करे कोई, भरे कोई!
लीजिए एक ठो औरो वेतन आयोग गठित हो गया। मतलब निकम्मों-नाकारों को बिना मांगे एक ठो औरो पुरस्कार मिल गया। नसीब इसी को न कहते हैं-- काम-धाम कुछो नहीं औरो तनखा है कि रोज बढ़ता जाता है। जिन बाबूओं और अफसरों के कारण देश दिनों दिन गड्ढे में जा रहा है, उनका तनखा काहे रोज बढ़ता रहता है, ई बात हमरे समझ में आज तक नहीं आई! ई तो कमाकर दो टका नहीं देते सरकार को, उलटे सरकार को कमाकर इनका पेट भरना पड़ता है। अब असली परोबलम ई है कि सरकार तो कमाएगी हमीं-आप से न। सो एक बेर फेर तैयार हो जाइए महंगाई औरो टैक्स के तगड़ा झटका सहने के लिए। ई तो बड़का अन्याय है! किसी की करनी का फल कोयो और काहे भुगते भाई?
वैसे, एक बात बताऊं बास्तव में आज की दुनिया में हर जगह यही हो रहा है-- करता कोई है, भुगतता कोई और है। अब आतंकबादिये सब को देख लीजिए न। इनको जो पाल-पोस रहा है, ऊ तो मौजे न कर रहा है, मर तो बेचारी असहाय जनता रही है। पिछले दिनों अपने नेता जी भड़क गए, काहे कि दुनिया जिसको आतंकबादी कहती है, ऊ उनकी 'सिमी' डार्लिंग है। ऊ नेता जी को बोरा में भरके वोट देती है औरो विदेशी से आयातित नोट भी। अब ऐसन डार्लिंग पर अगर आप उंगली उठाइएगा, तो नेताजी भड़कवे न करेंगे!
और तो और अपने लाल झंडा वाले भाइयों को ही देख लीजिए। नक्सली सब जब सीधा-सादा आदिवासियों को मारते हैं, तो इन भाइयों के लिए उ 'हक की लड़ाई' होता है। लेकिन जब वही आदिवासी सब अपनी रक्षा में हथियार उठाता है, तो कामरेड सब की आंखों से एतना बड़का- बड़का आंसू गिरता है। उ बैठ के रोते रहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार जनता को हथियार देकर अन्याय कर रही है। का है कि राजनीति को चमकती है कामरेडों की, भुगतती बेचारी जनता है।
दिक्कत ई है कि नेताजी की करनी की वजह से आप बम-बारूद से मरिए या जरिए, उससे उनको कौनौ फरक नहीं पड़ता है? उनको कुरसी जिस चीज से मिलेगी, ऊ उसको पियार करेंगे ही। आप मनाते रहिए मैय्यत, नेताजी को काहे फरक पड़ने लगा?
हमको तो हंसी आती है कि अपने परधान मंतरी जी मुशर्रफ से दाउद औरो मसूद अजहर मांग रहे हैं। अरे भइया, जब अपना देसी आतंकबादी सब मंतरी औरो मुखमंतरी सब के संरक्षण में छुट्टा घूम रहे हैं, जो बेचारे मुशर्रफ जी से आप बिदेशी आतंकबादी काहे मांग रहे हैं? आप कहते हैं कि पाकिस्तान में आतंकबादियों को परशिक्षण मिलता है, मुशर्रफ उसको खतम करे, लेकिन आप खुद गली-गली में मौजूद 'आतंकी पाठशाला' पर तो कोयो अंकुश लगा नहीं पा रहे। ऐसे में मुशर्रफ को किस मुंह से अंकुश लगाने को कहते हैं? पहले आप देसी मुशर्रफों औरो मसूद अजहरों से तो निबटिये, फिर सीमा पार कीजिए!
