

उसकी पांचवीं औरो सबसे बड़की खासियत ई है कि अगर आप उसको झुकने कहिएगा, तो ऊ लेट जाएगा। सही पूछिए, तो मंगरू की यह खासियत इस पोस्ट के लिए उसको सबसे बेसी योग्य उम्मीदवार बनाता है, काहे कि 'बी' पार्टी के चीफ 'माननीय' से लेकर 'सी' पार्टी की चीफ 'मैडम' तक को इस पोस्ट पर ऐसने व्यक्ति चाहिए, जो देश की चिंता ताक पर रखकर हमेशा उनकी जी हुजूरी करता रहे।

अब इस 5 गुण के अलावा हमरे खयाल से और कोयो ऐसन गुण नहीं है, जो हमरे देश के नेताओं को राष्ट्रपति के किसी उम्मीदवार में चाहिए। औरो जब अपना मंगरू इन तमाम गुणों का धनी है ही, तो भला रायसीना हिल का राष्ट्रपति भवन उससे काहे मरहूम हो!

Thursday, May 24, 2007

बदनाम का हुए, नाम हो गया!

वोल्फोवित्ज जी को आप जानते हैं कि नहीं? हां, हां... वही विश्व बैंक के अध्यक्ष महोदय, जिनकी कुर्सी महज इसलिए छीन ली गई, काहे कि वे प्रेम-पुजारी बन गए हैं। पता नहीं आप इस बारे में का सोचते हैं, लेकिन हमरे खयाल से तो ई बहुत बड़ा अन्याय है उस बेचारे के साथ। बताइए, जिस दुनिया में प्रेम को पूजा माना जाता हो औरो इश्क-मोहब्बत के लिए 'शहीद' हो गए महात्मा वैलंटाइन को देवता जैसन पूजा जाता हो, वहां भला किसी आदमी को अपनी प्रेमिका को प्रमोट करने का कहीं ऐसन खामियाजा भुगतना पड़े?

वैसे, वोल्फोवित्ज महोदय की भी गलती है-- उनको चोंच लड़ाने का सार्वजनिक प्रदर्शन करने की का जरूरत थी? अरे भाई, इस बुढ़ापे में घी पीना ही था, तो चुपचाप कंबल ओढ़कर पीते। न किसी को आपकी गुटरगूं का पता चलता औरो न आप परेशान होते। अब बेसी काबिल बनिएगा, तो ऐसने परिणाम भुगतना होगा! सर जी, विदवान औरो बड़का एडमिनिस्ट्रेटरे होने से सब कुछ नहीं हो जाता, बहुत कुछ औरो सीखना पड़ता है। केतना बढ़िया होता, अगर आप हमरे यहां के नेतवन सब से कुछ सीख लिए होते, जो दूसरे की मेहरारू को भी अपनी बताकर सरकारी पैसा पर दुनिया भर में सैर कराते रहते हैं। एतने नहीं, यहां तो 'सारी दुनिया एक तरफ, मेहरारू का भाई एक तरफ' की तर्ज पर नेता सब अपने 'साधु' साले को भी राजा बनवा देते हैं।

फिर हमरे नेता लोग से आप एक ठो पाठ औरो सीख सकते थे--सरकारी खजाने को शेर की तरह सार्वजनिक रूप से सीधे नहीं चबाइए, चूहे की तरह धीरे-धीरे कुतरते जाइए! ऐसन में कब आपने खजाना खाली कर दिया, किसी को पते नहीं चलेगा औरो पता चलबो करेगा, तो मामला एतना पुराना हो जाएगा कि सबूत जुटाने में ही पुलिस को नानी याद आ जाएगी! अपनी महबूबा की सैलरी में बजाय एक बार इतना ज्यादा इन्क्रीमेंट करने के, आप अगर उसकी सैलरी धीरे-धीरे बढ़ाते, तो कोयो आपको पकड़ नहीं सकता था।

का कहे आपके पास एतना समय नहीं था? हां, ई बात तो आप सहिए कह रहे हैं, चूहा बनने का आपके पास टाइमे कहां था? आपकी हड़बड़ी हम समझ सकता हूं। अब जो व्यक्ति 63 साल का हो, ऊ अगर प्रेमिका को खुश करने में दो-तीन साल औरो लगा देगा, तो फल कहिया चखेगा? हम आपकी इस बात को मानता हूं कि जीवन की सांध्य वेला में कोयो आशिक लोक-लाज की परवाह करके अपना टाइम खोटी नहीं कर सकता, लेकिन आप ई भी तो देखिए कि बूढ़ा होकर भी आप बड़का तीसमार खां बन रहे थे!

वैसे, गोली मारिए ऐसन विश्व बैंक की अध्यक्षता को, इसमें रखले का है? अमेरिका के फेर में गरीब देश की आप ऐसे भी नि:स्वार्थ मदद नहीं कर पा रहे थे, लेकिन प्यार में बदनाम होकर अब आप बहुतों दिल के 'गरीब' की मदद कर पाएंगे। आपको पैसे की कमी है नहीं, महबूबा की सैलरी भी आपने बढ़ा ही दी, अब तो बस आशिकों के लिए एक ठो एनजीओ खोल लीजिए! चकाचक दुकान चलेगी। पटना के परोफेसर मटुकनाथ चौधरी को ही देख लीजिए--अपनी शिष्या के प्यार में बदनाम का हुए, पूरी दुनिया में नाम हो गया! लोकलाज गया छप्पर पर, अब तो ऊ चैनल-चैनल डोलते फिरते हैं औरो 'हार्ट स्पेशिलिस्ट' हो गए हैं! पैसा तो बनिए रहा है, नामो हो रहा है।

तो हमरी मानिए, भारत आ जाइए। यहां दिल की बीमारी अभी 'अर्ली स्टेज' में है औरो खबरिया चैनलों की जवानी उछाल पर। एको ठो चैनल में अगर एक्सपर्ट की नौकरी मिल गई, तो सिद्धू के जैसन आपकी भी लाइफ सेटल हो जाएगी, दिलों पर 'मरहम' लगाने का पुण्य अलग से मिलेगा!

Thursday, May 17, 2007

एक अदद पाकेटमार नेता चाहिए!

अपने देश में हर तरह के अपराध को अंजाम देने वाला नेता सब है, बस पाकेटमारों औरो सेंधमारों में से ही ऐसन प्रतिभा नहीं निकल पाया है, जो लोकसभा या विधानसभा की 'गरिमा' बढ़ा सके। ऐसन में अपने देश में समाजवाद खतरे में पड़ गया है। इसका अंदाजा हमको उस दिन हुआ, जब अखिल भारतीय जेबकतरा-सेंधमार महासंघ के राष्ट्रीय महासचिव से हमरी अचानक मुलाकात हो गई। ऊ बेचारा अपने देश के नेतवन सब से बहुते निराश है। कारण ई कि नेता सब सब तरह के कुकर्म कर रहा है, लेकिन पाकेटमारी औरो सेंधमारी की फील्ड में खुलकर अभियो सामने नहीं आ रहा।

पता नहीं आप उसकी निराशा को केतना जायज मानेंगे, लेकिन हमको उससे गहरी सहानुभूति है। उन लोगों के साथ सहिए में अन्याय हुआ है। अब का है कि नेतवन सब ने हत्या, अपहरण, घूसखोरी, घपले-घोटाले जैसन तमाम अपराध को गलैमराइज कर दिया है, तो गांजा-अफीम से लेकर आदमी तक की तस्करी को इज्जत बख्स दी है... का चाकूबाजी औरो का कबूतरबाजी, सब में नेता सब नाम कमा रहे हैं औरो दाम भी, लेकिन अब तक कोयो नेता पाकेटमारी या सेंधमारी करते नहीं पकड़ाया। अब इससे बड़का अन्याय का होगा?

