शहाबुद्दीन को सजा: कानून नहीं, सत्ता की जीत
राजद सांसद शहाबुद्दीन को स्पेशल कोर्ट ने अपहरण और हत्या के एक मामले में उम्र कैद की सजा सुनाई है। अधिकतर लोगों का मानना है कि चलिए, देर से ही सही, एक बिल्ली के गले में अंतत: घंटी तो बांध दी गई, लेकिन सवाल है कि शहाबुद्दीन जैसे बिलौटे इतने बेखौफ क्यों घूमते रहते हैं?
इसका जवाब यह है कि जब तक आपकी राजनीतिक हैसियत आपको कानून के लंबे हाथों से बचाने का काम करती रहेगी, आपका इस देश में कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। शहाबुद्दीन को नौ साल पुराने मामले में यह सजा सुनाई गई है और ऐसा भी तभी मुमकिन हुआ है, जब बिहार में उनकी विरोधी पार्टियों की सरकार है। जाहिर है, जब तक बिहार में राजद की सरकार रही, शहाबुद्दीन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका, क्योंकि मामले की छानबीन करने वाली पुलिस सत्ता के सामने नतमस्तक थी और सत्ता शहाबुद्दीन के सामने। चूंकि शहाबुद्दीन को भी यह बात अच्छी तरह पता थी कि एक तो वह बाहुबली हैं और ऊपर से अल्पसंख्यक, इसलिए उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे में उन्होंने स्थिति का जमकर फायदा उठाया और वर्षों तक सिवान में समानांतर सत्ता चलाई।
वैसे, शहाबुद्दीन के इस पतन का कारण बिहार में विरोधी पार्टियों की सरकार का होना ही नहीं रहा, बल्कि इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि उन्हें यह सजा जिस आदमी के अपहरण और हत्या के सिलसिले में मिली है, वह माले का कार्यकर्ता था और माले की बिरादरी इस समय केंद्र में सत्ता का मजबूत खंभा है। राजद से भी मजबूत खंभा। यकीन मानिए अगर वामपंथियों का दबाव नहीं होता, तो लालू किसी भी कीमत पर अपने 'वोट के इस बोरे' को गुनाहगार साबित नहीं होने देते। जैसा कि सब को पता है, लालू शहाबुद्दीन को बिहार की राजनीति में मुसलमानों के रहनुमा के तौर पर इस्तेमाल करते आए हैं। तो शहाबुद्दीन प्रकरण में कानून के हाथ बहुत लंबे हैं और उससे कोई नहीं बच सकता, कहने के बजाय यह कहिए कि सत्ता के खेल बड़े निराले हैं!
हालांकि वे सभी पार्टियां, जो शहाबुद्दीन को मिले इस सजा को न्याय की जीत के रूप में देख रहे हैं, उन्हें यह भी मानना चाहिए कि लाख बुरे होने के बावजूद शहाबुद्दीन न्यायपालिका का सम्मान उन सबसे ज्यादा करते हैं। इस मामले में शहाबुद्दीन का नाम गिनीज बुक में शामिल होना चाहिए कि सांसद रहते हुए भी अपने जिले की पुलिस से लगातार आठ घंटे एनकाउंटर करने वाले शहाबुद्दीन ने कभी न्यायालय के विरोध में कुछ नहीं कहा, जबकि आज का हर लल्लू-चंपू नेता कोर्ट को गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है।
तो शहाबुद्दीन को मिली सजा को न्याय की जीत कहने के बजाय सत्ता की शक्ति की जीत कहिए और खुश होने के बजाय इस बात के लिए चिंतित होइए कि देश में कानून का राज अभी भी नहीं है। आखिर न्याय भी उसी को मिल रही है, जिसको सत्ता न्याय दिलवाना चाहती है!
इसका जवाब यह है कि जब तक आपकी राजनीतिक हैसियत आपको कानून के लंबे हाथों से बचाने का काम करती रहेगी, आपका इस देश में कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। शहाबुद्दीन को नौ साल पुराने मामले में यह सजा सुनाई गई है और ऐसा भी तभी मुमकिन हुआ है, जब बिहार में उनकी विरोधी पार्टियों की सरकार है। जाहिर है, जब तक बिहार में राजद की सरकार रही, शहाबुद्दीन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सका, क्योंकि मामले की छानबीन करने वाली पुलिस सत्ता के सामने नतमस्तक थी और सत्ता शहाबुद्दीन के सामने। चूंकि शहाबुद्दीन को भी यह बात अच्छी तरह पता थी कि एक तो वह बाहुबली हैं और ऊपर से अल्पसंख्यक, इसलिए उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। ऐसे में उन्होंने स्थिति का जमकर फायदा उठाया और वर्षों तक सिवान में समानांतर सत्ता चलाई।
वैसे, शहाबुद्दीन के इस पतन का कारण बिहार में विरोधी पार्टियों की सरकार का होना ही नहीं रहा, बल्कि इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि उन्हें यह सजा जिस आदमी के अपहरण और हत्या के सिलसिले में मिली है, वह माले का कार्यकर्ता था और माले की बिरादरी इस समय केंद्र में सत्ता का मजबूत खंभा है। राजद से भी मजबूत खंभा। यकीन मानिए अगर वामपंथियों का दबाव नहीं होता, तो लालू किसी भी कीमत पर अपने 'वोट के इस बोरे' को गुनाहगार साबित नहीं होने देते। जैसा कि सब को पता है, लालू शहाबुद्दीन को बिहार की राजनीति में मुसलमानों के रहनुमा के तौर पर इस्तेमाल करते आए हैं। तो शहाबुद्दीन प्रकरण में कानून के हाथ बहुत लंबे हैं और उससे कोई नहीं बच सकता, कहने के बजाय यह कहिए कि सत्ता के खेल बड़े निराले हैं!
हालांकि वे सभी पार्टियां, जो शहाबुद्दीन को मिले इस सजा को न्याय की जीत के रूप में देख रहे हैं, उन्हें यह भी मानना चाहिए कि लाख बुरे होने के बावजूद शहाबुद्दीन न्यायपालिका का सम्मान उन सबसे ज्यादा करते हैं। इस मामले में शहाबुद्दीन का नाम गिनीज बुक में शामिल होना चाहिए कि सांसद रहते हुए भी अपने जिले की पुलिस से लगातार आठ घंटे एनकाउंटर करने वाले शहाबुद्दीन ने कभी न्यायालय के विरोध में कुछ नहीं कहा, जबकि आज का हर लल्लू-चंपू नेता कोर्ट को गरियाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है।
तो शहाबुद्दीन को मिली सजा को न्याय की जीत कहने के बजाय सत्ता की शक्ति की जीत कहिए और खुश होने के बजाय इस बात के लिए चिंतित होइए कि देश में कानून का राज अभी भी नहीं है। आखिर न्याय भी उसी को मिल रही है, जिसको सत्ता न्याय दिलवाना चाहती है!
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