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जनवरी, 2007 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

अकेला गण, एतना विरोधी तंत्र

हम साल भर अपने देश पर नाज करता रहता हूं, लेकिन जैसने २६ जनवरी आता है, हमरा मन बदल जाता है। गणतंत्र के नाम से हमको चिढ़ होने लगता है- सुनते ही लगता है, जैसे दो-चार सौ मधुमक्खियों ने हमको भभौंड़ लिया हो। गणतंत्र से बेसी तो इस देश में 'गनतंत्र' की चलती है। आखिर जहां गन के बल पर नेता वोट लूटकर ले जाता हो, चोर नोट लूटकर ले जाता हो, सरकार जनता के मुंह पर पट्टी बांध देती हो औरो आतंकवादी बेटी से लेकर बोटी तक लूटकर ले जाता हो, उसे 'गनतंत्र' समझने में बुराइए का है? वैसे, आप इस देश को 'गुणतंत्र' कहें, तो भी चलेगा। आखिर आज देश में वही लोग ठीक से जी रहे हैं, जिनके पास गुण है, जो पढ़ल-लिखल है। यहां जो गरीब है, निरक्षर है, बिना किसी हुनर का है, ऊ तो जानवर से भी बदतर जिंदगी जी रहा है। ऐसन 'गुणतंत्र' में ही हो सकता है। गणतंत्र में तो गरीब, निरक्षरों को भी जीने का हक मिलता है, कमजोरों की भी अपनी इज्जत होती है। अपना देश 'गुणतंत्र' इस मामले में भी है कि यहां गुणगान करने वाले ही फलते-फूलते हैं। आप भले ही बहुत काबिल हों, बॉस का गुणगान नहीं करते, तो आपकी गाड़ी हमेशा एक

इस मानसिकता का क्या कहिए

रियलिटी शो 'बिग ब्रदर' में रेसिज्म को लेकर शिल्पा शेट्टी के ऊपर जो कुछ भी गुजरा, उससे आम भारतीय अपने को बेहद आहत महसूस कर रहा है। लेकिन अपने देश में भी ऐसे भेदभाव कम नहीं होते, भले ही इसका रूप दूसरा होता है: शिल्पा शेट्टी पर नस्लीय टिप्पणी के बाद एक बार फिर से रेसिज्म चर्चा में है। हालांकि हाल के दिनों में आतंकवाद के चलते रेसिज्म विश्व भर में चर्चा का विषय बना, लेकिन हमारे लिए वह चर्चा का विषय तभी बन पाया, जब कोई सिलेब्रिटी इसकी चपेट में आया। पिछले दिनों हर्शल गिब्स ने पाकिस्तानी दर्शकों पर जब नस्लीय टिप्पणी की, तो उन्हें दो मैचों के लिए बैन कर दिया या। डीन जोंस को भी कमेंट्री के दौरान दक्षिणी अफ्रीकी क्रिकेटर हाशिम अमला को टेररिस्ट जैसा बताने पर अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। रेसिज्म को लेकर विवाद में शेन वॉर्न भी आए और तब भी इसकी खूब चर्चा हुई, जब फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान जिनेदिन जिदान पर मातेराजी ने नस्लीय टिप्पणी की। यानी यह सिर्फ हमारी पीड़ा नहीं है, विश्व भर में लोग इससे परेशान हैं। लंदन में तो हालत यह है कि काले युवा जो कपडे़ पहनते हैं, वे उनका ब्रैंड और प्राइस टैग लगा

फिर से देश में जमींदारी राज!

एतना फरेस्टेड हम आज तक जिनगी में कभियो नहीं हुए थे, जेतना कि ऐश्वर्या राय की सगाई से हुए हैं। एतना फरस्टेशन तो हमको तभियो नहीं हुआ था, जब माधुरी दीक्षित को एक ठो परदेसी ब्याहकर ले गया था। दरअसल, हमरी फरस्टेशन की वजह ई है कि इस देश में तमाम बढि़या चीज गिने-चुने दोए-चार आदमी के हवेली में पहुंच रही है। पैसा हो या पावर, नालेज हो या खूबसूरती, देश के सब संसाधनों पर दोए-चार घरानों का कब्जा होता जा रहा है। भई, ई ठीक बात नहीं। ई तो गुलामी के दिनों का भारत हो या, मतलब जमींदारी प्रथा वाला देश-- धनी बस जमींदार साहेब हों, बाकी सब गरीब रहेगा। हमरे खयाल से पैसा, पावर, जमीन हो या फिर खूबसूरती, इनका समाज के सभी वर्गों में असमान ही सही, वितरण तो होना ही चाहिए। परजातंत्र में किसी की मोनोपोली काहे होगी? लेकिन अपना देश है कि विकेंद्रीकरण में विशवासे नहीं करता! अंबानी दिनोंदिन धनी होते जा रहे हैं, तो मंगरू दिनोंदिन गरीब। पवार साहब का पावर दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है, तो डालमिया का दिनोंदिन घटता ही जा रहा है। कृषि मंत्री शरद पवार को औरो पावर चाहिए था, इसलिए ऊ भारतीय किरकेट के मुखिया बन गए, उससे भी पेट नहीं भ