उस राष्ट्रीय महासचिव जी का इहो मानना कि जिस देश में नेहरू से लेकर अमर सिंह तक समाजवाद के नाम पर नेतागिरी कर चुके हों, उस देश के तो कण-कण में समाजवाद होना चाहिए। लेकिन अपना देश है कि घूस औरो घोटाला में तो नेता सब समाजवाद अपनाते हैं, मिल-बांटकर खाते हैं, चपरासी तक को हिस्सा देते हैं, लेकिन पाकेटमारी-सेंधमारी जैसन दलित-दमित अपराध में समाजवाद नहीं चलाते। चोर-डकैत, हत्यारा, बलात्कारी, घुसखोर, अपहरणकर्ता... सब के सब नेता बनकर लोकसभा-विधानसभा पहुंच गए, लेकिन आज तक कौनो सेंधमार या पाकेटमार एमएलए-एमपी नहीं बन पाया। संसद औरो विधानसभा में अपना कौनो नुमाइंदा नहीं होने के कारण ही इन दोनों धंधे की हालत एतना खराब है।

जहां तमाम तरह के अपराध आज गलैमराइज हो गए हैं, वहीं 'अपराधी समाज' का ई 'दलित वर्ग' आज तक छुप-छुपकर चोरी करने औरो पकड़ाने के बाद सरेआम पब्लिक औरो पुलिस से लात-जूता खाने को अभिशप्त है! हमको तो अखिल भारतीय पाकेटमार-सेंधमार संघ के उस नेता के इस बात पर पूरा यकीन है कि आज उसकी बिरादरी का अगर एको ठो नेता लोकसभा या विधानसभा में पहुंच गया होता, तो इस बिरादरी की सामाजिक व राजनीतिक 'हैसियत' इतनी गई-गुजरी नहीं होती! दुनिया के सबसे पुराने धंधों में से होने के बावजूद सेंधमारों-पाकेटमारों को अभियो कोयो नहीं पूछता, जबकि कबूतरबाजी जैसन माडर्न युगीन धंधे में बड़े-बड़े 'राष्ट्रवादी' नेता शामिल हो जाते हैं और धंधे की इज्जत बढ़ा देते हैं।

वैसे, एतना सबके बावजूद हमको लगता है कि उस महासचिव महोदय का ई आरोप पूरी तरह सही नहीं है कि नेतवन सब उनके धंधे के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहे हैं। हमरे खयाल से तो नेता सब जन्मजात पाकेटमार होते हैं औरो सेंधमार भी। गौर से देखिए तो जनता को मिलने वाले सरकारी पैसों का घपला-घोटाला इनडाइरेक्ट रूप से पाकेटमारी ही तो है। औरो ऊ भी ऐसन पाकेटमारी कि जनता के जेब में पैसा पहुंचने से पहिले गायब हो जाता है... जैसन नेता नहीं, मिस्टर इंडिया हो गया। औरो सेंधमारी... भैय्या, इस मामले में तो नेता सब से शातिर कोयो हो ही नहीं सकता। चारा घोटाला से लेकर सांसद निधि घोटाला औरो तेल घोटाला से लेकर ताबूत घोटाला तक, नेता सब ने कब सारा पैसा खाकर पचा डाला, किसी को पतो नहीं चला!

... तो सेंधमार-पाकेटमार भाइयों, आप निराशा छोड़िए औरो खुश होइए कि एतना बड़का-बड़का नेता आपकी बिरादरी में शामिल है। हां, आप इसके लिए आंदोलन जरूर कीजिए कि जो हो, खुलेआम हो, कंबल ओढ़कर घी न पिया जाए! वैसे, आप लड़ाई इसके लिए भी लड़ सकते हैं कि लोकसभा-विधानसभा चुनावों में सभी पार्टी कुछ परतिशत सीट सेंधमार-पाकेटमार भाइयों के लिए भी आरक्षित करें। आखिर लोकतंत्र में हर वर्ग का परतिनिधित्व तो होना ही चाहिए!

Friday, May 11, 2007

उसके 'टांग उठाने' के इंतजार में...

मिसराइन जी आजकल बहुते परेशान हैं। उनकी परेशानी का कारणो कम अजीब नहीं है। दिक्कत ई है कि उसका जर्मन नसल वाला डॉगी चारों टांग जमीन पर रखकर सूसू करता है। आप कहेंगे, भाई इसमें परेशानी वाली का बात है... उसकी मरजी... ऊ कुछो करे। अब कुत्ता हुआ, तो कोयो जरूरी है कि टांग उठा के ही...?

आप ऐसन कह सकते हैं, लेकिन मिसराइन जी की अपनी तकलीफ है, जो उन्हें डॉगी के टांग उठाने का बेसब्री से इंतजार करवा रही है। अब का है कि उनके पति महोदय, यानी मिसिर जी का कहना है कि जिस दिन डॉगी 'टांग उठाने' लगेगा, तो बूझना कि बच्चा जवान हो गया औरो तब ऊ यहां-वहां गंदा कर तुम्हे परेशान नहीं करेगा। वैसे, मिसराइन को डॉगी से एतनही परॉबलम नहीं है, परॉबलम औरो सब है, लेकिन मिसिर जी के कारण ऊ कुछो बोलतीं नहीं।

एक दिन टेबुल पर मिसराइन को एक ठो दवाई वाला चिट्ठा दिख गया, उस पर मरीज का नाम लिखा था लियो मिसर। अब मिसराइन की समझ में ई नहीं आ रहा कि जिस मिसिर जी ने जिंदगी भर कभियो अपने सरनेम पर गर्व नहीं किया, ऊ एतना शान से कुत्ता महोदय के नाम में अपना सरनेम कैसे लगवा रहे हैं!

वैसे, मिसराइन को मिसिर जी की ओर से सख्त हिदायत है कि ऊ इस कुत्ते की शान में कौनो गुस्ताखी न करें। लियो मिसर कोयो गली का खजहा कुत्ता नहीं है, ई समझाने के लिए मिसराइन के सामने लियो महाराज के पितृ पक्ष औरो मातृ पक्ष का बाकायदा वंश वृक्ष पेश किया गया, जिसके अनुसार ऊ एक बेहद ऊंचे कुल के बालक हैं। उनकी नानी ने एक बड़े परतियोगिता में अपनी 'बुद्धि के बल' पर मेडल जीता था, तो यूरोप के किसी देश में जिंदगी के आखिर दिन गुजार रहे उनके दादा अपने समय में शहर के सबसे हैंडसम डॉगी का खिताब जीत चुके हैं। औरो ई कुल का प्रताप ही है कि लियो महाराज को खरीदने में मिसिर जी को हजारों रुपये ढीले करने पड़ गए।

वैसे, मिसिर जी से हजार रुपये खरच करवा लेना लियो महाराज के लिए बाएं हाथ का काम है। लियो एक बार बीमार पड़े नहीं कि मिसिर जी डाक्टर लेकर हाजिर। हजार-दो हजार की सूई तो उनको कभियो लग जाता है औरो बेचारी मिसराइन ई सब देखकर कलपती रहती हैं। एक ई लियो महाराज का सौभाग्य है कि मिसिर जी एतना केयर करते हैं औरो एक मिसराइन का दुर्भाग्य कि मिसिर जी बीमार पड़ने पर तीन दिन बाद उनको इलाज के लिए ले जाते हैं औरो उहो अंगरेजी नहीं, होम्योपैथी डाक्टर के पास। काहे कि ऊ सस्ता होता है।

हालांकि दुनिया के लिए लियो महाराज भले ही डॉग हों, लेकिन मिसिर जी उनको डीओजी साहब मानते हैं। ऊ लियो साहब को ऐसन कोचिंग दिलवा रहे हैं, जिससे ऊ पुलिस में भर्ती हो सके।

जिस दिन लियो साहब ऊ पुलिसिया एग्जाम पास कर जाएंगे, मिसिर जी का मानना है कि उस दिन उनका जीवन धन्य हो जाएगा। काहे कि तब लियो साहब इंटेलिजेंट कुत्ते की जमात में तो शामिल हो ही जाएंगे, मिसिर जी को भी पांच-दस हजार महीना कमाकर देंगे। दिलचस्प बात तो ई है कि अब जब एतना सब्जबाग मिसिर जी मिसराइन को दिखा चुके, तभिए तो उनको लियो मिसर के 'विसर्जन' से कौनो परॉबलम नहीं है। अब उनको इंतजार है तो बस इस बात का कि यह 'कुल दीपक' जल्दी से जल्दी 'टांग उठाना' शुरू कर दे, तो ऊ गंगा नहा आएं!

Tuesday, May 08, 2007

शहाबुद्दीन को सजा: कानून नहीं, सत्ता की जीत

राजद सांसद शहाबुद्दीन को स्पेशल कोर्ट ने अपहरण और हत्या के एक मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है। अधिकतर लोगों का मानना है कि चलिए, देर से ही सही, एक बिल्ली के गले में अंतत: घंटी तो बांध दी गई, लेकिन सवाल है कि शहाबुद्दीन जैसे बिलौटे इतने बेखौफ क्यों घूमते रहते हैं?