हमरे जैसन जनता के लिए तो यही बहुत है कि बम-बारूद के बीच सड़क पर निकलने के लिए हमको बहादुर मान लिया गया। अब ई मानने के लिए कहां कोयो तैयार होता है कि हम इसलिए बाहर निकले, काहे कि पेट की आग बम-बारूद से बेसी विस्फोटक होती है औरो बेसी घातक भी! सो भैया अंदर की बात तो यही है कि बारूद के बीच काम पर जाना मजबूरी है, बहादुरी नहीं। आश्चर्य देखिए कि यहां भी करता कोई और भुगतता कोई और है- - भूख तो पेट को लगती है, लेकिन उसको शांत करने के चक्कर में बेचारा मारा पूरा देह जाता है।
वैसे, एक बात बताऊं बास्तव में आज की दुनिया में हर जगह यही हो रहा है-- करता कोई है, भुगतता कोई और है। अब आतंकबादिये सब को देख लीजिए न। इनको जो पाल-पोस रहा है, ऊ तो मौजे न कर रहा है, मर तो बेचारी असहाय जनता रही है। पिछले दिनों अपने नेता जी भड़क गए, काहे कि दुनिया जिसको आतंकबादी कहती है, ऊ उनकी 'सिमी' डार्लिंग है। ऊ नेता जी को बोरा में भरके वोट देती है औरो विदेशी से आयातित नोट भी। अब ऐसन डार्लिंग पर अगर आप उंगली उठाइएगा, तो नेताजी भड़कवे न करेंगे!
और तो और अपने लाल झंडा वाले भाइयों को ही देख लीजिए। नक्सली सब जब सीधा-सादा आदिवासियों को मारते हैं, तो इन भाइयों के लिए उ 'हक की लड़ाई' होता है। लेकिन जब वही आदिवासी सब अपनी रक्षा में हथियार उठाता है, तो कामरेड सब की आंखों से एतना बड़का- बड़का आंसू गिरता है। उ बैठ के रोते रहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार जनता को हथियार देकर अन्याय कर रही है। का है कि राजनीति को चमकती है कामरेडों की, भुगतती बेचारी जनता है।
दिक्कत ई है कि नेताजी की करनी की वजह से आप बम-बारूद से मरिए या जरिए, उससे उनको कौनौ फरक नहीं पड़ता है? उनको कुरसी जिस चीज से मिलेगी, ऊ उसको पियार करेंगे ही। आप मनाते रहिए मैय्यत, नेताजी को काहे फरक पड़ने लगा?
हमको तो हंसी आती है कि अपने परधान मंतरी जी मुशर्रफ से दाउद औरो मसूद अजहर मांग रहे हैं। अरे भइया, जब अपना देसी आतंकबादी सब मंतरी औरो मुखमंतरी सब के संरक्षण में छुट्टा घूम रहे हैं, जो बेचारे मुशर्रफ जी से आप बिदेशी आतंकबादी काहे मांग रहे हैं? आप कहते हैं कि पाकिस्तान में आतंकबादियों को परशिक्षण मिलता है, मुशर्रफ उसको खतम करे, लेकिन आप खुद गली-गली में मौजूद 'आतंकी पाठशाला' पर तो कोयो अंकुश लगा नहीं पा रहे। ऐसे में मुशर्रफ को किस मुंह से अंकुश लगाने को कहते हैं? पहले आप देसी मुशर्रफों औरो मसूद अजहरों से तो निबटिये, फिर सीमा पार कीजिए!
हमरे जैसन जनता के लिए तो यही बहुत है कि बम-बारूद के बीच सड़क पर निकलने के लिए हमको बहादुर मान लिया गया। अब ई मानने के लिए कहां कोयो तैयार होता है कि हम इसलिए बाहर निकले, काहे कि पेट की आग बम-बारूद से बेसी विस्फोटक होती है औरो बेसी घातक भी! सो भैया अंदर की बात तो यही है कि बारूद के बीच काम पर जाना मजबूरी है, बहादुरी नहीं। आश्चर्य देखिए कि यहां भी करता कोई और भुगतता कोई और है- - भूख तो पेट को लगती है, लेकिन उसको शांत करने के चक्कर में बेचारा मारा पूरा देह जाता है।
टिप्पणियाँ
तो जय हो गांधी बाबा!!! बनल रहे हरियरी... हम तोहके कमाईं और कुकुरा तोहके चाटे. इहे ह सबसे बढ़ सांच.
तो जय हो गांधी बाबा!!! बनल रहे हरियरी... हम तोहके कमाईं और कुकुरा तोहके चाटे. इहे ह सबसे बढ़ सांच.
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