मलाइका बाई का नाच

उस दिन हम कहीं जा रहे थे, पीछे से एक परिचित सी आवाज सुनाई दी--कहां जा रयेला है मामू? हम सन्न थे। संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पैरोकार परोफेसर साहेब टपोरी बोली पर कैसे उतर आए? इससे पहिले कि हम कुछो बोलते, परोफेसर साहेब सफाई देने लगे-- हैरान काहे होते हो? सब समय की माया है, ऊ किसी भी चीज की जनम कुंडली बदल सकता है। इसीलिए हम कहता हूं कि कभियो किसी को मरल-गुजरल मत समझिए। आज जो पिद्दी है, संभव है कि कल ऊ पहलवान बन जाए। आज आप जिस चीज से घृणा कर रहे हैं, संभव है कल उसी को आप माथे पर उठाए फिरें। तभिये तो कभियो असभ्य लोगों की बोली समझी जाने वाली टपोरी को आज इंटलेकचुअल लोग भी बोलने में शरम महसूस नहीं करते।

समय कैसन-कैसन बदलाव लाता है, ऊ हम तुमको बताता हूं। एक जमाने में पैसा लेकर परब-त्योहार में नाचने-गाने वाले खाली नचनिया होते थे, लेकिन आज लोग उनको सेलिब्रिटी मानते हैं। उनकी झलक भर देखने को लोग बेचैन रहते हैं। मलाइका अरोड़ा पैसा लेकर आपकी जनम दिन की पार्टी में नाच सकती हैं औरो आप गर्व से सीना तान कह सकते हैं कि मलाइका ने आपके जनम दिन पर 'परफॉर्म' किया। आज से १५-२० साल पहले ऐसन होता, तो आप कहते-- हमरे जनम दिन पर मलाइका बाई का नाच है। जरूर देखने आना। जमाना का बदला कि हम वाक्य तक बदल देते हैं, गालियो तब आशीरवाद लगने लगता है! मामला 'अपमार्केट' हो, तो मलाइका को हम मलाइका बाई कैसे कह सकते हैं भाई!

ऐसने देखिए कि जब तक समाजसेवा में ग्लैमर नहीं आया था, एनजीओ को कोयो पूछबे नहीं करता था। समाजसेवियों को तब सिरफिरा दिमाग वाला माना जाता था--एकदम अर्द्धपागल आदमी। ऐसन आदमी, जो भीख मांगकर लोगों की भलाई करना चाहता है या जो समाजसेवा में भिखमंगा बनना चाहता है। लेकिन जैसने पैसा वाला औरो उनकी गलैमरस बीवियां समाजसेवी का चोला पहनने लगे, एनजीओ शान की 'दुकानदारी' हो गई। इसमें अब आप अवार्ड, शान औरो शोहरत खरीद-बेच सकते हैं औरो हां, इज्जत भी। हालत ई है कि मठ से बेसी अब जोगी हो गया है। ऐसन में समाजसेवा की 'भूख' मिटाने के लिए कोयो कौआ हांकने को मुद्दा बनाता है, तो कोयो पूरे परदेश को अवैध संबंधों के जाल में फंसा दिखा देता है। समाजसेवा के फैशनेबल बनने का जलवा ऐसन देखिए कि गलैमरस हीरोइनो सब अब भूखे-नंगे लोगों के बीच बैठकर फोटुआ खिंचाने में शरमाती नहीं औरो उनको 'प्रेरित' करने के लिए 'कॉन्सेशन रेट' पर एनजीओ को उपलब्ध हो जाती हैं।

कुछ ऐसने हाल अब पतरकारिता का हो गया है। कभियो पतरकारिता का पेशा समाज के 'मरे' हुए लोगों के लिए रिजर्व हो गया था। तब कंधे पर झोला लटकाए चप्पल चटकाते खद्दरधारी को देखते ही लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते थे। बेचारे समाज के पहरूओं को ब्याह करने के लिए ढंग की लड़की तक नसीब नहीं होती थी। लेकिन आज इसमें पैसा औरो गलैमर सब कुछ है। समाज की ऐसन सभी लड़कियां, जो अपने को सुंदर मानती हैं, लेकिन हीरोइन नहीं बन पाती हैं, माइक थामे किलो के भाव चैनलों में पहुंच जाती हैं। समय है, 'सोलह दूनी आठ' जानने के बावजूद इन इंस्टेंट पतरकारों की जय-जयकार हो रही है!

तो भइया, निष्कर्ष ई है कि आप जैसन हैं, उसी में मस्त रहिए। अपनी भाषा, रीति-रिवाज औरो संस्कृति को कभियो कमतर मत समझिए। बोले तो बिंदास बोलने का, बिंदास रहने का।

टिप्पणियाँ

इसी लिए तो कहते हैं,"समय बड़ा बलवान हैं भैये".
उन्मुक्त ने कहा…
समय होत बलवान

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