इसका जवाब यह है कि जब तक आपकी राजनीतिक हैसियत आपको कानून के लंबे हाथों से बचाने का काम करती रहेगी, आपका इस देश में कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। शहाबुद्दीन को नौ साल पुराने मामले में यह सजा सुनाई गई है और ऐसा भी तभी मुमकिन हुआ है, जब बिहार में उनकी विरोधी पार्टियों की सरकार है। जाहिर है, जब तक बिहार में राजद की सरकार रही, शहाबुद्दीन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका, क्योंकि मामले की छानबीन करने वाली पुलिस सत्ता के सामने नतमस्तक थी और सत्ता शहाबुद्दीन के सामने। चूंकि शहाबुद्दीन को भी यह बात अच्छी तरह पता थी कि एक तो वह बाहुबली हैं और ऊपर से अल्पसंख्यक, इसलिए उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे में उन्होंने स्थिति का जमकर फायदा उठाया और वर्षों तक सिवान में समानांतर सत्ता चलाई।

वैसे, शहाबुद्दीन के इस पतन का कारण बिहार में विरोधी पार्टियों की सरकार का होना ही नहीं रहा, बल्कि इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि उन्हें यह सजा जिस आदमी के अपहरण और हत्या के सिलसिले में मिली है, वह माले का कार्यकर्ता था और माले की बिरादरी इस समय केंद्र में सत्ता का मजबूत खंभा है। राजद से भी मजबूत खंभा। यकीन मानिए अगर वामपंथियों का दबाव नहीं होता, तो लालू किसी भी कीमत पर अपने 'वोट के इस बोरे' को गुनाहगार साबित नहीं होने देते। जैसा कि सब को पता है, लालू शहाबुद्दीन को बिहार की राजनीति में मुसलमानों के रहनुमा के तौर पर इस्तेमाल करते आए हैं। तो शहाबुद्दीन प्रकरण में कानून के हाथ बहुत लंबे हैं और उससे कोई नहीं बच सकता, कहने के बजाय यह कहिए कि सत्ता के खेल बड़े निराले हैं!

हालांकि वे सभी पार्टियां, जो शहाबुद्दीन को मिले इस सजा को न्याय की जीत के रूप में देख रहे हैं, उन्हें यह भी मानना चाहिए कि लाख बुरे होने के बावजूद शहाबुद्दीन न्यायपालिका का सम्मान उन सबसे ज्यादा करते हैं। इस मामले में शहाबुद्दीन का नाम गिनीज बुक में शामिल होना चाहिए कि सांसद रहते हुए भी अपने जिले की पुलिस से लगातार आठ घंटे एनकाउंटर करने वाले शहाबुद्दीन ने कभी न्यायालय के विरोध में कुछ नहीं कहा, जबकि आज का हर लल्लू-चंपू नेता कोर्ट को गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है।

तो शहाबुद्दीन को मिली सजा को न्याय की जीत कहने के बजाय सत्ता की शक्ति की जीत कहिए और खुश होने के बजाय इस बात के लिए चिंतित होइए कि देश में कानून का राज अभी भी नहीं है। आखिर न्याय भी उसी को मिल रही है, जिसको सत्ता न्याय दिलवाना चाहती है!

Thursday, May 03, 2007

किरकेट के नाम पर दे दे बाबा

ई किरकेटिया खिलाडि़यो सब न अजीब हैं। विश्व कप से पहिले किरकेट छोड़कर ऊ विज्ञापनों में बिजी रहते थे औरो विश्व कप से बाहर हुए, तो बीसीसीआई से कुश्ती लड़ने में बिजी हो गए हैं। मतलब सब कुछ करेंगे, बस किरकेट नहीं खेलेंगे!

लेकिन उनका ई किरकेट न खेलना अब उन्हीं के लिए समस्या बन गई है। खिलाडि़यों को लाइन पर लाने के लिए किरकेट बोर्ड ने उन्हें तीन से बेसी शैंपू-सर्फ बेचने से रोक दिया है। इससे अब ऊ रो रहे हैं। दिक्कत ई है कि विज्ञापन नहीं करेंगे, तो पैसा कहां से आएगा औरो जब पैसे नहीं आएगा, तो उनके सपनों के उन महलों का क्या होगा, जिनकी नींव विज्ञापनों के भरोसे ही पड़ी है! अब महेंद सिंह धोनी को लीजिए। बेचारे ने इन्हीं विज्ञापनों के बूते लंबे-चौड़े स्विमिंग पूल वाले फाइव स्टार घर का सपना देखा था। निरमाण कार्य शुरुओ हो गया था, लेकिन अब पूरा होना मुश्किल है!

मिडिल क्लास फैमिली के धोनी किरकेटर नहीं होते, तो बुढ़ापे में मुश्किल से एक ठो घर खरीद पाते, लेकिन किरकेट में ऐसन चमके सपने भी करोड़ों का देखने लगे। लेकिन इस मुए विश्व कप ने सब चकनाचूर कर दिया। अब कैसे उनका फाइवस्टार घर बनेगा औरो कैसे स्विमिंग पूल, जिसमें ऊ तैरने का सपना देखा करते थे। चलिए अभी तक की कमाई से अगर ऊ स्विमिंग पूल बनाइयो लेंगे, तो उसमें डालने के लिए रांची जैसन शहर में साढे छह लाख गैलन महंगा पानी कहां से लाएंगे?

वैसे, विज्ञापन की कमाई पर धोनिए नहीं औरो बहुतों के सपने जुड़े हुए हैं। युवराज के पास पैसा नहीं होगा, तो हसीना किम शर्मा उनके पीछे क्यों भागेगी? पैसा नहीं होगा, तो सहवाग के रेस्टोरेंट की चेन कैसे खुलेगी? पैसा नहीं होगा, तो धार्मिक स्थल की शरण में पड़े पठान का अपना घर कैसे बनेगा? पैसा नहीं होगा, तो सचिन की फरारी का का होगा?

किरकेट को धरम और किरकेटरों को भगवान मानने वाले हमरे एक मित्र का कहना है कि इनके सपनों को पूरा करने के लिए हमको-आपको आगे आना चाहिए। आखिर जब उन भगवानों ने सपनों की नींव रख दी है, तो निकम्मा होने के बावजूद इनकी मदद करना हम 'भक्तों' का फर्ज बनता है।

तो आइए, राष्ट्रीय आपदा कोष की तरह एक ठो किरकेटर आपदा कोष बनाते हैं औरो उसमें दान देते हैं, ताकि किरकेटरों के उन सपनों को पूरा किया जा सके, जिसकी नींव रखी जा चुकी है। क्या हुआ जो इन्होंने हमारे-आपके सपने तोड़ दिए, हम तो उदार दिल के हैं! वैसे भी, यह किरकेट के हित में ही होगा, काहे कि अगर इन किरकेटरों का सपना चकनाचूर हो गया, तो अगली पीढियां किरकेट खेलने से उसी तरह दूर भागेगी, जैसे आज लोग हॉकी औरो एथलेटिक्स से दूर भागते हैं। आखिरकार, किरकेटरों की फाइव स्टार लाइफ के ग्लैमर ने ही तो बच्चों के हाथों से गिल्ली-डंडा छीनकर बल्ला-गेंद पकड़ाया है!

Tuesday, April 17, 2007

कितने गिरे गीअर?

पिछले दिनों एड्स जागरूकता के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में हॉलिवुड एक्टर रिचर्ड गीअर और शिल्पा शेट्टी के चुंबन प्रकरण को यूं तो मोरल पुलिसिंग न करने के नाम पर खारिज किया जा सकता है, लेकिन गौर से देखें, तो यह यूं ही भुला देने वाली बात भी नहीं है। हालांकि खुद शिल्पा ने इतना कुछ होने के बावजूद इसका कोई खास विरोध नहीं किया और रिचर्ड की संस्कृति की बात कहकर वह इस मामले को ठंडा भी करना चाहती हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे रिचर्ड और शिल्पा के बीच का आपसी मुद्दा मानकर छोड़ देना चाहिए या भविष्य के लिए सबक के तौर पर याद रखना चाहिए?

वैसे, सवाल और भी हैं। पहली बात तो यह कि क्या रिचर्ड या शिल्पा जैसी शख्सियतों से सार्वजनिक मंच पर इतनी छिछोरी हरकत की उम्मीद की जा सकती है? दूसरी बात यह है कि क्या खुले माहौल का मतलब अभी भी यही माना जाए कि पुरुष कहीं भी अपनी मनमानी के लिए स्वतंत्र हैं? और तीसरी बात यह कि खबरिया चैनल्स इस तरह के दृश्य को घंटों दिखाकर अपने को कैसे कम गुनाहगार मान सकते हैं?

