बच्चों का खेल नहीं है बच्चा होना
बाल दिवस पर विशेष
डियर चाचा नेहरू
मैं एक नन्हा-सा बच्चा हूं। देश का नौनिहाल, जिसके कंधों पर आपके देश का भविष्य है, लेकिन सच मानिए देश का भविष्य होते हुए भी मैंने कभी अपने को स्पेशल महसूस नहीं किया। मुझे तो खुद नहीं लगता कि मैं देश का भविष्य हूं। आखिर जिसके कंधों पर देश का भविष्य होगा, उसकी इतनी उपेक्षा कोई देश कैसे कर सकता है? कोई हमारी परवाह नहीं कर रहा, यहां तक कि हमें फोकस में रखकर कोई योजना सरकार बनाती भी है, इसकी जानकारी मुझे तो छोडि़ए, बड़ों-बड़ों को नहीं होती।
आपको शायद ही पता हो कि हमारे लिए इस देश में कुछ भी नहीं है- न ढंग का स्कूल, न किताब, न खेल का मैदान और न ही मनोरंजन के साधन। नेताजी वोट को देखकर स्कूल खुलवाते हैं, तो मास्टर जी स्कूल ही नहीं आते। स्कूली किताबें हमें नहीं, वोट को ध्यान में रखकर लिखवाई जा रही हैं। हमारे आसपास कोई खेल का मैदान, आप ऊपर स्वर्ग से देखकर भी नहीं खोज सकते, तो भला मैं कहां से खोज पाऊंगा! मनोरंजन का हाल यह है कि किताबों के बोझ से एक तो हमें इसके लिए वक्त ही नहीं मिलता और मिलता भी है, तो बड़ों के लिए बनी फिल्मों और गानों को देखकर ही संतोष करना पड़ता है। बच्चों के लिए अपने देश में फिल्में बनती ही नहीं। आखिर जब, ९५ प्रतिशत बॉलिवुड फिल्मों को 'ए' सर्टिफिकेट मिलता है, तो सोच लीजिए हमारे लिए बचता ही क्या है?
सच मानिए, बच्चा होना बच्चों का खेल नहीं है। आप भी अगर अभी बच्चा बन जाएं, तो आपकी हालत खराब हो जाएगी। अगर आप मेरी दिनचर्या सुनेंगे, तो यकीन मानिए आपका दिल दहल जाएगा। मुझे रोज पांच बजे सुबह उठना पड़ता है। तैयार होकर जब मैं स्कूल के लिए निकलता हूं, तो मेरी पीठ पर किताबों का बोझ होता है और सिर पर पढ़ाई का। मुझे अपने बैग में जितनी किताबें रोज ढोनी पड़ती हैं, उतनी किताबें आपने जिंदगी भर नहीं ढोई होंगी। स्कूल पहुंचते ही मेरी 'क्लास' शुरू हो जाती है। मम्मी-पापा को फुर्सत नहीं है, ऐसे में रोज किसी न किसी विषय का मेरा होमवर्क छूट जाता है। जिस मास्टर जी से मैं ट्यूशन पढ़ता हूं, वह घोर प्रफेशनल हैं। स्कूल में जो मेरी 'क्लास' ली जाएगी, उन्हें उसकी चिंता नहीं रहती। वह एक घंटे का पैसा लेते हैं और इतने व्यावसायिक हैं कि मेरे पास ६१वें मिनट नहीं ठहरते, चाहे मेरा होम वर्क पूरा हुआ हो या नहीं। स्कूल में पूरे आठ सब्जेक्ट पढ़ने के बाद बस यूं समझिए कि मेरा भेजा 'फ्राई' हो जाता है। कहां नन्हीं-सी जान और कहां इतने सारे काम! हालत यह होती है कि स्कूल में प्लेग्राउंड में जाने की मेरी हिम्मत नहीं होती और मैं घर आ जाता हूं। तब मम्मी ड्यूटी पर होती हैं। ऐसे में खाना मुझे खुद निकालना पड़ता है या फिर मैं नौकरानी के भरोसे रहता हूं।
इसके बाद मेरी इच्छा खेलने की होती है, लेकिन खेल का मैदान हमारे आसपास है ही नहीं। जो पार्क आसपास थे भी, उनमें किसी ने तबेला बना लिया है और मेरे बदले भैंस के बच्चे उनमें दौड़ लगाते हैं। बाईं तरफ वाले पार्क को तो तलवार साहब निगम पार्षद ने अपने घर में मिला लिया है। ऐसे में मैं घर में ही सिमटकर रह जाता हूं। पचास गज में बने घर में आखिर आप कितनी उछल-कूद मचा सकते हैं? बेड, सोफा, फ्रिज और वॉशिंग मशीन जैसी चीजों को रखने के बाद जो जगह घर में है, उसमें भी हमें संभलकर खेलना पड़ता है, क्योंकि घर में टूटने-फूटने वाली चीजें भी हैं मम्मी की। गली में खेलो, तो शर्मा अंकल की डांट पड़ती है। सही भी है, उनके गमले टूटते हैं या शीशे की खिड़कियां बर्बाद होती हैं, तो वह डांटेंगे ही। अब आप समझ गए होंगे कि देश में ओलिंपिक जीतने वाला कोई खिलाड़ी क्यों नहीं पैदा होता!
