जिगर मा नहीं आग है
'ओंकारा' फिलिम का बिपाशा का ऊ गाना तो आप सुने ही होंगे-- 'बीड़ी जलाइ ले जिगर से पिया जिगर मा बड़ी आग है, आग है...।' ई सुनके पता नहीं आपके दिल में कुछ-कुछ होता है या नहीं, लेकिन हमरे दिल में तो भइया बहुते कुछ होता है। बिपाशा कौन से जिगर की बात कर रही है औरो उसमें केतना आग है, ई तो आपको जान अब्राहम से पूछना होगा, लेकिन भइया हमरे पास न तो बिपाशा जैसन जिगर है औरो नहिए वैसन आग।
जहां तक जिगर की बात है, तो हमरे गुरुजी का कहना था कि हमरे जैसन मरियल आम आदमी में जिगर होता ही नहीं, तो उसमें आग कहां से होगी? उसके अनुसार, जिगर में आग तो गांधी, लोहिया औरो जयप्रकाश नारायण के पास थी, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश को हिला दिया। तभिए हमने डिसाइड किया था कि आखिर जिगर की आग गई कहां, ई हम ढूंढ कर रहूंगा।
वैसे, ई बात तो हम मानता हूं कि अगर बीड़ी जलाने लायक आग भी हमरे जिगर में होती, तो हम एतना निकम्मा नहीं होते! निकम्मापनी में हम अपने अरब भर देशवासियों का प्रतिनिधि हूं। ऐसन जनता का प्रतिनिधि, जिनके जिगर का तो पता नहीं, लेकिन उनमें आग बिल्कुल नहीं है, ई हम दावे के साथ कह सकता हूं। अगर जिगर में आग होती, तो मजाल है कि कोयो किसी को दबा के रख लेता या शोषण कर लेता। नेता हो या बाजार, जिसको देखिए वही हमको गन्ने के जैसन चूस रहा है औरो हम हैं कि चुपचाप देखते रहते हैं। हमरे निक्कमेपन की हद ई है कि अपने खेत के जिस आलू-प्याज को हमने पांच रुपये किलो बेचा था, आज उसी को ४० रुपया किलो खरीद कर खाता हूं, लेकिन विरोध में चूं शब्द नहीं बोलता, धरना-परशदन की तो बाते छोडि़ए।
हालत ई है कि सुप्रीम कोर्ट तक हमको इस निकम्मेपन के लिए धिक्कार रही है। हाल में उसने एक केस के सिलसिले में कुछ बुजुर्गों को सलाह दी कि हक थाली में परोस के नहीं मिलता है, अपना हक आपको मांगना पड़ेगा।
खैर, अपने निकम्मेपन से परेशान होकर हमने ई पता लगाने का फैसला किया कि आखिर हमरे जिगर की आग गई कहां? आखिर ऐसा का हुआ कि हम आंदोलन नहीं कर पाते?
हम पहुंचे एक ठो ज्ञानी सर्जन के पास। सर्जन ने हमको ऊपर से नीचे तक दया के भाव से देखा। फिर बोले, 'तुम्हरे इस अस्थि-पंजर का तो एक्स-रे भी नहीं हो सकता, हम जिगर कहां से ढूंढूं? तुम्हरा तो बस पोस्टमार्टम हो सकता है, अगर कहो तो ऊ कर देता हूं।'
डाक्टर ने हमारा 'पोस्टमार्टम' किया। बोले, 'तुम्हरा जिगर तो सहिए जगह पर है, लेकिन इसकी आग कहीं औरो शिफ्ट हो गई है। अब अगर तुमको अपनी आग ढूंढनी हो, तो पेट औरो उसके नीचे ढूंढना, पूरी आग वही जल रही है।' अब ई बात हमरे समझ में आ गई थी कि हम एतना निकम्मा काहे हूं। पेट औरो उसके नीचे की आग को शांत करने में हमरे जिगर की आग खतम हो गई है।
मतलब ई हुआ कि आज के नेताओं के निकम्मा होने के लिए भी यही फैक्टर जिम्मेदार है। गांधी और जयप्रकाश जैसन नेता आज नहीं हैं, तो वजह यही है कि आज के नेताओं के पेट औरो उसके नीचे की आग जिगर की आग पर भारी पड़ रही है। अब जब उन्हें इन दोनों आग से फुर्सत मिले, तब न गलत काम के विरोध के लिए आंदोलन करें। तो आग की शिफ्टिंग का पता लगाने लेने के बाद लाख टके का सवाल ई है कि पेट औरो उसके नीचे की आग को जिगर की आग पर हावी होने से कैसे बचाया जाए? इसके बारे में तनिक आप भी तो सोचिए! आखिर परजातंत्र के परजा होने के नाते तंत्र पर आपका कंटरोल तो होना ही चाहिए।