गौरतलब है कि कुछ ही महीनों के अंदर यह दूसरा मौका है, जब सेलिब्रिटी स्टेटस प्राप्त दो महिलाओं के साथ उनके पुरुष मित्रों ने सरेआम इस तरह की शर्मनाक हरकत की है और खबरिया चैनलों की 'कृपा' से करोड़ों लोगों का 'मनोरंजन' हुआ है। बहुत दिन नहीं हुए, जब सिंगर मीका ने राखी सावंत को अपने बर्थडे पार्टी में जबर्दस्ती किस किया था और उसके विरोध में राखी सावंत थाने चली गई थी। हालांकि राखी के इस विरोध का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला और बात आई-गई हो गई। वैसे, यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि मीका के बात वहीं खत्म नहीं हो गई थी। उन्होंने 'चोरी और सीनाजोरी' के अंदाज में उस प्रकरण पर एक गाना ही गा डाला 'भाई तूने पप्पी क्यों ली...' और आश्चर्य की बात यह कि उनके इस गाने का कोई विरोध भी नहीं हुआ। कहां तो सभ्य समाज में जीने का तकाजा यह था कि मीका शर्मिंदगी से कभी सिर न उठा पाते और कहां हुआ यह कि मीका खुद भी इस प्रकरण से मौज ले रहे हैं व दूसरे का भी मनोरंजन कर रहे हैं।

हालांकि राखी-मीका प्रकरण से रिचर्ड -शिल्पा प्रकरण की तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन इन दोनों घटनाओं और खबरिया चैनलों का इन पर 'मौज' लेने के अंदाज को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि ऐसे प्रकरण आगे भी बहुतायत में हमें देखने को मिले, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। चलिए एक बार को यह मान भी लिया जाए कि रिचर्ड की संस्कृति में ऐसी हरकतें गलत नहीं हैं, लेकिन क्या उन्हें यह नहीं पता कि भारतीय संस्कृति क्या है? आखिर रिचर्ड सामाजिक कार्यों के सिलसिले में सालों से भारत आते रहे हैं। वैसे भी सार्वजनिक मंच पर किसी पुरुष द्वारा महिला को इस तरह बलपूर्वक चूमने को कोई भी सभ्य समाज मान्यता नहीं दे सकता, फिर चाहे वह मीका हो या फिर रिचर्ड गिअर। अपनी पर्सनल लाइफ में आप कुछ भी हो सकते हैं और कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक स्थान की अपनी जो गरिमा होती है, उसका खयाल हर किसी को रखना ही चाहिए।

Thursday, April 12, 2007

न्याय पर एतना गुस्सा!

उस दिन नेताजी बहुते गुस्सा में थे। लगा उनका बस चलता, तो देश से सब ठो कोर्ट-कचहरी को उखाड़ फेंकते। बोलने लगे, 'आखिर हर चीज की एक लिमिट होती है, लेकिन ई कोर्ट है कि दिनों दिन बेकाबुए होता जा रहा है। बताइए, कभियो आरक्षण में अड़ंगा लगा देता है, तो कभियो अल्पसंख्यक की परिभाषे बदल देता है। अरे भाई, आपको जो काम दिया गया है, ऊ न कीजिए, खामखा सामाजिक न्याय में टांग काहे अड़ाते हैं... आप चोरी चकारी का मामला देखिए, मियां-बीवी का झगड़ा सुलटाइए, पॉकेटमारों को सजा दीजिए..., झूठ्ठे सरकारी फैसलों में न्याय खोजते रहते हैं! न्याय किस चिडि़या का नाम है, ई हम नेता लोग से ज्यादा आप नहीं जान सकते! अपनी औकात समझिए औरो हमरी औकात पर सवालिया निशान मत लगाइए!

एतना कहते कहते नेताजी का हलक सूखने लगा। हमने उन्हें बढ़िया कंपनी का कोला पिलाया, तब जाकर ऊ तनिक ठंडा हुए, लेकिन तुरंते फिर गरमा गए, 'ई कोर्ट ने जीना हराम कर दिया है। माना कि हम सिंगुर औरो नंदीग्राम में बाजार से हार गया हूं, लेकिन कोर्ट से थोड़े हार सकता हूं। हम ईंट से ईंट बजा दूंगा।'

ईंट की बात सुनकर हमने नेताजी को रोका, 'लेकिन आपने गरीबों को जिस तरह से बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, उससे तो आपको बजाने के लिए ईंट भी नहीं मिलेगी। ईंट भट्ठे पर गरीब मर रहे हैं, लेकिन आप तो कुछो नहीं करते?'

नेताजी तनिक नरमाए, 'ई किसने कहा कि हम गरीबों के लिए कुछ नहीं करते? बस बिजनेसमैनों को हम परेशान नहीं करना चाहता हूं, काहे कि ऊ देश में कारखाना लगा रहे हैं, सेज बना रहे हैं, लेकिन मजदूरों की मदद के लिए हमरे पास अभियो बहुत हथियार है। हम मजदूरों की दिहाड़ी भले नहीं बढ़वा सकता हूं, लेकिन हम ईंट भट्ठा पर जाऊंगा औरो बहुसंख्यकों की दिहाड़ी से एक रुपया कटवाकर अल्पसंख्यकों को दिलवाऊंगा। अल्पसंख्यक का स्टेटस उससे कोयो नहीं छीन सकता। ऐसने हम वहां ओबीसी के लिए साढे़ 27 परतिशत आरक्षणो लागू करवाऊंगा।'

हमने कहा, 'लेकिन जिन मजदूरों से आप एक रुपया काटेंगे, उनमें तो ओबीसी भी होंगे?'
नेताजी फिर संभले, 'हां, होंगे, लेकिन हमरे लिए अल्पसंख्यकों की बेहतरी औरो अगड़ों को आसमान से नीचे उतारना पहली चिंता है। अगड़ों ने सदियों से मलाई खाई है औरो अब उन्हें दूसरे को मलाई खाने देना चाहिए। हमारा सिद्धांत 'जैसे को तैसा' वाला है। अगड़ों ने पहले पिछड़ों को दबाया, अब अगड़ों को दबाओ...।'

हमने उन्हें रोका, 'फिर तो अल्पसंख्यक से भी आपको 'जैसे का तैसा' वाला बर्ताव करना चाहिए। उन्होंने भी आज के बहुसंख्यक को सदियों तक दबाया है। वो आपने तो सुना होगा- जजिया कर...।'
नेताजी ने हमको इससे आगे एको ठो शब्द नहीं बोलने दिया। बोले, 'काहे साम्प्रदायिकता वाली बात करते हो। जो बात सदियों पुरानी है, उस पर बहस कैसा? गड़े मुर्दे काहे उखाड़ना, इससे साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ता है...।'

अब हमने नेताजी को रोका, 'फिर तो आपको भी कोर्ट की बात मान लेनी चाहिए कि जातिगत आरक्षण से समाज बंटेगा। पुरखों की गलती की सजा अगर आप एक को नहीं देना चाहते, तो दूसरे को काहे देना चाहते हैं...?'

हमरी बात सुनकर नेताजी का हाजमा बिगड़ गया। ऊ अभियो शौचालय में हैं औरो शायद अपने को सही साबित करने वाला तर्क खोज रहे हैं। कोर्ट को अब ऊ बाद में देखेंगे। चलिए इंतजार करते हैं!

Saturday, April 07, 2007

कांग्रेस की बत्ती गुल!

क्या कहते हैं उसे... हां 'धो डालना'। तो बीजेपी ने भी कांग्रेस को दिल्ली के एमसीडी के चुनाव में धो डाला। धोना इस सेंस में कि खुद कांग्रेस को भी अपनी ऐसी दुर्गति की आशंका नहीं थी और न ही बीजेपी को इतनी बड़ी जीत की उम्मीद! आखिर कौन यह सोच सकता था राज्य में बिना किसी कद्दावर नेतृत्व के भी बीजेपी 164 सीटें पा लेगी और कांग्रेस 69 सीट लेकर देखती रह जाएगी!

वैसे, इसे लोकतंत्र का चमत्कार और विडंबना ही कहिए कि इस जीत के लिए खुद बीजेपी भी अपनी पीठ नहीं थपथपा सकती! यह तो कहिए कि कांग्रेस ने दिल्ली की इतनी दुर्गति ही कर दी थी कि मजबूरन लोगों को बीजेपी को चुनना पड़ा। वरना बीजेपी कोई सुधरी पार्टी कतई नहीं है कि उसे एमसीडी की जिम्मेदारी सौंप कर जनता निश्चिंत हो जाए।

तमाम लोग यह मानते हैं कि कांग्रेस को सीलिंग और अवैध निर्माणों के तोड़फोड़ की सजा मिली, लेकिन यह हार की एकमात्र और सबसे बड़ी वजह कतई नहीं है। कांग्रेस की इस दुर्गति के लिए जो सबसे बड़ा फैक्टर जिम्मेदार है, वह है कमर तोड़ महंगाई। दाल, चावल, सब्जियों और घरेलू चीजों के दाम हाल के महीनों में इतनी तेजी से बढ़े कि लोगों को घर का बजट देखकर बेहोशी आने लगी है। इतिहास खुद को दोहराता है और इस चुनाव में भी यही हुआ। यह तो कहिए कि बीजेपी ने एक तरह से बदला वसूला है कांग्रेस से। नौ साल पहले प्याज की आसमान चढ़ती कीमतों ने बीजेपी से दिल्ली का ताज छिन लिया था और अब दाल-सब्जी की आसमान छूती कीमतों ने कांग्रेस को पटकनी दे दी है। सत्ता छीनने का हथियार यहां एक ही है।

हालांकि एमसीडी चुनाव की इतनी अहमियत नहीं होती कि इसके परिणाम को जनता का जनादेश मान शीला दीक्षित को इस्तीफा देने को मजबूर किया जाए, लेकिन कांग्रेस ही नहीं बीजेपी के लिए भी यह चुनाव एक सबक है। अगर बीजेपी दिल्ली के ज्वलंत मुद्दे की आग जलाकर रख पाती है, तो तय मानिए कि अगले विधानसभा चुनाव में भी वह कांग्रेस की छुट्टी कर देगी, लेकिन सवाल है कि क्या कांग्रेस एमसीडी के इस चुनाव से कोई सबक नहीं लेगी और बीजेपी को विधानसभा में भी मौका दे देगी?

