आजादी के नाम पर...
सभी आजाद रहना चाहते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि आजादी की सबकी परिभाषा अलग-अलग है। संभव है कि जहां से किसी की आजादी शुरू होती हो, वहां किसी के लिए इसका अंत हो रहा हो, लेकिन हम इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। हमने इतने स्वतंत्रता दिवस मना लिए, लेकिन सच यही है कि ज्यादातर लोग आज भी आजादी को गलत अर्थों में ही ले रहे हैं:
जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और सचमुच में आजादी क्या होती है, इसे शिद्दत से महसूस किया था, अगर उन चुनिंदा बचे- खुचे लोगों से आप बात करें, तो पाएंगे कि वे देश में ब्रिटिश शासन की वापसी चाहते हैं। उन्हें देश का आज का रंग-ढंग कुछ रास नहीं आ रहा। वे चाहते हैं कि जो अनुशासन अंग्रेजों के समय में था, वह फिर से देश में वापस आए। आजादी के नाम पर आज जिस तरह से सब कुछ बेलगाम है, वह उनसे सहा नहीं जाता।
वैसे, उन लोगों का दर्द समझा भी जा सकता है। आज लोग हर वह काम कर रहे हैं, जो वे करना चाहते हैं और यह सब कुछ हो रहा है आजादी के नाम पर। व्यक्तिगत आजादी के नाम पर वे दूसरों की स्वतंत्रता छीन रहे हैं, बोलने की आजादी के बहाने वे दूसरों को बोलने से रोक रहे हैं, लोकतांत्रिक तरीके से विरोध के नाम पर वे क्षेत्रवाद को हवा दे रहे हैं, धार्मिक आजादी के नाम पर आतंक को आसरा दे रहे हैं, तो राजनीतिक अधिकारों का दुरुपयोग अरबों का बैंक बैलेंस बनाने में हो रहा है। शायद यही चीज उन्हें इस बात के लिए विवश करती है कि वे अंग्रेजी हुकूमत की वकालत करें।
आजादी यानी डिप्रेशन और स्यूसाइड
आजादी की चाह में इंसान दिनोंदिन कमजोर होता जा रहा है। दरअसल, जो व्यक्ति बड़ी शिद्दत से आजादी चाहता है, लेकिन उसे हासिल नहीं कर पाता, वह खुद को मिटा डालना चाहता है या अपनी मानसिकता बीमार कर बैठता है। परिणाम यह है कि आत्महत्या का आंकड़ा तेजी से बढ़ रहा है, तो डिप्रेशन की वजह से समाज का एक बड़ा तबका बीमार हो रहा है। आप यह कह सकते हैं कि समाज तब से ज्यादा बीमार रहने लगा है, जब से लोगों में आजादी की चाह तेजी से हिलोरें मारने लगी हैं और जब से लोगों ने आजादी को अपने जीने-मरने से जोड़ लिया है।
पर्सनल स्पेस की डिमांड
लोग जहां पहले एक-दूसरे से जुड़कर रहना चाहते थे, वहीं अब वे अलग रहना चाहते हैं। इतना अलग कि कोई यह न पूछे कि अभी क्या कर रहे हो। और इसे नाम दिया गया है कि पर्सनल स्पेस का। यह पर्सनल स्पेस आज पारिवारिक कलह की सबसे बड़ी वजह है। मियां-बीवी, पैरंट्स-बच्चे, भाई-बहन जैसे तमाम रिलेशंस पर्सनल स्पेस की बढ़ती मांग की वजह से कमजोर होते जा रहे हैं। वेस्ट ने तो पर्सनल स्पेस से होने वाली क्षति के साथ जीना सीख लिया है, लेकिन भारतीय समाज को इसने बिखेर कर रख दिया है।
इस पर्सनल स्पेस ने लोगों में एक किस्म की उच्छृंखलता पैदा की है, जिससे तलाक की संख्या बढ़ रही है और विवाह संस्था छिन्न- भिन्न हो रही है, तो बड़े-बूढ़ों को सामाजिक सुरक्षा नहीं मिल रही। बच्चे अब बूढ़े पैरंट्स को अपने साथ रखना नहीं चाहते, क्योंकि वे बच्चों की पर्सनल स्पेस का खयाल नहीं करते। जाहिर है, इस पर्सनल किस्म की आजादी ने देश के सामने एक बड़ी चुनौती रख दी है और यह चुनौती है अनाथ बच्चों व बूढ़ों को सहारा देने के लिए जल्दी से जल्दी एक राष्ट्रीय नीति पर काम शुरू करने की। यही नहीं, तलाक की बढ़ती संख्या ने तलाक कानून को और लचर बनाने की जरूरत भी पैदा की है।
कमजोर कर रही है आजादी
एक आजाद मुल्क हर तरह से मजबूत होता है, लेकिन सभी यह मान रहे हैं कि हम लगातार कमजोर हो रहे हैं। देश की छवि आजाद देश से ज्यादा एक सॉफ्ट नेशन की हो गई है। यही वजह है कि लोग मनमौजी हो रहे हैं। हम सिर्फ अधिकारों की बात करते हैं, कर्त्तव्यों की परवाह नहीं करते। हम यह नहीं देखते कि हमारी आजादी से दूसरों की आजादी कितनी छिन रही है। आज मदरसे, चर्च और तमाम हिंदू संगठन कट्टरपंथ को बढ़ावा देने में लगे हैं और यह सब हो रहा है धार्मिक आजादी के नाम पर। देश अपनी ही आबादी के भार से दबा जा रहा है, लेकिन धर्म की आड़ में लोग फैमिली प्लानिंग से तौबा कर रहे हैं। पोलियो वैक्सीनेशन अभियान भी इसी कथित आजादी के नाम पर फ्लॉप हो रहे हैं। जाहिर है, लोग अपने और अपने विश्वास की आजादी के सामने देश व समाज की चिंता बिल्कुल नहीं कर रहे।
खोखला हुआ सरकारी तंत्र
आजादी का गलत अर्थ कितना गलत होता है, इसे हम अपने देश के सरकारी तंत्र के ढहने के रूप में देख सकते हैं। सरकारी कर्मचारियों ने इतनी ज्यादा आजादी ले ली कि देश का सारा सिस्टम ही बिखर गया। कर्मचारियों की मनमौजी की वजह से जनता के पैसे से बनीं तमाम सरकारी कंपनियों का दीवाला निकल गया, तो कुछ कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गईं और बिकने भी लगीं। प्राइवेट हाथों में अब वही कंपनियां मुनाफे की फसल काट रही हैं।
टिप्पणियाँ
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