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आजादी के नाम पर...

सभी आजाद रहना चाहते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि आजादी की सबकी परिभाषा अलग-अलग है। संभव है कि जहां से किसी की आजादी शुरू होती हो, वहां किसी के लिए इसका अंत हो रहा हो, लेकिन हम इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। हमने इतने स्वतंत्रता दिवस मना लिए, लेकिन सच यही है कि ज्यादातर लोग आज भी आजादी को गलत अर्थों में ही ले रहे हैं: जिन लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और सचमुच में आजादी क्या होती है, इसे शिद्दत से महसूस किया था, अगर उन चुनिंदा बचे- खुचे लोगों से आप बात करें, तो पाएंगे कि वे देश में ब्रिटिश शासन की वापसी चाहते हैं। उन्हें देश का आज का रंग-ढंग कुछ रास नहीं आ रहा। वे चाहते हैं कि जो अनुशासन अंग्रेजों के समय में था, वह फिर से देश में वापस आए। आजादी के नाम पर आज जिस तरह से सब कुछ बेलगाम है, वह उनसे सहा नहीं जाता। वैसे, उन लोगों का दर्द समझा भी जा सकता है। आज लोग हर वह काम कर रहे हैं, जो वे करना चाहते हैं और यह सब कुछ हो रहा है आजादी के नाम पर। व्यक्तिगत आजादी के नाम पर वे दूसरों की स्वतंत्रता छीन रहे हैं, बोलने की आजादी के बहाने वे दूसरों को बोलने से रोक रहे हैं, लोकतांत्रिक तरीके से वि

महिमा सफेद हाथियों की!

जमाना सफेद हाथियों का है। हमरे खयाल इस निराली दुनिया के ऊ सबसे नायाब जीव हैं औरो महिमा ऐसन देखिए कि देश में आजकल ऊ काले हाथियों से बेसी पाए जाते हैं। काले हाथी भले लुप्तप्राय हो रहे हों, लेकिन सफेद हाथियों की हस्ती मिटाए नहीं मिटती। अपने देश में तो हालत कुछ ऐसन है कि कंपनियां पहिले सफेद हाथियों को नौकरी पर रखती है औरो फिर उन घोड़ों के बारे में सोचती है, जिनके भरोसे उनका काम धाम चलेगा। शायद इसकी वजह ई है कि उन्हें सफेद हाथी के 'हाथीत्व' पर कुछ बेसिए भरोसा होता है। वैसे, महंगे सफेद हाथियों का काम होता बहुते आसान है-बस कोड़ा फटकारते रहो... जो काम कर रहा है, उससे औरो काम करवाते रहो। सफेद हाथियों की पहचाने यही है। एक तरफ तो ऊ काम करने वालों को जेतना हो सके प्रताडि़त करते रहते हैं, दुत्कारते फटकारते रहते हैं, ताकि ऊ बेसी से बेसी काम करे, तो दूसरी तरफ काहिलों से उन्हें घनघोर सहानुभूति रहती है। दरअसल, ऊ जानते हैं कि काम करने वालों से आप बस काम करवा सकते हैं, चमचागिरी उनके वश की बात नहीं होती, तो दूसरी तरफ काहिल बस चमचागिरी कर सकते हैं, काम करना उनके वश की बात नहीं होती। ऐसन में काहिलों

बहुते जालिम है दुनिया

दुनिया बहुते जालिम है। आप कुछो नहीं कीजिए, तो उसको पिराबलम, कुछो करने लगिए, तभियो पिराबलम! आखिर दुनिया को चाहिए का, कोयो नहीं जानता। औरो जब तक जानने की स्थिति में होता है, बरबाद हो चुका होता है। जब तक आम भारतीयों को दोनों टैम रोटी-नून नहीं मिलता था, गरीब देश कह-कहके पश्चिमी देशों ने उसके नाक में दम कर रख था। अब जाके स्थिति सुधरी औरो कुछ लोग भरपेट खाना खाने लगे, तो अब फिर से अमेरिका के पेट में दरद की शिकायत हो गई है। अब अमेरिकी विदेश मंतरी कहने लगी हैं कि भारतीय एतना भुक्खड़ हैं कि टन का टन अन्न चट कर जाते हैं। ऊ एतना खाते हैं कि दुनिया से अन्न खतम होने लगा है। गनीमत है, अभी तक अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र में भारतीयों को एक शाम उपवास पर रखने का बिल नहीं पास करवाया है। का पता एक दिन ऐसनो दिन देखना पड़े, आखिर ऊ महाशक्ति है भाई। हालांकि, गनीमत तो इहो है कि अभी तक उनको भारत में आदमियों के पैदावार पर बेसी आपत्ति नहीं है! जिस दिन उसको आपत्ति हो जाएगी, यकीन मानिए भारत सरकार उसके आदेश का वैसने खयाल रखेगी जैसन उसने चीनी ओलिंपिक मशाल का रखा। एक दिन में सबकी नसबंदी हो जाएगी औरो अरब तक जनसंख्या पहुं