अगर राज्य के वर्तमान स्थितियों को देखें, तो यह कम ही उम्मीद है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन में एमसीडी चुनाव की तुलना में कोई सुधार होने वाला है। वजह यह कि कांग्रेस की हार के कारणों-- सीलिंग, अवैध निर्माणों की तोड़फोड़, पानी, बिजली और महंगाई, किसी में भी सुधार की कोई गुंजाइश नहीं दिख रही। आखिर इनमें से कोई भी चीज दिल्ली सरकार के हाथ में नहीं है। सीलिंग व अवैध निर्माण के मामले में कोई भी सकारात्मक परिणाम के लिए वह कोर्ट पर निर्भर है, तो पानी व बिजली के मामले में पड़ोसी राज्यों पर। महंगाई कोई लोकल मुद्दा नहीं है और दिल्ली सरकार चाहकर भी चीजों के दाम को महंगाई के आसमान से नीचे नहीं उतार सकती। तो कांग्रेस ने यह हार अपनी प्रशासनिक अक्षमताओं की वजह से कम और दूसरी वजहों से ज्यादा खाई है। हां, इस हार में पार्टी और सरकार के बीच तारतम्य की जो कमी है, उसकी भी अपनी भूमिका रही है।

इस चुनाव से सबक: दिल्ली के एमसीडी चुनावों के परिणाम को देखकर कोई भी सरकार यह सोचना छोड़ दे कि वह मॉल, मल्टीप्लेक्स और फ्लाईओवर्स से राज्य को सजाकर जनता से वोट पा लेगी। हालांकि हम ऐसा ही परिणाम चंद्रबाबू नायडू की आंध्र प्रदेश से विदाई के रूप में भी देख चुके हैं। सच तो यह है कि इन चीजों के रहने और न रहने से जनता को उतना फर्क नहीं पड़ता, जितना कि पेट में अन्न होने से। अगर जनता के पेट में अन्न नहीं होगा, तो वह किसी भी सरकार का तख्ता पलट सकती है। उसे आप धर्मनिरपेक्षता या साम्प्रदायिकता के नाम पर हमेशा मूर्ख नहीं बना सकते और न ही समस्या का अस्थायी समाधान निकालकर उसे भरमा सकते हैं।

Friday, April 06, 2007

ई तो कुछ बेसिए हो गया

आपने ऊ सुना कि नहीं कि एक सर्वे में दिल्ली को 'क्वालिटी आफ लिविंग' के पैमाना पर 215 देशों में 148वां स्थान मिला है औरो इस बात पर तमाम लोग खुशियां मना रहे हैं। लोगों का तो नहीं पता, लेकिन हमरे लिए ई फैसला कर पाना मुश्किल हो रहा है कि इस खबर पर हंसूं या रोऊं। हमरे लिए ई गर्व की बात इसलिए नहीं, काहे कि हमको इसकी बुनियादे बहुत कमजोर दिखती है। सबसे पहली बात तो ई कि दिल्ली की सारी चमक-दमक दस परसेंट लोगों के बल पर है औरो अगर नब्बे परसेंट लोग बस किसी तरह जिंदगी काट रहे हों, तो आप किसी शहर को ऐसन तमगा नहीं दे सकते। दूसरी बात ई कि इन दस परसेंट लोग में से भी 'पसीने की कमाई' बहुत कम लोगों के पास है औरो उन्हीं लोगों के चलते बाकी नब्बे परसेंट दिल्ली झुग्गी बनकर रह गई है।

दरअसल, भरष्टाचार की अजीब महिमा ई है कि इससे पावर औरो पैसे वाले लोगों का तो जीवनस्तर सुधरता चला जाता है, लेकिन यही सुधरता जीवनस्तर बाकियों के लिए अभिशाप बन जाता है। आखिर जोंक दूसरे जीवों का खून पीकर ही तो मोटे होते हैं। तो अगर जोंकों के भरोसे दिल्ली का लिविंग स्डैंडर्ड किसी सर्वे में हाई दिखता हो, तो हमरे खयाल से किसी के लिए यह गर्व की बात नहीं।

दरअसल, कुछ ऐसन बात है, जो हमको कतई ई नहीं विश्वास होने देती कि दिल्ली में जीवनस्तर सुधर रहा है। दूसरे को छोडि़ए, खुदे सरकार मानती है कि दिल्ली में 80 परसेंट रिहायशी मकान अवैध है। मतलब साफ है, वहां नागरिक सुविधाएं भी अवैध कालोनियों जैसी ही है। इन कालोनियों में बस किसी तरह पानी औरो बिजली पहुंच रही है, अधिकतर में तो सीवेज सिस्टम तक नहीं है, सड़क औरो पार्क की तो बाते मत कीजिए। एक का घर दूसरे के घर पर चढ़ा हुआ है, गलियां औरो सड़क इतनी संकरी है कि आग लग जाए या भूकंप हो जाए, तो मरने वाले आदमियों की संख्या शताब्दी का रिकार्ड बना ले। लोगों के घर में कूलर है, फ्रीज है, एसी है, लेकिन बिजली रोज आठ घंटे कटती है। बताइए, जहां के अस्सी परसेंट लोगों के घर में पावर कट के कारण फ्रीज दिन में तीन बार अपने आप डिफ्रॉस्ट हो जाता हो, वहां कोयो सर्वे ई कैसे दावा कर सकता है कि वहां जीवनस्तर सुधर रहा है!

हमको तो लगता है कि सर्वे करने वालों ने रोड पर कार, फ्लाई ओवर औरो रोड के किनारे चमचमाते मॉल व मल्टीप्लेक्स देखके ई घोषित कर दिया कि दिल्ली का जीवनस्तर सुधर रहा है। उन 'काबिलों' ने ई नहीं देखा कि ये कार, फ्लाईओवर औरो मॉल-मल्टीप्लेक्स दिल्ली के दस परसेंट आदमी के काम का भी नहीं है। उन लोगों ने ई नहीं देखा कि दिल्ली के बहुसंख्यक लोग अभियो वाजिब पैसा देकर भी ब्लू लाइन के कंडक्टरों की गालियां सहते हुए दिल्ली की सड़कों पर सफर करते हैं। उन्होंने ई नहीं देखा कि दिल्ली का तीन चौथाई इलाका बैंकों के रजिस्टर में नेगेटिव एरिया घोषित है, जहां रहने वालों को लोन भी नहीं मिलता औरो बिना लोन के तो मिडिल क्लास रात में सपना तक नहीं देख सकता। फिर उन्होंने इहो नहीं देखा कि लोगों को नाला साफ कराने तक के लिए कोर्ट के शरण में जाना पड़ता है औरो पार्किंग के मुद्दे पर पड़ोसियों में गालियां से गोलियां तक चलती हैं। और जब एतना सब के बावजूद किसी को स्थिति सुधरती लग रही है, तो यकीन मानिए कि या तो ऊ बहुते आशावादी लोग हैं या फिर इस घोषणा में उनका कोयो स्वार्थ है!

Thursday, March 29, 2007

गम और भी हैं जमाने में किरकेट के सिवा

भारत किरकेटिया विश्व कप से पहले ही राउंड में बाहर हुआ नहीं कि लगा जैसन देश में करोड़ों एबोरशन एक साथ हो गया हो। हर कोयो स्यापा मना रहा है, जैसे यह विश्व कप न होकर विश्व युद्ध हो औरो बांग्लादेश से हारकर देश अब बस गुलामी के जंजीर में जकड़ा जाने वाला हो। सच बताऊं, तो किरकेट के लिए लोगों को एतना परेशान देखकर हम कन्फ्यूजिया गया हूं कि ई भारत ही है या हम किसी दूसरे मुलुक में आ गया हूं!

हमरे कन्फ्यूजन की वजह ई है कि एके दिन में हमको अपना देश पलटता हुआ लग रहा है। आज किरकेटरों को पानी पी-पीकर गरियाने वाला ई मुलुक, वही मुलुक है, जिसकी जनता सैकड़ों निकम्मे-नाकारे नेताओं को दशकों से झेलती आ रही है, लेकिन उफ तक नहीं कहती! दो रोटी को तरशने वाला आदमी इसी देश में नेता बनते ही करोड़पति-अरबपति बन जाता है, लेकिन जनता उसको भरष्ट नहीं मानती औरो चुनावों में भारी बहुमत से जिताती रहती है। लालूओं, मुलायमों, बादलों, चौटालों, मायावतियों, जयललिताओं ... के इस देश में नेताओं की काली कमाई पर सिर्फ उनके विरोधियों को ऐतराज रहता है, समर्थकों को नहीं!

