इस मानसिकता का क्या कहिए

रियलिटी शो 'बिग ब्रदर' में रेसिज्म को लेकर शिल्पा शेट्टी के ऊपर जो कुछ भी गुजरा, उससे आम भारतीय अपने को बेहद आहत महसूस कर रहा है। लेकिन अपने देश में भी ऐसे भेदभाव कम नहीं होते, भले ही इसका रूप दूसरा होता है:

शिल्पा शेट्टी पर नस्लीय टिप्पणी के बाद एक बार फिर से रेसिज्म चर्चा में है। हालांकि हाल के दिनों में आतंकवाद के चलते रेसिज्म विश्व भर में चर्चा का विषय बना, लेकिन हमारे लिए वह चर्चा का विषय तभी बन पाया, जब कोई सिलेब्रिटी इसकी चपेट में आया। पिछले दिनों हर्शल गिब्स ने पाकिस्तानी दर्शकों पर जब नस्लीय टिप्पणी की, तो उन्हें दो मैचों के लिए बैन कर दिया या। डीन जोंस को भी कमेंट्री के दौरान दक्षिणी अफ्रीकी क्रिकेटर हाशिम अमला को टेररिस्ट जैसा बताने पर अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। रेसिज्म को लेकर विवाद में शेन वॉर्न भी आए और तब भी इसकी खूब चर्चा हुई, जब फुटबॉल वर्ल्ड कप के दौरान जिनेदिन जिदान पर मातेराजी ने नस्लीय टिप्पणी की।

यानी यह सिर्फ हमारी पीड़ा नहीं है, विश्व भर में लोग इससे परेशान हैं। लंदन में तो हालत यह है कि काले युवा जो कपडे़ पहनते हैं, वे उनका ब्रैंड और प्राइस टैग लगाकर चलते हैं, ताकि उनकी आर्थिक स्थिति का पता औरों को चले और उन्हें 'सड़क पर का आदमी' न समझा जाए।

शिल्पा के बहाने

हालांकि शिल्पा को ब्रिटेन में रेसिज्म की समस्या से जूझना पड़ा है, लेकिन अपने देश में भी ऐसी समस्याओं से लोग जूझ रहे हैं, जो रेसिज्म तो नहीं है, लेकिन बहुत कुछ उसी के जैसा है।
शिल्पा शेट्टी बेहतरीन डांसर भी हैं। फिल्म 'शूल' के गाने 'मैं आई हूं यूपी बिहार लूटने...' पर ठुमके लाकर उन्होंने कभी यूपी-बिहार लूटा था। लेकिन अब 'बिग ब्रदर' में उन पर जो नस्लीय टिप्पणी हुई है, उसका भी यूपी-बिहार से खास संबंध है। दरअसल, वह लंदन में नस्लीय भेदभाव की शिकार हुई हैं, तो यूपी-बिहार के लोग अपने ही देश में क्षेत्रीयता की अंधी भावना के शिकार हैं। यूपी-बिहार ही क्यों, नॉर्थ-ईस्ट के लोगों को लेकर भी तो ऐसी ही सोच है शेष भारत में।

ऐसे में तमाम लोगों का मानना है कि यही सही समय है, जब हमें अपने देश में व्याप्त क्षेत्रीयता और सामुदायिक श्रेष्ठता की अंधी भावना के बारे में भी सोचना चाहिए। उनके अनुसार यह किसी भी तरह से नस्लीय भेदभाव से कम नहीं है। एक 'रेशियल बिहेवियर' है, तो दूसरा 'टेरिटोरियल बिहेवियर' और साइकॉलजी के अनुसार दोनों ही बीमार मानसिकता के लक्षण हैं। यानी जितना दोषी नस्लवाद को हवा देने वाले हैं, उतना ही क्षेत्रवाद को हवा देने वाले भी।

हम गहरे धंसे हैं इस कीचड़ में

हम नस्लीय भेदभाव के मुद्दे पर ब्रिटेन के लोगों को चाहे जितना कोस लें, लेकिन सच यही है कि खुद हमारा समाज भी ऐसी मानसिकता से ग्रस्त है, अंतर बस इतना है कि यहां इसका रूप अलग है। महाराष्ट्र से पुरबियों को बाहर निकालने की मांग और असम में हिंदीभाषियों के विरुद्ध अल्फा की हिंसक कार्रवाई भी कुछ ऐसी ही है। इसी तरह नॉर्थ-ईस्ट के लोगों के लिए दिल्लीवालों का 'चिंकी' संबोधन, यूपी-बिहार के लोगों के लिए मुंबई में 'भैया' संबोधन और बिहारी जैसे कर्णप्रिय शब्द का बिहार के निवासियों को धिक्कारने के लिए दिल्ली में यूज, कुछ ऐसी ही बातें हैं, जो किसी भी मामले में रेसिज्म से कम नहीं हैं।