काश! हम सठियाये होते

पहले हम बुढ़ापे से डरते थे, लेकिन अब बूढे़ होने को बेकरार हूं। दिल करता है, कल के बजाए आज बूढ़ा हो जाऊं, तो एक अदद ढंग की हसीना हमको भी मिल जाए। नहीं, हम बेवकूफ नहीं हूं। बूढ़ा हम इसलिए होना चाहता हूं, काहे कि बुढ़ापा अब बुढ़ापा रह नहीं गया है। जीवन के चौथेपन में अब एतना मौज आने लगी है कि वानप्रस्थ की बात अब किसी के दिमागे में नहीं घुसती। विश्वास न हो, तो दुनिया देख लीजिए। लोग जेतना बूढे़ होते जा रहे हैं, जवानी उनमें ओतने हिलोरें मारती जा रही है। ' साठा पर पाठा' बहुत पहिले से हम सुनते आया हूं, लेकिन ई कहावत कभियो ओतना सच होते दिखा नहीं, जेतना अब दिख रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति सर्कोजी से लेकर रूस के राष्ट्रपति पुतिन औरो पके बालों वाले सलमान रुश्दी तक, साठवां वसंत देखने जा रहे तमाम लोगों को ऐसन ऐसन हसीना मिल रही है कि जवान लोग के जीभ में पानी आ रहा है। अब हमरी समझ में ई नहीं आ रहा कि कमियां जवान लोगों में हैं या फिर दुनिया भर की लड़कियों की च्वाइस बदल गई है? लोग कहते हैं कि बात दोनों हुई हैं। जवान लोग पैसा बनाने के चक्कर में ऐसन बिजी हैं कि उनके दिल में रोमांस का सब ठो कुएं सू

किरकेटिया कनफूजन

शाहरुख खान औरो अक्षय कुमार आजकल फिलिम से बेसी किरकेट में घुसकर चरचा बटोर रहे हैं। शाहरुख के हाथ में गेंद औरो अक्षय के हाथ में बल्ला... लोग कनफूजिया रहे हैं- कल तक तो पर्दे पर महाशय नचनिया बने घूम रहे थे, किरकेटर कब बन गए? अभी तक किसी टीम में खेलते तो नहीं देखा...। लोग हैरान हैं, तो किरकेटो कम हैरान नहीं है। ऊ ई तो जानता है कि आजकल दुनिया में कोयो अपना काम कर खुश नहीं रहता, इसलिए दूसरों की फटी में टांग अड़ाता रहता है। लेकिन दिक्कत ई है कि लोग अब उसकी फटी में भी टांग अड़ाने लगे हैं। उसको अपना स्टेटस कम होता नजर आने लगा है। कहां तो लोग उसे भारत का धरम कहते थे औरो किरकेटरों को भगवान, तो कहां स्थिति ई है कि अपना जादू कायम रखने के लिए उसे अब बालिवुडिया 'देवी-देवताओं' की मदद लेनी पड़ रही है। उसके अपने किरकेटिया भगवान तो गाय-भैंस बनकर कब के नीलामी में सरेआम बिक गए! किरकेट का आगे का होगा, ई सोचकर हमरे मिसिर जी भी परेशान हैं। उनको पता है कि चीजांे का ऐसन घालमेल बहुते खराब होता है। घालमेल की वजह से ही ऊ अक्सर मनमोहन सिंह को भूलकर सोनिया गांधी को परधान मंतरी कह देते हैं, तो शरद पवार को किर

स्वर्ग जाना के चाहता है?

छठे वेतन आयोग की सिफारिश आने से बाबू सब कुछ बेसिए खुश हो गए हैं। बड़का-बड़का झोला सिलाकर अब उनको इंतजार है, तो बस सरकार के वेतन आयोग की सिफारिश मान लेने का। हालांकि हमरे समझ में ई नहीं आ रहा कि जब जिंदगी का फटफटिया घूस वाले पेटरोल से मजा में चलिए रहा है, तो एतना सैलरी का ऊ करेंगे का? एक ठो बाबू मिल गए, 'हमने अपनी इस 'चिंता' से उनको अवगत कराया।' ऊ बिगड़ गए, 'आपके पेट में कुछ बेसिए दरद हो रहा है। पैसा सरकार का है औरो जेब हमारी है, जब हम दोनों को कौनो आपत्ति नहीं है, तो आप काहे चिंता में दुबले हो रहे हैं?' हमने कहा, 'जेब आपकी है औरो पैसा सरकार का है, ई बात सही है, लेकिन एक ठो बात बताइए, सरकार पैसा का अपने पिताजी के यहां से लाएगी? जब हमरे ही टैक्स से सरकार की गाड़ी चलनी है, तो आपके जेब में जाने वाला पैसबो तो हमरे होगा न।' ऊ बोले, 'ऊ तो हमरे जेब में जाने वाला पैसा हर हाल में आपका ही होता है-चाहे सरकार से हमें सैलरी मिले या आपसे घूस कमाएं। वैसे, आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि हमरी सैलरी बढ़ गई तो चमड़ी आप ही की बचेगी-घूस लेते समय आप पर दो-चार रुपये का रहम

