नए साल में नशा बस दारू का हो

नए साल से लोग बहुते उम्मीद रखते हैं, लेकिन हमरी बस एके ठो उम्मीद है। और ऊ है-- आप जो हैं, वही दिखें, वही बने रहें। अगर हमरी ई एकमात्र उम्मीद पूरी हो जाए, तो यकीन मानिए दुनिया की सब उम्मीद पूरी हो जाएगी औरो दुनिया मजे में चलती रहेगी।

हमरे कहने का मतलब ई है कि नेता को नेता होना चाहिए, खिलाड़ी को खिलाड़ी होना चाहिए, चोर को चोर होना चाहिए, तो पुलिस को पुलिस। सबसे बड़ी बात तो ई कि जनता को जनता होना चाहिए, न कि बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक या अगड़ा-पिछड़ा। का है कि जब जनता एतना टुकड़ों में बट जाती है, तभिये नेता सब सही रास्ता छोड़कर 'नेतागीरी' करने लगते हैं, खिलाड़ी सब खेल छोड़कर तंबाकू, क्रीम औरो मंजन बेचने लगते हैं, पुलिस कोतवाली छोड़कर चोरी करने लगती है, तो चोर सब चोरियो करता है औरो पुलिस बनने की कोशिशो करता है।

आप ही सोचिए न अगर परधान मंतरी वास्तव में मंतरियों के परधान होते, तो हर कोयो 'जितनी चाबी भरी सोनिया ने, उतना चले मनमोहना...' काहे गाता? ऊ परधान मंतरी हैं, तो उनको मंतरियों का परधान तो दिखना ही चाहिए। इसी तरह शिक्षा मंतरी को शिक्षा मंतरी बनना चाहिए, न कि आरक्षण मंतरी। अगर पचास साल में शासन कर चुकी सरकारों के शिक्षा मंतरी शिक्षा को मजबूत करने में जरा-सी भी ईमानदारी बरतते, तो लोगों को फुसलाने के लिए सरकार को आरक्षण के झुनझुने की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती। का है कि जब बच्चा सब रोता रहता है औरो मां-बाप के पास उसके लिए टैम नहीं होता, तभिये न उनको झुनझुना थमाया जाता है- लो बजाते रहो औरो ई भूल जाओ कि तुम्हरा इस दुनिया में कोयो है भी।

एक ठो अपने कृषि मंतरी हैं। उनको देखके तो हमको लगता है कि मंतरियों के पास कोयो कामे नहीं होता। नेता सब बस तफरीह के लिए मंतरी बन जाते हैं। का है कि भारत जैसन कृषि परधान देश के कृषि मंतरी अगर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाए, तो उसके पास बाथरूम जाने के लिए समय नहीं होगा। लेकिन अपने शरद जी के पास एतना समय है कि ऊ भारतीय किरकेट की ठेकेदारी लेने के बाद अब विश्व किरकेट की ठेकेदारी लेने जा रहे हैं। अब देश के किसान करते रहे आत्महत्या, मंतरी जी को तो बस किरकेट के बचाना है? लेकिन हमरे खयाल से अगर आप कृषि मंतरी हैं, तो आपको कृषि मंतरी होना चाहिए, न कि किरकेट मंतरी।

इसी तरह आप बहुसंख्यक हैं, तो आपको बड़ा भाई बनकर रहना चाहिए न कि सब सुख-सुविधा खुदे हड़पने के फेर में रहना चाहिए। अब जब आप इतना त्याग करेंगे, तो जाहिर है अल्पसंख्यकों को भी लोकतंत्र के एतना 'दुरुपयोग' की जरूरत नहीं पड़ेगी औरो न ही ब्लैकमेलिंग की।

आप ही सोचिए न, अगर समाजसेवी समाज सेवा करे और दुकानदार दुकानदारी, तो किसी को का दिक्कत होगा? दिक्कत तो तब होता है, जब समाजसेवी दुकानदारी करने लगते हैं औरो दुकानदार समाजसेवी बन जाते हैं।

इसी तरह नशा जब अल्कोहल का हो, मजा तभिये आता है, पीने वालों को भी औरो पियक्कड़ों को देखने वालों को भी। गड़बड़ तो तब होती है, जब सत्ता, पैसा औरो पोस्ट जैसन बिना अल्कोहल वाली चीजों का नशा लोगों पर छाने लगता है औरो जबान से जमीर तक लड़खड़ाने लगता है।

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
ऊ का है न कि सबके दोसरा के थरिया में ही घीव ज्यादा दीखता है. ऐसा नहीं है कि ऊ अपना थरिया छोड़ के दोसरा का थरिया में मूंह मारते हैं बल्कि आपन थरिया का भोजन पहिलहीं हूर लेते हैं फिर जुठे थारी छोड़के दोसर के थरिया पर नज़र टिका देते है अउर मौका मिलते ही दोसरको थरिआ गायब. आ हम अउर आप ऐसहीं ब्लॉग लिखते हैं और उस पर टिप्पणी करते हैं.
Udan Tashtari ने कहा…
बहुत सही, गजब लिखते हो भाई. छाये रहो. शुभकामना.
Divine India ने कहा…
mazaa aagaya bhai,sachmuch yah vichardhara honi hi chahiye par phatehal desh ke chithade Ministeroo se umeed hi kitni ki jaye. good work.Great.
बेनामी ने कहा…
'जितनी चाबी भरी सोनिया ने, उतना चले मनमोहना...'
वाह एकदम सही फरमाया।

"लेकिन हमरे खयाल से अगर आप कृषि मंतरी हैं, तो आपको कृषि मंतरी होना चाहिए, न कि किरकेट मंतरी।"

सही है जी, मैं तो कहता हूँ कि इसको देखते हुए अलग से क्रिकेट मंत्रालय खोल दिया जाए।
बेनामी ने कहा…
सटीक विचार,गठी हुई भाषा और चुभता व्यंग्य। आपकी लेखन शैली बधाई की हकदार है।

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