यह वही देश है, जिसकी जनता धरना-परदरशन करना भूल गई है। पांच रुपया किलो का प्याज पचास रुपया किलो बिकता है, लेकिन लोग विरोध के लिए घर से बाहर नहीं निकलते। निठारी, सिंगुर, नंदीग्राम औरो मंजूनाथ जैसन कांड इसी देश में होते हैं, लेकिन पीड़ितों को छोड़कर कोयो और इसके विरोध के लिए अपनी नींद खराब नहीं करता। यह वही देश है, जहां कम्युनिस्ट तक सत्ता में टिके रहने के लिए पूंजीवादी बन जाते हैं औरो कामरेड पूंजीपति का गुर्गा बनकर भूखी जनता पर गोली चलाते हैं!

अब आप ही बताइए, जब एतना कुछ इसी देश में हो रहा है, तो बेचारे किरकेटरों को काहे निशाना बनाया जाए? जब हम खुद की नाक कटने का गम नहीं मनाते, तो हम ई काहे मान लें कि विश्व कप से बाहर हो जाने से देश की नाक कट गई! जब हम तमाम भरष्ट नेताओं को बार-बार जिताकर लोकसभा औरो विधानसभा में भेजते रहते हैं, तो हमें सहवाग औरो धोनी के टीम में रहने पर काहे आपत्ति होनी चाहिए? जब हम चावल-दाल के सट्टेबाजी पर कौनो आपत्ति नहीं जताते, तो किरकेट के सट्टेबाजी पर हमको काहे आपत्ति होनी चाहिए? जब हमरे देश के तारणहारों को हर समस्या का समाधान विदेश में ही मिलता है, तो बेचारे चैपल को हार के लिए काहे गरियाया जाए? जब हम किरकेट के उन तमाम 'मठाधीशों' से, जिन्होंने जिंदगी में कभी बैट-बॉल नहीं पकड़ा, ई नहीं पूछते कि ऊ बीसीसीआई में क्या कर रहे हैं, तो द्रविड़ औरो तेंदुलकर से हम ई क्यों पूछें कि ऊ टीम में क्या कर रहे हैं?

अब जब देश में एतना कुछ गलत हो रहा है औरो उनसे हमारा-आपका कोयो इमोशन नहीं जुड़ा, तो भला किरकेट से इमोशन जोड़कर क्या कीजिएगा? अगर किरकेट के खेल में नाक कटने से हम-आप इतने परेशान हैं, तो जरा उन चीजों के बारे में भी हमें सोचना चाहिए, जिनसे हमारी नाक रोज कटती है! गरीबी में अव्वल होने से हमरी नाक कटती है, भरष्टाचार में अव्वल होने से हमरी नाक कटती है, किसानों के आत्महत्या से हमरी नाक कटती है औरो न जाने किस-किस से हमरी नाक कटती है, लेकिन हम उनमें से कितने को अपनी 'नाक' का सवाल मानकर धरना -परदरशन करते हैं? और जब हम ये सब नहीं करते, तो भला नसीब के खेल किरकेट को लेकर विरोध परदरशन काहे किया जाए?

Saturday, March 24, 2007

जस्ट कूल ड्यूड, कुछ पॉजिटिव तो ढूंढ

भारत विश्व कप में पिट गया और तमाम लोग परेशान हो गए। रात भर जगने का सिला आखिर टीम इंडिया ने क्या दिया-- टीम का बंडल बंध गया। खैर, आप परेशान मत होइए और नकारात्मक सोच से बचने के लिए कुछ पॉजिटिव सोचिए। आखिर हर चीज का एक सकारात्मक पक्ष तो होता ही है ना। मान लीजिए कि जो होना था, वह हो गया। आइए, हम यहां आपको इस सदमे से उबरने में मददगार कुछ पॉजिटिव बातें बताते हैं।

धूप में भी पकते हैं बाल

जी हां, अगर आप युवा हैं, तो मान लीजिए कि इस हार ने आपको यही मैसेज दिया है। और क्रिकेट के 'अंध भक्त' होने के कारण आपको इस बात में पूरा विश्वास भी करना चाहिए कि बाल अनुभव बढ़ने के साथ ही नहीं पकते! ऐसे में अगर अब आपको कोई यह कहकर घुड़की दे कि 'मैंने अपने बाल धूप में नहीं पकाए हैं और मेरे अनुभव के सामने तुम कहीं नहीं ठहरते', तो अब आपको उसके प्रभामंडल से घबराने की जरूरत नहीं है, बल्कि बांग्लादेश और आयरलैंड का उदाहरण उसके सामने रखने की जरूरत है। सच मानिए, भारत की हार ने आपको एक बड़ा उदाहरण दिया है, यह साबित करने का कि अनुभव ही सब कुछ नहीं होता, आज के बच्चे 'सीखने' से पहले ही काफी कुछ सीख चुके होते हैं।

श्रम के करोड़ों घंटे बच गए

अगर आप देश भक्त हैं और क्रिकेट के प्रति अपने जज्बात को थोड़ी देर के लिए परे रख सकते हैं, तो आप भी इस बात से सहमत होंगे ही कि पहले ही राउंड में भारतीय टीम ने विश्व कप से आउट होकर देश के हित में काम किया है। जरा सोचिए, सवा अरब लोगों के इस देश में अगर कोई व्यक्ति औसतन एक घंटा भी विश्व कप का मैच देखता है, तो वह काम के कितने घंटे बर्बाद करता है!

और अब जबकि भारत विश्व कप से बाहर हो गया है हमारे-आपके जैसे करोड़ों लोग क्रिकेट को भूल अपने काम को ढंग से अंजाम दे पाएंगे, यानी क्रिकेट के निठल्ले चिंतन से बचने का मतलब है देश के लिए श्रम के करोड़ों घंटे बचा लेना! है न खुशी की बात! आखिर इससे आप ही के देश की प्रगति होगी न।

बोर्ड के परीक्षार्थियों के हित में है यह हार

इस विश्व कप से सबसे ज्यादा परेशानी बोर्ड के परीक्षार्थियों को हो रही थी। मुगल बादशाहों के नाम रटते-रटते अक्सर उनका ध्यान सचिन के स्ट्रेट ड्राइव पर चला जाता था और फिर सताने लगता था परीक्षा में कम अंक आने का डर। अब क्या कीजिएगा मन की उड़ान को तो कोई नहीं रोक सकता ना! फिर बच्चों के पैरंट्स की हालत भी कम खराब नहीं थी। बच्चे को एग्जाम की तैयारी में कोई बाधा नहीं पहुंचे, इसलिए वे टीवी ऑन तक नहीं करते थे, लेकिन मन ही मन मैच नहीं देख पाने के कारण कुढ़ते रहते थे।

तो टीम इंडिया के खराब प्रदर्शन से अब बच्चे मुगल खानदान के बादशाहों के नाम सही से याद कर पाएंगे व एग्जाम में बढ़िया मार्क्स ला पाएंगे और उनके पैरंट्स की खुशी के बारे में तो पूछिए ही मत। अगर पड़ोस में कोई बोर्ड का परीक्षार्थी हो, तो जरा हार के बाद की स्थिति पता करके देखिए। यकीन मानिए, आपको यह जानकर सुकून मिलेगा कि बच्चे और उनके पैरंट्स दोनों खुश हैं।

रात की नींद छिनने से बच गई

भारतीय टीम हारकर विश्व कप से बाहर हो गई, तो अब हमारे लिए विश्व कप में बचा ही क्या? अब हमें रात के तीन बजे तक जगने की जरूरत नहीं, चैन से खाइए और खर्राटे भरिए। पुराने रूटीन पर लौटकर आपको भी खुशी ही होगी। अगर आप यह मानते हैं, तो फिर खुश होइए न!

... यानी रोग से आप बच गए और डांट से भी

लगातार रात भर जगने का मतलब होता है, तबीयत खराब होना और फिर दफ्तर पहुंचकर ऊंघते रहने की वजह से बॉस से डांट खाना। चलिए, भारत के अब तक के तीन मैचों के लिए आपने अपनी तबीयत जितनी खराब कर ली और बॉस से जितनी डांट खा ली, काफी है। अब न तो भारतीय टीम मैच खेलने के लिए मैदान में होगी और न ही आपको रात में जगकर पेट व आंख की गड़बडि़यों का सामना करने पड़ेगा। रात में जगेंगे नहीं, तो दिन में ऑफिस में ऊंघकर बॉस से डांट खाने की मजबूरी भी नहीं होगी।

Friday, March 23, 2007

आप तो झूठ्ठे सेंटिया गए...