हाकी की लुटिया

हाकी की लुटिया डूब गई, लोग बहुते निराश हुए। पूरे देश में बस एके ठो आदमी है, जो तनियो ठो परेशान नहीं हुआ औरो ऊ हैं हाकी महासंघ के अध्यक्ष गिल साहब। हमने सोचा, चलो मातम की इस बेला में गिल साहब से हाकी के बारे में बतिया लिया जाए। हम पहुंचे गिल साहब के पास। हमने कहा, 'बधाई हो, आपने ऊ कर दिखाया, जो 80 साल में कोयो नहीं कर सका था?' ऊ बोले, 'धन्यवाद, चलिए इसी बहाने आप लोगों को हाकी की याद तो आई। हम हाकीवाले धन्य हो गए।' इससे पहले कि हम दूसरा सवाल पूछते, ऊ हमहीं से पूछ बैठे, 'तो का आप अपने अखबार में सबसे निकम्मे हैं?' मैं सकपका गया, 'आप ई काहे पूछ रहे हैं?' ऊ बोले, 'जो पतरकार अपने को बहुते काबिल समझता है, ऊ तो किरकेट कवर करने के लिए जुगाड़ लगाता है, संपादक की सेवा करता है। संपादक भी तो निकम्मों को ही हाकी कवर करने में लगाते हैं!' हमने झेंप मिटाई, 'आप तो जिसके पीछे लगते हैं, उसी को मिटा डालते हैं। पहले पंजाब से आतंक खतम किया औरो अब देश से हाकी को। आपने अपनी काबिलियत से पंजाब में आतंकवादियों का सफाया किया था या फिर बस आपकी 'मिटाने' की आदत की वज

नेताजी का बजट

देश को बजट मिल गया। सत्ता में बैठे नेताजी सब खुश हैं, उनके दोनों मंतरियों ने एकदम धांसू इलेक्शन वाला बजट पेश किया है, तो विपक्षी नेताओं की परेशानी ई है कि बजट का पोस्टमार्टम कर ऊ जनता को जो उसका सड़ा-गला पार्ट दिखा रहे हैं, उसको देखकर जनता को हार्ट अटैक नहीं हो रहा। एक ठो विपक्षी नेताजी मिले, बोले, 'पब्लिक निकम्मी हो गई है। लालू ने सब्जबाग दिखा दिया, ऊ खुश हो गई... चिदंबरम ने ख्वाब दिखाया, ऊ खुश हो गई। हमरी तो कोयो सुनबे नहीं करता है। हम कह रहा हूं कि ई बोगस बजट है, इससे लोगों का भला नहीं होगा, लेकिन पब्लिक है कि समझने को तैयार नहीं है। हमने जनता से आह्वान किया कि बजट के विरोध में धरना-परदरशन करने चलिए, लेकिन पब्लिक की बदमाशी देखिए कि विरोध परदरशन में हमरे दस ठो चमचा को छोड़कर कोयो नहीं आया। अब मरे जनता, हमरे बाप का का जा रहा है, अपनी लाइफ तो सेटल है।' हम जनताजी के पास पहुंचे। जनता का कहना था कि जब यही विपक्षी नेताजी सत्ता में थे, तो इन्होंने बजट में हमरा खून चूस लिया था। बजट बना-बनाकर पांच साल में इन्होंने हमको कंगाल बना दिया, तो हमने इन्हें सत्ता से बाहर कर दिया। अब हमरे देह

एक एक कर सब बिक गए!