एतना खोट गरीबी में!

आजकल जहां देखिए, वहीं कंकालों की चरचा है। अपने देश के निठारी गांव से लेकर परदेस सोमालिया तक, हड्डी ही हड्डी! निठारी में भले-चंगे मानुषों को एक अमीर ने कंकाल बना दिया, तो सोमालिया में गरीबी से कंकाल में बदल चुके मानुषों को अमीर अमेरिका अब पता नहीं किस चीज में बदलेगा। बढ़िया है भैय्या। अमेरिका धनी देश है, इसलिए ऊ धनी आदमी जैसन रोज 'दिन होली, रात दीवाली' तो मनइबे करेगा। अभिए तो उसने इराक में सद्दाम की बलि से बकरीद मनाया था औरो एतना जल्दी सोमालिया में दीवाली मनाने पहुंच गया! खैर, अमीर मनाए रोज होली-दीवाली हमरा कौन-सा तेल-घी जलता है, लेकिन दिक्कत बस ई है कि निठारी गांव हो या सोमालिया, अमीरों की ऐय्याशी में बोटी तो गरीबों की ही उड़ती है न। तो गलती किसकी है, खून पीने वाले अमीरों की या फिर खून पिलवाने के लिए तैयार गरीबों की? हमरे खयाल से गलती दोनों में से किसी की नहीं है, काहे कि दोनों अपनी आदत से लाचार हैं। अमीरों की गलती इसलिए नहीं है, काहे कि उनकी प्यास होती ही इतनी बड़ी है कि जल्दी बुझबे नहीं करती, तो गरीबों की गलती आप इसलिए नहीं कह सकते, काहे कि अगर पेट में चूहा हुड़दंग मचाएगा, तो

नए साल में नशा बस दारू का हो

नए साल से लोग बहुते उम्मीद रखते हैं, लेकिन हमरी बस एके ठो उम्मीद है। और ऊ है-- आप जो हैं, वही दिखें, वही बने रहें। अगर हमरी ई एकमात्र उम्मीद पूरी हो जाए, तो यकीन मानिए दुनिया की सब उम्मीद पूरी हो जाएगी औरो दुनिया मजे में चलती रहेगी। हमरे कहने का मतलब ई है कि नेता को नेता होना चाहिए, खिलाड़ी को खिलाड़ी होना चाहिए, चोर को चोर होना चाहिए, तो पुलिस को पुलिस। सबसे बड़ी बात तो ई कि जनता को जनता होना चाहिए, न कि बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक या अगड़ा-पिछड़ा। का है कि जब जनता एतना टुकड़ों में बट जाती है, तभिये नेता सब सही रास्ता छोड़कर 'नेतागीरी' करने लगते हैं, खिलाड़ी सब खेल छोड़कर तंबाकू, क्रीम औरो मंजन बेचने लगते हैं, पुलिस कोतवाली छोड़कर चोरी करने लगती है, तो चोर सब चोरियो करता है औरो पुलिस बनने की कोशिशो करता है। आप ही सोचिए न अगर परधान मंतरी वास्तव में मंतरियों के परधान होते, तो हर कोयो 'जितनी चाबी भरी सोनिया ने, उतना चले मनमोहना...' काहे गाता? ऊ परधान मंतरी हैं, तो उनको मंतरियों का परधान तो दिखना ही चाहिए। इसी तरह शिक्षा मंतरी को शिक्षा मंतरी बनना चाहिए, न कि आरक्षण मंतरी। अगर प

नव वर्ष मंगलमय हो !!!

आप सभी को नव वर्ष 2007 की हार्दिक शुभकामनाएं