हो गया न, जिसका हमको डर था। हम पहिलिये न कहते थे वूल्मर जी आपसे कि बेकार का मगजमारी करने यहां मत आइए, लेकिन आप थे कि मानने को तैयारे नहीं थे। पता नहीं आपको ई कैसे लगता था कि पाकिस्तान में प्रतिभा की कमी नहीं है, बस तराशने वाला चाहिए, ऊ विश्वविजेता बन जाएगा। अरे भाई साहब, ई भारत- पाकिस्तान है, इनको भगवानो नहीं सुधार सकता, फिर आप तो साधारण इनसान थे। विश्वास नहीं था, तो अपने बिरादर चैपल भैय्या से पूछ लेते कि प्रोफेशनलिज्म दिखाना इस इलाके में केतना खतरनाक होता है।

दू साल हो गए, बेचारे चैपल बाबू एको ठो युवा प्रतिभा नहीं तलाश सके। औरो भारत अभियो उसी सचिन, द्रविड़, गांगुली व कुंबले के भरोसे विश्व कप जीतने की फिराक में है, जिनको उन्होंने बूढ़ा घोषित कर दिया था। आपको का लगता है कि भारत में प्रतिभा की कमी है? जी नहीं, प्रतिभा की यहां कौनो कमी नहीं है, दिक्कत बस ई है कि यहां उसको पनपने नहीं दिया जाता। प्रतिभा यहां कुछ लोगों की बपौती होती है औरो उनके बिना भी किसी का काम चल जाए, यह उनको गंवारा नहीं। अब देखिए न उस नेताजी को, राजनीति के मैदान में उसका अभी दूध का दांतों नहीं टूटा है, लेकिन दावा ई है कि भारत की धर्मनिरपेक्षता बस उसी के खानदान की बपौती है। यानी आप इहो कह सकते हैं कि बस उसी के खानदान को देश चलाने की तमीज है! यही हाल आपके इंजमाम औरो युनुस जैसन चेलवा का भी है। अब ऐसन मानसिकता वाले देशों में अगर आप प्रोफेशनलिज्म दिखाइएगा, तो सीधे ऊपरे न पहुंच जाइएगा।

ठीक है कि टीम को बढि़या परदरशन करना चाहिए, लेकिन हारने के बाद आपको एतना सेंटियाने किसने कहा था? ई भारतीय उपमहाद्वीप है, यहां सरवाइव करना है, तो काम से मतलब कम रखिए औरो पोलिटिक्स बेसी कीजिए। आपके जैसन लोग, जो यहां बेसी प्रोफेशनलिज्म दिखाते हैं, सबको ऊपर का ही रास्ता चुनना पड़ता है, फिर चाहे ऊ हमरा दफ्तर हो या परधानमंतरी कार्यालय। यहां काम खराब कर शरमाने औरो सिर छुपाने की जरूरत नहीं पड़ती, बस गोटी बढि़या से फिट कीजिए, फिर देखिए आपको कोसने वाला शरमाकर खुदे छुप जाएगा।

अब देखिए न, हमारे देश में हुए एक सर्वे का कहना है कि यहां 79 प्रतिशत लोग नेताओं से नफरत करते हैं! आप ही कहिए, अगर सर्वे पढ़कर यहां का नेता सब शरमाने लगे, तो देश में राजनीतिए न बंद हो जाएगी। इसीलिए तो यहां कोई शरमाता नहीं औरो काम खराबकर सुसाइड करने के बारे में तो कोयो सोच भी नहीं सकता, उल्टे दूसरे पर दोष थोपना यहां बहादुरी का काम माना जाता है।

बढि़या तो ई होता कि पाकिस्तान में किसी आका बनने की चाह रखने वाले को आप अपना काका बना लेते औरो इंजमाम को बलि का बकरा बनाकर अपनी चमड़ी बचा लेते! हमको लगता है कि आप यही मात खा गए, राजनीति करना कभी सीखबे नहीं किए। अब का कीजिएगा, राजनीति छोड़कर प्रोफेशनलिज्म दिखाइएगा, तो यही होगा। तो हमरी मानिए, अगला जनम आप इसी भारतीय उपमहाद्वीप में लीजिए, देखिएगा एतना तुच्छ कारणों से आपको दुनिया छोड़ने की नौबते नहीं आएगी!

Thursday, March 15, 2007

मंतरी जी के 'गरीब'

हमरे लिए ई सवाल हमेशा से भेजा घुमाने वाला रहा है कि आखिर गरीब कौन है? बच्चा में जब ई सवाल हम मास्टर जी से पूछते थे, तो रवि मुखिया, सुकन तांती सब का नाम गिनाकर ऊ परिभाषा सोचने का काम हम पर छोड़ देते थे। पराइमरी एजुकेशन में इससे बेसी नहीं बताया गया। हाई इस्कूल में हमको बताया गया कि जिसको दू जून रोटी खाने को मिल जाए, समझो ऊ गरीब नहीं है। मतलब तभियो हमको गरीब की परिभाषा नहीं बताई गई। कॉलेज में शिक्षा व्यवस्था उदार हुई, तो हमको बताया गया कि यूएन एक निश्चित डॉलर से कम की रोजाना आमदनी वालों को गरीब मानता है। अब डॉलर की बात तो हमरी समझ में कभियो नहीं आई, लेकिन सरकार ने भारतीय टका में गरीब 'न' होने की जो 'औकात' बताई थी, ऊ हमरे आसपास के सौ लोगों में से दस की भी नहीं थी।

खैर, अब भला हो उस नेताजी का, जिन्होंने गरीब रथ चलाकर हमको गरीबी की परिभाषा समझाने में मदद की है! गरीब रथ मंतरी जी का ड्रीम प्रोजेक्ट है औरो सरकारी प्रोजेक्ट है, तो जाहिर है ई रेल भी गरीब की सरकारी परिभाषा पर ही बनी होगी। तो आइए, हम गरीब रथ को देखकर भारत के गरीबों को समझने की कोशिश करते हैं।

बॉगी में घुसते ही जो गरीब की पहली परिभाषा आपकी समझ में आएगी, ऊ ई कि गरीब कभियो मोटा नहीं हो सकता या फिर इहो कह सकते हैं कि मोटा आदमी कभियो गरीब नहीं हो सकता। अब इसकी बॉगी का गेट एतना छोटा है कि 'खाते-पीते घर' का कोयो पराणी उसमें घुसिए नहीं सकता। तो आप इहो मान सकते हैं कि गरीब रथ के बॉगी के गेट में जो घुस जाए, ऊ गरीब हुआ औरो जो नहीं घुस पाए ऊ अमीर।

इस टरेन की सीट भी कुछ बेसिए छोटी है, तो आप इहो मान सकते हैं कि मंतरी जी के सपने का गरीब यही कोई 36 इंची की कमर वाला शख्स ही होगा! अगर किसी की कमर 36 इंची पार हो, यानी कमर नहीं कमरा हो, तो ई समझिए कि ऊ अमीर है औरो मंतरी जी या फिर कहिए कि सरकार के रजिस्टर में गरीब की कैटगरी में नहीं आता।

इस टरेन को देखकर इहो लगता है कि गरीब गरमी तो सह सकता है, लेकिन ठंडी नहीं। शायद यही वजह है कि मंतरी जी ने इस टरेन को एसी तो बना दिया, लेकिन एसी की मशीन थोड़ी खराब लगाई, ताकि बॉगी बेसी ठंडा नहीं हो औरो गरीब कंबल के अभाव में दांत किटकिटाकर मर न जाए। अब गरमी से पसीना बहेगा तो गरीब तौलिया से पोछ लेगा, दम घुटने लगेगा, तो गेट पर जाकर ताजी हवा खा लेगा, लेकिन ठंड से बचने का तो उसके पास कोयो उपाय नहीं होता ना! तो इसका मतलब ई हुआ कि जो गरमी सह ले, लेकिन ठंडी न सहे, ऊ आदमी गरीब हुआ। नहीं, ऐसा नहीं है कि इस टरेन में कंबल नहीं मिलता, मिलता तो है, लेकिन इसका पराइवेट ठेकेदार एक बॉगी के लिए तीस-चालीस कंबल से बेसी रखबे नहीं करता है। तो मतलब ई हुआ कि गरीब ऊ है, जो बेसी सुविधाभोगी नहीं हो।

और हां, गरीब रथ देखकर गरीबों की जो एक परिभाषा औरो हमरी समझ में आई, ऊ ई कि सफर में जिसके पास खाने की औकात नहीं हो, ऊ गरीब होता है। अब का है कि इस टरेन में पेंट्री कार है ही नहीं। तो मतलब ई कि जो बाजार से खरीदकर नहीं खा पाए और सत्तू-चिउड़ा बांधकर सफर करने को मजबूर हो, ऊ पराणी गरीब हुआ।

