हिंदी का नक्कारखाना

आज हिंदी दिवस था। ऐसन में हिंदी को 'याद' करने के लिए हर बरिस की तरह इस बार भी जलसे का आयोजन हुआ। ऊंची मंच पर हिंदी के सभी 'तारणहार' गर्दन टाने औरो छाती फुलाए विराजमान थे। अध्यक्ष महोदय की कुर्सी स्वाभाविक रूप से एक ठो नाम वाले सिंह जी के लिए समर्पित थी। उनके आते ही कार्यवाही शुरू हुई।

हाव-भाव से चम्मच कवि लग रहे एक सज्जन ने आकर सुर में कुछ गाना शुरू किया। सबने सोचा गणेश या सरस्वती वंदना गा रहा होगा, लेकिन उसके हृदय की बीसियों फुट गहराइयों से निकले स्वर बस अध्यक्ष जी के गुणगान के लिए थे। भाव यह था कि अध्यक्ष जी हैं, इसीलिए हिंदी है। ऊ इहो भूल गए कि कार्यक्रम हिंदी दिवस पर है, न कि अध्यक्ष जी के जनम दिवस या फिर उनके हजारवें चंद दरशन पर। खैर, जब गिनती के अध्यक्ष-विरोधियों ने हंगामा शुरू किया, तो गुणगान रोक वह मंच से नीचे उतर आए।

अब बारी थी, साउथ से पधारे कवि बालकृष्णन की। वह शुरू हुए-- हिंदी बहुत अच्छा भाषा है और हम चाहते है कि यह भारत भर का भाषा बने...। अभी ऊ अपना लाइन पूरा भी नहीं कर पाए थे कि लगे लोग हंसने और फब्तियां कसने- किसने बुला लिया इसे..., हिंदी की रेड़ मार रहा है...। बेचारे अधपके आम की तरह मुंह लटकाए अपनी कुर्सी से लटक गए।

अभी बालकृष्णन बाबू फिर कभियो हिंदी नहीं बोलने का कसम ले ही रहे थे कि श्रृंगार रस के कवि औरो कथाकार मिसिर जी को मंच से आमंत्रण मिला। आगे जो ऊ तूफान खड़ा करने जा रहे थे, उसको भांप उन्होंने अपनी धोती को बढि़या से बांधा, सारे गिरह दुबारा- तिबारा चेक किए औरो फिर मंच पर शहीदी भाव लिए जा पहुंचे। माइक कसकर थामे ऊ बोलने लगे- - हिंदी का बंटाधार हिंदी के मठाधीशों ने ही किया है, उसके स्वयंभू ठेकेदारों ने ही किया है। साल भर इसका हाल कोयो नहीं पूछता, लेकिन इस 'बरसी' का इंतजार हर कोयो करता है। हिंदी की स्थिति भारतीय हाकी टीम की तरह है। वहां हाकी के उत्थान की ठेकेदारी गिल साहेब की मूंछों के भरोसे है, तो यहां बड़े-बड़े नामवर लोग 'इज्म' के भरोसे इसका 'कल्याण' कर रहे हैं। हाकी का 'उत्थान' तो विश्व कप में आप देख ही रहे हैं औरो हिंदी...। मिसिर जी परोक्ष रूप से अपनी अलंकारिक भाषा में श्रोताओं को जो समझाने की कोशिश कर रहे थे, ऊ अब तक मठाधीशों के चेलबा सब के समझ में आ चुका था। आका पर शाब्दिक हमला होता देख, चेलबा सब ने मिसिर जी पर दैहिक हमला बोला। किसी ने उनकी धोती खोल दी, तो किसी ने चोटी, लेकिन मिसिर जी निश्चिंत थे। आखिर उन्होंने सारे गिरह इसी आघात की आशंका में तो कसे थे! हमलों में बीच जारी रहे-- हम आरोप लगाते हैं कि हिंदी का पाठके नहीं है, लेकिन हम पाठकों को देते का हैं? जनवादिता के नाम पर अपनी मानसिक कुंठा औरो चेलाही के नाम पर एक ही 'इज्म' से प्रेरित कहानी-कविता। अगर साहित्य का मतलब गरीबी का चित्रण औरो किसी जाति औरो धर्म के विरुद्ध भड़ास निकालना ही है, तो लोग साहित्य पढ़ेगा काहे?

बालकृष्णन बाबू की हिंदी पर आप लोग हंस रहे हैं। लेकिन ऐसने हंसते रहिएगा, तो भैया काहे कोयो हिंदी बोलेगा? किसने हिंदी बोलने की ठेकेदारी ली है? ऊ तमिल बोलेगा, तेलुगु बोलेगा, कन्नड़ बोलेगा, बहुत परेशान कीजिएगा, तो इंग्लिश बोलेगा औरो आपकी बोलती बंद कर देगा। अरे, हिंदी का भाव बढ़ाना है, तो हिंदी की ठेकेदारी खतम कीजिए..., हिंदी बोलने की कोशिश करने वालों का स्वागत कीजिए...। इंग्लिश से प्रेरणा लीजिए, दुनिया भर में बत्तीस तरह से इंग्लिश बोला जाता है, लेकिन ऊ इंग्लिश ही है, कोयो किसी पर हंसता नहीं...।

अब तक मिसिर जी को मंच पर से घसीट लिया गया था। एक चम्मच खड़ा हुआ, सभी मठाधीशों से मिसिर जी की गुस्ताखी के लिए माफी मांगी औरो फिर सर्वसम्मति से फैसला किया गया कि मिसिर जी को कहीं छपने नहीं दिया जाएगा। आज से इनका हुक्का-पानी बंद। तब तो ऊ जलसा खतम हो गया था, लेकिन अभियो आपको हजारो मिसिर जी हिंदी के नक्कारखाने में 'किकयाते' मिल जाएंगे। संभव है, उनमें से एक आप भी हों।

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
जबर्दस्त, अदभुत, अकल्पनीय लिखते हैं आप.

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