ऐसे में मैं टीवी देखता रहता हूं, लेकिन सिर्फ कार्टून चैनल आप कितना देखेंगे? क्या है कि बाकी चैनल्स मम्मी ने लॉक कर रखे हैं, कहती हैं कि फिल्म और गानों में सिर्फ सेक्स और हिंसा होती है, जिसे देखना मेरे बाल-मन के लिए सही नहीं है। अब आप ही बताइए मनोरंजन के लिए मैं कहां जाऊं? विडियो गेम बचता है, लेकिन एक काउंसिलर की सलाह पर पापा ने उसे भी बंद करवा दिया, क्योंकि वह भी बच्चों की 'सेहत' के लिए ठीक नहीं। ऐसे में अब मैं और छोटू यूं ही उठा-पटक करते रहते हैं और इसके लिए मम्मी-पापा की डांट व मार खाते रहते हैं। वैसे, सही बताऊं, मेरे कई दोस्त टीवी, विडियो और इंटरनेट देख-देखकर अब बच्चे नहीं रहे। उन्हें वे सारी चीजें पता हो गई हैं, जो बड़ों को ही पता होनी चाहिए। इससे उनकी मानसिक उलझनें बढ़ गई हैं। लेकिन आप ही बताइए, इसमें उनकी क्या गलती है?
बच्चों को बच्चा बनाए रखना तो परिवार, समाज और देश का ही काम है न, लेकिन ये तो कुछ करते नहीं। अब देखिए न, वह रामू था न, मेरा नौकर। उसके पापा ने उसे दूसरी क्लास में ही स्कूल से निकाल लिया, क्योंकि उसके पांच छोटे भाई-बहनों को वह ठीक से नहीं खिला पाते थे। रामू कमाकर उन्हें पैसा भेजता था, लेकिन अभी जो चाइल्ड लेबर लॉ आया है न, उसके डर से मेरे पापा ने उसे नौकरी से निकाल दिया। सुनते हैं कि अब वह चांदनी चौक पर भीख मांगता है और अपने भाई-बहनों को पालने में अपने पापा की मदद करता है। बताइए, ऐसे किसी कानून का क्या मतलब है? उसकी पढ़ाई-लिखाई और पेट भरने की व्यवस्था तो सरकार ने की नहीं, लेकिन भीख मांगने की व्यवस्था जरूर कर दी।
सरकार होती ही ऐसी है। उन्होंने हमारा मजाक बना रखा है। वह हमें इतना कन्फ्यूज करती है कि पूछो मत। सरकार बदलती है, तो राम और रहीम की परिभाषा बदल जाती है। दुविधा ऐसी है कि किताब पढ़कर मैं अभी तक यह डिसाइड नहीं कर पाया हूं कि १८५७ का आंदोलन विदोह था या फिर क्रांति? क्या आपके समय में भी ऐसा ही होता था?
परेशानी यह है कि हमारी इतनी परेशानियों के बावजूद हम बच्चों से परिवार, समाज और देश सबको उम्मीदें हैं। हमारे परिवारवाले चाहते हैं कि हम बच्चे एक ही दिन में आसमान के सारे तारे तोड़ लाएं, तो समाज चाहता है कि बच्चों में बचपना बरकरार रहे और देश, उसकी तो पूछिए ही मत। वह तो अपनी तरफ से बिना कोई सुविधा दिए ही हमारे कंधों पर अपना भविष्य सौंप रहा है।
एक कलाम चाचा हैं, लेकिन मजबूरी में वह बस सपने दिखाते हैं, उनको हकीकत में बदलने के लिए उन्हें सरकार से सपोर्ट ही नहीं मिलती। आप तो सरकार चलाते थे, इसलिए आपने हमारे लिए इतना कुछ किया भी, लेकिन वह तो राष्ट्रपति हैं, इसलिए चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते। क्या एक और प्राइम मिनिस्टर हमें आपके जैसा नहीं मिल सकता?
आपका
नन्हा दोस्त
टिप्पणियाँ
ये लेख समाज के उन सब तथाकथित बुद्धिजीवियों को पढ़ना चाहिए जो हमेशा कहते रहते है कि युवा पीढ़ी कहाँ जा रही है?
वास्तव में बड़े जब तक अपनी जिम्मेदारी नहीं निभायेंगे तब तक बच्चे अपना समय इन एडल्ट फ़िल्मों को देखने में ही गुजारेंगे क्योंकि उनके सामने बच्चा बने रहने के सभी विकल्प बंद हो चुके हैं।
बालदिवस पर अच्छे लेख के लिए साधुवाद
बढते बोझ के कारण शायद बच्चों के सर से भी बाल जल्दी ही झड़ने लगेगे, और फिर बाल दिवस पर स्कूलों में उन्हें मिठायी की 'संती' बाल उगाओ केश तेल दिया जाने लगेगा.