और गरीबों की अंतिम परिभाषा ई कि जिसके सफर को रोककर अमीरों का सफर जारी रखा जाए, ऊ मजबूर पराणी भी गरीब होता है। काहे कि राजधानी एक्सप्रेस को रास्ता देने के लिए गरीब रथ को किसी जंगल में भी घंटे भर रोका जा सकता है! तो उम्मीद है, हमरी तरह आप भी अब गरीबी की तह तक पहुंच गए होंगे। आप इहो जान गए होंगे कि कैसे 22 हजार करोड़ रुपया के लाभ में कोयो मंत्रालय पहुंच सकता है और वाहवाही में मंतरी जी दुनिया भर के बिजनेस स्कूलों में पढ़ाने के लिए जा सकते हैं।

Saturday, March 03, 2007

बॉलिवुड़िया होली का लाइव प्रसारण

बॉलिवुड की होली खास होती है, आखिर वह सपनों की दुनिया जो ठहरी। तो लीजिए, आज हम आपको वहीं लिए चलते हैं, जहां होली का हुड़दंग शबाब पर है। यह लाइव टेलिकास्ट सिर्फ आपके लिए है, बिल्कुल एक्सक्लूसिव। चूंकि इसमें कुछ एडल्ट कंटेट भी हैं, इसलिए इसे सेंसर बोर्ड ने 'ए' सर्टिफिकेट जारी किया है। जाहिर है, जिन लड़कों की मूंछें नहीं उगी हैं या जिन लड़कियों ने अब तक गुड़ियों के साथ सोना बंद नहीं किया है, उनके लिए यह लेख निषिद्ध है:

आज समय हमारे पास भी कम है, इसलिए बिना कोई बाउंड्री बांधे हम आपको सीधे मुंबई लिए चलते हैं। यह झुग्गियों के बीच में गगन चूमती जो इमारतें आपको दिखाई दे रही हैं, इन्हें देखकर आप यह तो समझ ही गए होंगे कि यह अपने देश की वाणिज्यिक राजधानी मुंबई ही है। दरअसल, तमाम राजधानियों में झुग्गियों की बहुतायत उस धर्म-पताका की तरह होती है, जो हमेशा यह भान कराती रहती है कि यहां लोगों के पास समानता का अधिकार है। आखिर किस देश में गरीब अमीरों के बराबर में अपनी झुग्गियां बना पाते हैं?

खैर, इस बार बॉलिवुड से जुड़ी चार होली हो रही है- अमिताभ की होली, शाहरुख की होली, बॉलिवुड के वंचितों से बाजार के गठबंधन की होली और आम लोगों की होली। हम आपको आम लोगों की होली के बारे में नहीं बताएंगे, क्योंकि वहां के आम लोग भी हम दिल्लीवालों की तरह ही आम हैं। ये देखिए, यह है अमिताभ का घर 'जलसा'। हालांकि यूपी में मुलायम भाई साहब पर जो आफत आन पड़ी है, उसे देखते हुए अमिताभ ने इस बार होली नहीं मनाने की घोषणा की थी, लेकिन आप तो जानते ही हैं कि लोग मानते कहां हैं! ... तो यहां मेहमानों के आने-जाने का सिलसिला जारी है। ये भांग घोंटने वाले खास इलाहाबाद के सपाई हैं, जिन्हें अमर सिंह जी भाई साहब ने अपने बैंड एम्बैसडर की सेवा के लिए भेजा है।

यह जो लंबा-चौड़ा हैंडसम व्यक्ति दिख रहा है न बिग बी को गले लगाते, यह विधु विनोद चोपड़ा है। इनकी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर लुट गई, सो अपने एकलव्य को उन्होंने जो रॉल्स रॉयस दिया था, उसे वह वापस लेने आए हैं। अब होश में तो अमिताभ गाड़ी लौटाते नहीं, इसलिए इन्होंने भांग के नशे का फायदा उठाने की सोची है। वो देखिए, उन्होंने अमिताभ की जेब से रॉल्स रॉयस की चाबी भी निकाल ली है। चलिए, इनकी होली तो हो ली, क्योंकि 'एकलव्य' से हुआ सारा घाटा ये इस गाड़ी को बेचकर निकाल लेंगे।

अरे, जा कहां रहे हैं? यहां तो देखिए, मात्र चड्डी में यहां कौन खड़ा है? ओह, यह तो अपने सल्लू मियां हैं। खैर, शर्ट तो ये पहनते नहीं, लेकिन इनकी पैंट कहां गई? अच्छा, इन्होंने अपनी पैंट अभी-अभी एक भिखारी को दान कर दी है। बड़े दानी हैं भई! आप क्या कह रहे हैं, इन्हें शाहरुख की होली में होना चाहिए था, यहां कैसे आ गए? हां, आपने सही कहा, लेकिन यहां वह ऐश्वर्या की खोज में आए हैं। पहले झगड़ा था, इसलिए मिलना नामुमकिन था, लेकिन अब तो वह भाभी हो गई हैं, इसलिए गुलाल तो लगा ही सकते हैं। लेकिन यह क्या! अभिषेक तो ऐश को अंदर भेज रहे हैं! आखिर क्यों? चलिए अभिषेक से ही पूछ लेते हैं - 'आपने ऐश को होली क्यों नहीं खेलने दी?' अभिषेक ने क्या कहा, आपने सुना? अभिषेक का कहना है - 'छुट्टे सांड से दूर ही रहना चाहिए। शराब पीकर लोगों को रौंद देने वाले व्यक्ति के सामने कमसिन कली को रखना ठीक नहीं। कहीं इसने अपनी गाड़ी ...? फिर तो मैं शादी से पहले ही विधुर हो जाऊंगा! सुरक्षा पहले, भाईचारा बाद में!'

तो चलिए हम भी निराश सल्लू मियां को शाहरुख के 'मन्नत' में ले चलते हैं, वहीं जाकर वह उन बच्चनों को जला पाएंगे, जिन्होंने उनकी ऐश छिन ली। ये लीजिए, ये शाहरुख के साथ उनकी दोनों पत्नियां टॉयलेट सीट ... ओह! सॉरी, हॉट सीट पर मौजूद हैं। दोनों पत्नियां...? हां भाई, करण जौहर ने अभी कुछ दिन पहले ही तो खुद को शाहरुख की दूसरी बीवी कहा था। वैसे, महिला वह भले ही नहीं हैं, लेकिन अदाओं से तो महिला जैसे दिखते ही हैं। वो कहते हैं न खुदा जब देता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है, वही हुआ है शाहरुख के साथ। 'दोनों सुख' उठा रहे हैं किंग खान!

और ये शाहरुख के बगल में बैठे मां-बेटा कौन हैं? नहीं... नहीं, ये मां-बेटा नहीं, बल्कि पति- पत्नी हैं... जी हां, उम्रदराज फरहा खान और उनका अभी-अभी बालिग हुआ पति शिरीष कुंडर। यह तो बाल मजदूरी है भाई! और हां, यह तो रानी मुखर्जी हैं। इनका दिल न टूटा होता, तो यह अभी बच्चनों के साये में होली मना रही होतीं। खैर, यह बगल में बैठे चोपड़ा साहब उनके नए हमसफर हैं। आज तो होली इन्हीं के नाम है।

ये देखिए शिवाजी पार्क में यह जो होली आपको दिख रही है, यह बॉलिवुड के वंचितों के संग बाजार के गठबंधन की होली है। इस होली के बहाने बाजार अपना प्रचार करता है। इस होली शो को दाद-खाज दूर करने वाली एक क्रीम और स्किन को गोरा करने वाली एक क्रीम ने स्पॉन्सर किया है। इन कंपनियों का दावा है कि इन्हीं के क्रीम की वजह से राखी सावंत और मल्लिका सहरावत का अंग-अंग गोरा है। हां-हां, आपने सही पहचाना वो मल्लिका सहरावत ही डांस कर रही हैं, लेकिन अगर आप उनको न्यूड समझ रहे हैं, तो गलती कर रहे हैं। क्या है कि यह बॉडी कलर का सूट है, जो लोगों को असली स्किन की मृगमरीचिका दिखाता है, इसलिए आप ज्यादा उछलिए मत। और ये उचक-उचक कर आप क्या देख रहे हैं?

प्लीज, इसे सरेआम नंगई दिखाना मत कहिए और वो देखिए राखी सावंत को। अभी जो चार होठों को आपने आपस में चिपके हुए देखा है, उनमें से दो तो राखी सावंत के हैं, लेकिन बाकी दो को पहचानना अभी मुश्किल हो रहा है, क्योंकि चेहरे पर रंग पुता हुआ है। खैर, एक बात तो तय है, ये होठ सिंगर मिका के नहीं हैं, क्योंकि अभी वह पंजाब में हैं। तो फिर ये किसके हैं...? चलिए, आप तब तक पहचानने की कोशिश कीजिए, हम जरा भांग वाली जलेबियां खाकर आते हैं।

आप सबको होली की शुभकामनाएं