लीजिए, सब बिक गए। का तेंडुलकर, का धोनी, का जयसूर्या, का पॉन्टिंग...सबकी औकात दो टके की हो गई। सरे बाजार सब नीलाम हो गए। कोयो शाहरुख का करमचारी बन गया, तो कोयो प्रीति जिंटा का गुलाम, कोयो विजय माल्या के बोतल में बंद हो गया, तो कोयो रिलायंस के राजस्व का हिस्सा बन गया। जो जेतना बड़ा तीसमार खां था, ओ ओतना महंगा बिका, तो सचिन के साथ 'गेम' हो गया। इस बेचारे 'भगवान' की औकात धोनी तो छोडि़ए, साइमंड्स से भी कम हो गई। इस नीलामी में सबसे बेसी दुख हमको बेचारे हरभजन सिंह को लेकर हुआ। बेचारे ने जिस मंकी को 'मंकी' कहा औरो जिसके कारण मीडिया को देश का सम्मान दांव पर 'लगने' लगा था, उस साइमंड्स की कीमत भज्जी से बेसी लगाई गई। कहां भज्जी मात्र 3.40 करोड़ में बिके, तो कहां आस्ट्रेलियाई किरकेटर साइमंड्स 5.40 करोड़ में! अब हमको ई नहीं पता कि किरकेटिया कमाई में देश का सम्मान कहां चला गया? वैसे, हमरे समझ में इहो नहीं आ रहा कि साइमंड्स का सोचकर खेलने आ रहे हैं? अगर तेंडुलकर औरो हरभजन जैसन लोग उनको गंवार लगते हैं, तो यहां तो उनको गंवारों की टोली मिलेगी। हालांकि हमको अभियो शक है कि स

जो दुनिया लूटे, महबूबा उसे लूटे

ई गजब का रिवाज है। जो व्यक्ति दुनिया को लूटता है या फिर जिसको दुनिया नहीं लूट पाती, ऊ 'बेचारे' महबूबा के हाथों बुरी तरह लुटते हैं औरो अजीब देखिए कि लुट-लुटकर भी खुश रहते हैं। यानी महबूबा दुनिया की सबसे बड़ी लुटेरिन होती हैं या फिर आप इहो कह सकते हैं कि ऊ 'भाइयों' की 'भाई' होती हैं। इसलिए भैय्या, हम तो यही कहेंगे कि बढ़िया तो ई होगा कि आप दुनिये मत लूटिए औरो लूटना ही है, तो महबूबा मत 'पालिए'। पाप ही करना है, तो अपने लिए कीजिए न, हाड़-मांस के एक लोथड़े के लिए पाप काहे करना! लुटेरों को महबूबा कैसे लूटती है, इसका बहुते उदाहरण है। 'डी' कंपनी से दुनिया थर्राती है। मुंबई से लेकर दुबई तक लोग दाऊद इबराहिम के नाम से कांपते हैं औरो हफ्ता चुका-चुकाकर दिन काटते हैं। उसी 'बेचारे' दाऊद का जेतना माल उसकी महबूबा मंदाकिनी ने उड़ाया, ओतना किसी ने नहीं! दाऊदे का चेलबा है अबू सलेम। गुरु गुड़ है, तो चेला भी प्यार-मोहब्बत के फेर में फंसकर कम चीनी नहीं बना। मोनिका बेदी के प्यार के कोल्हू में बेचारे की इतनी पेराई हुई कि कट्टा के बल पर कमाया करोड़ों रुपैया कब उसक

दारू के फेर में किडनी

आजकल हर जगह किडनी का शोर है। कोयो किडनी बेचने वालों को गरिया रहा है, तो कोयो किडनी खरीदने वालों को। कोयो किडनी दान की वकालत कर रहा है, तो कोयो कानून आसान करने की बात, लेकिन दिक्कत ई है कि असली समस्या पर किसी का ध्याने नहीं जा रहा। दरअसल, किडनी सुनकर भले ही आपको अपना जिगर या जिगर का टुकड़ा याद आता हो, लेकिन हमरी स्थिति ई है कि किडनी का नाम सुनते ही हमको दारू की याद आती है औरो किडनी खराब होने की बात सुनकर दारूबाज की। दिलचस्प बात इहो कि दारू या दारूबाज याद आते ही हमको गांधीजी याद आ जाते हैं औरो जब गांधीजी याद आते हैं, तो याद आ जाती है अपने देश की सरकार। हमरे खयाल से किडनी चोरी कांडों के लिए सबसे बेसी जिम्मेदार सरकार ही है। काहे कि अपना रेभेन्यू बढ़ाने के लिए सरकार जमकर दारू बेचती है औरो उसके बेचे गए दारू को पी-पीकर ही लोग अपना किडनी खराब कर लेते हैं। जैसे जैसे सरकार की तिजोरी भरती जाती है, किडनी खराब लोगों की संख्या भी देश में बढ़ती जाती है। अब सरकार या तो दारू बेच ले या फिर किडनी चोरों से समाज को बचा ले! अभिये गांधी जयंती पर दिल्ली सरकार ने एक ठो विज्ञापन निकाला कि गांधी जी दारू के खिलाफ