हम नहीं सुधरेंगे!

ई बड़ी अजीब दुनिया है भाई। यहां खुद कोयो नहीं सुधरना चाहता, लेकिन दूसरों के सुधरने की आशा सभी को रहती है। ऐसन में अपने देश में अगर कोयो सबसे बेसी परेशान है, तो ऊ है कोर्ट। देश को सुधारने की कोशिश में उसकी कमर झुकी जा रही है औरो हम हैं कि सुधरने का नामे नहीं ले रहे। एक समस्या खतम नहीं होती कि हम दूसरी पैदा कर देते हैं। अब लगे रहे कोर्ट औरो सरकार हमें सुधारने में। अगर उन्हें हमें सुधारने में नानी न याद आ गई, तो हम भी भारत जैसे लोकतांतरिक देश के नागरिक का हुए! अगर कानून को ठेंगा दिखाने की आजादी ही न मिले, तो आप ही बताइए आजाद देश के नागरिक होने का मतलबे का रह जाएगा?

अब दिल्लिये को लीजिए। हम कहते हैं कि देश की राजधानी को सुधारने के चक्कर में कोर्ट बेकारे न अपनी एनरजी लगा रहा है। शायद उसको नहीं पता है कि हम यहां न सुधरने की कसम खाए बैठे हैं। हालांकि आपको आश्चर्य हो सकता है कि हम पहिले खुद तमाम तरह की समस्या पैदा करते हैं औरो फिर जब उससे अव्यवस्था फैलने लगती है, तो हम उसके लिए परशासन से लेकर सरकार तक को कोसने लगते हैं और धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं।

आश्चर्य आपको इसका भी हो सकता है कि जब कोसने के बाद सरकार औरो कोर्ट हमें परेशानियों से निजात दिलाने लगते हैं, तो हमें फिर से परेशानी होने लगती है औरो हम फिर से धरना-परदरशन शुरू कर देते हैं। लेकिन हमरे खयाल से आपको एतना आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अगर आप सचमुच एतना आश्चर्यचकित हैं, तो हमरे खयाल से आप बहुते बुड़बक हैं औरो आपको लोकतांतरिक देश के अपने 'अधिकारों' का ज्ञान नहीं है।

वैसे, हम ही नहीं, दिल्ली में आजकल सब सब को सुधारने में लगा हुआ है। तीन दिन से दिल्ली बंद के चलते लोगों की हालत खराब है औरो व्यापारी लोग सरकार को सुधर जाने की चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन खुद नहीं सुधर रहे। खुद उन्होंने जहां जगह मिली, दुकान खोल ली। तब लोगों की असुविधा की उन्होंने चिंता नहीं की, लेकिन अब जब कोर्ट लोगों की असुविधा दूर करने लगी है, तो व्यापारियों को असुविधा होने लगी है। वे खुद नहीं सुधरेंगे, कानूनों को तोड़ेंगे, लेकिन सरकार औरो कोर्ट को सुधरने की धमकी जरूर देंगे।

आश्चर्य की बात इहो है कि खुद जनता भी एक-दूसरे को सुधरने को कह रही है। सीलिंग की आग रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों ने लगाई, काहे कि उन्हें कालोनियों के अंदर दुकानों से बहुते परेशानी होती है। पूरा जगह दुकानों ने घेर ली है औरो लोगों का चलने-फिरने में दिक्कत हो रही है। हालांकि इन्हीं रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लोगों ने अपनी कालोनियों में अतिक्रमण कर एक फुट भी जगह खाली नहीं छोड़ी है, रोड तक को अपने घर में मिला चुके हैं, लेकिन अपनी गलती उन्हें दिखती नहीं। उन्हें तो बस दुकानदारों की गलती दिखती है औरो ऊ उन्हें सुधारना चाहते हैं। अपना अतिक्रमण उन्हें जायज लगता है, लेकिन दुकानदारों का अतिक्रमण नाजायज!

आश्चर्य की बात ई है कि रेजिडेंट वेलफेयर सोसायटियों के लिए कष्ट का कारण बने इन दुकानदारों को भी दूसरों से कष्ट होता है! तभी तो दुकानों के सामने पटरी पर अतिक्रमण कर सामान बेचने वालों को हटाने के लिए ऊ कोर्ट तक दौड़ लगाते रहते हैं। खुद लोगों को परेशान कर रहे हैं, तो कुछ नहीं, लेकिन उन्हें परेशान करने वाला कोयो नहीं होना चाहिए।

वैसे, हमरे खयाल से तो यही लोग हैं एक 'बेहतर' लोकतांतरिक देश के 'सच्चे' नागरिक, काहे कि वोट इनकी मुट्ठी में है। हम तो कहते हैं कि अगर अपने स्वार्थों के सामने आप दूसरों की चिंता करते हैं, तो लानत है आप पर। इससे बढि़या तो आप सतयुगे में न पैदा हुए होते, जब संतों की यह बात मानी जाती थी- - खुद सुधरो, जग सुधरेगा।

टिप्पणियाँ

क्या बताएं भाई, आजकल कोर्ट वह काम करवाने में लगी है जो वास्तव में करवाना उसका काम नहीं है, पर जिनका यह काम है वह यह काम करता नहीं है. अब कोर्ट कहाँ कहाँ देखे.
हां मैं साइन करूंगा, लेकिन जाओ पहले उस आदमी साइन ले कर आओ जिसने हमें घर से बेघर कर दिया, जिसकी वजह से हमारी मां को मजदूरी करनी पड़ी जाओ उस आदमी का साइन ले कर आओ जिसने मेरे हाथ पर यह लिख दिया था "हम कबहियें ना सुधरिबै" ……फिर मैं साइन करूंगा। ;)
बेनामी ने कहा…
जब सरकार पचास साल की लगातार अनदेखी से पैदा हुई समस्या को एक ही दिन में सुलझाने की कोशिश करेगी तो एक और समस्या अपने आप ही पैदा होगी।

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