जहां तक जिगर की बात है, तो हमरे गुरुजी का कहना था कि हमरे जैसन मरियल आम आदमी में जिगर होता ही नहीं, तो उसमें आग कहां से होगी? उसके अनुसार, जिगर में आग तो गांधी, लोहिया औरो जयप्रकाश नारायण के पास थी, जिन्होंने अपने आंदोलन से देश को हिला दिया। तभिए हमने डिसाइड किया था कि आखिर जिगर की आग गई कहां, ई हम ढूंढ कर रहूंगा।
वैसे, ई बात तो हम मानता हूं कि अगर बीड़ी जलाने लायक आग भी हमरे जिगर में होती, तो हम एतना निकम्मा नहीं होते! निकम्मापनी में हम अपने अरब भर देशवासियों का प्रतिनिधि हूं। ऐसन जनता का प्रतिनिधि, जिनके जिगर का तो पता नहीं, लेकिन उनमें आग बिल्कुल नहीं है, ई हम दावे के साथ कह सकता हूं। अगर जिगर में आग होती, तो मजाल है कि कोयो किसी को दबा के रख लेता या शोषण कर लेता। नेता हो या बाजार, जिसको देखिए वही हमको गन्ने के जैसन चूस रहा है औरो हम हैं कि चुपचाप देखते रहते हैं। हमरे निक्कमेपन की हद ई है कि अपने खेत के जिस आलू-प्याज को हमने पांच रुपये किलो बेचा था, आज उसी को ४० रुपया किलो खरीद कर खाता हूं, लेकिन विरोध में चूं शब्द नहीं बोलता, धरना-परशदन की तो बाते छोडि़ए।
हालत ई है कि सुप्रीम कोर्ट तक हमको इस निकम्मेपन के लिए धिक्कार रही है। हाल में उसने एक केस के सिलसिले में कुछ बुजुर्गों को सलाह दी कि हक थाली में परोस के नहीं मिलता है, अपना हक आपको मांगना पड़ेगा।
खैर, अपने निकम्मेपन से परेशान होकर हमने ई पता लगाने का फैसला किया कि आखिर हमरे जिगर की आग गई कहां? आखिर ऐसा का हुआ कि हम आंदोलन नहीं कर पाते?
हम पहुंचे एक ठो ज्ञानी सर्जन के पास। सर्जन ने हमको ऊपर से नीचे तक दया के भाव से देखा। फिर बोले, 'तुम्हरे इस अस्थि-पंजर का तो एक्स-रे भी नहीं हो सकता, हम जिगर कहां से ढूंढूं? तुम्हरा तो बस पोस्टमार्टम हो सकता है, अगर कहो तो ऊ कर देता हूं।'
डाक्टर ने हमारा 'पोस्टमार्टम' किया। बोले, 'तुम्हरा जिगर तो सहिए जगह पर है, लेकिन इसकी आग कहीं औरो शिफ्ट हो गई है। अब अगर तुमको अपनी आग ढूंढनी हो, तो पेट औरो उसके नीचे ढूंढना, पूरी आग वही जल रही है।' अब ई बात हमरे समझ में आ गई थी कि हम एतना निकम्मा काहे हूं। पेट औरो उसके नीचे की आग को शांत करने में हमरे जिगर की आग खतम हो गई है।
मतलब ई हुआ कि आज के नेताओं के निकम्मा होने के लिए भी यही फैक्टर जिम्मेदार है। गांधी और जयप्रकाश जैसन नेता आज नहीं हैं, तो वजह यही है कि आज के नेताओं के पेट औरो उसके नीचे की आग जिगर की आग पर भारी पड़ रही है। अब जब उन्हें इन दोनों आग से फुर्सत मिले, तब न गलत काम के विरोध के लिए आंदोलन करें। तो आग की शिफ्टिंग का पता लगाने लेने के बाद लाख टके का सवाल ई है कि पेट औरो उसके नीचे की आग को जिगर की आग पर हावी होने से कैसे बचाया जाए? इसके बारे में तनिक आप भी तो सोचिए! आखिर परजातंत्र के परजा होने के नाते तंत्र पर आपका कंटरोल तो होना ही चाहिए।
टिप्पणियाँ
क्लासिक लेखन है आपका। नवभारत में हमेशा पड़ता हूं। आज इंतजार कर रहा था की टिप्प्णी करनी है।
बहुत खूब!
जिगर की आग तभी भड़कती है जब पेट की आग शांत होती है.
मैँ तो आपकी इस अदा का कायल हो गया
जबरदस्त, धारदार व्यंग्य. :)
"रगो मे दौड़ते फिरने के हम नही कायल,
जब आखँ ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।"