श्रेष्ठता का बोध, यानी विडंबनाओं की पोटली

'बिग ब्रदर' मुद्दे को लेकर मुंबई के लोग खासे आक्रोशित हैं, लेकिन विडंबना यह देखिए कि वहां इसी तरह के भेदभाव के एक रूप--क्षेत्रीयता, का खुला खेल चलता है। श्रेष्ठता का दंभ भरने वाले 'मराठी मानुष' पुरबियों को लेकर अजीब ग्रंथि के शिकार हैं और वे उसे लत नहीं मानते। तो क्या यह माना जाए कि ब्रिटिश भी एशियाई लोगों को लेकर इसी तरह की किसी ग्रंथि के शिकार हैं और उसे लत नहीं मानते हैं?

साइकॉलजिस्ट समीर पारिख कहते हैं, 'यह स्वस्थ व्यवहार नहीं है। दरअसल, इस तरह का भेदभाव लोग इसलिए करते हैं, क्योंकि अपने प्रति खुद उनकी सोच बेहद पुअर होती है। ऐसे में खुद को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ही वे दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं।'

रेसिज्म और क्षेत्रीयता जैसे मुद्दे पर डीयू से एमफिल कर रहे गौरव शील कहते हैं, 'हम दोहरा मानदंड नहीं अपना सकते। अर मराठी मानुष अपनी हर समस्याओं के लिए पुरबिये को जिम्मेदार ठहराते हैं और उनसे मुक्ति की बात करते हैं, तो मेरे खयाल से शिल्पा प्रकरण पर गोरों की आलोचना का उन्हें नैतिक अधिकार नहीं है। आखिर एशियाई प्रतिभागी के रूप में शिल्पा ने भी तो 'ब्रिटिश डॉमिनेंस' को चुनौती देने की जुर्रत की है। सिर्फ रूप बदल जाने से मुद्दे की तासीर नहीं बदल जाती ना? हमारे यहां भी जो क्षेत्रवाद फैलाते हैं, उनकी सोच उन गोरों की तरह ही है।'

तो यह कहना ज्यादा बेहतर रहेगा कि हर कोई अपने से 'श्रेष्ठ' से परेशान है और अपने से 'निमन्' को वह परेशान कर रहा है। शिल्पा ने भले ही एक ब्रिटिश महिला की अहम से चोट खाई हो, लेकिन खुद ब्रिटिश नारिकों की शिकायत रहती है कि स्कॉटिश उन्हें अपने से 'निमन्' समझते हैं।

समस्या की जड़

समाजशास्त्रियों का कहना है कि अपने को 'श्रेष्ठ' मानने वाले लोग, समुदाय या रेस को 'निमन्' से समस्या तब तक नहीं होती, जब तक कि 'निमन्' उनकी चाकरी करते रहते हैं और आर्थिक- सामाजिक रूप से उन्हें टक्कर देने की स्थिति में नहीं होते। समस्या तब खड़ी होती है, जब वे संसाधनों पर अपना अधिकार जमाने लते हैं और इस तरह से उन कथित 'श्रेष्ठों' को उनसे चुनौती मिलने लती है।

'बिग बॉस' की प्रतिभागी रहीं रुपाली गांगुली कहती हैं कि शिल्पा भी अगर पहले ही दिन गोरे प्रतिभागियों के आभामंडल से घबराकर बाहर हो जातीं, तो उन्हें यह कमेंट नहीं सुनना पड़ता। उन्हें यह कमेंट इसलिए सुनना पड़ा, क्योंकि उन्होंने एक ऐसे शो को जीतने का माद्दा दिखाया, जिसकी लोकप्रियता आसमान छूती रही है और ब्रिटिश रेस पर गर्व करने वाला कोई शख्स, जिसमें मुंह की खाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। मेरा मानना है कि शिल्पा को घबराकर शो छोड़ना नहीं चाहिए, बल्कि नस्लीय सोच का डटकर मुकाबला करना चाहिए।

टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…
मेरा मानना है कि शिल्पा को घबराकर शो छोड़ना नहीं चाहिए, बल्कि नस्लीय सोच का डटकर मुकाबला करना चाहिए।

--सही विचार...बहुत डटकर मुकाबला करना चाहिए.
Divine India ने कहा…
पश्चिमी सभ्यता में भी जर्मन अपने को श्रेष्ठ समझते हैं,सभ्यता के शुरुआत से हीं यह भेदभाव देखने को मिलता है,इसका समापन इतनी आसानी से नहीं हो सकता,इसकी जड़े इतनी गहरी है कि इससे बाहर जाना आसान नहीं है…और यह प्रश्न सभ्यता के अं त मे भी मुख उठाये खड़ा होगा…बिचार ज्वलंत है आगे बढ्ने की आवश्यकता है॥

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